Friday, June 29, 2012

है कोई मीरा उर्फ सबीना जैसी....

मीरा और नत्थू खान विवाह के बाद


-डॉ. शरद सिंह


प्रेम करना और लिव-इन-रिलेशन में रहना महानगरों के लिए भले ही कोई विशेष बात न रह गई हो किन्तु छोटे शहरों और कस्बों के लिए आज भी यह सब आसान नहीं है। दो भिन्न जातियों, भिन्न धर्मों के बीच प्रेम का मार्ग इतना कठिन होता है कि हरियाणा जैसे प्रदेशों में तो ‘जातीय प्रतिष्ठा का प्रश्न’ बन कर खाप-पंचायतों तक जा पहुंचता है। दो भिन्न धर्मावलम्बी प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम को समाज आसानी से पचा नहीं पाता है।  बुन्देलखण्ड में खाप-पंचायतों का बोलबाला तो नहीं है किन्तु यहां समाज भी इतना उदार नहीं है कि भिन्न धर्मावलम्बियों के बीच प्रेम संबंध और विवाह संबंध को सुगमता से स्वीकार कर ले। लेकिन कहा जाता है न कि प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, वे समाज के सभी नियम-कानून से ऊपर उठ कर अपने प्यार को परवान चढ़ाते हैं। यदि जोड़ा युवा हो तो परवान चढ़ना फिर भी कठिन नहीं होता है जितना कि जोड़े के प्रौढ़ावस्था का होने पर। न सिर्फ प्रौढ़ावस्था अपितु बाल-बच्चेदार।
अकसर इस बात पर चर्चा होती रहती है कि आधुनिक सामाजिक ढांचे ने परिवार को जिस तरह छोटी-छोटी इकाइयों में बांट दिया है उसमें युवा पति-पत्नी और उनके अध्ययनशील बच्चे, बस इतनी ही रह गई है परिवार की परिभाषा।  इस तरह के परिवार में वृद्धों के लिए तो कोई जगह होती ही नहीं है। तो फिर वृद्ध किसके सहारे जिएं? पाश्चात्य संकल्पना के इस पारिवारिक ढांचे में वृद्ध कहीं भी ‘फिट’ नहीं बैठते हैं। जबकि उन्हें भी सहारे की, परस्पर बातचीत और दुख-सुख बांटनेवाले की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए प्रौढ़ावस्था के बाद ‘कैम्पेनियन’ के सहारे जीने की भी चर्चा बार-बार उठती है। किन्तु प्रश्न उठता है कि हमारा पढ़ा-लिखा, अत्याधुनिक युवा वर्ग उस दोहरी मानसिकता से बाहर आ गया है जहां स्वयं के लिए वह ‘लिव इन रिलेशन’ की सिफारिश करता है और अपने एकाकी माता-पिता के लिए कैम्पेनियन भी सहन नहीं कर पाता है, उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिलती हुई दिखाई देती है, भले ही माता अथवा पिता अकेलेपन में घुटते रहें। ऐसी दोहरी मानसिकता वालों के सामने एक ठोस उदाहरण रखा एक बहुत ही छोटे से गांव के बहुत ही सामान्य परिवार के दो प्रौढ़ों ने। 
बुन्देली स्त्री

मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड अंचल के ईशानगर जनपद के गहरवार गांव में एक महिला रहती है जिसका नाम था मीरा अहिरवार। लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व एक विवाद के चलते उसके पति की हत्या कर दी गई थी। पति की मृत्यु के बाद मीरा ने अपने इकलौते पुत्रा सरमन को बड़े कष्टों से पाला। संकट की घड़ी में कोई नाते-रिश्तेदार मीरा की सहायता के लिए आगे नहीं आया। उस विपत्ति के समय गांव के ही कोटवार नत्थू खान ने मानवता के नाते मीरा की मदद की।
नत्थू के अच्छे व्यवहार ने मीरा का दिल जीत लिया। दोनों के मन में परस्पर प्रेम अंकुरित हो गया। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया और मीरा का बेटा सरमन कमाने-खाने योग्य बड़ा हो गया। जिम्मेदारी का बोझ कम होने पर मीरा और नत्थू खान के बीच प्रेम और गहरा हो गया। गांव के लोगों को दोनों का यह प्रेम रास नहीं आया और वे दोनों को परेशान करने लगे। इसलिए मीरा और नत्थू खान ने कहरवार गांव छोड़ कर ईशनगर जा कर रहने का निश्चय किया। वे ईशनगर के खेलमैदान में झोपड़ी बना कर रहने लगे। किन्तु दोनों धर्मों के लागों को उनका इस तरह साथ रहना पसंद नहीं आया और उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। बहिष्कार की परवाह न करते हुए दोनों लगभग पन्द्रह वर्ष तक ‘लिव इन रिलेशन’ में साथ-साथ रहे। इस बीच उन्हें सामाजिक मामलों में अनेक संकटों का सामना करना पड़ा।  
ग्रामीण परिवेश

एक दिन उन दोनों ने विवाह करने का निश्चय किया। प्रश्न भिन्न धर्म का था। मीरा ने के लिए प्रेम किसी भी जाति और धर्म से बड़ा था अतः उसने धर्मपरिवर्तन करने का साहसिक कदम उठाया और वह मुस्लिम धर्म अपना कर मीरा से सबीना बन गई। जिस दिन मीरा उर्फ़ सबीना बेगम की शादी नत्थू खान से हुई उस दिन नत्थू की उम्र लगभग 76 वर्ष और मीरा की उम्र लगभग 65 वर्ष थी। नत्थू खान की पहली पत्नी से पांच बेटे और चार बेटियों सहित नौ संताने हैं। वे सभी विवाहित हैं और उनके भी बाल-बच्चे हैं। मीरा का एक बेटा है। फिर भी दोनों के साथ-साथ रहने पर दोनों के परिवार वालों को भी आपत्ति थी। किन्तु विवाह के समय सभी परिवारजन और रिश्तेदार उपस्थित हुए और उन्हें इस विवाह को स्वीकार करना ही पड़ा। बुन्देलखण्ड के सामाजिक परिवेश में किसी पुरुष के लिए किसी भी उम्र में विवाह करना भले ही दुष्कर न हो किन्तु किसी महिला के लिए तो लगभग असंभव है। इस असंभव को संभव कर दिया मीरा उर्फ़ सबीना ने। फिल्मी-सी प्रतीत होने वाली यह घटना उन लोगों को चुनौती देती है जो स्वयं तो माता-पिता का सहारा बनते नहीं हैं और उन्हें भी अपना सहारा चुनने की स्वतंत्रता नहीं देते हैं तथा अंतिम सांस तक अकेलापन झेलने को विवश कर देते हैं।

(साभार- दैनिक ‘नेशनल दुनियामें 24.06.2012 को प्रकाशित मेरा लेख) 


4 comments:

  1. आपका लेख सुन्दर विचारणीय है,

    मुस्लिम धर्म में एक से ज्यादा विवाह की
    विशेष परिस्थितयों में अनुमति है.
    यदि कोई स्त्री धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम
    बने तो इसके लिए भी मुस्लिम समाज में
    प्रोत्साहन ही मिलता है.कठिनता है तो हिंदू
    धर्म में.जहाँ एक से अधिक विवाह और
    गैर धर्मी को अपनाने की अनुमति नही मिलती है.
    इसीलिए तो जो एक से अधिक विवाह करना चाहते
    हैं वे मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं.
    नत्थू खान जी की पहली बीबी को इस विवाह से
    जरूर परेशानी हुई होगी.उसकी नजर से कितना
    जायज है यह विवाह,आप इस पर भी प्रकाश डालिएगा
    शरद जी.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर दर्शन दीजियेगा.

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  2. सार्थक उदाहरण ....नत्थू खान की बीवी का क्या हुआ ?

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  3. आपका आलेख /सूचना समाज की उन तमाम बंद कुछ खुली खिड़कियों की ओर प्रहार है जिनके अन्दर कानाफुशियाँ , षडयंत्र तो होते हैं ,पर निराकरण के लिए हाथ ,मष्तिष्क ,जजबात नहीं होते / समर्पण ,त्याग , जौहर ,सतीत्व की झूठी,लक्षमण रेखा की विरुदावली तो गाते हैं ...वास्तविकता से मुंह मोड़ लेते हैं .....आखर क्यों हम जाते हैं उस तरफ जिधर हमारा घर नहीं है ? क्यों बढ़ते हैं हमारे कदम , ...जो हमारी मंजिल नहीं है ? स्नेह,सदाशयता ,विस्वास वांछित है ..जागो रुढ़िवादियों ..अभी भी समय है ....

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