Friday, October 31, 2025

शून्यकाल | प्रेरणा देता रहेगा सरदार वल्लभ भाई पटेल का व्यक्तित्व | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल 
जन्मदिन विशेष 
प्रेरणा देता रहेगा सरदार वल्लभ भाई पटेल का व्यक्तित्व
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

      स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है। ‘लौह पुरुष’ के नाम से विख्यात सरदार वल्लभ भाई पटेल एक सच्चे देशभक्त थे। आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में उन्होंने भारतीय गणराज्य में रियासतों के एकीकरण का दुरूह कार्य जिस कुशलता से कर दिखाया, वह सदैव स्मरणीय रहेगा। स्वभाव से वे निर्भीक थे। अद्भुत अनुशासनप्रियता, अपूर्व संगठन-शक्ति, शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता उनके चरित्र के अनुकरणीय गुण थे। कर्म उनके जीवन का साधन था तथा देश सेवा उनकी साधना थी। उनका राजनैतिक योगदान देश के व्यापक हित से जुड़ा हुआ होने के कारण ही उन्हें ‘भारतीय बिस्मार्क’ भी कहा जाता है।


   वास्तव में वल्लभ भाई पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उन्होंने रियासतों के एकीकरण जैसे असम्भव दिखने वाले कार्य को उस समय अन्जाम दिया जब विंस्टन चर्चिल इस उपमहाद्वीप को हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और छोेटे-छोटे रजवाड़ों के समूह के रूप में बांटना चाहते थे। अगर सरदार पटेल निरन्तर प्रयास न करते तो आज भारत की जगह बहुत सारे देश होेते जो एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी बने रहते।
       सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। करमसाड गांव के आस-पास दो उपजातियों का निवास था- लेवा और कहवा। इन दोनों उपजातियों की उत्पत्ति भगवान रामचन्द्र के पुत्रों लव और कुश से मानी जाती है। वल्लभ भाई पटेल का परिवार लव से उत्पन्न लेवा उपजाति का था जो पटेल उपनाम का प्रयोग करते थे। वल्लभ भाई के पिता मूलतः कृषक होते हुए भी एक कुशल योद्धा एवं शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। उत्तर भारत तथा महाराष्ट्र से नाडियाड आने वाले व्यापारियों के माध्यम से इस सम्बन्ध में छिटपुट समाचार झावेर भाई को मिलते रहते थे। वे भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय कृषकों के साथ किए जाने वाले भेद-भाव से अप्रसन्न थे। एक दिन उन्हें पता चला कि उनके कुछ मित्रा नाना साहब की सेना में भर्ती होने जा रहे हैं। झावेर भाई ने भी तय किया कि वे भी सेना में भर्ती होकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ेंगे। वे जानते थे कि उनके परिवारजन इसके लिए उन्हें अनुमति नहीं देंगे। अतः एक दिन वे बिना किसी को बताए घर से निकल पड़े। नाना साहब की सेना में भर्ती होने के उपरांत उन्होंने सैन्य कौशल प्राप्त किया। उस समय तक झांसी की रानी ने ‘अपनी झांसी नहीं दूंगी’ का उद्घोष कर दिया था। सन् 1857 में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता करने के लिए नाना साहब अपनी सेना लेकर झांसी की ओर चल दिए। उनकी सेना में झावेर भाई भी थे।
        बचपन से ही संषर्घमय जीवन व्यतीत करने के कारण सरदार वल्लभ भाई पटेल के स्वभाव में कठोरता तो आई ही थी, साथ ही साथ कठिन से कठिन समस्याओं को सहज ढंग से सुलझाने की क्षमता का भी विकास उनमें हुआ था। उनके स्वभाव में गम्भीरता थी और इच्छाशक्ति में लोहे जैसी मजबूती। वल्लभ भाई बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे किन्तु उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इंग्लैंड जा सकें। उन्होंने वकालत करके धन जोड़ा और जब इंग्लैंड जाने का समय आया तो उनके बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल ने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें पहले इंग्लैंड जाने दें। अनुपम त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वल्लभ भाई ने अपने बड़े भाई को अपने बदले इंग्लैंड जाने दिया और स्वयं उनके लौटने के कुछ समय बाद इंग्लैंड गये।
         इंग्लैंड जा कर उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई अच्छे अंकों से पूरी की। भारत वापस आ कर एक बार फिर वकालत आरम्भ की और वकालत के क्षेत्र में ख्याति एवं प्रतिष्ठा अर्जित की। आरम्भ में वल्लभ भाई महात्मा गांधी के विचारों से सहमत नहीं थे किन्तु जब वे गांधी जी के निकट सम्पर्क में आए तो इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने न केवल अहिंसा एवं सत्याग्रह को अपनाया अपितु पाश्चात्य वस्त्रों को सदा के लिए त्याग कर धोती-कुर्ता की विशुद्ध भारतीय वेश-भूषा अपना ली।
         स्वतंत्रता आन्दोलन में वल्लभ भाई का सबसे पहला और बड़ा योगदान खेड़ा आन्दोलन में था। गुजरात का खेड़ा जिला उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से लगान में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो वल्लभ भाई ने महात्मा गांधी के साथ पहुंच कर किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कर न देने के लिए प्रेरित किया। अंततः सरकार को उनकी मांग माननी पड़ी और लगान में छूट दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी। इसके बाद उन्होंने बोरसद और बारडोली में सत्याग्रह का आह्वान किया। बारडोली कस्बे में सत्याग्रह करने के लिए ही उन्हंे पहले ‘बारडोली का सरदार’ और बाद में केवल ‘सरदार’ कहा जाने लगा। यह एक कुशलतापूर्वक संगठित आन्दोलन था जिसमें समाचारपत्रों, इश्तिहारों एवं पर्चों से जनसमर्थन प्राप्त किया गया था तथा सरकार  का विरोध किया गया था। इस संगठित आन्दोलन की संरचना एवं संचालन वल्लभ भाई ने किया था। उनके इस आन्दोलन के समक्ष सरकार को झुकना पड़ा था।
        महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन के दौरान सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार करने आह्वान करते हुए स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए वल्लभ भाई ने सदा के लिए वकालत का त्याग कर दिया। इस प्रकार का कर्मठताभरा त्याग वल्लभ भाई ही कर सकते थे।
        वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू के बीच संबंध


सरदार पटेल और नेहरू की प्रकृति में असमानता थी, एक ओर पटेल एक साधारण किसान परिवार से ग्रामीण परिवेश में पले बड़े हुए, वहीं नेहरू को पारिवारिक विरासत का धनी कहा जा सकता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति का अनुसरण करके ही कार्य कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है पटेल और नेहरू दोनों के लिए मार्गदर्शी महात्मा गाँधी ही थे और जो कुछ सामंजस्य या वैचारिकता का आदान-प्रदान रहता उसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी, क्योंकि महात्मा गाँधी समय की नजाकत को पहले ही भांप लेते थे। सरदार पटेल भी ऐसा कोई कार्य नहीं करते थे जिससे गाँधीजी को ठेस पहुँचे परन्तु जब मामला राष्ट्रहित का होता या भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए मत भिन्न होता तो वे गाँधीजी को इससे सचेत करते थे और आव यकता होने पर विरोध भी जताते थे। पटेल और नेहरू दोनों को ही आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है और दोनों में अनेक समानताओं के होते हुए भी वैचारिक भिन्नता थी। दोनों में ही राष्ट्र भक्ति, नेतृत्व क्षमता, आदर्शों के प्रति आस्था थी। डॉ. बी.के. केसकर ने कहा था- नेहरू और पटेल दो विरोधी तत्वों का एक ऐसा मिश्रण थे, जो एक-दूसरे के पूरक थे। नेहरू की विचारधारा साम्यवाद से प्रभावित थी जबकि पटेल ने किसी भी विचारधारा को अपने पर हावी नहीं होने दिया। इन विपरीत स्वभावों से जुड़ी दोनों धुरियों को महात्मा गाँधी ने एक साथ बांधे रखने का कार्य किया था। हालाकि सरदार पटेल और नेहरू दोनों का सपना एक मजबूत भारत का निर्माण करना था परन्तु पटेल वास्तविक  एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण से समस्या पर विचार करते थे और प्रत्येक समस्या के भविष्य के परिणामों का अंदाजा लगा लेते थे। उदाहरण के तौर पर जूनागढ़ और हैदराबाद के मामले में पटेल ने नेहरू की इच्छा के विरूद्ध जाकर कार्यवाही की और भारत में मिला लिया। क मीर के मामले में नेहरू ने अपनी अन्तर्राष्ट्रीय नीति के कारण बिना पटेल से विचार विमर्श किए समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए जिसके पटेल सख्त विरोधी रहे और समस्या आज तक बनी हुई है। इसी प्रकार चीन की मित्रता पर भी पटेल ने कभी विश्वास नहीं किया बल्कि संभावित खतरों की ओर पहले ही ईशारा कर दिया था। नेहरू ने 1 अगस्त 1947 को सरदार पटेल को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूँ। इस पत्र का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तम्भ हैं। इसी के उत्तर में पटेल ने नेहरू को लिखा कि एक अगस्त के पत्र के लिए धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग व प्रेम रहा है तथा 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आ है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको इस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी संपूर्ण वफादारी और निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी ने नहीं किया है। आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए में आपका कृतज्ञ हूँ।”
      सरदार पटेल वचन के पक्के तथा सहयोग से काम करने वाले व्यक्ति थे जबकि जवाहरलाल नेहरू महत्वाकांक्षी अधिक थे लेकिन महत्वाकांक्षी होते हुए भी पटेल की योग्यता पर पूर्ण वि वासी थे। गाँधीजी की मृत्यु उपरांत 3 फरवरी 1948 को पं. नेहरू ने पटेल को लिखा-"बापू की अन्तिम अभिलाषा यह थी हम दोनों ने अब तक जिस तरह कन्धे से कन्धा मिलाकर काम किया है, उसी तरह आगे भी करते रहें। हमारे मतभेदों में से भी हमारे बीच महत्व के विषयों में जो मतैक्य है, वह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है और उसी में से एक दूसरे के प्रति हमारा आदर भाव भी प्रकट हुआ है।"
          वास्तव में वल्लभ भाई पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उन्होंने रियासतों के एकीकरण जैसे असम्भव दिखने वाले कार्य को उस समय अन्जाम दिया जब विंस्टन चर्चिल इस उपमहाद्वीप को हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और छोेटे-छोटे रजवाड़ों के समूह के रूप में बांटना चाहते थे। अगर सरदार पटेल निरन्तर प्रयास न करते तो आज भारत की जगह बहुत सारे देश होेते जो एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी बने रहते। वस्तुतः वल्लभ भाई पटेल के जीवन के बारे में पढ़ना भारतीय संस्कृति एवं भारतीय मूल्यों को पढ़ने के समान है।  
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Thursday, October 30, 2025

बतकाव बिन्ना की | भौत दिनां से इते फेर-बदल नईं भौ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की 
भौत दिनां से इते फेर-बदल नईं भौ
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

         ‘‘भैयाजी का हो रओ?’’ मैंने भैयाजी के घरे घुसतई साथ उनसे पूंछी। बे भीतर के अंगना में खटिया डार के पांव पसारे परे हते। मोरी आवाज सुनी तो तुरतईं उठ बैठे।
‘‘अरे नईं, आप तो परे रओ। भौजी कां हैं?’’
‘‘हम इते आएं।’’ कैत भईं भौजी कमरा से बायरे निकर आईं। उनके हाथ में सरसों  के तेल की शिशिया हती।
‘‘जे काए के लाने? का अचार-मचार डार रईं?’’ मैंने शिशियां की तरफी उंगरिया करत भई पूंछी।
‘‘इत्ते से करै तेल में काए को अचार डरहे? जा तो गोड़न में मलबे के लाने निकारो आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘का हो गओ गोड़न में?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे, खीबई दुख रए। दिवारी, दिवारी, लेओ कढ़ कई दिवारी! मनो जा दिवारी ने प्रान ले लए। आज लौं हाथ-गोड़े दुख रए।’’ भौजी उतईं बैठत भई बोलीं।
‘‘आप का सोच रए भैयाजी?’’ मैंने देखी के भैयाजी कछू सोस-फिकर में परे।
‘‘हम जा सोच रए बिन्ना के कुल्ल टेम नईं हो गओ अपने इते कछू फेर-बदल भए?’’ भैयाजी ऊंसई सोचत भए बोले। 
‘‘कां फेर-बदल? अबई तो दिवारी पे भौजी ने पूरो रूम सेट और पर्दा हरें बदलो रओ। आपने तो सोई उनको हाथ बंटाओ रओ पर्दा लगाबे में। आप इत्ती जल्दी भूल गए?’’ मैंपे भैयाजी से पूंछी।
‘‘अरे हम घरे के फेर-बदल की बात नोंई कर रए।’’ भैया जी बोले।
‘‘तो कां के फेर-बदल की कै रए?’’ मैंने पूछीं।
‘‘अब का बताए?’’ भैयाजी सोचत भए बोले।
‘‘कछू तो बताओ!’’ मैंने कई।
‘‘तनक सोचियो बिन्ना, के जोन ने चार-पांच दफा पार्टी खों सीट दिलाई, जीत के दिखाओ, ऊको आज लौं कोनऊं मंत्री की कुर्सी ने दई गई। तनक सोचो के ऊके दिल पे का बीतत हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो आप सई कै रए, मनो जे खयाल आपके लाने कां से आओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘का भओ के हम दिवारी मिलबे के लाने गए हते एक विधायक जू के इते। उते लोगन ने उने बधाई देत भई कई के आप जल्दी से मंत्री बन जाओ। हमने कई के मंत्री काए? हम तो चात आएं के जे मुख्यमंत्री बनें। जा सुन के वे विधायक जू दुखी होत भए बोले के जे इत्ती बड़ी दुआ दे देत हो, जेई से तो हम मंत्री लौं नईं बन पा रए। हमने कई हम छोटी काए सोचें? हम तो जो चात आएंे बई दुआ करहें। फेर बात नाएं-माएं की होन लगी। हम सोई उते से चले आए। मानो हमाए जी में जा फांस टुच्च रई के उने अबे लौं कोनऊं मंत्री पद काए नईं दओ गओ? फेर हमें खयाल आओ के अपने इते तो कुल्ल टेम से मंत्रीमंडल में फेर-बदल नईं भओ।
‘‘देखो भैयाजी! पैली बात तो जे के सबई पार्टी में हाई कमान की चलत आए। जब ऊपरे से कओ जाहे तभई कछू फेर-बदल हुइए। औ दूसरी बात के का पता कओ हाई कमान ने उनके लाने कछू अच्छो सो सोच रखो होए।’’ मैंने कई।
‘‘का पतो?’’ भैयाजी अनमने से बोले।
‘‘पतो तो कोनऊं खों नई परत आए भैयाजी! आप काए भूल रए के जोन ने इते पार्टी खों जिताओ, ओई खों एक दिनां के लाने बी मुख्यमंत्री की कुर्सी ने दई गई। फेर जोन ऊ टेम पे मंत्री हते उने आज कनारे लगा दओ गओ आए। उन ओरन की सोई सोचो के उनके दिल पे का बीतत हुइए?’’ मैंने कई।
‘‘हऔ! जा तो सांची कै रईं तुम।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर भैयाजी, जा सोई सोचो के उन ओरन के जी पे का गुजरती हुइए जोन पार्टी के लाने मरत-कुटत रैत आएं औ जबे चुनाव टेम आत आए तो पैराशूट वारे टपक परत आएं। ने तो दल बदल वारे हाथ मार लेत आएं। औ वफादारन से कई जात आए के बे नओ मेहमान खों पलकां पे बिठाएं। ऐन टेम पे पार्टी बदरवे वारन की तो चांदी रैत आए। पैले बी घी चाटत रैत्ते औ बाद में बी घी की पिकिया मिल जात आए।’’ मैंने कई।
‘‘ईको कछू हल भओ चाइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘को करहे हल? मैंने पूछी।
‘‘जा पार्टी वारन खों सोचो चाइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बे काए के लाने सोचें? आपने कभऊं सुनो के बच्चा के रोए बिगैर ऊकी अम्मा ने ऊको दूद पिलाओ होए? अम्मा सोए तभई बच्चा खों दूद पिलात आएं जबके बा मों फार-फार के रोऊत आए।’’ भौजी बोल परीं। मनो उन्ने बात पते की कई। 
‘‘सई कै रई भौजी! जिने कछू नईं मिल रओ, उने मों खोल के कछू तो मांगबो चाइए। औ खुद ने मांगे तो अपने आदमियन से कछू हल्ला कराएं।’’ मैंने कई।
‘‘ऐसे करे से बे बागी ने कहला जैहें? पता परी के जो कछू मिलो आए बा बी गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जा बी बात सई आए।’’ मैंने कई।
‘‘जेई लाने तो हम कै रए हते के ई के लाने खुद पार्टी खों सोचने चाइए औ कछू-कछू टेम पे फेर-बदल करो चाइए, जोन से सबई खों मौका मिल सके।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे राजनीति आए भैयाजी, कोनऊ अनवरसिटी को विभाग नोंई जां रोटेशन में विभागाध्यक्ष बनत रैत आएं। इते जो एक बार कुर्सी से जो उतरो ऊको फेर के बैठबे में खुदई डाउट रैत आए।’’ मैंने कई। 
‘‘चलो भौत हो गई उन ओरन की चिन्ता अब तनक उने अपन ओरन की फिकर कर लेन देओ।’’ कैत भईं भौजी हंसन लगीं। 
‘‘अपन ओरन की चिन्ता को कर सकत, काए से अपन ओरें अपनईं चिंता करबी नईं जानत। तभई तो दिवारी पे ऐसो पटाखा चलात आएं के सांस लेबो मुस्किल हो जात आए। जो जब अपन अपनी भली नईं सोच सकत तो दूसरे से काए की उमीद करो चाइए?’’ मैंने कई।
‘‘अब तुम आरे बी नेता हरों घांईं बात ने बदलो!’’ भैयाजी ने मों बना के कई औ फेर बे हंस परे। 
भौजी औ मैं, हम दोई सोई हंस परे।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के ई प्राब्लम को कछू हल निकर सकत आए के नईं?
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चर्चा प्लस | बड़े आत्मीय थे लकड़ी, कोयले और बुरादे के मैनेजमेंट वाले दिन | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 30.10.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस 

बड़े आत्मीय थे लकड़ी, कोयले और बुरादे के मैनेजमेंट वाले दिन

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     हमने आधुनिकता के इस दौर में यदि कोई चीज खोई है तो वह है संवेदनशीलता। पहले सुविधाओं की कमी थी किन्तु संवेदनाएं असीमित थीं। परिवारिक संबंधों में भी उष्मा में गिरावट आई है। हर संबंध में नफ़ा-नुकसान देखने की आदत हमने बाजार से सीख ली है और अपने जीवन को शुष्कता से भरते जा रहे हैं। ऐसे में कुछ यादें बार-बार दस्तक देती हैं और किसी परीकथा की भांति मन को छू जाती हैं। आप भी मेरी यादों के साथ अपनी यादों के दरवाज़े खोल दीजिए फिर देखिए के सुविधाओं की कमी को झेलता हुआ भी अतीत कितना बेहतरीन लगेगा। 

अभी-अभी दीपावली का त्योहार गुज़रा है। यदि बचपन के समय की दीपावली के बारे में सोचो तो आज की दीपावली हर साल एक नए परिवर्तन के साथ हमारे सामने आती हुई मिलती है। उस दिनों दीपावली की रात से ही निःस्वार्थ भाव से दीपावली का प्रसाद एवं मिठाई का आदान-प्रदान शुरू हो जाता था लेकिन अब स्वार्थ के हिसाब से इस परम्परा का निर्वाह किया जाता है। यही परिवर्तन जीवन के हर पक्ष में दिखाई पड़ता है। आज गैस का चूल्हा है, हाॅट प्लेट है, इंडक्शन है, माक्रोवेव ओवेन है, एयर फ्रायर है लेकिन इन सब के प्रति आत्मीयता नहीं है। ये हमारे लिए महज एक उपकरण मात्र हैं। पहले लकड़ी, कोयला और बुरादा था लेकिन उन सबके प्रति गजब की आत्मीयता थी, एक विशेष मैनेजमेंट था जिसका आज अभाव है। आज सोचने बैठो तो वे सब न जाने किस युग की बातें लगती हैं। बिलकुल किसी परिकथा-सी काल्पनिक। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो अतीत में थीं किन्तु आज असंभव-सी प्रतीत होती हैं। किसी किंवदंती या भूले हुए मुहावरे की तरह अतीत की जीवनचर्या, आज से एकदम भिन्न थी। बात पुरानी है लेकिन बहुत पुरानी भी नहीं।
जब मैं छोटी थी तो घर में मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जला कर खाना पकाया जाता था। मेरे घर में दो चूल्हे थे। एक स्थाई चूल्हा जो चैके में स्थापित था। यह दो मुंह का था। यानी एक मुंह सामने था जिसमें लकड़ियां डाली जाती थीं और दूसरा मुंह उसके ठीक पीछे ऊपर की ओर खुला हुआ था। इस पीछे वाले मुंह पर आमतौर पर दाल पकने को रख दी जाती थी। दाल पकने में बहुत समय लगता था। लकड़ी के चूल्हे पर पतीले में रख कर दाल-चावल पकाना भी एक विशेष पाककला थी। दाल और चावल दोनों को पकाने के लिए पहले पतीले में पानी खौलाया जाता था। जिसे ‘अधहन’ कहते थे। जब पानी खदबदाने लगता तब दाल के बरतन में दाल और चावल के पतीले में चावल डाल दिए जाते थे। दाल पकाने के लिए आमतौर पर लोटे के आकार का बरतन काम में लाया जाता था जिसे ‘बटोही’ अथवा ‘बटलोही’ कहते थे। इसे चूल्हे के पीछे वाले मुंह पर चढ़ाते थे। खौलते पानी में दाल डालने के बाद उसमें हल्दी डाल दी जाती लेकिन नमक देर से डाला जाता ताकि दाल पकने में अधिक समय न ले। बटलोही के मुंह पर एक कटोरे में पानी भर कर रख दिया जाता था जो धीरे-धीरे गरम होता रहता था। यह गरम पानी पकती हुई दाल में उस समय मिलाया जाता जब दाल में पानी कम होने लगता और दाल पूरी तरह गली नहीं होती। पकती हुई दाल में ठंडा पानी मिलाने से दाल गलने में अधिेक समय लेती। पकाते समय दाल का अच्छी तरह गलना बहुत महत्व रखता था। निश्चितरूप से इसी से ‘‘दाल गलना’’ मुहावरा बना होगा। 

चूल्हे के पीछे वाले मुंह में आग की लपटों एवं तापमान को नियंत्रित करने के लिए लकड़ियों को आगे या पीछे सरका दिया जाता था। जब लकड़ियों से पर्याप्त अंगार बन जाते तो उन्हें चूल्हे के आगे वाले मुंह में फैला कर उन पर रोटियां सेंकी जातीं। यदि अंगार अधिक मात्रा में होते तो रोटियों पर राख कम लगती थी। मैंने मिट्टी के चूल्हे पर बहुत कम बार खाना बनाया। क्योंकि जब पूरी तरह से रसोई का पूरा काम हम दोनों बहनों के जिम्मे आया तब तक घर में कुकिंग गैस और गैस चूल्हा आ चुका था। फिर भी चूंकि मुझे बचपन से खाना पकाने का शौक़ था इसलिए मैं खाना पकाने वाली महराजिन बऊ के क्रियाकलाप ध्यान से देखा करती थी और सोचती थी कि एक दिन मैं भी इसी तरह खाना पकाया करूंगी। 

घर में दूसरा चूल्हा ‘‘मोबाईल चूल्हा’’ था। वह आमतौर पर बाहर के आंगन में काम में लाया जाता था। गर्मी के दिनों में शाम को उस पर बाहर खाना बनता, जाड़े के दिनों में सुबह और रविवार की दोपहर उस पर नहाने का पानी गरम किया जाता। उन दिनों हीटर या गीज़र नहीं थे। बड़े से पतीले पर हर सदस्य के लिए बारी-बारी से पानी गरम किया जाता। उस गरम पानी को लोहे की बाल्टी में डाल कर उसमें ठंडा पानी मिलाते हुए पानी का तापमान नहाने लायक बनाया जाता। बारिश के दिनों में वह चूल्हा उठा कर घर के अंदर रख दिया जाता। बऊ खाना बनाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हे को रोज नियमित रूप से गोबर से लीपती थी। लगभग पंद्रह दिन के अंतराल में मिट्टी से चूल्हे की मरम्मत भी किया करती थी। चूल्हे का पूरा मैनेजमेंट बऊ के हाथों था लेकिन चूल्हे के लिए लकड़ियों की व्यवस्था मां और मामाजी को करनी पड़ती थी। जब तक कमल मामाजी हम लोगों के साथ रहे तब तक मां को अधिक परेशान नहीं होना पड़ा लेकिन मामाजी के नौकरी पर शहडोल चले जाने के बाद पूरा जिम्मा मां पर आ गया। 
मां की यह आदत थी कि वे अपने काम पर स्कूल जाने के अलावा कहीं भी अकेली जाना पसंद नहीं करती थीं। इसलिए जब वे सुबह छः बजे बैलगाड़ी वालों से बात करने घर से निकलतीं तो मुझे अपने साथ ले जातीं। मैं तो शायद पैदायशी घुमक्कड़ थी। मैं खुशी-खुशी उनके साथ चल पड़ती। उन दिनों लकड़ियां बेचने वाले बैलगाड़ी में लकड़ियां भर कर बेचने शहर लाते थे। पन्ना शहर के आस-पास तब न तो जंगल की कमी थी और न लकड़ियों की। बारिश के पहले अचार, बड़ी, पापड़ बना कर रखने की भांति एक बैलगाड़ी भर लकड़ियां भी खरीद कर रख ली जाती थीं। जो लकड़ियां अधिक मोटी होतीं उन्हें उस बैलगाड़ी वाले विक्रेता से ही फड़वा ली जाती थीं। लकड़ियां फाड़ने के दौरान उनके पतले टुकड़े भी निकलते जिन्हें ‘‘चैलियां’’ कहते थे। उन्हें अलग रखा जाता था। चूल्हा जलाने में इन चैलियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती। यही चैलियां पहले आग पकड़तीं। फिर धीरे-धीरे लकड़ियां सुलगनी शुरू होतीं। सूखी लकड़ियां सबसे अच्छी जलतीं और कम धुआं करतीं जबकि गीली लकड़ियां धुआं-धुआं हो कर रुला डालतीं। इसलिए लकड़ियां खरीदते समय इस बात का ध्यान रखा जाता कि लकड़ियां सूखी हों। यदि ज़रा भी संदेह होता कि लकड़ियां कच्ची और गीली हैं तो उन्हें स्टोर करने से पहले कुछ दिन धूप में छोड़ दिया जाता ताकि वे अच्छी तरह सूख जाएं। उन दिनों मैंने यह बात सीखी थी कि कच्ची लकड़ियों में एक अजीब सोंधी गंध आती है, कुछ-कुछ शुद्ध गोंद जैसी। जबकि सूखी लकड़ियों में सूखी-सी, दूसरे ढंग की गंध होती है। लकड़ियों की खास गंध को पहचानना मैंने अपने बचपन में ही सीख लिया था।

रसोईघर की छत लहररियादार एडबेस्टस सीमेंट शीट की थी ताकि खाना पकाते समय उससे धुआं आसानी से निकलता रहे। यद्यपि उस शीट की निचली सतह पर धुंए की एक पत्र्त जम जाया करती थी जिसे समय-समय पर साफ़ करते रहना पड़ता था। अन्यथा बारिश के दिनों में ठंडा-गरम तापमान मिल कर वह धुंए की पत्र्त बूंद बन कर टपकने लगती। यदि वह रंगीन बूंद किसी कपड़े पर गिर जाती तो उस कपड़े पर सदा के लिए भद्दा-सा अमिट दाग़ पड़ जाता। बहरहाल, रसोईघर में ही बांस की टटियां से पार्टीशन कर के लकड़ियां रखने की जगह बनाई गई थी, जहां बारिश के चार माह के लिए सूखी लकड़ियां करीने से जमा कर रख दी जातीं। लकड़ियों की छाल और चैलियां अलग बोरे में भर कर रखी जातीं। साथ ही गोबर के कंडे भी खरीद लिए जाते। ये कंडे चूल्हा जलाने में काम आते। जाड़े और गर्मी के मौसम में ‘‘मोरी वालियों’’ से भी लकड़ियां खरीदी जाती थीं। ये मोरी वालियां अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठा लाद कर बेचने आती थीं। वे लकड़ियां काट कर नहीं वरन बीन कर लाती थीं और अपने सिर पर रखती थीं अतः उनकी लकड़ियां हमेशा सूखी हुई होती थीं। उन मोरी वालियों से मोल-भाव कर के लकड़ियां खरीदी जाती थीं। यद्यपि वे अपनी मोरी में लकड़िया जमाने में पूरी कलाकारी दिखा देती थीं। वे इस प्रकार टेढ़ी-सीधी लकड़ियां जमातीं कि देखने में गट्ठा भरा-भरा लगे लेकिन उसमें लकड़ियां कम हों। वैसे यह बात भूलने की नहीं है कि वे 20-25 किलोमीटर से भी अधिक दूरी से मोरी सिर पर ढो कर लाती थीं। आज सोचने पर उनकी मेहनत समझ में आती है। उनकी कलाकारी के बावजूद मो उन्हें चाय और कुछ खाने का सामान जरूर दिया करती थीं, यह कहते हुए कि ‘‘बेचारी थक गई होगी।’’ 
काॅलेज के दिनों में जब मैं कहानियां लिखने लगी थी तब मैंने एक मोरीवाली की समस्या पर कहानी लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘‘काला चांद’’। कथानक की दृष्टि से वह अपने आप में एक बोल्ड कहानी थी कि किस तरह वनोपज टोल नाके पर मोरीवालियों को अभद्रता का सामना करना पड़ता था और किस तरह एक मोरी वाली उस अभद्रता को तमाचे के रूप में इस्तेमाल करती है। यानी सच को सामने रखने में मुझे कभी हिचक नहीं हुई। 

चूल्हे के लिए लकड़ियों के अलावा लकड़ी का कोयला और बुरादा भी काम में लाया जाता था। लकड़ी के कोयले की अंगीठी और बुरादे की अंगीठी दोनों मेरे घर में पाई जाती थी। कोयला और बुरादा टाल से खरीदा जाता था। हम लोगों के घर से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर ‘‘छोटा श्ेार-बड़ा शेर’’ की कोठी के पास एक साॅ मिल थी। यह कोठी राणा परिवार की थी जो वर्षों पूर्व पन्ना की महारानी के साथ नेपाल से वहां आए थे और फिर वहीं बस गए थे। बहुत ही सम्मानित परिवार था वह, आज भी सम्मानित है। हां, तो उस साॅ मिल में भी बुरादा बेचा जाता था। अतः कई बार मां वहां से भी बुरादा मंगा लिया करती थीं। जबकि कोयले की टाल घर से काफी दूर महेन्द्र भवन के पास थी जो वहां का शासकीय परिसर था और जहां कलेक्टर कार्यालय, कचहरी, हीरा कार्यालय, पीडब्ल्यूडी आॅफिस आदि सभी कुछ था। महेन्द्र भवन दरअसल आलीशान भवन है। कभी वह पैलेस के रूप में इस्तेमाल हुआ करता था। सन् 1980 में बड़ौदा महाराज राव फतेहसिंह गायकवाड़ की एक किताब प्रकाशित हुई थी- ‘‘दी पैलेसेस ऑफ इंडिया’’, इस किताब के लिए फोटोग्राफी की थी वर्जीनिया फाॅस ने। इस किताब में महेन्द्र भवन का तस्वीर सहित उल्लेख किया गया था।  

लकड़ी का कोयला और बुरादा बोरों में भर कर सूखी जगह पर रखा जाता था। यानी लकड़ी, कोयला और बुरादा तीनों के व्यवस्थित और सही समय पर मैनेजमेंट से खाना पकाने के लिए ईंधन की व्यवस्था सुनिश्चित की जाती थी। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन कुकिंगगैस, इंडक्शन, माइक्रोवेव और हाॅटप्लेट पर धुआंरहित तरीके से खाना पकाया जाएगा और एक मोबाईल काॅल पर इन्हें खरीद कर घर मंगाया जा सकेगा। सचमुच समय जीने के तरीके बदल देता है। लेकिन ऐसा क्यों लगता है कि उन दिनों ज़िन्दगी फिर भी आसान थी? आत्मीयता से भरी थी। अपनी-सी थी। यह मेरा भ्रम है या सच्चाई, पता नहीं।                     
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Tuesday, October 28, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा
बुंदेली ग़ज़लों की समृद्धि में एक कड़ी और
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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बुन्देली ग़ज़ल संग्रह  - रिपट परे की हर गंगा है 
कवि     - डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक -. जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य    - 300/-
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हिंदी साहित्य की काव्यात्मक सेवा करने वाले तथा ‘‘गीतऋषि’’ की उपाधि से सुशोभित डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया यूं तो मूलतः हिंदी में गीत, गजल, दोहे आदि लिखते हैं किंतु बुंदेलखंड की माटी में जन्मे होने के कारण अपनी माटी और बोली से लगाव भी स्वाभाविक है। डॉ सीरोठिया का बचपन गांव में व्यतीत हुआ तथा चिकित्सक बनने के उपरांत भी अधिकांश समय ग्रामीण अंचल में चिकित्सा कार्य करते हुए बिताया। अतः ग्रामीण अंचल का बदलता गया परिवेश उनकी दृष्टि से छिपा नहीं है। जहां हल चलाते थे वहां अब ट्रैक्टर चलाते हैं। जहां देसी व्यंजन खाए जाते थे वहां अब विदेशी व्यंजन मुख्य भोजन में दिखने हैं। पहनाव-पोशाक, खानपान, रहन-सहन आदि में आता जा रहा अंतर आधुनिकता की अंधी दौड़ में ग्रामीण अंचलों के शामिल हो जाने की ललक को दर्शाता है। ऐसे बदलते परिदृश्य में जब कोई व्यक्ति अतीत का स्मरण करता है तो वर्तमान उसे अतीत से बहुत भिन्न प्रतीत होता है। बहुत-सी चीज पीछे छूट चुकी होती हैं जिससे मन को पीड़ा होती है किंतु फिर लगता है कि परिवर्तन जीवन की नियति है और स्वाभाविकता भी। इस संदर्भ में डॉ सीरोठिया ने गहरी संवेदनशीलता से अपनी लेखनी चलाई है। इस संग्रह में सम्मिलित उनकी गजलों में वे गजलें भी हैं जो इस परिवर्तन को चिन्हित करती हैं।परिवर्तन हर ओर दिखाई देता है सिर्फ जीवनचर्या ही नहीं, अपितु राजनीतिक विचारों में, सामाजिक चलन में, पारस्परिक संबंधों में, पारिवारिक बुनावट में, आजीविका के संसार में तथा इस पूरे पर्यावरण में। इन परिवर्तनों ने बहुत कुछ छीना है तो बहुत कुछ नया भी दिया है। जो सकारात्मक है वह उत्तम है किंतु जो नकारात्मक है वह चिंतनीय है और मन को सालने वाला है। डॉ  सीरोठिया की बुंदेली गजलें समग्रता के साथ इन बिंदुओं पर चर्चा करती हैं। 
वर्तमान में बुंदेली में गद्य और पद्य दोनों तरह के साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहे हैं। जहां तक काव्य का प्रश्न है तो बुंदेली में भी काव्य की लगभग वे सारी विधाएं शामिल कर ली गई हैं जो हिंदी काव्य धारा में स्वीकार की गई हैं। जैसे बुंदेली में छंदबद्ध रचनाओं के अतिरिक्त छंद मुक्त रचनाएं तथा गजलें भी लिखी जा रही हैं। इनमें कवि महेश कटारे का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। डॉ बहादुर सिंह परमार बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के उत्थान के लिए अनेक वर्ष से निरंतर अपना योगदान दे रहे हैं। विगत वर्ष (2024) मेरा भी बुंदेली गजल संग्रह ‘‘सांची कै रए सुनो, रामधई’’ प्रकाशित हुआ था। वस्तुतः बुंदेली एक इतनी मीठी बोली है कि इसकी मिठास रचनाकार को स्वयं प्रेरित करती है कि बुंदेली में रचना कर्म किया जाए। कहा भी जाता है कि जब लोक की बातें लोक की भाषा में की जाए तो वह हृदय के अत्यंत समीप प्रतीत होती है। लोक भाषा के अपनत्व का सबसे सटीक उदाहरण है तुलसीदास कृत ‘‘रामचरितमानस’’ है जिसने श्रीरामकथा को जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया। किंतु लोक भाषा में सृजन की अपनी चुनौतियां भी हैं। इसकी सबसे बड़ी और पहली चुनौती है कि सृजनकर्ता को लोक और लोक भाषा का पर्याप्त ज्ञान हो। वातानुकूलित कक्षों में बैठे हुए सृजन करता लोक पर बहस तो कर सकते हैं किंतु यथार्थवादी सृजन कभी नहीं कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि सृजनकर्ता को लोक के व्यवहार, प्रकृति और परंपराएं आदि का समुचित ज्ञान हो। डॉ. सीरोठिया लोक जीवन से भली-भांति परिचित हैं या यूं कहना चाहिए कि लोक जीवन उनके सृजन-संस्कार से जुड़ा हुआ है। उनकी हिंदी रचनाओं में भी लोक जीवन के दर्शन हो जाते हैं। अतः जब उन्होंने लोकभाषा बुंदेली में गजलें लिखीं तो उसमें लोक के तमाम तत्व स्वतः समाहित होते चले गए।     
 इस संग्रह का नाम ‘‘रिपट परे की हर गंगा है’’ ही अपने आप में एक कहावत के माध्यम से सब कुछ कहा जाता है। वास्तविकता को छुपाने की प्रवृत्ति जो वर्तमान में दिनों दिन बढ़ती जा रही है उस पर कटाक्ष करता यह नाम एक साथ कई विसंगतियों को ललकारता है। वे परिवर्तन जिनमें गांव की मौलिकता खत्म हो गई है,उन्हें देखकर कवि का उद्विग्न हो उठाना स्वाभाविक है। डॉ. सीरोठिया ने संग्रह की पहली गजल में ही अतीत से जुड़ी स्मृतियों को जगाते हुए बहुत सी छोटी-छोटी बातों का स्मरण किया है जो जीवन का अभिन्न अंग हुआ करती थीं, किंतु अब मानो कहीं खो गई हैं-
चपिया- जाँते सिल-लोढ़ा के,
देखत-देखत समय निकर गय।
डुबरी- भूँजा मठा-महेरी 
भूक हमाई दूनी कर गय
ठाट- बड़ेरी- मलगा बारे 
कौन देश खों अब जे घर गय 
श्याममनोहर गाँव देख कें
भीतर- भीतर असुंआ ढर गय
सच भी है कि मिक्सी और ग्राइंडर के जमाने में सिल-लोढ़ा को भला कौन पूछ रहा है? ‘‘चपिया- जाँते’’, ‘‘डुबरी- भूँजा’’ भी अतीत के पन्नों में दर्ज होकर रह गए हैं। शहरों में पली-बढ़ नई पीढ़ी उनके नामों से भी परिचित नहीं है। मंच हो या राजनीति हो, समाज हो या साहित्य हो सभी के स्तर में गिरावट आई है। मंचों पर ज्ञानहीन लोगों का दबदबा जिस तरह से बढ़ता जा रहा है उस पर भी कवि ने करारा कटाक्ष किया है। डॉ. सीरोठिया कहते हैं-
ज्ञानी कम आ रय मंचों पे 
ज्यादा मिलें खखलबे वारे 
कबउँ जुगत सें पटक देत हैं
संगसात में चलबे वारे 
जब व्यवस्थाएं बिगड़ती है तो इसका सीधा असर आमजन पर पड़ता है। जैसे शासकीय कार्यालय में फाइलों के देर में दबी अर्जी आम इंसान को कार्यालय के चक्कर लगवाती रहती है। तमाम हताशा और निराशा की बावजूद आम इंसान के पास और कोई विकल्प भी नहीं रहता -
जनता मारी- मारी फिर रइ
संगसात  लाचारी फिर रइ 
ये आफिस सें ओ आफिस लौ 
फाइल  जा सरकारी फिर रइ
इस गजल का मक़्ता वर्तमान सामाजिक परिवेश को आईना दिखाने वाला तथा आत्मा को झकझोरने वाला है। जो माता-पिता अपना पूरा जीवन, अपना सर्वस्व संतान का जीवन संवारने में लगा देते हैं, उनकी संतान सक्षम होने पर अपने उन्हीं माता-पिता को ठुकरा देती है। इस स्थिति को डॉ. सीरोठिया ने अपनी गजल के मक़ते में कुछ इस तरह व्यक्त किया है -
‘‘श्याममनोहर’’ मोंड़ा साहब 
माँगत खात मतारी फिर रइ
यह सामाजिक विडंबना नहीं तो और क्या है? रक्त संबंधों में आती जा रही विद्रूपता किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए अत्यंत पीड़ादायक है। इसका कारण कवि की दृष्टि में अंधी आधुनिकता का दौर है जिसमें स्वार्थपरता अधिक है तथा मानवता कम होती जा रही है। इसका असर गांवों पर भी पड़ा है- 
परे शहर के पाँव कका जू 
बिगर गओ है गाँव कका जू 
भँड़यों ने सब पेड़ काट लय 
नईं दिखाबे छाँव कका जू     
कुछ गजलों में बड़े रोचक एवं चुटीले बिम्ब उठाए गए हैं। जैसे एक गजल है ‘‘भोग लगा ले दार बनी है’’, इसमें ‘‘दार बनी है’’ को काफिए के रूप में बड़ी खूबसूरती से प्रयोग में लाया गया है। गजल के कुछ शेर देखिए-
भात बना ले दार बनी है 
छौंक लगा ले दार बनी है 
मोटी हतपउ रोटी पैले
तवा चढ़ा ले दार बनी है       
सिकीं कचरियाँ और बिजौरे
लाला खा ले दार बनी है   
डॉ. सीरोठिया ने  अपनी कई गजलों में बुंदेली कहनातों अर्थात कहावत का सुंदर प्रयोग किया है। जिससे कहन की अर्थवत्ता बढ़ गई है। कवि की बुंदेली पर अच्छी पकड़ है। उनके पास प्रचुर शब्द भंडार है तथा गजल विधा में बुंदेली शब्दों को ढालने की कला भी है। संग्रह की भूमिका अवचार्य भगवत दुबे, डाॅ. गायत्री वाजपेयी, डाॅ (सुश्री) शरद सिंह तथा गुप्तेश्वर द्वारिका गुप्त ने लिखी है। संग्रह की सभी गजलें रोचक हैं एवं समसामयिक संवाद करने में सक्षम हैं। मुझे विश्वास है कि 80 ग़ज़लों का यह बुंदेली गजल संग्रह ‘‘रिपट परे की हर गंगा है’’ बुंदेली साहित्य को समृद्ध करेगा तथा पाठकों को रुचिकर लगेगा।
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Saturday, October 25, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | फर्जी बाड़ा से तनक बचके रहियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | फर्जी बाड़ा से तनक बचके रहियो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट
फर्जी बाड़ा से तनक बचके रहियो
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
सब ओरें चात आएं के एक ठइयां अपनो घर होए। अपने मूंड़ पे अपनी छत होए। जो पुताई कराबे की बेरा आए सो अपने घरे कराएं, अपने मन को रंग कराएं। शार्ट में कई जाए सो सब चाऊंत आएं के उनको अपनो घर होए। जेई लाने सब एक-एक पईसा जोड़त रैत आएं। मनो अपने इते का आए के प्रॉपर्टी के दाम आसमान छूअत रैत आएं। ऐसे में जो कोनऊं सस्ते में सबरी सुविदा वारे प्लाट को, ने तो सस्ते मकान को ढिंढोरा पीटत आए तो लालच में परबे में देर नईं लगत। सो भैया-बैन हरों, जे ई टाईप के ललत्तापने में कभऊं ने परियो। पैले अच्छे से पता कर लइयो के बा कालोनी जोन में प्लाट, ने तो घर ले रये बा वैध तो आए न! ऊको डायवर्सन भओ, के नईं भओ? कछू सेसा-मेसा को बिधौंना तो नईं बिधों? काये से के आप सो अपनी जिनगी भर की पूंजी लगा के प्लाट या घरे खरीद हो औ बाद में पता परी के कालोनी अवैध निकरी सो आप का कर लैहो? आपखों तो चूना लग चुको हुइए। जेई के लानें हम कै रये के प्रापर्टी खरीदियो, मनो पैले अच्छे से जांच लइयो।
     जा सब हम जे लाने बता रये के हमाई एक चिनारी वारे जेई मामला में ठगा गए। आजकाल जे टाईप की सोच सोई चलन लगी आए के ‘कछू नईं, बाद में सबरी अवैध, वैध हो जात आएं।’ सो, जे भुलावा में ने रहियो। काये से के अब सब कछू डिजिटल होन लगो, सबरे रिकॉर्ड पक्के रैत आएं, सो ऊमें करो गओ घपला चल नईं सकत। सो, चौकन्ने रओ औ अपनो घर बना के ऊमें राजी खुसी से रओ। काए हमाई सलाय सई आए न!
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, October 24, 2025

शून्यकाल | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | नई शिक्षा नीति में भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
नई शिक्षा नीति और भाषाई प्रावधान का प्रश्नचिन्ह
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह  
     नई शिक्षा नीति-2020  अब नई नहीं रही, इसे लागू हुए 5 वर्ष से अधिक हो गए हैं। इस नीति की सबसे बड़ी बात है कि नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। यद्यपि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या इस नीति के भाषाई प्रावधान में सरकारी स्कूलों के बच्चे उन बच्चों का मुकाबला कर सकेंगे जो प्राईवेट स्कूल में पहली कक्षा से अंग्रेजी भाषा सीखते हैं। देश में अंग्रेजी के प्रभाव के चलते कहीं सरकारी स्कूलों के बच्चे और पिछड़ तो नहीं जाएंगे? इस तरह की कई बातें अभी विचार करने योग्य हैं।

     मुझे याद है भारत भवन में सन् 2004 में हुई एक साहित्यिक संगोष्ठी, जिसमें देश-विदेश से हिन्दी के जानकार एकत्र हुए थे। कथासम्राट प्रेमचंद की पोती सारा राय भी उसमें आई थीं। विदेशों में हिन्दी साहित्य विषयक सत्र के बाद जब हम भोजनसत्र में गपशप कर रहे थे तभी किसी बात पर चर्चा चलते-चलते स्कूल शिक्षा पर पहुंची और सारा राय ने हंस कर कहा-‘‘हिन्दी स्कूलों में पढ़े हुए लोग कितनी भी अच्छी अंग्रेजी बोल लें लेकिन पकड़ में आ ही जाते हैं।’’ मैंने चकित हो कर पूछा-कैसे?’’ तो उन्होंने कहा-‘‘शायद आपने ध्यान नहीं दिया होगा कि अभी पिछले सत्र में जो सज्जन भाषण दे रहे थे वे बिना वज़ह अंग्रेजी झाड़ रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने ‘‘पोर्टुगल’’ को ‘‘पुर्तगाल’’ कहा, मैं ताड़ गई कि ये हिन्दी मीडियम के अंग्रेजी नवाब हैं।’’ उस समय तो यह बात हंसी-हंसी में आई-गई हो गई लेकिन सारा राय की यह टिप्पणी फांस बन कर मेरे दिल-दिमाग़ में चुभी रही। यह बात किसी एक सज्जन की नहीं थी, बल्कि उन तमाम लोगों की थी जो हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और स्वश्रम से अंग्रेजी में पारंगत होने का प्रयास करते हैं। अब तो अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर भी खुल गए है। ऑनलाईन अंग्रेजी शिक्षा की साईट्स हैं लेकिन वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि अंग्रेजी न जानने वाले अथवा कम जानने वाले को अंग्रेजी की पर्याप्त शिक्षा दे सकें। ऐसे में नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा शिक्षा को ले कर जो प्रावधान रखा गया है वह चिंता में डालने वाला है।
मैं भी हिन्दी माध्यम स्कूल, कॉलेज में पढ़ी हूं और मुझे अब तक अनेक ऐसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में भाग लेने का अवसर मिला है जो हिन्दी भाषा पर केन्द्रित होते हुए भी अंग्रेजी के बोलबाले के साए में हुए। मुझे असुविधा नहीं हुई क्योंकि हिन्दी पर मेरी भाषाई पकड़ अच्छी है और मेरी मां डॉ, विद्यावती ‘मालविका’ ने हिन्दी की व्याख्याता होते हुए भी मेरी अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पर ध्यान दिया तथा उच्चारण को लेकर हमेशा सजग रखा। लेकिन जब मैं उन युवाओं के बारे में सोचती हूं जो समाज के ऐसे तबकों से आते हैं जहां माता-पिता दोनों ही भाषाई ज्ञान में कच्चे होते हैं, वे युवा हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हुए अंग्रेजी के आतंक का कैसे मुकाबला करते होंगे? क्या उनमें हीन भावना पनपने लगती है? क्या वे स्वयं को रोजगार की दौड़ में स्वयं को सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा महसूस करते हैं? 

कक्षा पांच तक मातृ भाषा में शिक्षा दिया जाना बड़ी सुखद बात लगती है। निश्चित रूप से इससे बच्चे को विषय को समझने और अपनी मातृभाषा से जुड़े रहने का अवसर मिलेगा। लेकिन क्या इस नीति को अंग्रेजी माध्यम के प्राईवेट स्कूल अपनाएंगे? यदि नहीं अपनाएंगे तो सरकारी और प्राईवेट स्कूलों के बीच की भाषाई खाई और गहरी हो जाएगी। हम दशकों से पुरानी शिक्षा नीति को ‘बाबू बनाने की शिक्षा नीति’’ कह कर कोसते आए हैं। लेकिन इस शिक्षा नीति के भाषा-माध्यम पक्ष को लेकर बच्चों के क्या बनने की उम्मींद कर सकते हैं? इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह शिक्षा नीति एक महत्वाकांक्षी नीति है। इसमें स्किल डेव्हलपमेंट के अनेक प्रावधान हैं लेकिन इस दौर में जब यह महसूस होने लगा है कि बच्चों को पहली कक्षा से ही द्विभाषी शिक्षा दी जाए तब कक्षा पांच तक केवल मातृ भाषा में शिक्षा का प्रावधान कई चुनौतियां खड़ा करता है। नई शिक्षा नीति में पांचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी स्तर से होगी। इसे लागू करने के साथ ही यह जरूरी होता कि देश में भाषाई एकरूपता पर भी नई नीति बनाई जाती और अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा में कड़े कदम उठाए जाते। चीन, जापान, रूस, जर्मनी आदि देश एक राष्ट्र भाषा के आधार पर प्रगति कर रहे हैं तो हमारे देश में यह संभव क्यों नहीं हो पाता है? जबकि देश की आज़ादी के बाद से इस दिशा में कई बार ज़ोरदार मांग उठाई गई। यह विचारणीय है कि भाषा का मुद्दा इस नई शिक्षा नीति के व्यावहारिक उद्देश्यों को ठेस पहुंचा सकता है।   

यह अच्छी बात है कि समय के साथ शिक्षानीति में भी परिवर्तन होना चाहिए और अब देश की शिक्षा नीति में 34 साल बाद नए बदलाव किए गए। नई शिक्षा नीति में प्रावधान यही रखा गया कि प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा और तीन साल की आंगनवाड़ी होगी। प्रायमरी में तीसरी, चौथी और पांचवी क्लास को रखा गया है। इसके बाद मिडिल स्कूल अर्थात् 6-8 कक्षा में विषय का परिचय कराया जाएगा। सभी छात्र केवल तीसरी, पांचवी और आठवीं कक्षा में परीक्षा देंगे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा पहले की तरह जारी रहेगी। लेकिन बच्चों के समग्र विकास करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन्हें नया स्वरूप दिया जाएगा। पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान अत्यंत ज़रूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए ’एनईपी 2020’ में ’बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ की स्थापना की जाएगी। एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफ़ेशनल मानक राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा। समग्र आकलन के बाद ही स्थिति स्पष्ट हो सकेगी कि यह टारगेट पूरा हो सका कि नहीं।

पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया। यानी मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम की इस नई व्यवस्था में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इससे उन छात्रों को लाभ होगा जिनकी पढ़ाई बीच में छूट जाती है। नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाखिला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक खास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं। उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं। जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा। जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे। लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी कर सकते हैं। उन्हें एमफ़िल की ज़रूरत नहीं होगी। नई शिक्षा नीति में अनेक ऐसी बातें हैं जिन पर विस्तार से विचार किए जाने की जरूरत है। फिलहाल भाषा तत्व जो किसी भी शिक्षा नीति की बुनियाद है, उस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यानी पहले ‘‘पुर्तगाल और ‘‘पोर्टुगल’’ की दूरी को पाटना जरूरी है।
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Sunday, October 19, 2025

रूप चतुर्दशी उर्फ़ नरक चतुर्दशी उर्फ़ यम चतुर्दशी उर्फ़ काली चौदस उर्फ़ छोटी दिवाली की हार्दिक बधाई - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

🚩 रूपचतुर्दशी उर्फ़ नरक चतुर्दशी छ़ोटी दीवाली की हार्दिक बधाई 🚩🎉🚩

🚩 नरक चतुर्दशी : मैने अपने बचपन से इस तिथि को इसी नाम से जाना। रात्रि के समय आटे के छोटे-छोटे 14 दिए बनाए जाते थे जिसमें कड़वा तेल डालकर जलाया जाता था और दियों का मुख दिशा दक्षिण की ओर रखा जाता था। मां कहती थी कि इससे यमराज प्रसन्न होते हैं तथा घर में शोक रोग या मृत्यु प्रवेश नहीं करती है। उन छोटे-छोटे 14 दोनों का एक साथ जलना, जगमग करना बहुत सुंदर लगता था। 

🚩नरक चतुर्दशी की अपनी एक कथा भी है जिसके अनुसार नरकासुर नाम के बलशाली राक्षस ने 16000 से अधिक कन्याओं को बंदी बना रखा था। वह देवताओं को भी परेशान करता था। जब उसके अत्याचार सहन से बाहर हो गए, तब श्रीकृष्ण ने  सत्यभामा के सहयोग से नरकासुर का वध किया और सभी कन्याओं को मुक्त कराया। इस विजय के कारण इस तिथि को नरक चतुर्दशी कहा जाने लगा।

🚩 रूपचतुर्दशी : आज बाजारवाद ने इस तिथि को ब्यूटी पार्लर्स के हवाले कर दिया है। अपनी रूप को संवारना गलत नहीं है हर स्त्री अपने रूप को संवारना चाहती है लेकिन इस चक्कर में मूल कथा,पौराणिक संकल्पना कहीं खोती जा रही है।

🚩 यमचतुर्दशी : यमराज को प्रसन्न रखने के मूल संकल्पना इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम मृत्यु के शासक सत्य को कभी ना भूले और उसके अनुसार घर में प्रसन्नता एवं स्वस्थ वातावरण बनाए रखें जिससे मृत्यु अथवा अन्य शोक के कारण हमसे दूर रहें। इसीलिए आज की स्थिति को यमचतुर्दशी के नाम से भी पुकारा जाता है। 

🚩 काली चौदस : कुछ लोग इसे काली चौदस भी कहते हैं। विशेष रूप से वे लोग जो तंत्र-मंत्र में विश्वास रखते हैं तथा इस तिथि की रात्रि में तांत्रिक क्रियाएं करते हैं।

🚩 छोटी दिवाली : आज के दिन को छोटे दिवाली के रूप में भी मनाया जाता है।

So, Happy Chhoti Diwali !
Happy Roop Chaturdashi - Dr (Ms) Sharad Singh
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Saturday, October 18, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | हैप्पी दिवारी मनाइयो पर तनक सम्हर के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | हैप्पी दिवारी मनाइयो पर तनक सम्हर के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
टाॅपिक एक्सपर्ट  

हैप्पी दिवारी मनाइयो पर तनक सम्हर के

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अब आप कैहो के त्योहार के टेम पे बी सिखावन दे रईं, का हम ओरें पैली बार दिवारी मनाबे जा रये? सो, ऐसी बात नोंई! बात सिखावन की नोंई याद दिलाबे वारी आए। काए से के दिवारी मनाबे के जोस में अपन लापरवाई कर बैठत आएं। जैसे मिठाई औ खोबा लेबे में। अब दिवारी पे घरे मिठाई तो बनहेई। औ होत का है के मंगाए, मंगाए से बी कोऊ खोबा ला के ने दे रओ होय, औ ओई टेम पे कोऊ दोरे से “खोबा ले लो” टेरत भओ निकरे तो लगत आए के मनो लाटरी लग गई। ऊ टेम पे हमें खोबा दिखात है, ऊमें की गई मिलावट नोंई। बा तो नकली खोबा पकरा के बढ़ लेत आए औ हमें बाद समझ परत आए के बा तो चूना लगा के चलो गओ। अब नकली खोबा खा के तबीयत तो बिगारी नईं जा सकत सो, ऊको मेंकनईं परत है। सो अच्छो खोबा  औ अच्छी मिठाई लइयो। सस्ती के फेर में नकली ले के तबीयत ने बिगारियो। कम भले लइयो, पर साजी लइयो।
    एक बिनती औ आए के लोहरे मोड़ा-मोड़ी खों तभई पटाखे औ बम फोरन दइयो जब आप ओरें उनके संगे होंए। ने बच्चों खों कां खबर, बे कओ अपनेई मूंड़ के निसाना पे राकेट दाग लेवें । संगे जा बी ध्यान राखने के कोनऊं जानवर खों परेसानी न होने पाएं। का होत आए के बच्चा हरें कऊं कोऊ कुत्ता की,  ने तो गइया की पूंछ में पटाखों की लरियां बांध देत आएं। ईसे उन पसुअन खों खींबई तकलीफ होत आए। सो, जे तनम-मनक सी जरूरी बातें ध्यान राखियों औ अच्छे से हैप्पी दिवारी मनाइयो। लछमी मैया की किरपा सब पे बनी रैहे ।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, October 17, 2025

शून्यकाल | बुंदेली दीपावली से जुड़ी रोचक परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | बुंदेली दीपावली से जुड़ी रोचक परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल | बुंदेली दीपावली से जुड़ी रोचक परंपराएं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह   
   
कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाजों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ये परंपराएं अत्यंत रोचक हैं। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।

भारत का सबसे जगमगाता त्योहार है दीपावली। इस एक त्योहार के मनाए जाने के कारणों की बात करें से इससे जुड़ी अनेक कथाएं सुनने को मिल जाती हैं। मान्यता अनुसार इसी दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का स्वामी बनाया था इसलिए दक्षिण भारत के लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन के ठीक एक दिन पहले श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था। इस खुशी के मौके पर दूसरे दिन दीप जलाए गए थे। कहते हैं कि दीपावली का पर्व सबसे पहले राजा महाबली के काल से प्रारंभ हुआ था। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बली की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। तभी से दीपोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ। यह भी माना जाता हैं कि दीपावली यक्ष नाम की जाति के लोगों का ही उत्सव था। उनके साथ गंधर्व भी यह उत्सव मनाते थे। मान्यता है कि दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते थे। सभ्यता के विकास के साथ यह त्योहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मीजी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है।
दीपावली दीपों का त्योहार है। यह ‘‘अन्धकार पर प्रकाश की विजय’’ को दर्शाता है। दीपावली का उत्सव 5 दिनों तक चलता है। पहले दिन को धनतेरस कहते हैं। दीपावली महोत्सव की शुरुआत धनतेरस से होती है। इसे धन त्रयोदशी भी कहते हैं। धनतेरस के दिन मृत्यु के देवता यमराज, धन के देवता कुबेर और आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि की पूजा का महत्व है। इसी दिन समुद्र मंथन में भगवान धन्वंतरि अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे और उनके साथ आभूषण व बहुमूल्य रत्न भी समुद्र मंथन से प्राप्त हुए थे। दूसरे दिन को नरक चतुर्दशी, रूप चैदस और काली चैदस कहते हैं। इसी दिन नरकासुर का वध कर भगवान श्रीकृष्ण ने 16,100 कन्याओं को नरकासुर के बंदीगृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष्य में दीयों की बारात सजाई जाती है। तीसरे दिन दीपावली होती हैं। दीपावली का पर्व विशेष रूप से मां लक्ष्मी के पूजन का पर्व होता है। कार्तिक माह की अमावस्या को ही समुद्र मंथन से मां लक्ष्मी प्रकट हुई थीं जिन्हें धन, वैभव, ऐश्वर्य और सुख-समृद्धि की देवी माना जाता है। इसी दिन श्रीराम, सीता और  लक्ष्मण 14 वर्षों का वनवास समाप्त कर घर लौटे थे। चैथे दिन अन्नकूट या गोवर्धन पूजा होती है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट उत्सव मनाना जाता है। इसे पड़वा या प्रतिपदा भी कहते हैं। पांचवां दिन इस दिन को भाई दूज और यम द्वितीया कहते हैं। भाई दूज, पांच दिवसीय दीपावली महापर्व का अंतिम दिन होता है। भाई दूज का पर्व भाई-बहन के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने और भाई की लंबी उम्र के लिए मनाया जाता है।
       दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चैक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। एरसे त्यौहारों विशेषकर होली और दीपावली पर बनाये जाते हैं। ये मूसल से कूटे गए चावलों के आटे से बनते हैं। आटे में गुड़ मिला कर, माढ़ कर इन्हें पूड़ियों की तरह घी में पकाते हैं। घी के एरसे ही अधिक स्वादिष्ट होते है। इसी तरह अद्रैनी प्रायः त्यौहारों पर बनाई जाती है। आधा गेहूं का आटा एवं आधा बेसन मिलाकर बनाई गई पूड़ी अद्रैनी कहलाती है। इसमें अजवायन का जीरा डाला जाता है। इन सारी तैयारियों के साथ आगमन होता है बुंदेली-दिवाली का।
बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चैखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चैखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर जमीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। आज भी वे दीपावली पर पूछती हैं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।
        दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।
       बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।
        कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाजों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ये रोचक परंपराएं हमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़े रखती हैं और हमारी सांस्कृतिक विशिष्टता को संजोए रखती हैं। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। दीपावली पर खुले आंगन में गोबर की लिपावट की सोंधी गंध भले ही सिमट रही हो किन्तु उस पर पूरे जाने वाले चैक, सातियां, मांडने आज भी आधुनिक बुंदेली घरों के चिकने टाईल्स वाले फर्श पर राज कर रहे हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।
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Thursday, October 16, 2025

बतकाव बिन्ना की | जा तो खीबई बंदर बांट भई | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | जा तो खीबई बंदर बांट भई | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बतकाव बिन्ना की | जा तो खीबई बंदर बांट भई                            
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
         आज संकारे मैं घरे झाड़ू-पोछा कर रई थी के मोए बायरे रोड पर कछू झगड़बे की सी आवाज सुनाई परी। मैंने झाड़ू माएं खों पटकी औ बायरे दौड़ी पता करबे खों। लग रओ तो के कौनऊं झगड़ रओ होए। मोए बा जानबे की मचमची सी भई।
बायरे निकरी तो देखी के रोड पे सब्जी को ठिलिया वारो ठाड़ो हतो औ कछू लोग ऊको घेर-घार के ऊसे कछू पूछ रए हते औ बा सोई जोर-जोर से हात मटकात भओ कछू कै रओ तांे। उते की कचर-कचर में मोए कछू साफ समझ ने पर रई ती, सो मैं सोई ठिलिया के इते बढ़त गई। उते पौंच के देखो तो मोए भौजी औ भैयाजी सोई ठाड़े दिखाने। मोए लगो के होए ने होए कछू गंभीर बिधौना बिधो आए। 
‘‘काए भौजी, का हो गओ?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘ने पूछो बिन्ना! आजकाल गरीबन खों पूछबे वारे कोनऊं नइयां, सबरे उने लूटबे वारे मिलहें।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सो हो का गओ?’’ मैंने फेर के पूछी।
‘‘होने का, जे इनई बारे भैया से पूछ लेओ, जे खुदई बता रए।’’ भौजी मोसे बोलीं फेर बा सब्जी वारे मने बारे भैया से बोलीं,‘‘ तनक इने सोई बता देओ के तुमाए संगे का लूट करी गई। हो सकत आए के जे कोनऊं से कै बोल के तुमाओ काम बनवा देवें।’’
भौजी की बात मोए ठीक ने लगी, काय से आजकाल कोनऊं को काम कराबे से आसान तो ऊके घर के बासन मांज देबो आए। काए से के खुद जो करने होए सो कर देओ, मनो दूसरे से काम कराबो सबसे टेढ़ी खीर आए। बाकी बा बारे भैया मोए सुनान लगे अपनी ब्यथा।
‘‘दीदी जू का बताएं, हमाए संगे बड़ो अन्याय भओ आए।’’ बोर भैया बोले।
‘‘का हो गओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘हम ठैरे गरीब आदमी। घरे दो मोड़ीं औ एक मोड़ा आए। हमाई मताई सोई हमाए संगे रैत आएं। गांव में तो हमाओ अपनो घर रओे, मनो बा सब चाचा हरों ने छुड़ा लओ औ हमाए बापराम के गुजरबे के बाद हम ओरन खों बायरे मैक दओ। जेई से तो हम इते चले आए। किराए के मकान में रैत आएं। मकान काए, एक कुठरिया आए। नहाबे के लाने लौं हमने लुगाई की धुतिया बांध के गुसलखानो बना रखो आए। जे ठिलिया सोई किराए की आए। पर की पिछली साल हमें कोऊं ने बताओ रओ के गरीबन के लाने सरकार ने मकान बनाए आएं औ भौत कम पइसा में दए जा रए आएं। ऊके लाने फारम भरने रओ। सो हमने सोई फारम भरवा के जमा कर दओ रओ। हमें तो फारम भराए के बी पइसा लग गए रए। काए से हम तो इत्ते पढ़े-लिखे नोंई।’’ बारे भैया बीच में एक जनी खों सकला के दाम बतान लगे।
‘‘फेर का भओ?’’ हमने पूछी।
‘‘होने का रओ, कछू मईना बाद पता परी के बे मकान तो बिक गए। ने तो हमाओ नंबर लगो औ ने हमाई बा चिन्हारी वारे को। सो हम अपने चिन्हारी वारे के संगे ऊ दफ्तर पौंचे जां फारम जमा करो रओ। उते हमें बताओ गओ के बा मकान तो उन ओरन खों दे दए गए जोन हमसे बी ज्यादा गरीब हते। हम दोई अपनों सो मों ले के आ गए। मनो आज सुभै पता परी के बा उते तो बड़ी धांधली करी गई। बे बाबू हरन ने खुदई मकान हथिया लए औ किराए दे दए। अब आपई बताओ के बे बाबू हरें औ उनके रिस्तेदार का हम ओरन से ज्यादा गरीब रए? बताओ! आपई बताओ!’’ बारे भैया बमकत भए बोले।
‘‘हऔ भओ तो गलत आए। जा तो खीबईं बंदरबाट भईं। मनो तुमें कोन ने बताओ जा सब?’’ मैंने पूछी।
‘‘बे उते चक्की वारे जैन साब ने अखबार में पढ़ के हमें बताई। हमाओ तो तभई से खून सो खौल रओ। कित्ते लबरा आएं साले हरें। चार पइसा के लाने गरीब को हक मारत आएं।’’ बारे भैया बोले।
‘‘हऔ बा तो हमने सोई देखी रई। बा व्हाट्सअप पे कोनऊं लोकल चैनल वारे ने वीडियो डारी रई। ऊमें नगर निगम कमिश्नर सोई दिखा रए हते। उन्ने दो बाबुअन खों सस्पेंड सोई कर दओ आए। हो सकत के फेर के फारम भराएं जाएं। ऐसो होए सो फेर के भर दइयो। काय से के अबई जा मामलो खुलो आए, सो इत्ती जल्दी फेर के गड़बड़ी ने हुई। औ अब तो कमिश्नर साब खुदई पौंच गए, सो गड़बड़ होबे को औ डर नइयां।’’ मैंने बारे भैया खों समझाई।
‘‘हऔ, जा आपने ठीक कई दीदी जू! हम ऐसई करबी। एक दार फेर के फारम भर देबी। अब बीस पचीस रुपैया फारम भराबे के लग जैहें, सो लग जैहें। का करो जा सकत आए।’’ बारे भैया बोले।
‘‘अरे, काए खों लग जैहें? हमाए पास ले आइयो, हम भर देबी तुमाओ फारम।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, जा ठीक रैहे।’’ मैंने सोई हामी भरी।
ईके बाद बारे भैया तो तनक सहूरी बांध के आगे बढ़ गए, बाकी हम ओरे दो-चार जने ओई के बारे में बतकाव करन लगे।
‘‘जे अपने इते को जाने कब भ्रष्टाचार मिटहे!’’ शर्मा जी अपनो मूंड़ खुजात भए बोले। सो तिवारन भौजी बोलीं के ‘‘कभऊं नईं मिटने! अपने इते एक से बढ़े के एक खउआ बैठे।’’
‘‘हऔ, तनक चुनाव के टेम पे देखो, जब उम्मींदवारन की जायदाद के फारम भरे जात आएं तो ऊ टेम पे सब कंगला बन जात आएं। औ जो कभऊं ईडी को छापो परत आए तो उन ओरन की बेनामी संपत्ति को खुलासो होत आए।’’ शर्मा जी बोले।
‘‘सई कै रए आप। जां अपनो फायदो दिखों वां का अफसर औ का नेता, सबरे एक हो जात आएं। सबई एक-दूसरे की ढांकत फिरत आएं। बा तो कभऊं कभऊं कोऊं जाच-परताल के लाने निकर परत आए। ने तो अपनो देस सई ने हो जातो?’’ मैंने कई। 
‘‘ई टाईप की जांचें तो सबई जांगा होनी चाइए। जो ऐसो होन लगे तो सबई की पोलें खुल जाएं।’’ तिवारन भौजी बोलीं।
‘‘चलो, चल के सब्जी सोई बना लई जाए।’’ कैत भईं भौजी चलबे को हुईं। मैंने सोई अपने घरे की गैल लई। 
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जो परसासन के नाक के नैंचे ऐसो घोटालो होत रैत आए, सो ऐसे में गरीबन को भलो कां से हुइए?
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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Wednesday, October 15, 2025

चर्चा प्लस | असंवेदनशील सियासत की बिसात पर खड़ी स्त्री-अस्मिता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

दैनिक, सागर दिनकर में 15.10.2025 को प्रकाशित  
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चर्चा प्लस 
असंवेदनशील सियासत की बिसात पर खड़ी स्त्री-अस्मिता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

      मेडिकल की एक छात्रा के साथ गैंग रेप का अपराध अत्यंत दुखद, अत्यंत घृणित। कानून और समाज के मुंह पर किसी जोरदार तमाचे से काम नहीं यह कांड। किंतु इससे भी अधिक शर्मनाक है ऐसी घटना पर राजनीतिक विवाद। अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए घटिया बयानबाजी वह भी एक महिला नेता के द्वारा। जरूरी क्या है कुर्सी या स्त्री की अस्मिता? पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर रेप कांड पर हो रही बयान बाजी ने भारतीय राजनीति के खोखलेपन को भी उजागर कर दिया है। दरअसल, जो राजनीति जनता के पक्ष में होनी चाहिए वह जनता के कमजोर कंधों पर सवार होकर जनता के विरुद्ध ही की जा रही है।

पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में एक मेडिकल छात्रा के साथ दुष्कर्म के मामले पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बयान ने विवाद खड़ा कर दिया। ममता बनर्जी ने सवाल उठाया कि छात्रा आधी रात को हॉस्टल से बाहर क्यों थी? साथ ही नसीहत दे डाली कि  छात्राओं को देर रात बाहर नहीं निकलना चाहिए। उनकी इस बात की बीजेपी ने कड़ी आलोचना की और इस्तीफे की मांग की। पश्चिम बंगाल गैंगरेप पर बयान देते हुए ममता बनर्जी ने सवाल पूछा था कि आधी रात छात्रा हॉस्टल से बाहर कैसे गई? उनके इस सवाल पर सियासी घमासान शुरू हो गया। बीजेपी ने उन्हें श्नारीत्व के नाम पर कलंकश् बताया। यह बयान है भी शर्मनाक। अपने राज्य में स्त्रियों की सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरी पर पर्दा डालने के लिए स्त्रियों को ही घर में कैद रहने की सलाह दिया जाना और वह भी एक स्त्री के द्वारा, इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है।

पश्चिम बंगाल में ही अस्पताल में कार्यरत महिला डॉक्टर के साथ हुए गैंग रेप को अभी लोग भूले नहीं हैं, उस पर ऐसी घटना की पुनरावृत्ति राज्य की कमजोर सुरक्षा व्यवस्था को रेखांकित करती है। ममता बनर्जी ने छात्राओं से देर रात बाहर न निकलने की अपील की है। विशेषरूप से जो छात्राएं दूसरे राज्य से पश्चिम बंगाल में आईं हैं, उन्हें हॉस्टल के नियमों का पालन करने के लिए कहा गया है। सीएम ममता बनर्जी का यह बयान दुर्गापुर रेप कांड के बाद सामने आया।
ओडिशा से दुर्गापुर के एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ने आई एमबीबीएस की छात्रा खाना खाने के लिए अपने दोस्त के साथ बाहर निकली थी, तभी 3 लोगों ने उसका अपहरण कर लिया और जंगल में ले जाकर दुष्कर्म की घटना को अंजाम दिया। अब तक इस मामले में पांचों आरोपी पकड़े जा चुके हैं। प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सख्त कार्रवाई का भरोसा दिलाया है, लेकिन उनके बयान पर विपक्ष और महिला संगठनों ने नाराजगी जताई है।

ओडिशा के बालासोर जिले के जलेश्वर की रहने वाली 23 वर्षीय युवती के साथ शुक्रवार रात उस समय सामूहिक बलात्कार किया गया, जब वह अपनी एक दोस्त के साथ निजी मेडिकल कॉलेज के बाहर खाना खाने गई थी। ममता बनर्जी ने जब यह बयान दिया तब यह कहा गया था कि छात्रा अपनी एक सहेली के साथ रात के खाने के लिए बाहर गई थी। ममता बनर्जी ने रविवार को राज्य के निजी कॉलेजों से कहा कि वे महिलाओं को देर रात बाहर न निकलने दें। उन्होंने पूछा कि कथित दुर्गापुर मेडिकल कॉलेज सामूहिक बलात्कार मामले की पीड़िता रात 12:30 बजे परिसर के बाहर कैसे थी। ममता बनर्जी के शब्दों में ‘‘वह एक निजी मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही थी। सभी निजी मेडिकल कॉलेज किसकी जिम्मेदारी हैं? वे रात 12:30 बजे कैसे बाहर आ गए? जहां तक मुझे पता है, यह घटना जंगल वाले इलाके में हुई। जांच जारी है।’’

 राज्य के स्वास्थ्य विभाग ने मेडिकल कॉलेज प्रशासन से इस घटना रिपोर्ट मांगी है, लेकिन इस सब से इतर गैंगरेप कब हुआ इसको लेकर बहस छिड़ी हुई है? क्योंकि राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि रात में लड़कियों को बाहर नहीं जाने देना चाहिए था। ममता बनर्जी ने कहा था कि रात 12:30 बजे बाहर कैसे थी? तो वहीं दूसरी तरफ यह दावा किया जा रहा है कि घटना आधी रात से काफी पहले हुए थी। इस मुद्दे पर बीजेपी भी टीएमसी सरकार को घेर रही है। राज्य के प्रधान सचिव नारायण स्वरूप निगम ने कहा कि मेडिकल कॉलेज प्रशासन से रिपोर्ट की मांग की है। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट के आधार पर आगे की कार्रवाई की जाएगी। घटना के बाद छात्राओं ने कॉलेज परिसर में विरोध प्रदर्शन किया और अधिकारियों पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया।
राष्ट्रवाद, बौद्धिकवाद, स्त्रीविमर्श जैसे बड़े-बड़े भारी-भरकम से लगने वाले शब्द कभी-कभी बहुत छोटे और हल्के लगने लगते हैं। जब एक युवती सामूहिक दुष्कर्म किया जाता है और उसका वास्ता देकर सभी लड़कियों से रात को बाहर न निकलने की सलाह दी जाती है। क्या देश की कानून व्यवस्था इतनी लाचार हो गई है की लड़कियां रात को घर से बाहर नहीं निकल सकतीं? क्या रात को घर से बाहर निकलने पर उन्हें गैंगरेप जैसे अपराध का सामना करना पड़ेगा? यदि यह दोनों ही परिस्थितियों मौजूद है तो फिर कानून व्यवस्था कहां है और क्या कर रही है?  स्त्री अधिकारों के समर्थक कथित बुद्धिजीवी इस विषय पर लगभग खामोश है। क्या बौद्धिक सरोकार भोथरे हो चले हैं या सोशल मीडिया तक सिमट कर रह गए है? जब बुद्धिजीवी तय न कर पा रहे हों कि ऐसी अमानवीय घटनाओं पर उन्हें क्या कदम उठाने चाहिए तो यह परिदृश्य अनेक सवाल खड़े करता है।

आज भारतीय समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें इतिहास और संस्कृति ही नहीं बल्कि वर्तमान से भी उसका रिश्ता अरूप होता चला जा रहा है। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है कि इतिहास, विचार और साहित्य से लेकर मूल्यों तक की घोषणाएं की जा रही हैं और हम उन घोषणाओं की वास्तविकता को परखने के बदले उनकी व्याख्या और बहस के लम्बे-चैड़े आयोजन करने में लगे हुए हैं। इस दौर में स्त्री, दलित और जनजातीय समाज लगातार बहस होती है लेकिन परिणाम उस गति से सामने नहीं आते हैं जिसक गति से आने चाहिए। यहां भी बौद्धिकवर्ग दो फड़ में बंटा नजर आता है। समाज के भौतिक सरोकारों से जीवन में मूल्य और आदर्श संकटग्रस्त हो गये हैं। ऐसे दौर में साहित्यिक और सांस्कृतिक उपक्रम समाज को जोड़ने का काम करते हैं। साहित्य और संस्कृति का सीधा सरोकार मूल्य और जीवन की उच्चताओं से होता है। इसीलिए बौद्धिकता के जरिए संस्कृति से जुड़ा जा सकता है और आगामी पीढ़ी को आसन्न संकट से बचाया जा सकता है। लेकिन आज साहित्य जगत में साहित्य की स्थापना नहीं, वरन् व्यक्ति की स्थापना पर ध्यान अधिक रहता है। जहां व्यक्तिवाद होगा वहां समाज सरोकारित साहित्य पर बाजार का साहित्य हावी हो जाएगा। दुर्भाग्य से यही हो रहा है। जबकि मनुष्य मूलतः अनुभव से सीखता है और साहित्य में जीवन के अनुभव का निचोड़ होता है। उदाहरण के लिए यदि प्रेमचंद की कहानियों को लें तो प्रेमचंद की कहानियां सामाजिक बोध कराने के साथ ही अंतरचेतना को जगाती हैं। लेकिन आज के दौर को देख कर लगता है कि यदि आज प्रेमचंद होते तो शायद उन्हें भी व्यक्ति-स्थापना की पीड़ा के दौर से गुजरना पड़ता। कहने का आशय यह है कि जब बुद्धिजीवी आत्मकेन्द्रित हो जाएगा (भले ही जगत्उद्धार या सरोकार का थोथा दावा करता रहे) तो समाज के सरोकारों को कैसे साध पाएगा?

सोशल मीडिया पर स्वस्थ समाज का ज्ञान बांटने वाले बुद्धिजीवी ट्रूडो और कैटी पेरी के अंतरंग दृश्य को तो धूमधाम से शेयर करके “शर्म-शर्म” की दुहाई देते हैं जबकि उसे संस्कृति या उसे समाज से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि पहले अपने समाज की स्थिति पर ध्यान देना जरूरी है जहां लड़कियां, स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं।
 खतरे सिर्फ रात के अंधेरे के नहीं है दिनदहाड़े के खतरे भी मौजूद हैं। तो क्या लड़कियां दिन में भी ना निकलें? कपड़ों की दुकान से कपड़े ना खरीदें, उनका ट्रायल रूम इस्तेमाल न करें? वर्तमान इलेक्ट्राॅनिक प्रगति ने जहां स्त्रियों को अनेक सहूलियतें दी हैं वहीं उनकी अस्मिता के लिए नए तरह के संकट बढ़ा दिए हैं। उन्हें सबसे अधिक भय कैमरे का रहता है। वह कैमरा कोई भी हो सकता है। चेंजिंग रूम में चुपके से लगाया गया हिडेन कैमरा या फिर मोबाईल फोन का चलता-फिरता कैमरा। लगभग हर माह एक न एक घटना समाचार के रूप में पढ़ने-सुनने को मिल जाती है। मोबाईल फोन के कैमरे ने स्त्री अस्मिता पर हमलावरों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि कर दी है। प्रेमालाप के नाम पर नवयुवक अपनी साथी युवतियों के एम.एम.एस. बना लेते हैं और उसे इन्टरनेट पर सार्वजनिक करने की धमकी दे कर उन्हें ब्लैकमेल करने लगते हैं। गर्ल्स हाॅस्टल के बाथरूम, सार्वजनिक आउटलेट, होटल के कमरे आदि में छिपे कैमरे कई बार पकड़े जा चुके हैं। यह सब इसलिए कि ऐसी अश्लील फिल्में इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध हैं और उकसाती हैं अधकचरे मस्तिष्क को।
उंगलियों पर गिने जा सकते हैं वे बौद्धिक लोग जिन्होंने स्त्रीजाति के सम्मान और सुरक्षा के प्रश्न पर अपने सम्मान लौटाए या धरना प्रदर्शन किया। बेशक उनमें भी कई राजनीति प्रेरित थे किन्तु सोशल मीडिया से बाहर निकल कर आवाज उठाना और प्रत्यक्ष, खुली प्रतिक्रिया देना भी बौद्धिक स्तर पर प्रतिवाद का ही एक तरीका है। क्या बौद्धिकवर्ग को इस बात पर एकजुट हो कर अपनी सच्ची बौद्धिकता का परिचय नहीं देना चाहिए कि भारतीय क्षेत्र में इंटरनेट पर पोर्न साईट्स बैन कर दी जाएं, महिलाओं-बच्चों के प्रति जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों को फास्ट-ट्रैक कोर्ट में जल्दी से जल्दी सजा सुनाई जा कर सजा दे भी दी जानी चाहिए। क्योंकि सजा सुनाए जाने और सजा देने में वर्षों का फासला कानून व्यवस्था से भरोसा उठाने लगता है और तब एन्काउंटर को समर्थन मिलना स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आता है। 

आज जब आपराधिक असंवेदनशीलता अपने चरम पर जा पहुची है तब ऐसे कठोर समय में बौद्धिक सरोकार का तटस्थ रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। समाज में स्त्रियों को एक सुरक्षित निडर वातावरण देने की बजाय उन्हें डर कर रहने और दुबक कर बैठने की सलाह दी जाए तो यह 21वीं सदी का माहौल तो नहीं कहा जा सकता है। बेहतर है की राजनीति की बरसात पर स्त्रियों की अस्मिता को दांव पर लगाने की बजाय एक स्वस्थ और निडर माहौल बनाने के लिए सभी एकजुट हों।  
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Tuesday, October 14, 2025

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ”
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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(बुन्देली काव्य संग्रह)  - ई कुदाऊँ हेरौ
कवयित्री   - डॉ. प्रेमलता नीलम
प्रकाशक  - भव्या पब्लिकेशन
एल. जी. 42, लोअर ग्राउण्ड, करतार आर्केड, रायसेन रोड भोपाल, मध्यप्रदेश- 462023
मूल्य    - 300/-
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खंचत हारी, घुँघटा खेंचत नयना
जे दोऊ हैं अनारी
इन नयनों से बचकें रइयो,
रामधई देखत चढ़त तिजारी ।
भाल पै बिंदिया चम-चमके कानन करनफूल दम-दमके,
ठुसी, तिदानें, हमेल लटकें
करधनी पैरें, झूलन झूलाबारी।
  “ई कुदाउँ हेरौ” बुंदेली कविता की यह पंक्तियां बुंदेलखंड की रससिक्कतता की परिचायक हैं।  “ई कुदाउँ हेरौ” का अर्थ है इस तरफ देखो। एक स्त्री जब पूरा साज श्रृंगार कर लेती है तो उसके बाद वह चाहती है कि उसका प्रिय उसे जी भर कर देखें, उसके सौंदर्य की, उसके साज- सज्जा की प्रशंसा करें । यही भाव इस कविता में है जिसकी कवयित्री हैं डॉ. प्रेमलता नीलम। बुंदेलखंड में बुंदेली में लिखने वालों में एक चिरपरिचित नाम है डॉ प्रेमलता नीलम का। उनका नाम मंचों पर सम्मान सहित जाना जाता है। बुंदेली भूमि में जन्मी डॉ नीलम बुंदेली संस्कृति में रची बसी हैं। उन्होंने बुंदेली संस्कृति पर काफी सृजन किया है। उनकी यह कृति “ई कुदाउँ हेरौ” तेरहवीं कृति है।
        “ई कुदाउँ हेरौ” में संग्रहीत सभी काव्य रचनाओं को उनकी भाव भूमि के अनुसार चार खंड में विभक्त किया गया है। प्रथम खण्ड है देववंदना। इसमें सभी देव वंदनाएं रखी गई हैं। जैसे- गणेश वंदना, सरस्वती वन्दना, मझ्या दुरगा वन्दना, शिव आराधना, दूल्हा देव हरदौल तथा मातु पारवती अराधना (तीजा)।
             दूसरे खण्ड में “हमाऔ बुन्देलखण्ड” शीर्षक से जो रचनाएं संग्रहीत हैं उनमें बुंदेलखंड की विशेषताएं सहेजी गई है जैसे बुंदेलखंड के वीर नर- नारी तथा ग्रामीण अंचल की विशेषताएं आदि। इस खंड की कविताओं के शीर्षक देखिए जिनसे इसका कलेवर स्पष्ट हो जाएगा- मोरौ प्यारौ बुन्देलखण्ड,
रानी दुर्गावती, देवी दुर्गा अवतार, सुभद्रा कुमारी चौहान, बुन्देलखण्ड की वीरांगना, लक्ष्मी बाई, राजा वीर छत्रसाल, आल्हा ऊदल, हमाओ पियारो, हमाये गाँव,, भारत-माता, तिरंगी चुनरिया, हिलमिल रइयो, गाँव की सुद आऊत तथा रसवंती बोली बुन्देली।
        सुभद्रा कुमारी चौहान का स्मरण करते हुए, उन्हें अपना अपनत्व पूर्ण जिज्जी का संबोधन देते हुए डॉ नीलम ने ये पंक्तियां लिखी हैं-
जिज्जी बुंदेलखंड की भौतऊ नौनी शान, कवयित्री सुभद्रा कुमारी जूं चौहान
बुंदेलखंड के भइया बिन्नू हरों कौ,
भौतऊ नौनौ बढ़ाऔ है उनने मान,
जिज्जी जूं खौं बारम्बार प्रनाम ।

        तीसरे खण्ड में ऋतु संबंधी कविताएं हैं। जैसे- मन-बसंत, दुपरिया, सदसौ, उरेती की बूँदन, रिमझिम फुहार, वन - बसंत, बासंती - बयार, होरी के रंग, बीत हैं फिर दिन तपन के, स्यामा सांवरे घन साँवरे, घामौ, बैरन बदरिया, मनमीत, होरी के ढंग, परि पात, नजरिया, बाबरे, बदरा, मौसम आओ, आसा, फिर आई , होरी, सरद-रात, शीत लहर, कछु पतों नई, श्याम रंग, ठिठोली, कलुआ, गाँव में उमरिया, बदरिया - थम जा घनश्याम।
      तपते हुए जेठ मास की स्थिति का वर्णन करते हुए कवयित्री ने लिखा है- कछु पतों नई
कबे निकरो जेठ मास,
कबे आओ अषाढ़ मास
कछु पतौ नई चलौ ।
पहार सो दिन कड़ गओ,
कबे ऊं सूरज डूब गओ 
गइयन की ने डारी घांस
कछु पतौ नई चलौ ।
         चतुर्थ खण्ड में प्रेमानुरागी कविताएं हैं जैसे-  हिरदय बसिया, ई कुदाउँ हेरौ, खुनखुना, हँसन तुमाई, बिरथा उछाह, दुलार, जगो भोर भई, गुगुदी सी, गुइंयाँ, मनुआँ, सखी री, वीरन वेगिं अइयो, बैठ सकूटर पै, गुइयाँ पढ़बे चलो,-सुधियाँ, छिया-छियौऊअल, पिया अंगना, जीवन को उजियारो, मामुलिया, प्रेम, चलती बिरियाँ, पीरा, लोरी, उठो धना, भरत नैन मतारी, लौ लइयों, प्रीत अपुन की,  हिय के जियरा, सुद्ध बैहर, हरे मोरे राम जू, पुरखों की बगिया, कुंजन वन सी, नोने बुन्देली व्यंजन,  जीवन नइया, मन के तार, सुद्ध पानूँ,  नइयाँ पिया घरै, आऊँने पर है, कोयलिया कारी, बातन को धांसू तथा मन की पीर।
     इस खंड में एक बहुत छोटी सी किंतु बहुत महत्वपूर्ण रचना है “बैठ सकूटर पै” जिसमें दिखावा पसंद युवा पीढ़ी पर कटाक्ष किया गया है-
इन लरकन ने सबरी पूँजी
फैसन में गवांई
कै सुनो मोरे भाई..........
जुल्फे पारें छल्लादार कुरती ओछी चुन्नटदार समझ नै आवें नर कै नार
रंगी भौहें, मूंछो की कर दई सफाई..

डॉ प्रेमलता नीलम की रचनात्मकता के संबंध में भूमिका लिखते हुए डॉ श्यामसुंदर दुबे जी ने उचित लिखा है कि “बुन्देली की परंपरागत लोक कविता और आधुनिक कवियों द्वारा रचित कविताओं में वह राग-विराग-निष्ठा विधमान है। 'ई कुदाउँ हेरौ' बुंदेली काव्य रचनाओं का संकलन है। यह सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. प्रेमलता नीलम द्वारा रचित है। बुन्देली भावों का इंद्रधनुषी उजास इस संकलन को मनोरम्य बनाती है।”
       इसी प्रकार संग्रह की रचनाओं के प्रति अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए महेश सक्सेना ने लिखा है- "ई कुदाउँ हेरौ- बुन्देली काव्य संग्रह में गीत प्रस्तुत है जिनमें रागात्मकता और लालित्य है। गीतों की सरंचना में लोकजीवन बिम्व और प्रतीकों का चयन किया गया है। डॉ. नीलम के बुन्देली गीतों में गेय तत्व की प्रधानता है। बुन्देलखण्ड की अनोखी छटा इस पुस्तक में समाहित है। यह रचनायें लोक जीवन में प्रचलित धुनों पर गायकों द्वारा गायी जाएंगीं। "ई कुदाउँ हेरौ" पुस्तक में वीर पुरुष छत्रसाल, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, आल्हा ऊदल, लोक देवता हरदौल तथा प्रकृति से जुड़े मौसमी भावविचार श्रृंगार की छटा दृष्टिगोचर होती है। इन रचनाओं में पाठकों के मन में हर्षोल्लास जागृत होता है।”
     किसी भी बोली का विकास एवं संरक्षण तभी संभव है जब उस बोली में अधिक से अधिक साहित्य सृजन किया जाए ताकि वह बोली कविता, कहानी, कहावतों आदि के रूप में जन-जन तक पहुंचे। “ई कुदाउँ हेरौ” डॉ प्रेमलता नीलम की एक ऐसी काव्य कृति है जो बुंदेली काव्यात्मकता से तो जोड़ती ही है साथ ही बुंदेली संस्कृति एवं जीवन से भी जोड़ने का कार्य करती है। इस संग्रह की कविताएं बुंदेली जीवन से भली-भांति परिचित कराने में सक्षम है तथा इनका माधुर्य लोक जीवन को हृदय में सहज ही उतार देता है। चूंकि डॉ प्रेमलता नीलम बुंदेलखंड के दमोह शहर की निवासी हैं उनकी बुंदेली में दमोह अंचल की छाप है। हर बोली कि यह विशेषता होती है कि वह हर 100 कोस में कुछ न कुछ भाषाई परिवर्तन सहेज लेती है, देखा जाए तो यही बोली का लालित्य होता है। डॉ नीलम की लालित्यपूर्ण काव्य रचनाओं का यह बुंदेली काव्य संग्रह पठनीय एवं रोचक है। दरअसल, बुंदेली मिठास का काव्यात्मक आग्रह है “ई कुदाऊँ हेरौ” अर्थात जरा बुंदेली संस्कृति की ओर देखो।
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Friday, October 10, 2025

शून्यकाल | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
बुंदेलखंड की संकटग्रस्त त्योहार-परंपराएं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
         जीवन में परिवर्तन स्वाभाविक है। परिवर्तन गतिशीलता का द्योतक होता है लेकिन स्वस्थ परंपराओं में परिवर्तन क्षेत्र की जातीय पहचान को संकट में डाल देता है। युवा पीढ़ी ऐसे कई पारंपरिक त्योहारों से दूर होती जा रही है जिनका जीवन, पर्यावरण और संस्कारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज मोबाइल संस्कृत में त्यौहार की परंपराओं पर बाजार का प्रभाव गहरा दिया है। जिससे त्यौहार की मौलिकता खत्म होती जा रही है, बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है।

    बुंदेलखंड में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं जिन्हें बड़े-बूढ़े, औरत, बच्चे सभी मिलकर मनाते हैं। लेकिन कुछ त्यौहार ऐसे भी हैं जिन्हें सिर्फ बेटियां ही मनाती हैं, विशेष रूप से कुंवारी कन्याएं। ऐसा ही एक त्यौहार है मामुलिया। बड़ा ही रोचक, बड़ा ही लुभावना है यह त्यौहार। यह जहां एक और बुंदेली संस्कृति को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर भोली भाली कन्याओं के मन के उत्साह को प्रकट करता है। दरअसल मामुलिया बुंदेली संस्कृति का एक उत्सवी-प्रतीक है। आज के दौड़-धूप के जीवन में जब बेटियां पढ़ाई और अपने भविष्य को संवारने के प्रति पूर्ण रूप से जुटी रहती है उनसे कहीं सांस्कृतिक लोक परंपराएं छूटती जा रही है मामुलिया का भी चलन घटना स्वाभाविक है। आज बुंदेलखंड की अधिकतर बेटियां नहीं जानती मामुलिया। यूं तो मामुलिया मुख्य रूप से क्वांर मास में मनाया जाता है। इस त्यौहार में अलग-अलग दिन किसी एक के घर मामुलिया सजाई जाती है। जिसके घर मामुलिया सजाई जाने होती है, वह बालिका अन्य बालिकाओं को अपने घर निमंत्रण देती है। सभी बालिकाओं के इकट्ठे हो जाने के बाद वे बबूल या बेर के कांटों में रंग-बिरंगे फूल लगा कर उसे सजातीं हैं। यही सजी हुई शाख मामुलिया कहलाती है। मामुलिया को सजाने के बाद भुने चने, ज्वार की लाई, केला, खीरा आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके बाद बालिकाएं हाथों में हाथ डालकर मामुलिया के चारों ओर घूमती हुई गाती है-‘‘झमक चली मोरी मामुलिया....’’। इस प्रकार गांव भर में घूमती हुई बालिकाएं नदी अथवा तालाब के किनारे पहुंचती हैं। वे मामुलिया को नदी या तालाब में सिरा देती हैं। मामुलिया सिरा कर लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता। कहते हैं कि पीछे मुड़कर देखने से भूत लग जाता है। घर लौटने पर वह बालिका जिसके घर मामुलिया सजाई गई थी, शेष बालिकाओं को भीगे चने का न्योता देती है। मामुलिया बेटियों के पारस्परिक बहनापे का भी त्यौहार है। इस त्यौहार में बड़ों का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है अतः इससे बेटियों में सब कुछ खुद करने का आत्मविश्वास और कौशल बढ़ता है। इस प्रकार के त्यौहारों को उत्सवी आयोजन के रूप में मनाते हुए बचाया जा सकता है। जैसे दिसम्बर 2012 में झांसी महोत्सव में भी मामुलिया सजाने की प्रतियोगिता करा कर बेटियों को मामुलिया के बारे में जानकारी दी गई थी। इसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को हमीरपुर आदिवासी डेरा में ‘बेटी क्लब’ द्वारा लोक परंपरा का खेल मामुलिया और सुअटा खेला गया।  इसका संरक्षण आवश्यक है। क्योंकि यह परंपरा बेटियों के सम्मान के लिए बनाई गई है। ग्राम बसारी, हटा आदि लोकोसत्वों में भी मामुलिया जैसी परम्पराओं पर ध्यान दिया जाता है किन्तु जरूरी है शहरी जीवन को इन रोचक परम्पराओं से जोड़ना।

दीपावली के कई दिन पहले से ही घर की दीवारों की रंगाई-पुताई, आंगन की गोबर से लिपाई और लिपे हुए आंगन के किनारों को ‘‘ढिग’’ धर का सजाना यानी चूने या छुई मिट्टी से किनारे रंगना। चौक और सुराती पूरना। गुझिया, पपड़ियां, सेव-नमकीन, गुड़पारे, शकरपारे के साथ ही एरसे, अद्रैनी आदि व्यंजन बनाया जाना। बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर ज़मीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया।  बाद में भी वे दीपावली पर पूछा करती थीं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।

दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के  चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।
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