पुस्तक समीक्षा | पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा
पुष्पा चिले के दोहों में है जीवन की समग्रता
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - दोहा मंजूषा
कवयित्री - पुष्पा चिले
प्रकाशक -. जवाहर पुस्तकालय, हिन्दी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक,मथुरा, उ.प्र.
मूल्य - 200/-
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हिन्दी काव्य में दोहा सबसे अधिक प्रचलित विधा रही है। दो पंक्तियों में सब कुछ कह देने की कला, छांदासिकता एवं स्मरणीय रहने की क्षमता ने सृजनकर्ताओं को सदैव इस विधा की ओर आकर्षित किया है। दोहे गागार में सागर भरने की कला रखते हैं। दोहों के संबंध में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखत में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।।
मध्यप्रदेश के दमोह शहर की प्रतिष्ठित रचनाकार पुष्पा चिले के उपन्यास, कहानियां, कविता संग्रह आदि प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु इस बार उनका दोहा संग्रह प्रकाशित हो कर पाठकों के समक्ष आया है। दोहा संग्रह का नाम है-‘‘दोहा मंजूषा’’। संग्रह की भूमिका डॉ. एस. पी. पचौरी सेवानिवृत्त प्राध्यापक एवं महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड वि. वि. छतरपुर म. प्र. ने लिखी है। उन्होंने पुष्पा चिले के दोहों पर प्रकाश डालते हुए लिखा हैं कि ‘‘इनके द्वारा सृजित 1021 दोहों वाली इस कृति में प्रायः सभी पहलुओं यथा-सामाजिक, सांस्कृतिक, पौराणिक, राष्ट्रीय तथा लौकिक जीवन के मर्मस्पर्शी उद्धरण एवं संवाद समायोजित हैं। पुराणों से लेकर आत्मज्ञान की बातें जो बुजुर्गों द्वारा कही, सुनाई जाती हैं, इनके दोहों की बुनियादें हैं। इनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि श्रीमती चिले को समाज की तथा उसमें रहने वाली पीढ़ी-दर-पीढ़ी की विशेष चिंता है। इसीके वशीभूत वह अपने दोहों के मार्फत लोगों को न केवल दिशा निर्देश देती प्रतीत हैं, बल्कि उन्हें समाज और जीवन के प्रायोगिक धरातल पर खरा उतरने के प्रति सचेत करती हुई ऐसे-ऐसे नुक्खे प्रदान करती दृष्टिगोचर होतीं हैं, जिससे वह जीवन में न केवल सफलता के सोपान अर्जित करें, बल्कि मानवतावादी सांचे में ढलकर ऐसा जीवन व्यतीत करे, जिससे समाज भी आलोकित हो सके। प्रकारांतर से रचना का यही उद्देश्य प्रतीत होता है। इसी क्रम में राधाकृष्ण, गोपियों के संवाद, देशप्रेम की भावना, स्वर्णिम भारत भूमि, महाराणा प्रताप, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महारानी पद्मावती का शौर्य पराक्रम, उनका बलिदान आदि की अमर मार्मिक गाथाओं को दोहावली में संजोया गया है। भारत की समृद्ध परम्परायें, वासंती हवायें, पवित्र पावन गंगा, मातृभाषा हिंदी, गौरवशाली भारत का संविधान, भारतीय सेना के रणबांकुरे, पराक्रमी जवानों आदि सभी का आदर सम्मान करते हुए कवयित्री ने अपनी सृजन यात्रा में प्रेरणास्पद अंशों को समाहित करते हुए रचना को जीवंत बनाने का हर संभव प्रयास किया है।’’
पुप्पा चिले ने अपने दोहों में वर्तमान जीवनमूल्यों पर गहन दृष्टि डाली है। वे जीवन के हर पक्ष का आकलन करती हैं। यूं भी धर्म, चिन्तन एवं दर्शन का भारतीय मानस में बहुत अधिक महत्व है। स्वयं को नास्तिक कहने वाला व्यक्ति भी कभी न कभी ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास करने लगता है अथवा निरुत्तर रह जाता है। अतः ईश्वरीय सत्ता के मानवीय रूप से दोहा संग्रह का आरम्भ कवयित्री ने किया है जिसमें उन्होंने श्रीराम के श्रीसीता से प्रथम भेंट के प्रसंग को चुना है-
पुष्प वाटिका में हुआ, प्रथम सिया का दर्ष।
हृदय भरा रघुनाथ के, अनिवर्चनीय हर्ष ।।
अमर हो गयी वाटिका, जहाँ रहीं जगदम्ब ।
दुखी हो रही जानकी, प्रभु आओ अवलम्ब ।।
जीवन में सब कुछ सुखद रहे, यह संभव नहीं है। जैसे दिन के बाद रात आती है, प्रकाश के साथ अंधकार का अस्तित्व बनता चलता है उसी प्रकार सुख के साथ दुख की घड़ियां भी नेपथ्य में आकार लेने लगती हैं तथा समय आने पर वे प्रकट हो जाती हैं। यही हुआ श्रीराम एवं श्रीसीता के जीवन में भी। एक वाटिका में दोनों ने परस्पर प्रथम दरस पाए थे और कुछ अंतराल बाद जब शोकचक्र चला तो दूसरी वाटिका में सीता को राम के स्मरण में अश्रु बहाते हुए दिन व्यतीत करने पड़े। इस प्रसंग को कवयित्री ने कुछ इस प्रकार लिखा है-
शोक वाटिका में सिया, हर पल जपतीं राम ।
शोक संतप्त अशोक भी, जपता प्रभु का नाम ।।
कवयित्री पुप्पा चिले भारतीय दर्शन के उस पक्ष को भी साथ ले कर चली हैं जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया है तथा अहंकार मुक्त जीवन जीने का मार्ग सुझाया है-
गीता में श्रीकृष्ण ने, दिया वास्तविक ज्ञान।
प्रभु से सुनकर पार्थ को, हुआ सत्य का भान।।
रथ के पहिये को उठा, किया कृष्ण ने वार।
विजय सत्य की हो गयी, अंहकार गया हार।।
जीवन रथ को ले चलो, अब तो प्रभु के धाम।
संघर्षों ने थका दिया, वहीं मिले आराम।।
सप्त रश्मियों से सजे, रथ में नित आदित्य ।
धरा प्रकाशित कर रहे, तिमिर हटायें नित्य ।।
कवयित्री जीवन इमें आने वाले उतार- चढ़ाव से न घबराने का भी आह्वान करती हैं। परिस्थितियां चाहे कितनी भी विपरीत क्यों न हों, व्यक्ति यदि आत्मविश्वास बनाए रखे तो वह कीचड़ में कमल के समान खिल कर अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। दोहा देखिए-
कीचड़ में खिलकर हमें,पंकज देता ज्ञान ।
जग में रहकर भी रहें, हम भी कमल समान।।
यदि शुचिता उर में बसे, सदा रहें हरी संग।
सारा जग सुन्दर लगे, झरती रहे उमंग।।
प्रगति के सोपानों पर, बाधा के प्रतिकूल।
बिना रुके बढते रहें, मिले शिखर अनुकूल ।।
जीवन पथ में तितिक्षा, आती है बहु काम।
यही जीत का रास्ता, मंजिल का पैगाम ।।
ऐसा नहीं है कि कवयित्री पुष्पा चिले दर्शन पर ही ध्यान दे रही हों, उनका ध्यान उस ओर भी है जहां भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वे राजनीति में आती जा रही निर्लज्जता से क्षुब्ध हैं। नेताओं एवं अधिकारियों की मिलीभगत भी उनकी दृष्टि से छिपी नहीं हैं। जिन लोगों को जनता के हित पर ध्यान देना चाहिए, वे ही जनता को लूट रहे हैं, कवयित्री ने इस दशा पर तीखा कटाक्ष किया है-
नेता हैं निर्लज्ज वे, वादे करें अनेक।
जेबें अपनी भर रहे, झूठी बातें फेंक ।।
भ्रष्टाचार को देखके, क्षुब्ध हो रहे लोग।
नेता, अधिकारी सबै, भाये वैभव रोग ।।
नेताओं को सुध नहीं, जनता है बेहाल।
जनता को ही लूटके, हो गय मालामाल।।
इसी के साथ वे नेताओं से अपेक्षा करती हैं कि उन्हें अपने कर्तव्यों को याद रखना चाहिए तथा भ्रष्टाचार में लिप्त न होते हुए जनहित में काम करना चाहिए-
नेताओं से अपेक्षा, करें सुनीति विचार।
जनहित के कल्याण का, रहे प्रथम आधार।।
कवयित्री ने वर्तमान समाज में आती जा रही असंवेदनशीलता को भी रेखांकित किया है। एक समय था जब श्रवण कुमार जैसे पंत्र ने अपने माता-पिता को अपने कंधे पर रखे कांवर में बिठा कर तीर्थयात्रा कराई थी किन्तु आज के पुत्र अपने माता-पिता की अवहेलना के प्रतिदिन नए उदाहरण प्रस्तुत करते रहते हैं। स्थिति अब यहां तक आ गई है कि वे अपने असहाय माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम तलाशने लगते हैं-
वृद्ध अवस्था में हुये, मात-पिता असहाय ।
पुत्रवधु अब दे रही, चुप रहने की राय ।।
जीवित हैं बस नाम को, रिश्तों के संबंध।
अब तो केवल स्वार्थ से, ही बनते अनुबंध ।।
अपने वृद्धजन की अवहेलना करने वाले लोग जब उनकी मृत्यु पर दिखावे का आडंबर रचते हैं तो वह बड़ा विद्रूप लगता है। इस दशा पर कटाक्ष करते हुए पुष्पा चिले ने लिखा है-
जीते पानी ना दिया, मरे खिलायें खीर।
फिर भी अशीष दे रहे, पितर बहाकर नीर।।
पुष्पा जी उन लोगों को नराधम कहती हैं जो आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। मानव हो कर मानव के विरुद्ध विध्वंस नराधमता का ही तो उदाहरण है-
आतंकी मानव नहीं, राक्षस से भी नीच।
विध्वंशी वृत्ती इनकी, विष हैं मानव बीच।।
कवयित्री पुष्पा चिले ने जहां अपने दोहे में उत्तराखंड के जोशीमठ का उल्लेख करते हुए पर्यावरण के प्रति सचेत किया है, वहीं उन्होंने कोरोना महामारी की आपदा पर भी कलम चलाई है। देखा जाए तो पुष्पा चिले के दोहों में जीवन की समग्रता मिलती है। पुस्तक की साज-सज्जा तथा मुखपृष्ठ आकर्षक है। बस, टंकण की त्रुटियां खटकती हैं, विशेषरूप से मुखपृष्ठ पर ही मंजूषा शब्द का त्रुटिपूर्ण मुद्रण अखरता है। किन्तु पुष्पा चिले के इस संग्रह के सभी दोहे उम्दा हैं। पढ़े जाने येाग्य हैं तथा ये चिन्तन-मनन का आह्वान करते है।
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