Tuesday, March 12, 2024

पुस्तक समीक्षा | परिवेश के यथार्थ से चुना गया है कथानकों को | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 12.03.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई विनय कुमार के कहानी संग्रह "सुर्ख़ लाल रंग" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा     
परिवेश के यथार्थ से चुना गया है कथानकों को
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह  - सुर्ख़ लाल रंग
लेखक       - विनय कुमार
प्रकाशक    -  अगोरा प्रकाशन, ग्राम अहिरान, पोस्ट चमांव, शिवपुर, जिला वाराणसी- 221003
मूल्य       - 160/-
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हर व्यक्ति का परिवेश वहीं होता है जिसमें वह सांस लेता है, संघर्ष करता है, हंसता है, रोता है, संभावनाओं की तलाश करता है और अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देता है। व्यक्ति जहां होता वहीं उसका परिवेश होता है अतः स्थान परिवर्तन के साथ उसका परिवेश भी बदलता रहता है। कई बार व्यक्ति नए परिवेश में ढल कर उसी के अनुरूप हो जाता है और कई बार वह अपने उद्गम के परिवेश को अपनी स्मृतियों, अपने आचार-व्यवहार एवं विचारों में समेटे रहता है। वह वर्तमान के आधार पर अपने उस अतीत को भी थाती बनाए रखने का सघन प्रयास करता है जिस अतीत का उसकी माटी अर्थात् जन्मभूमि से जुड़ाव रहता है। कथाकार विनय कुमार के कथा संग्रह ‘‘सुर्ख़ लाल रंग’’ की कहानियों में वर्तमान के विस्तार के साथ उद्गम की कल-कल ध्वनि भी स्पष्ट सुनाई पड़ती है। वे वाराणसी के ग्राम कोरौती में जन्मे और उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शिक्षा पाई। आजीविका के चलते विभिन्न स्थानों पर रहे। किन्तु वाराणसी के निकट के अपने ग्राम्य परिवेश एवं काशी के अस्सी घाट के रंग को उन्होंने बड़े जतन से सहेजे रखा।
विनय कुमार के प्रथम कहानी संग्रह ‘‘सुर्ख़ लाल रंग’’ की कहानियों में विविधता है। इन कहानियों में साम्प्रदायिक दंगों की चुभन से ले कर रेडीमेड कपड़ों की दूकान पर खड़े किए जाने वाले पुतलों तक को कहन का माध्यम बनाया गया है। संग्रह की पहली कहानी ‘‘सुर्ख़ लाल रंग’’ है। गांव का एक हुनरमंद बुनकर जिसे शादी की बनारसी साड़ियां बुनने में महारत हासिल है। गांव के बीच अपनत्व पा कर ही बड़ा हुआ और उम्र के उस पड़ाव तक आ पहुंचा जब उसे अपने घनिष्ठ मित्र लक्ष्मण की बेटी के विवाह के लिए साड़ी बुननी थी। छलछलाते उत्साह के साथ वह साड़ी बुनने में जुट गया। विवाह में पहनी जाने वाली सुर्ख़ लाल रंग की बनारसी साड़ी। तब उसे क्या पता था कि उस साड़ी के लाल रंग में हिन्दू-मुस्लिम दंगों के कारण रक्त के छींटे भी शामिल हो जाएंगे। यह एक संवेदनशील कहानी है जो धार्मिक उन्माद के कारण टूटने वाले इंसानी रिश्तों की रक्तिम लिखावट को रेखांकित करती है। कथानक में नयापन न होते हुए भी उसके शिल्प ने उसे विशिष्ट बना दिया है।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘‘असली परिवर्तन’’ आशावादी एवं सकारात्मक दृष्टिकोण की कहानी है। चूंकि विनय कुमार स्वयं बैंकिग सेवा से संबंद्ध हैं अतः उन्होंने इस तथ्य की ओर इंगित किया है कि जो भी शासकीय योजनाएं आमजन के परिवर्तन के लिए कर्ज के रूप में चलाई जाती हैं उनका दूसरा पक्ष होता है, ग़रीब आदिवासियों द्वारा समय पर कर्ज की राशि न लौटा पाना। इस विकट स्थिति को एक बैंक अधिकारी की दृष्टि से देखा जाना कई रास्तों के संकेत करता है तथा विडम्बनाओं के यथार्थ से भी परिचित कराता है।

हिन्दी कथा साहित्य में वृद्ध विमर्श की कहानियां पहले भी लिखी गईं जैसे प्रेमचंद की ‘‘बूढ़ी काकी’’। किन्तु पिछले दो दशक में वृद्धों के जीवन पर केन्द्रित कथा साहित्य ने एक स्वतंत्र विमर्श का रूप ले लिया है। प्रेमचंद की ‘‘बूढ़ी काकी’’ से विनय कुमार की ‘‘आत्मनिर्भरता’’ तक समाज में ऐसा क्या बदल गया जिससे वृद्ध-जीवन पर विमर्श की आवश्यकता को अनुभव किया जाने लगा? सर्वविदित है, उपभोक्तावाद एवं पैकेजेस की अंधी दौड़ ने युवाओं को वृद्धों से दूर कर दिया है। युवा वृद्धों के महत्व को जान ही नहीं पाते हैं और उन्हें कोचिंग, ट्रेनिंग और पैकेज के लिए कच्ची आयु से ही घर-परिवार से दूर होते जाना पड़ता है। दूसरी ओर वृद्धावस्था की और शनैः शनैः कदम बढ़ाने वाले उनके माता-पिता इस बात से खुश होते रहते हैं कि उनकी संतान एक बड़े अंकों वाले ‘‘वज़नदार’’ पैकेज के साथ ‘‘मजदूरी’’ कर रही है। यदि उनकी संतान को विदेश जाने का अवसर मिल गया तो माता-पिता के लिए गर्व की बात होती है। उस पल वे यह भूल जाते हैं कि एक दिन उन्हें अपनी संतान को देखने और बात करने के लिए मात्र इलेक्ट्राॅनिक माध्यम का आभासीय सहारा रहेगा। विनय कुमार ने अपनी कहानी में उस परिवार को लिया है जिसमें पिता को अपने पुत्रों का सहारा है। उसके दोनों बेटे उसकी देख-भाल करते हैं। इस कहानी में लेखक ने एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है कि यदि माता-पिता को अपने साथ रखते हैं तो यह अतिउत्तम है किन्तु साथ ही उनकी आर्थिक स्वतंत्रता का भी ध्यान रखें। एक स्वाभिमानी पिता अपने पुत्रों से पैसे मांगने में झिझकेगा किन्तु पैसों के बिना उसका आत्मविश्वास भी डगमगाएगा और वह स्वयं को आश्रित समझेगा। यह संग्रह की एक सशक्त कहानी है जिसमें बड़े सुंदर ढंग से एक सेवानिवृत्त पिता के आत्मविश्वास एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता को बनाए रखने का मार्ग सुझाया गया है। इस तरह के विचारों की आज महती आवश्यकता है।

इसके ठीक बाद की कहानी में लेखक ने पिता की उसकी उस भूमिका के लिए कटघरे में खड़ा किया है जिसके कारण एक लड़की का समूचा जीवन प्रताड़ना झेलने को विवश हो जाता है। कहानी का शीर्षक है ‘‘इंतज़ार’’। समाज की मानसिकता आज भी बदली नहीं है। एक अदद पुत्र जन्म की आकांक्षा अजन्मी पुत्रियों पर भी कहर ढा देती हैं। इसी मुद्दे को मर्मस्पर्शी तरीके से कथाकार ने अपनी कहानी में पिरोया है। बालिका शिशु को गर्भ में ही मार देने के कुत्सित प्रयास ने जन्म के बाद उस बालिका को किस तरह का अभिशाप झेलना पड़ा, यह विचारोत्तेजक है। इसी तरह की विषाक्त मानसिकता के तहत होने वाली कन्याभ्रूण हत्याओं के कारण सरकार ने मेडिकल आवश्यकता के बिना भ्रूण का लिंग परीक्षण कराना अपराध घोषित कर दिया है।

‘‘जीत का जश्न’’ में कथाकार ने उस प्रसंग को उठाया है जिस पर बहुत ही कम लिखा गया। कोरोना की विभीषिका पर तो बहुत लिखा गया किन्तु आरम्भ में कोरोना के गांव-गांव तक फैलने के कारण को अकसर छोड़ दिया गया। यदि कोरोना के फैलने वाली स्थिति न बनती तो शायद विभीषिका भी हमें न झेलनी पड़ती। कोरोनाकाल के आरम्भ में ही चुनाव सम्पन्न हुए थे जिनमें गांव-गांव से लोग एकत्र हुए, आमसभाएं हुईं और कोरोना के विषाणुओं आसानी से अपने ‘‘कैरियर’’ मिल गए। इस कहानी के लिए कथाकार विनय कुमार की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने इस विभीषिका के प्रायः छोड़ दिए जाने वाले पक्ष को सामने रख कर मानवीय संवेदना का वास्तविक पक्ष लिया है।

‘‘कोई और चारा भी तो नहीं’’ एक अलग ही ज़मीन की कहानी है। इस कहानी में लेखक ने आवारा पशुओं की बढ़त एवं किसानों के लिए उनसे उत्पन्न होने वाले संकट की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। पंडित दुक्खू एक किसान है जिसकी फसल आवारा गौवंशी बरबाद करने लगते हैं। इस कहानी में गौसेवकों द्वारा गौवंश की रक्षा के एकपक्षीय दृष्टिकोण को भी रखा गया है। यद्यपि कहानी का अंत में एक बछड़े को बल्लम से मार दिया जाना असहमति उत्पन्न करता है क्योंकि मूक पशु अपने अज्ञान में फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। वे सिर्फ़ अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं। उन्हें नहीं पता होता है कि उनके इस कृत्य से किसी किसान को कितनी बड़ी क्षति पहुंचेगी। उनके इस आचरण के लिए दोषी हम मनुष्य ही हैं जो अनुपयोगी गौवंशियों को आवारा भटकने के लिए छोड़ देते हैं या फिर जंगलों को काटते हुए नीलगायों से उनका आवास छीन लेते हैं। इस कहानी में समस्या तो बखूबी उठाई गई है किन्तु समस्या का अनुचित अंत दे दिया गया है जिससे कथानक का प्रभाव खण्डित हुआ है। 

बलात्कार जैसे अपराध को लक्षित करती कहानी है ‘‘फिर चांद ने निकलना छोड़ दिया’’। इस कहानी में चांद एक प्रतीक के रूप में है जो पृथ्वी पर युवती पर हुए जघन्य अत्याचार को देख कर निकलना ही छोड़ देता है। यह कहानी बहुचर्चित निर्भया कांड की बात नहीं करती है किन्तु ऐसी तमाम घटनाओं का स्मरण करा देती है। साथ ही कटाक्ष करते हुए सोई हुई मानवता को झकझोरने का प्रयास भी करती है। कहानी का एक अंश देखिए जब स्वयं भगवान चांद के न निकलने का कारण गंाव वालों को बताते हैं-‘‘भगवान एक बार फिर रुके और साँस लेकर उन्होंने आगे बताना शुरू किया-‘लगभग दस दिन पहले चंद्रमा फिर मेरे पास आया और वह बहुत क्रोधित था। मेरे पूछने से पहले ही उसने बताना शुरू किया कि मुझे अब ऐसे संसार में उजाला नहीं फैलाना जहाँ मेरी आँखों के सामने मेरी ही रौशनी में ऐसा अत्याचार किया जाए। पता तो मुझे भी था कि रात में धरती पर चाँद के उजाले में एक लड़की से बलात्कार और फिर उसकी नृशंस हत्या हुई थी। लेकिन मैंने उसे समझाया कि उसका काम उजाला फैलाना है, इनसान की गलती पर उसे शर्मिंदा होने की जरुरत नहीं है। वह चला तो गया लेकिन मुझे कहता गया कि अगर ऐसा ही होता रहा तो शायद वह इस ब्रह्मांड से चला जाएगा।’’

संग्रह की कुल चौदह कहानियों में एक कहानी है ‘‘चन्नर’’। इसमें ग्रामीण अंचल में आज भी मौजूद सामंतवाद को उजागर किया गया है। कहानी ‘‘पुतलों का दर्द’’ स्तन कैंसर के ठीक हो जाने के बाद भी बनी रहने वाली मानसिक पीड़ा पर आधारित है। यह भी एक अच्छी कहानी है। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लिए कैंसर से लड़ना भी एक संघर्ष होता है फिर ईलाज के बाद पत्नी का एक स्तन विहीन हो जाना पति से अधिक पत्नी को मानसिक क्षति पहुंचाता है क्योंकि स्तन को भी स्त्री के सौंदर्य का मानक मान लिया जाता है। इस संबंध में काउंसलिंग की सख़्त आवश्यकता होती है किन्तु निम्न मध्यमवर्गीय परिवार को एक चिकित्सक ही काउंसलर के पास जाने की सलाह दे सकता है। यदि चिकित्सक यह सलाह न दे तो इस मानसिक समस्या का सामना करना कितना कठिन होता है, इस तथ्य को कहानी में सावधानी से प्रस्तुत किया गया है जिससे कहानी का कलेवर सार्थक हो गया है।

संग्रह की भूमिका लिखी है युवा कथाकार दीपक शर्मा ने। संग्रह के पिछले कव्हर के बाहरी पृष्ठ पर ‘‘नईधारा’’ पत्रिका के संपादक डाॅ शिवनारायण की टिप्पणी है जिसमें उन्होंने लेखक की भाषा एवं शैली की सराहना करते हुए लिखा है कि ‘‘लेखक ने अपने समय की भाषा और संस्कृति का सरल-सुंदर लिबास पहनाया है। भिन्न-भिन्न भाव-छवियों की इन कहानियों की परिनिष्ठित भाषा-शैली और कथ्य-कहन के कसाव को देखते हुए लगता ही नहीं कि यह लेखक की कहानियों का पहला संग्रह है। कहानियों में यत्र-तत्र जनपदीय शब्दों के प्रयोग और उसके यथार्थ छवि-चित्रण से वे अत्यन्त प्रभावशाली हो उठती है।’’ डाॅ शिवनारायण की इस टिप्पणी से निर्विवाद सहमत हुआ जा सकता है। निःसंदेह विनय कुमार की कथाशिल्प पर अच्छी पकड़ है। उनका यह प्रथम कहानी संग्रह अपनी छाप छोड़ने में सक्षम है। बस, आवश्यकता है तो निष्कर्ष में पहुंचने के धैर्य की। घटनाओं का भावावेश सदैव सटीक नहीं होता है। विनय कुमार का यह प्रथम कहानी संग्रह उनके कथालेखन की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त करता है। संग्रह की सभी कहानियां पठनीय एवं विचारणीय हैं।
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