चर्चा प्लस (सागर दिनकर)
कबीर जयंती विशेष : कबीर के ‘राम’ हैं उनकी सहज समाधि के आधार
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
कबीर की प्रासंगिकता कोई नकार नहीं सकता है। कबीर की वाणी कालजयी वाणी है। उन्होंने जिस मानव स्वाभिमान और निडरता का साथ देते हुए, धार्मिक आडंबर ओढ़ने वालों को ललकारा, वैसा साहस आज भी दिखाई नहीं देता है। कबीर ने सहजसमाधि के रूप में जीने का आसान तरीका बताया जो आज भी प्रासंगिक है। कबीर की सहज समाधि का अर्थ है मन को स्थिर करना और उसे बाहरी दुनिया के विचारों से मुक्त करके एक गहरी, आनंदमय अवस्था में ले जाना। यह समाधि सहज और स्वाभाविक है, किसी विशेष प्रयास या साधना की आवश्यकता नहीं होती। इसमें किसी भी दिखावे या आडंबर की कोई गुंजाइश नहीं है। इसीलिए यह सहज समाधि है।
कबीर की सहज समाधि जीवन जीने का सही ढंग सिखाती है जिसमें दिखावे या आडंबर के लिए कतई गुंजाइश नहीं है। यह स्वयं के भीतर झांकने और स्वयं को पहचानने की एक जीवन पद्धति है। इसमें निर्गुण राम के स्मरण का भाव है। इसमें दैनिक जीवन के समस्त कर्म करते हुए समाधिस्थ अवस्था का अनुभव करने की अवस्था है जैसे रस्सी पर खेल दिखाने वाली नटनी जितनी तन्मयता से खेल दिखाती है उतनी ही सजगता से अपना संतुलन बनाए रखती है-
नटनी चढ़ै बांस पर, नटवा ढ़ोल बजावै जी।
इधर-उधर से निगह बचाकर, सुरति बांस पे लावे जी। ।।
कबीर का जन्म लहरतारा के पास जुलाहा परिवार में सन 1398 में जेष्ठ पूर्णिमा को माना जाता है। वे संत रामानंद के शिष्य बने और ज्ञान का अलख जगाया। कबीर ने साधुक्कड़ी भाषा में किसी भी संप्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किए बिना खरी बात कही। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्तिपूजा आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर ने हिंदू मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर के विचार और उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावनअक्षरी और उलटबांसी में मिलते हैं।
कबीर ने समाज के साथ-साथ आत्म-उत्थान पर भी बल दिया। आत्म-उत्थान के लिए उन्होंने समाधि के उस चरण को उत्तम ठहराया जिसमें मनुष्य अपने अंतर्मन में झांक सके और अपने अंतर्मन को भलीभांति समझा सके। कबीर ने सहजयान की बहुत प्रशंसा की और इसे सबसे उत्तम कहा। कबीर के अनुसार सहज समाधि की अवस्था दुख-सुख से परे परम सुखदायक अवस्था है। जो इस समाधि में रम जाता है वह अपने नेत्रों से अलख को देख लेता है। जो गुरु इस सहज समाधि की शिक्षा देता है वह सर्वोत्तम गुरु होता है-
संतो, सहज समाधि भली
सुख-दुख के इक परे परम,
सुख तेहि में रहा समाई ।।
कबीर के राम को अवतारी राम की छाया से भी दूर रखना चाहते हैं। उनके राम कोमल भाव के नहीं हैं, फिर भी उनकी चेतना ज्यादा मानवीय है। कबीर अपने राम के साथय सम्बन्ध स्थापित करते हैं-‘हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया’। अपने भगवान के साथ मानवीय सम्बन्ध मानवी की कल्पना करना बहुत बड़ी बात है।
कबीर ने सहज समाधि की विशेषताओं को विस्तार से समझाते हुए कहा है कि इस समाधि को प्राप्त करने के लिए न तो शरीर को तप की आग में तपाने की आवश्यकता होती है और कामवासना में लिप्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होने की। यह समाधि अवस्था उस मधुर अनुभव की भांति है जो इसे प्राप्त करता है, तो वहीं इसकी मधुरता को जान पाता है -
मीठा सो जो सहेजैं पावा।
अति कलेस थैं करूं कहावा।।
कबीर इस तथ्य को स्पष्ट किया कि वस्तुतः सहजसमाधि का नाम तो सभी लेते हैं किंतु उसके बारे में जानते कम ही लोग हैं अथवा सहज समाधि को लेकर भ्रमित रहते हैं। यह तो सामाजिक व्यवस्था है जिसमें हरि की सहज प्राप्ति हो जाती है। कबीर सहज समाधि को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह कोई आडंबर युक्त क्रिया नहीं है अपितु सहज भाव से जीवनयापन करते हुए राम अथवा हरि में लीन हो जाना ही सहज समाधि है।
सहज-सहज सब ही कहैं,
सहज न चीन्हैं कोई ।
जिन सहजै हरिजी मिलैं
सहज कहीजैं सोई ।।
सहज समाधि के लिए न तो ग्रंथों की आवश्यकता है और न किसी पूजा पाठ की। इसके लिए बस इतना करना पर्याप्त है कि विषय-वासना का त्याग, संतान, धन, पत्नी और आसक्ति से मन को हटा कर 'राम' के प्रति समर्पित कर दिया जाए। जो भी ऐसा कर लेता है वह सहजसमाधि में प्रविष्ट हो जाता है। कबीर कहते हैं कि यह तो बहुत सरल है-
आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं
तनिक कष्ट नहीं धारों ।
.खुले नैनी पहिचानौं हंसि हंसि
सुंदर रूप निहारौं ।।
इस सहज समाधि की अवस्था को पाकर साधक सहज सुख पा लेता है तथा सांसारिक दुखों के सामने अविचल खड़ा रह सकता है। वह न तो स्वयं किसी से डरता है और न किसी को डराता है। यह तो ब्रह्मज्ञान है जो मनुष्य के भीतर विवेक को स्थापित करता है, धैर्य धारण करना सिखाता है और युगों युगों के विश्राम का सुख देता है -
अब मैं पाईबो रे, पाइबौ ब्रह्मगियान।
सहज समाधें सुख मैं रहिबौ
कोटि कलप विश्राम ।।
कबीर कहते हैं कि जब मन ‘‘राम’’ में लीन हो जाता है, आसक्ति दूर हो जाती है, चित्त एकाग्र हो जाता है - उस समय मन स्वयं ही भोग की ओर से हटकर योग में प्रवृत्त होने लगता है। यह साधक की साधना की चरम स्थिति ही तो है जिसमें उसे दोनों लोकों का सुख प्राप्त होने लगता है -
एक जुगति एक मिलै, किंवा जोग का भोग।
इन दून्यूं फल पाइए, राम नाम सिद्ध जोग ।।
सहज समाधि के बारे में कबीर के विचार सिद्धों के सहजयान संबंधी विचार के बहुत समीप हैं। सिद्धों के समय सहज भावना उत्तम और सरल मानी जाती थी। सिद्ध भी यही मानते थे कि घर बार को त्याग कर साधु होना व्यर्थ है यदि त्याग करना है तो सभी प्रकार के आडंबरों का त्याग करना चाहिए। सिद्ध संत गोरखनाथ ने भी सहज जीवन के बारे में यही कहा है कि ‘‘हंसना, खेलना और मस्त रहना चाहिए किंतु काम और क्रोध का साथ नहीं करना चाहिए। ऐसा ही हंसना, खेलना और गीत गाना चाहिए किंतु अपने चित्त की दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिए। साथ ही सदा ध्यान लगाना और ब्रह्म ज्ञान की चर्चा करनी चाहिए।’’
हंसीबा खेलिबा रहिबा रंग,
काम क्रोध न करिबा संग।
हंसिबा खेलिबा गइबा गीत
दिढ करि राखि अपना चीत।।
हंसीबा खेलिबा धरिबा ध्यान
अहनिस कथिबा ब्रह्म गियान।
हंसै खेलै न करै मन भंग
ते निहचल सदा नाथ के संग।।
सिद्धों और नाथों की सहज ज्ञान परंपरा की जो प्रवृत्ति कबीर तक पहुंची उसे कबीर ने आत्मसात किया और उसे सहज समाधि के रूप में और अधिक सरलीकृत किया। जिससे लोग सुगमता पूर्वक उसे अपना सकें। इस संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन का यह कथन समीचीन है कि ‘‘यद्यपि कबीर के समय तक एक भी सहजयानी नहीं रह गया था फिर भी इन्हीं (पूर्ववर्ती) से कबीर तक सहज शब्द पहुंचा था। जिस प्रकार सिद्ध सहज ध्यान और प्रवज्या से रहित गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए सहज जीवन की प्रशंसा करते हैं वैसे ही कबीर साधु वेश से रहित घर में रहकर जीवन साधना में लीन थे।’’
संसार में रहकर सांसारिकता के अवगुणों में न डूबना ही सहजसमाधि का मूलमंत्र कहा जा सकता है। सिद्धों के इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कबीर ने कहा है -
साधु ! सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी
दिन-दिन अधिक चली
जंह-जंह डोलों सो परिकरमा
जो कछु करौं सो सेवा
जब सोवौं तब करो दंडवत
पूजौं और न देवा
कहौं तो नाम सुनौं सो सुमिरन
खावौं पियौं सो पूजा
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं
भाव मिटावौं दूजा
कबीर ने अपने जीवन में संयम, चिंतन, मनन एवं साधना को अपनाया। उन्होंने सदैव भक्ति का सहज मार्ग ही सुझाया। यह वही सहज मार्ग था जो सिद्धों-नाथों के बाद आडम्बरों की भीड़ में लगभग खो गया था किंतु कबीर ने उसे पुनर्स्थापित किया तथा शांति एवं धैर्यवान जीवन की धारणा को जनसामान्य के सामने रखा। आज जब सारी दुनिया उपभोक्ता बनी बाजार के पीछे व्याकुल हो कर आंख मूंद कर दौड़ रही है, कबीर की सहज समाधि जीवन शैली शांति और निर्लिप्ति के साथ जीने का रास्ता दिखाती है जो उनके निगुर्ण राम से उपजी है जो बहुआयामी हैं किन्तु समस्त दोषों से परे हैं।
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