Monday, February 21, 2011

कुछ और प्रश्न : वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर


-डॉ. शरद सिंह
 
मैं उन सभी की आभारी हूं जिन्होंने वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे के ज्वलंत मसले पर अपने अमूल्य विचार व्यक्त किए।
अपनी पिछली पोस्ट में मैंने सांसद प्रिया दत्त की इस मांग पर कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न’ प्रबुद्ध ब्लॉगर-समाज के सामने रखे थे। विभिन्न विचारों के रूप में मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे भिन्न-भिन्न शब्दों में प्राप्त हुए। कुछ ने प्रिया दत्त की इस मांग से असहमति जताई तो कुछ ने व्यंगात्मक सहमति।
सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ ने स्पष्ट कहा कि ‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता। किसी सामाजिक बुराई को समाप्त करने की जगह उसे कानूनी मान्यता दे देना, भारतीय समाज के लिए आत्मघाती ही साबित होगा ।’ साथ ही उन्होंने महत्वपूर्ण सुझाव भी दिया कि ‘इस धंधे से जुड़े लोगों के जीवनयापन के लिए कोई दूसरी सम्मानजनक व्यवस्था सरकारें करें। इन्हें इस धंधे की भयानकता से अवगत कराकर जागरूक किया जाये।’ अमरेन्द्र ‘अमर’ ने  सुरेन्द्र सिंह ‘झंझट’ की बात का समर्थन किया। दिलबाग विर्क ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों के लिए उस वातावरण को तैयार किए जाने का आह्वान किया जो ऐसी औरतों का जीवन बदल सके। उनके अनुसार, ‘दुर्भाग्यवश इज्जतदार लोगों का बिकना कोई नहीं देखता ..... जो मजबूरी के चलते जिस्म बेचते हैं उनकी मजबूरियां दूर होनी चाहिए ताकि वे मुख्य धारा में लौट सकें।’ कुंवर कुसुमेश ने देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों की विवशता पर बहुत मार्मिक शेर उद्धृत किया- 
उसने तो जिस्म को ही बेचा है, एक फाकें को टालने के लिए।
लोग  ईमान  बेच  देते  हैं,  अपना मतलब निकलने के लिए।

                 
मनोज कुमार, रचना दीक्षित, ज़ाकिर अली रजनीश एवं विजय माथुर ने ‘वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न’ उठाए जाना को सकारात्मक माना।
राज भाटिय़ा ने प्रिया दत्त की इस मांग के प्रति सहमति जताने वालों पर कटाक्ष करते हुए बड़ी खरी बात कही कि -‘सांसद प्रिया दत्त की बात से कतई सहमत नहीं हूं ,और जो भी इसे कानूनी मान्यता देने के हक में है वो एक बार इन वेश्याओं से तो पूछे कि यह किस नर्क  में रह रही है , इन्हें जबर्दस्ती से धकेला जाता है इस दलदल में,  हां जो अपनी  मर्जी से बिकना चाहे उस के लिये लाईसेंस या कानूनी मान्यता हो, उस में किसी दलाल का काम ना हो, क्योंकि जो जान बूझ कर दल दल में जाना चाहे जाये... वै से हमारे सांसद कोई अच्छा रास्ता क्यों नही सोचते ? अगर यह सांसद इन लोगो की  भलाई के लिये ही काम करना चाहते हैं तो अपने बेटों की शादी इन से कर दें, ये कम से कम इज्जत से तो रह पायेंगी।’
संजय कुमार चौरसिया  ने जहां एक ओर देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों की विवशता को उनके भरण-पोषण की विवशता के रूप में रेखांकित किया वहीं साथ ही उन्होंने  सम्पन्न घरों की उन औरतों का भी स्मण कराया जो सुविधाभोगी होने के लिए देह व्यापार में लिप्त हो जाती हैं।

गिरीश पंकज ने प्रिया दत्त की इस मांग पर व्यंगात्मक सहमति जताते हुए टिप्पणी की, कि -‘ जिस्मफरोशी को मान्यता देने में कोई बुराई नहीं है। कोई अब उतारू हो ही जाये कि ये धंधा करना है तो करे। जी भर कर कर ले. लोग देह को सीढ़ी बना कर कहाँ से कहाँ पहुँच रहे है(या पहुँच रही हैं) तो फिर बेचारी वे मजबूर औरते क्या गलत कर रही है, जो केवल जिस्म को कमाई का साधन बनाना चाहती है। बैठे-ठाले जब तगड़ी कमाई हो सकती है, तो यह कुटीर उद्योग जैसा धंधा (भले ही लोग गन्दा समझे,) बुरा नहीं है, जो इस धंधे को बुरा मानते है, वे अपनी जगह बने रहे, मगर जो पैसे वाले स्त्री-देह को देख कर कुत्ते की तरह जीभ लपलपाते रहते हैं, उनका दोहन खूब होना ही चाहिये.. बहुत हराम की कमाई है सेठों और लम्पटों के पास। जिस्मफरोशी को मान्यता मिल जायेगी तो ये दौलत भी बहार आयेगी। ये और बात है, की तब निकल पड़ेगी पुलिस वालों की, गुंडों की, नेताओं की. क्या-क्या होगा, यह अलग से कभी लिखा जायेगा। फिलहाल जिस्मफरोशी को मान्यता देने की बात है। वह दे दी जाये, चोरी-छिपे कुकर्म करने से अच्छा है, लाइसेंस ही दे दो न, सब सुखी रहे। समलैंगिकों को मान्यता देने की बात हो रही है...लिव्इनरिलेशनशिप को मान्यता मिल रही है। इसलिए प्रियादत्त गलत नहीं कह रही, वह देख रही है इस समय को। 
संगीता स्वरुप ने एक बुनियादी चिन्ता की ओर संकेत करते हुए कहा कि  ‘क़ानून बनते हैं पर पालन नहीं होता ..गिरीश पंकज जी की बात में दम है ...लेकिन फिर भी क्या ऐसी स्त्रियों को उनका पूरा हक मिल पाएगा ? ’ 
वहीं, राजेश कुमार ‘नचिकेता’ ने बहुत ही समीक्षात्मक विचार प्रकट किए कि -‘ इस काम के वैधानिक करने या ना करने दोनों पक्षों के पक्ष और उलटे में तर्क हैं....वैधानिक होने में बुरी नहीं है अगर सही तरह से कानून बनाया जाए। अगर शराब बिक सकती है ये कह के कि समझदार लोग नहीं पीयेंगे। तो फिर इसमें क्या प्रॉब्लम है....जिनको वहाँ जाना है वो जायेंगे ही लीगल हो या न हो । लीगल होने से पुलिस की आमदनी बंद हो जायेगी थोड़ी। अगर ना हो और उन्मूलन हो जाए तो सब से अच्छा.....वैधानिक न होने की जरूरत पड़े तो अच्छा.....लेकिन देह व्यापार से जुड़े स्त्री-पुरुष के लिए कदम उठाना जरूरी है।


इस सार्थक चर्चा के बाद भी मुझे लग रहा है कि कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न अभी भी विचारणीय हैं जिन्हें मैं यहां विनम्रतापूर्वक आप सबके समक्ष रख रही हूं - 
1.- दि जिस्मफरोशी को वैधानिक रूप से चलने दिया जाएगा तो वेश्यावृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, उस स्थिति में वेश्यागामी पुरुषों की पत्नियों और बच्चों का जीवन क्या सामान्य रह सकेगा ? 
2.- यदि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दे दिया जाए तो जिस्मफरोशी करने वाली औरतों, उनके बच्चों और उनके परिवार की (विशेषरूप से) महिला सदस्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा का क्या होगा ?
3.- क्या स्त्री की देह को सेठों की तिजोरियों से धन निकालने का साधन बनने देना  न्यायसंगत और मानवीय होगा ? क्या कोई पुरुष अपने परिवार की महिलाओं को ऐसा साधन बनाने का साहस करेगा ? तब क्या पुरुष की सामाजिक एवं पारिवारिक  प्रतिष्ठा कायम रह सकेगी ?
4.- विवशता भरे धंधे जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा देने के मुद्दे को क्या ऐच्छिक प्रवृति वाले सम्बंधों जैसे समलैंगिकों को मान्यता अथवा लिव्इनरिलेशनशिप  को मान्यता की भांति देखा जाना उचित होगा ?
5.-भावी पीढ़ी के उन्मुक्तता भरे जीवन को ऐसे कानून से स्वस्थ वातावरण मिलेगा या अस्वस्थ वातारण मिलेगा ?

Friday, February 11, 2011

वेश्यावृत्ति को वैधानिक दर्जे पर कुछ प्रश्न

- डॉ. शरद सिंह


"भारतीय दंडविधान" 1860 से "वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक" 1956 तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्यव्यापार को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं। जिस्मफरोशी को कानूनी जामा पहनाए जाने की जोरदार वकालत करते हुए कांग्रेस सांसद प्रिया दत्त ने मंगलवार को कहा कि यौनकर्मी भी समाज का एक हिस्सा हैं और उनके अधिकारों की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती।

प्रिया दत्त ने कहा कि जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए, ताकि यौनकर्मियों की आजीविका पर कोई असर नहीं पड़े। मैं इस बात की वकालत करती हूँ। उन्होंने कहा कि जिस्मफरोशी को दुनिया का सबसे पुराना पेशा कहा जाता है। यौनकर्मियों की समाज में एक पहचान है। हम उनके हकों की अनदेखी नहीं कर सकते। उन्हें समाज, पुलिस और कई बार मीडिया के शोषण का भी सामना करना पड़ता है। उत्तर-मध्य मुंबई की 44 वर्षीय कांग्रेस सांसद ने कमाठीपुरा का नाम लिए बगैर कहा कि देश की आर्थिक राजधानी के कुछ रेड लाइट क्षेत्रों में विकास के नाम पर बहुत सारे यौनकर्मियों को बेघर किया जा रहा है।
प्रिया दत्त की इस मांग पर कुछ प्रश्न उठते हैः-
         1-क्या किसी भी सामाजिक बुराई को वैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए ?
         2-क्या वेश्यावृत्ति उन्मूलन के प्रयासों को तिलांजलि दे दी जानी चाहिए ?

3-जो वेश्याएं इस दलदल से निकलना चाहती हैं, उनके मुक्त होने के मनोबल का क्या होगा ?

 4-जहां भी जिस्मफरोशी को वैधानिक दर्जा दिया गया वहां वेश्याओं का शोषण दूर हो गया ?

 5- क्या वेश्यावृत्ति के कारण फैलने वाले एड्स जैसे जानलेवा रोग वेश्यावृत्ति को संरक्षण दे कर रोके जा सकते हैं ?



6- क्या इस प्रकार का संकेतक हम अपने शहर, गांव या कस्बे में देखना चाहेंगे?



 
7- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार विष्व में लगभग 60 लाख बाल श्रमिक बंधक एवं बेगार प्रथा से जुड़े हुए है, लगभग 20 लाख वेश्यावृत्ति तथा पोर्नोग्राफी में हैं, 10 लाख से अधिक बालश्रमिक नशीले पदार्थों की तस्करी में हैं। सन् 2004-2005 में उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक आदि भारत में सेंटर फॉर एजुकेशन एण्ड कम्युनिकेशन द्वारा कराए गए अध्ययनों में यह तथ्य सामने आए कि आदिवासी क्षेत्रों तथा दलित परिवारों में से विशेष रूप से आर्थिकरूप से कमजोर परिवारों के बच्चों को बंधक श्रमिक एवं बेगार श्रमिक के लिए चुना जाता है। नगरीय क्षेत्रों में भी आर्थिक रूप से विपन्न घरों के बच्चे बालश्रमिक बनने को विवश रहते हैं।
     वेश्यावृत्ति में झोंक दिए जाने वाले इन बच्चों पर इस तरह के कानून का क्या प्रभाव पड़ेगा ?     





Wednesday, February 2, 2011

विद्रोह की आग में जलते मिस्र में औरतें


- डॉ. शरद सिंह

जो देश आज आंतरिक विद्रोह की आग में जल रहा है और जहां सर्वत्र अस्थिरता का वातावरण है उस देश में औरतों की स्थिति क्या है, यह विचार बार-बार मन में कौंधता है। जी हां मिस्र है वह देश जिसकी मैं बात कर रही हूं। विद्रोह राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के शासन के विरोध में है। 

Muhammad Hosni Sayyid Mubarak
मुहम्मद होस्नी सईद सईद इब्राहिम मुबारक
पहले कुछ बातें  राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के बारे में - राष्ट्रपति होस्नी मुबारक का पूरा नाम मुहम्मद होस्नी सईद सईद इब्राहिम मुबारक है। सन् 4 मई 1928 में जन्मे होस्नी मुबारक को सन् 1975 में उप राष्ट्रपति नियुक्त किया गया और 14 अक्टूबर 1981 को राष्ट्रपति अनवर एल.सादात की हत्या के बाद उन्होंने अरब गणराज्य मिस्र के चौथे राष्ट्रपति के रुप में पद संभाला। मुहम्मद अली पाशा के बाद वे सबसे लंबे समय से मिस्र के शासक रहे हैं। वर्ष १९९५ में इन्हें जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
निम्नमध्यम वर्गीय मिस्री औरतें-लड़किएं
मिस्र के लिए संपूर्ण मध्य पूर्व में सबसे आधुनिक देश का माना जाता है। इस्लाम मिस्र का आधिकारिक धर्म है। ईसाई और यहूदी धर्मावलम्बी भी यहां रहते हैं। आधुनिक मिस्र में औरतों की स्थिति अन्य इस्लामिक देशों की अपेक्षा बहतर है। फिर भी यहां आम औरतों को ‘हिज़ाब’ में रहना पड़ता है। वे अनिवार्य रुप से मिस्री.बुरका पहनती हैं।
मिस्र में शिक्षित औरतें चेहरे खुले रख सकती हैं
मिस्री औरतें नई और पुरानी जीवन शैली के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। वे आदर्श मुसलिम की भांति रोज सुबह उठ कर नमाज पढ़ती हैं। दूसरी तरफ से विचारों में खुलापन भी है। शादी के मामले में वे मानती हैं कि इस्लाम औरतों को यह हक देता है कि अगर वह न करदें तो उनकी जबरदस्ती शादी नहीं हो सकती। लेकिन मुसलमान लड़कियाँ अपने धर्म से बाहर विवाह नहीं कर सकतीं। उन्हें सिविल मेरिज करन् का अधिकार नहीं है। यदि किसी मिस्री मुसलिम लड़की को किसी दूसरे धर्म के लड़के से प्यार हो जाये तो शादी तभी हो सकती है जब लड़का भी मुसलमान बने। सिर्फ कहने भर के लिए नहीं एक सच्चा मुसलमान।
विद्रोह के दौरान ‘बुरका’ पहन कर मार्च करती मिस्री औरतें

मध्यम एवं निम्नमध्यम वर्गीय मिस्री औरत अपने परिवार के प्रति पूर्ण समर्पित रहती है तथा इस्लामिक परम्पराओं का पालन करती है। वे दुनिया की सभी मध्यम एवं निम्न वर्गीय औरतों का भांति अपने अधिकारों से वंचित हैं।

Monday, January 31, 2011

गुलसिरीन का सपना


 - डॉ. शरद सिंह 
 (साभार-‘दैनिक नई दुनिया’,23 जनवरी 2011 में प्रकाशित मेंरा लेख)
     ‘नारी प्रताड़ना के विरुद्ध कानून तो हैं लेकिन उन्हें पूरी तरह से लागू नहीं किया जाता।’ गुलसिरीन ओनांक का कहना है। उनका यह कथन दुनिया के लगभग सभी देशों पर सही बैठता है। वैसे गुलसिरीन ओनांक एक व्यवसायी महिला हैं और तुर्की सी.एच.पी. पार्टी असेम्बली की निर्वाचित सदस्य हैं। सुम्हूरियत हाक पार्टी (रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी) का गठन सन् 1930 में तुर्की के महान नेता कमाल अतातुर्क ने किया था। सन् 1995 में एक और देसज पार्टी एस.एच.पी. इसमें आ मिली। 22मई 2010 को सी.एच.पी. पार्टी  के अध्यक्ष के रूप में ट्यून्सिली के नाझीमिये जिले में सन् 1948 में जन्मे कमाल किलिस्दरोग्लू चुने गए। पार्टी का नेतृत्व कमाल किलिस्दरोग्लू के हाथ में आने के बाद इसके नवीनीकरण पर ध्यान दिया गया और जब पार्टी को सुदृढ़ बनाने का प्रश्न आया तो समाज के बुनियादी मुद्दों को प्रमुखता दी गई। इन मुद्दों में स्त्रिायों को को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाने का एक अहम मुद्दा शामिल किया गया। इसके लिए पार्टी में बड़ी संख्या में महिलाओं को स्थान दिया गया। भारत में इस बात को पहले ही स्वीकार किया जा चुका है कि राजनीति में स्त्रिायों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने से स्त्रिायों के हित में सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं। यह बात और है कि पंचायतों में निर्वाचित स्त्रिायों में से कई आज भी घर की चौखट के भीतर रहती हैं और उनकी ओर से सारे कामकाज उनके पति अथवा परिवार के अन्य पुरुष करते हैं। वैसे तुर्की में सी.एच.पी. पार्टी वह राजनीतिक दल है जो मानवाधिकार के पक्ष में लगातार आवाज़ उठाता रहता है। इसी दल की सदस्य गुलसिरीन ओनांक का सपना है कि तुर्की की औरतें पुरुषों के कंधो से कंधा मिला कर काम करें और अपने अधिकारों के साथ सिर उठा कर जिएं। सी.एच.पी. की एक अन्य सदस्य कीमाल किलिक्डारीग्लु की टिप्पणी भी कम दिलचस्प नहीं है। उनका मानना है कि ‘हम विश्वास करते हैं कि औरतों को दिए जाने वाले अधिकार औरतों की समस्या को तो हल करेंगे ही, साथ ही पुरुषों की समस्याओं को भी हल करेंगे।’
गुलसिरीन का सपना और कीमाल की आशा का पूरा होना इतना आसान नहीं है क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्रात्मक देश भारत में जब स्त्री-पुरुष की समानता काग़ज़ी आंकड़ों में अधिक दिखाई देती है, सच्चाई में कम तो तुर्की में समानता का दिन आना अभी बहुत दूर मानना चाहिए। भारत में स्त्रिायों की दुर्दशा का हाल किसी से छिपा नहीं है। झुग्गी बस्तियों से लेकर विदेशों में सेवारत राजनयिकों तक के घरों में औरतें घरेलू हिंसा की शिकार होती रहती हैं। यदि पड़ोसियों तक उनकी चींख-पुकार पहुंच गई और पड़ोसी जागरूक हुए तो उनकी रक्षा हो जाती है अन्यथा पति द्वारा टुकड़े-टुकड़े कर के डीप-फ्रीजर में रख दिए जाने की घटनाएं भी हमारे देश में होती हैं। फिर भी यह माना जा सकता है कि जब तमाम विपरीत स्थितियों के रहते हुए भी भारतीय स्त्रियों ने हार नहीं मानी तो तुर्की की गुलसिरीन के सपने को भी अपना संघर्ष जारी रखना ही चाहिए। ‘कस्बों में रहने वाली औरतों के हक़ में बुनियादी ज़रूरतों की लड़ाई  लड़नी होगी। हर घर के दरवाज़े पर जा कर उनकी कठिनाइयों को सुनना, समझना और उसका हल ढूंढना होगा।’ टर्किश बूमेन्स यूनियन की अध्यक्ष यह मानती हैं। गुलसिरीन भी यही मानती है। 
गुलसिरीन अपने देश की औरतों की पीड़ा अच्छी तरह समझ सकती हैं क्योंकि उन्हें अधिकारों का पता चल चुका है। वे एक व्यावसायी के रूप में अपने अस्तित्व को स्थापित पाती हैं। जिसने अधिकारों का स्वाद चख लिया हो वह उसके लाभों के बारे में भली-भांति जान सकता है। भारत में भी अनेक व्यावसायी स्त्रियां जो अपनी सामर्थ्य का अंशदान आम स्त्रिायों के हित में करती रहती हैं। ऐसी महिलाओं के प्रयास से अनेक चैरिटेबल ट्रस्ट चल रहे हैं। लेकिन गुलशिरीन और उनकी पार्टी की अन्य महिलाओं का प्रयास इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि उनका प्रयास इस्लामिक दुनिया की स्त्रिायों को भी नई राह दिखा सकेगा। यदि वहां भी हमारे देश की तरह महिलाओं से जुड़े मुद्दे संसद के पटल पर आ कर भी फिसलते न रहो, यदि वहां भी खाप पंचायतें संवैधानिक न्याय व्यवस्था की धज्जियां न उड़ाती रहें, यदि वहां भी स्त्रिायों को समान अधिकार दिए जाने के इरादे सिर्फ कागजों में सिमट कर न रह जाएं।

Friday, January 21, 2011

अधिकारों से बेख़बर महिलाएं

- डॉ. शरद सिंह
भारत जैसे देश में अधिकारों से बेख़बर महिलाओं के प्रमुख तीन वर्ग माने जा सकते हैं.

 1.      पहला वर्ग वह है जो ग़रीबीरेखा के नीचे जीवनयापन कर रहा है और शिक्षा से कोसों दूर है। उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी ही नहीं है।









2.     दूसरा वर्ग उन औरतों का है जो मध्यमवर्ग की हैं तथा परम्परागत पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव में जीवन जी रही हैं। ऐसी महिलाएं पारिवारिक बदनामी के भय से हर प्रकार की प्रताड़ना सहती रहती हैं। पति से मार खाने के बाद भी ‘बाथरूम में गिर गई’ कह कर प्रताड़ना सहन करती रहती हैं तथा कई बार परिवार की ‘नेकनामी’ के नाम पर अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठती हैं। दहेज को ले कर मायके और ससुराल के दो पाटों के बीच पिसती बहुओं के साथ प्रायः यही होता है।




 3.        महिलाओं का तीसरा वर्ग वह है जिनमें प्रताड़ना का विरोध करने का साहस ही नहीं होता है। इस प्रकार की मानसिकता में जीवनयापन करने वाली महिलाओं के विचारों में जब तक परिवर्तन नहीं होगा तब तक महिलाओं से संबंधित किसी भी कानून के शतप्रतिशत गुणात्मक परिणाम आना संभव नहीं है।

Thursday, December 30, 2010