दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम.....
शून्यकाल
आज के समय में आवश्यक है आध्यात्म प्रबंधन
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
एक लड़की ने घर की डांट से दुखी हो कर आत्महत्या का प्रयास किया। क्योंकि वह नहीं समझ पाई कि उसकी गलती क्या है अथवा उसे आगे क्या करना चाहिए? डांट खाने के बाद तुरंत आए आवेग को रोकने के लिए यदि वह दो पल ठहर कर सोचती तो ऐसा कदम कभी नहीं उठाती। यदि परिजन भी दो पल ठहर कर सोचते तो उस लड़की को उस मनोदशा में न पहुंचने देते कि वह आत्मघात करने को चल पड़े। यह दो पल ठहरना ही स्वयं से साक्षात्कार करने का समय होता है और यह समय आध्यात्म प्रबंधन के द्वारा प्रतिदिन जुटाया जा सकता है। आत्ममंथन जरूरी है सभी के लिए क्योंकि ‘‘100 परसेंट परफेक्ट’’ कोई नहीं होता। यही समझ लेना ही आध्यात्म है और इसी से निकलता है आगे के जीवन का सही रास्ता।
जीवन गतिशील है। उस पर आज का जीवन और अधिक गतिशील है। आज के समय में बहुत कम लोग ऐसे हैं जो स्वयं को जानने या पहचानने का समय निकाल पाते हैं। स्वयं को जानने या पहचानने की सबसे सुगम पद्धति है आध्यात्म। प्रायः ‘आध्यात्म’ शब्द से लोग भ्रमित हो जाते हैं और उसे धार्मिक अनुष्ठान अथवा योग संबंधी क्रिया मात्र मान लेते हैं। जब कि आध्यात्म स्वयं को जानने अथवा स्वयं के भीतर झांकने की सबसे उत्तम और आसान पद्धति है। आध्यात्म संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है- आध्य अर्थात् से संबंधित तथा आत्म अर्थात् स्वयं। आध्यात्म जब योग से जुड़ता है तो आध्यात्म योग बन जाता है किन्तु सामान्य अवस्था में आध्यात्म स्वयं के आकलन करने का तरीका होता है।
वर्तमान युग विज्ञान का युग है अतः कई बार मन में प्रश्न उठने लगता है कि आध्यात्म किसी की भला क्या सहायता कर सकता है? या किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक होने की क्या आवश्यकता है? जबकि सच यही है कि आज के युग में आध्यात्मिक होने की आवश्यकता सबसे अधिक है क्यों कि -
● आज के समय में जब प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का बोलबाला है, स्वयं की योग्यता को जानना अति आवश्यक हो जाता है।
प्रतिस्पर्धा के कारण मानसिक तनाव बहुत अधिक रहता है। इस तनाव को कम करना शारीरिक एवं मानसिक कार्यक्षमता के लिए मन को शांत रखना जरूरी होता है।
● अपनी कार्यक्षमता में वृद्धि करने के लिए अपनी कमियों को जानना भी आवश्यक होता है।
आध्यात्म का मार्ग व्यक्ति को स्वयं के भीतर झांकने, स्वयं को जांचने-परखने तथा आत्मविश्वास में वृद्धि करने का अवसर प्रदान करता है। यह ठीक उसी प्रकार काम करता है जैसे कम्प्यूटर में डिस्क फ्रेगमेन्टेशन अथवा डीफ्रेगमेन्टेशन की क्रिया होती है। किसी डिस्क की मेमोरी में प्रोग्राम फाईलों की अव्यवस्थित अवस्था में होने से डिस्क जल्दी भर जाती है तथा कम्प्यूटर की कार्यगति भी अपेक्षाकृत धीमी हो जाती है, ऐसी अवस्था में डीफ्रेगमेन्टेशन की क्रिया प्रयोग में लाई जाती है जिसमें इस क्रिया के दौरान संबंधित डिस्क से जुड़ी अन्य क्रियाओं को रोक कर फाईलों को सुव्यवस्थित होने का अवसर दिया जाता है। डीफ्रेगमेन्टेशन की क्रिया के बाद संबंधित डिस्क में पर्याप्त स्थान (स्पेस) भी निकल आता है तथा कम्प्यूटर की कार्यगति भी बढ़ जाती है।
जो कम्प्यूटर कार्य से नहीं जुड़े हैं उन्हें यह उदाहरण कठिन लग सकता है अतः वे और भी सरल ढंग से इसे इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि यदि किसी आलमारी में कपड़ों को व्यवस्थित ढंग से रखने के बजाए यूं ही रखते चले जाएं तो चार दिन बाद ही आलमारी में मनचाहे कपड़ों का मिलना कठिन हो जाएगा। बहुत ढूढने पर मनचाहा कपड़ा मिल भी जाए तो उसकी दशा ऐसी होगी कि उसे पहनने का मन नहीं करेगा तथा यही लगेगा कि उसे पहनने पर लोग हंसेंगे। अतः आलमारी में कपड़ों को व्यवस्थित रखने के लिए समय निकालना ही पड़ेगा और कपड़ों को जंाच-परख कर, उनकी उपयोगिता के अनुसार उन्हें आलमारी में रखना ही पड़ेगा। आलमारी में कपड़ों को व्यवस्थित रखने की क्रिया से जिस प्रकार हम अपने लिए सुविधा और सुव्यवस्था को प्राप्त करते हैं ठीक उसी प्रकार दैनिक जीवन में गति और सुव्यवस्था को पाने के लिए आध्यात्म को अपनाया जा सकता है।
अकसर लोगों को स्वयं से यही शिकायत रहती है कि उनके पास आध्यात्म अथवा योग अथवा ऐसी ही किसी भी क्रिया के लिए समय नहीं है। ऐसे लोग इस बात को नहीं जानते हैं कि एक दिन की आध्यात्मिक क्रिया दूसरे दिन के लिए अवसर (स्पेस) तैयार करती है। अर्थात् यदि एक दिन पांच मिनट का समय निकाल कर, शांत बैठ कर यह विचार किया जाए कि हमारी सुबह की दिनचर्या कैसी है? तो इसमें हमें पता चलेगा कि हमारी सुबह की दिनचर्या में कई ऐसी खामियां हैं जिन्हें दूर कर के हम सुबह की दिनचर्या को सुखकर और शांतिमय बना सकते हैं।
उदाहरण के लिए एक पति-पत्नी और दो बच्चों के छोटे से परिवार को ही लीजिए। पत्नी सुबह जाग कर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती है और उन्हें स्कूल-बस में बिठा कर आने तक चकरघिन्नी बनी रहती है। उधर पति सुबह जागने के बाद गरमागरम चाय की फरमाइश करता है और जब तक पत्नी बच्चों से फुरसत पाती है तब तक पति चाय पी कर गुसलखाने के हवाले हो जाता है। कुलमिला कर यदि पत्नी को कोई बात अपने पति से कहना है तो उसे वह अवसर ही नहीं मिल पाता है और जब वह कार्यालय जाते हुए पति को अपनी बात कहने का प्रयास करती है तो पति स्वाभाविक रूप से झल्ला उठता है क्योंकि वह कार्यालय पहुंचने की हड़बड़ी में रहता है। एक कह नहीं पाता है और दूसरा सुन नहीं पाता है। इस प्रकार दोनों तनाव भरे मन-मस्तिष्क ले कर एक-दूसरे से दिन भर के लिए अलग होते हैं। इस तनाव की छाया दिन भर के कामों में और शाम के मिलन पर भी पड़ती है। यदि वे दोनों आत्मचिंतन करें तो पाएंगे कि सुबह की भागमभाग में साथ बैठ कर चाय पीने का समय जुटा कर वे दो घड़ी साथ बैठ सकते हैं और अपनी-अपनी बातें कह-सुन सकते हैं। बस, समय जुटाने के लिए उन्हें अपनी-अपनी कार्यपद्धति की जांच-पड़ताल करनी होगी। वस्तुतः यह प्रक्रिया भी आध्यात्म का ही एक हिस्सा है।
आध्यात्म को अपने जीवन में उतारने के लिए आवश्यक है कि अपने जीवन में आध्यात्म का उचित प्रबंधन किया जाए। आध्यात्म प्रबंधन की मुख्य रूप से तीन पद्धतियां हैं-
स्वतंत्र चिन्तन - एक स्थान पर शांत बैठ कर स्वयं के बारे में चिन्तन करना। जिसमें समाज में, कार्यस्थल में, घर-परिवार में स्वयं की स्थिति का आकलन, स्वयं की कमियों एवं दोषों की समीक्षा तथा कार्यों को कर सकने की स्वयं की क्षमता का आकलन किया जाना चाहिए।
ईश्वर की आराधना - व्यक्ति ईश्वर के जिस रूप का उपासक हो उसके उस रूप की महत्ता का स्मरण करते हुए स्वयं का आकलन करे। साथ ही इस बात को आधार मान कर चले कि ईश्वर उसी पर अनुकम्पा करता है जो हर दृष्टि से उत्तम कर्म करता है तथा उत्तमता प्राप्त करने का प्रयास करता है।
ध्यान एवं योग द्वारा - आध्यात्म को अपनाने के लिए ध्यान एवं योग की क्रियाओं को अपनाया जा सकता है। ये क्रियाएं शारीरिक एवं मानसिक स्थिरता प्रदान करके मन-मस्तिष्क को सुव्यवस्थित होने का अवसर प्रदान करती हैं। जैसे नींद और आराम रोगी को शीघ्र स्वस्थ होने में सहायता करते हैं।
उपरोक्त पद्धतियों में से अपने मन की पद्धति चुन कर प्रति दिन यदि पांच से पन्द्रह मिनट भी आध्यात्म में लीन हुआ जाए तो व्यक्ति अपनी कार्य क्षमता, अपनी उत्तमता और अपनी योग्यता में वृद्धि कर सकता है। आध्यात्मलीन होने के लिए जो समय निकाला जाए वह चैबीस घंटे में किसी भी पहर का हो सकता है तथा प्रतिदिन एक ही समय हो यह आवश्यक नहीं है (विशेषरूप से पहली और दूसरी पद्धति के लिए)। चीन एवं जापान में कई उद्योगस्थल ऐसे हैं जहंा अपने कर्मचारियों की शारीरिक एवं मानसिक योग्यता में वृद्धि करने के लिए प्रतिदिन ध्यान और योग में लीन होने के लिए निश्चित समय दिया जाता है।
इस मशीनीयुग में स्वयं को मशीनी बनाने के साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि मशीनों को भी उचित देख-भाल एवं जंाच-परख की जरूरत होती है। मशीनों की भी समय-समय पर जांच-पड़ताल करके उनका आकलन किया जाता है तथा उनकी उत्तमता बढ़ाए जाने का उचित प्रबंध किया जाता है। अतः व्यक्ति को स्वयं की उत्तमता बढ़ाने के प्रति प्रबंधनशील होना ही चाहिए। इसका सबसे अच्छा तरीका है आध्यात्म प्रबंधन। आध्यात्म प्रबंधन के द्वारा इस आपाधापी के वातावरण में भी स्वयं को सुव्यवस्थित रखा जा सकता है।
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