प्रस्तुत है आज 19.03.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई संतोष श्रीवास्तव ‘‘विद्यार्थी’’ के काव्य संग्रह "सब तेरे सत्कर्मी फल हैं" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
भारतीय संस्कृति की परंपराओं का पोषण करती कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - सब तेरे सत्कर्मी फल हैं
कवि - संतोष श्रीवास्तव ‘‘विद्यार्थी’’
प्रकाशक - एन.डी. पब्लिकेशन, नई दिल्ली-3
मूल्य - 150/-
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हमारी भारतीय संस्कृति में यह स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति उसी तरह विकसित होता है जैसे उसे संस्कार मिलते हैं। यह संस्कार देने का दायित्व माता-पिता और गुरुजन का होता है। चूंकि अब गुरुकुल पद्धति नहीं है अतः संतान की बाल्यावस्था सबसे अधिक अपने माता-पिता के साथ व्यतीत होती है। इसीलिए वे ही प्रथमतः निर्णायक होते हैं अपनी संतान के भविष्य निर्माण के। इसीलिए माता-पिता स्तुत्य होते हैं। इस बात को पौराणिक ग्रंथों, उपनिषदों आदि में पद्यात्मक रूप में कहा गया है। यूं भी साहित्य में हर कथन अधिक प्रभावकारी होता है। ‘‘पद्मपुराण’’ के सृष्टिखंड (47/11) में कहा गया है-
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयरू पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत।।
- अर्थात माता सर्वतीर्थ हैं और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप हैं इसलिए सभी प्रकार से यत्नपूर्वक माता-पिता का पूजन करना चाहिए।
विगत कुछ दशकों से यथार्थ के कठोर परिदृश्य को कविता में उतारने के प्रयास ने भावनात्मक संबंधों पर लेखनी को हाशिए में कर दिया है। माता-पिता पर काव्य सृजन करना गोया पिछड़ी हुई बात हो। किन्तु कुछ कवि हैं जो ऐसे भ्रम को तोड़ कर भारतीय संस्कृति की परंपराओं का पोषण कर रहे हैं। ऐसे कवि अपने माता-पिता के प्रति समर्पित कविताएं लिख रहे हैं। संतोष श्रीवास्तव ‘‘विद्यार्थी’’ भी ऐसे ही एक कवि हैं जिन्होंने अपने प्रथम काव्य संग्रह को पूरी तरह अपने माता-पिता को समर्पित करते हुए तथा अपने दिवंगत पिता के प्रति संबोधित होते हुए संग्रह का नाम दिया है- ‘‘सब तेरे सत्कर्मी फल हैं’’।
आज के दौर में जब बच्चे माता-पिता तथा परिवार की वरिष्ठजन से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे समय में कवि विद्यार्थी की कविताओं का बहुत अधिक महत्व है यह कविताएं बड़ों के प्रति रागात्मक व्यवहार का अनुमोदन करती हैं। यह जननी तथा जनक के महत्व को स्थापित करती हैं। ये कविताएं बड़ी सामयिक हैं क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति में वानप्रस्थ आश्रम की संकल्पना है किन्तु वृद्धाश्रम की नहीं। वानप्रस्थ आश्रम वह होता था जिसमें व्यक्ति अपने समस्त पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण कर के प्रकृति के निकट रहने के लिए वन में प्रस्थान कर जाता था। किन्तु उसके जीवनयापन की सम्पूर्ण व्यवस्था उसके परिजन करते थे तथा उससे सदा भेंट कर करते रहते थे। किन्तु वृद्धाश्रम व्यवस्था में उपेक्षापूर्ण ढंग से अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम के हवाले कर के, चंद रुपयों का सहयोग कर के इतिश्री मान लिया जाता है। इसमें माता-पिता के सुख की भावना नहीं वरन् उनसे छुटकारे की भावना प्रबल रहती है। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि लगभग पिछली एक पीढ़ी से माता-पिता धन कमाने के चक्कर में बच्चों के उचित लालन-पालन से विरत होते चले गए हैं। यह रवैया और अधिक बढ़ता जा रहा है।
संतोष श्रीवास्तव ‘‘विद्यार्थी’’ ने बढ़ते जा रहे इस सामाजिक दोष को दूर करने की दिशा में माता-पिता एवं वरिष्ठजन पर कविताएं लिख कर उत्तम कार्य किया है। माता-पिता पर केंद्रित उनकी कविताएं जहां संवेदनशील और भावपूर्ण है वही उनकी सामाजिक अर्थवत्ता बहुत अधिक है। अपने जन्मदाता एवं जन्मदात्री को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं - ‘‘सब तेरे सत्कर्मी फल हैं’’। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
मेरे हृदय पटल तुम शाश्वत, मेरे नयन सुमिरनी जल है।
इसमें मेरी कौन बड़ाई, सब तेरे सत्कर्मी फल है।।
सत्कर्मों के बीज परिष्कृत, जो धरती उर्वरा न पाई।
बोलो बीज करे क्या प्रियवर, या ऊसर है या निर्जल है।।
तुमनें ही तो मन-मस्तिष्की, मेरे फसल-क्षेत्र को साधा।
खून-पसीने का जल सींचा, मेरी चिंता, रहे विकल हैं।।
मेरे जनक, परम प्रिय जननी, मेरे आत्मरथी सुख करनी।
तेरे पुण्य, हस्त-पग मेरे, मेरी तरनी है, भुजबल हैं।।
माता-पिता के संस्कार ही संतान को अच्छा या बुरा बनाते हैं मुझे एक कहानी याद आती है जो मुख्य रूप से भीली लोक कथा है। एक गांव में एक युवक था जिसे चोरी करने की आदत थी। वह इतनी कुशलता से चोरी करता कि कभी पकड़ा नहीं जाता और जब भी वह चोरी का सामान लेकर घर पहुंचता तो उसकी मां उससे बहुत शाबाशी देती। वह बेटे की पीठ ठोंक कर कहती कि ‘‘वाह बेटा, तूने बहुत बढ़िया काम किया है।’’ अपनी मां से शाबाशी पा कर उस चोर का साहस बढ़ता गया। एक समय ऐसा आया कि वह राजमहल में चोरी करने घुस गया। उसे लगा कि यदि मैं कोई राजसी सामान चुरा कर ले जाऊंगा तो मेरी मां गर्व से भर उठेगी। दुर्भाग्यवश वह राजमहल में घुसते ही पकड़ा गया। राजा ने उसे सरेआम हजार कोड़े लगाए जाने की सजा सुनाई। जब मां को पता चला तो वह रोती हुई कोड़े मारने वाले के पास पहुंची और पुत्र को छोड़ देने का अनुरोध करने लगी। वह कोड़े मारने वाले से रो-रो कर कहने लगी कि ‘‘मैं अपन पुत्र को दण्डित होते नहीं देख सकूंगी।’’ तब पुत्र ने मां से कहा कि ‘‘मंा यह तो तुम्हें उस समय सोचना था जब मैंने पहली बार चोरी की थी और तुमने मेरी पीठ थपथपा कर मुझे शाबाशी दी थी। यदि तुमने उसी दिन एक थप्पड़ मेरे गाल पर मारा होता तो आज मुझे हजार कोड़े खाने की सज़ा न मिलती। तुम मेरी मां हो लेकिन मुझे दुख है कि तुमने मां का सही दायित्व नहीं निभाया।’’ यह सुन कर मां अपना-सा मुंह ले कर रह गई। उसका बेटा जो कह रहा था, सच कह रहा था। संतोष श्रीवास्तव ‘‘विद्यार्थी’’ ने अपने पिता और माता दोनों को समान रूप से स्मरण करते हुए कविताएं लिखी हैं। पिता पर लिखी उनकी कविता ‘‘ऐ मेरे जन्मदाता’’ की पंक्तियां देखिए-
ऐ मेरे जन्मदाता, मैं हूँ तेरी निशानी।
कुछ भी नहीं है मेरा, सब तेरी मेहरबानी ।।
जिस दिन मैं बीज बनकर, माँ के गरभ में आया,
उस दिन से ही तुम्हारे मश्तिष्क में समाया।
उस दिन से शुरू कर दी, गढ़ना मेरी कहानी,
कुछ भी नहीं है मेरा, सब तेरी मेहरबानी ।।
फिर माता के प्रति उन्होंने अपना समर्पण भरा अनुराग एवं श्रद्धा व्यक्त की है। ‘‘पुण्य तेरा हम सबके माथे सूर्य किरण जैसा चमके’’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं-
प्रसव वेदना में जिसके, दिखता क्रंदन,
हृदयांचल में सदा, मधुर मुस्कान लिया।
धरा पदार्पण में तेरे, जिस देवी ने,
कर विस्मृत पीड़ा, चुंबन प्रतिदान दिया।।
मेरे जीवन का आधार, चुंबन तेरा,
मेरे चेहरे के आकाश दामिनी दमके।
पुण्य तेरा हम सबके माथे,
सूर्य किरण जैसा चमके ।।
ऐसा नहीं है कि कवि ‘‘विद्यार्थी’’ ने मात्र अपने माता-पिता का स्मरण किया हो, उन्होंने देश के ‘‘बापू’’ महात्मा गंाधी पर भी कविता बापू के ‘‘मधुरिम सपनों का, फैला भारतवर्ष वहां’’ लिखी है-
छोड़ छाड़ वैभव बापू ने, जिस कल का बलिदान किया।
आज वही कल हम जीते हैं, हमको जीवन दान दिया।।
इस कल को गढ़ना अरु बढ़ना, आज हमारा सपना है।
जो देखा बापू ने सपना, स्वर्णिम सपना अपना है।।
लगभग 25 पृष्ठ तक ईश्वर की आराधना, माता-पिता की स्तुति, राष्ट्र शहर तथा विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ हरि सिंह गौर की वंदना की गई है। तदोपरांत निर्वाचन लोकतंत्र का पर्व, दान नहीं मतदान, जैसी कविताओं के द्वारा जन जागरूकता के विषयों को रखा गया है। कवि विद्यार्थी ने हिंदी और बुंदेली पर भी कविताएं लिखी हैं। कवि विद्यार्थी की कविताओं की विशेषता यह है कि वे विभिन्न छंदों में निबद्ध हैं जिससे उनके छांदासिक ज्ञान का पता चलता है और इससे उनकी रचनाओं की मधुरता भी बढ़ गई है। जब भाव और शिल्प समान रूप से अभिव्यक्ति पाते हैं तो रचना और अधिक लुभावनी हो जाती है तथा स्मृति में देर तक बनी रहती है।
डॉ सुरेश आचार्य जी ने पुस्तक की भूमिका में उचित लिखा है कि ‘‘कवि विद्यार्थी नाम से भले विद्यार्थी हैं किंतु काम से शिक्षक हैं।’’ इसी तरह गीतऋषि डॉ. श्याममनोहर सीरोठिया ने भूमिका में लिखा है- ‘‘कवि ‘‘विद्यार्थी’’ जी ने लोक जीवन के अनेक आदर्श-पात्रों को अपने काव्य में उतारा है, जिनमें महर्षि बाल्मिकी, संत शिरोमणि तुलसीदास, राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर जी की सृजनशीलता के संस्कारों को काव्य में आत्मसात करने का बड़ा कार्य किया है। इसी क्रम में युग-संत स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, डॉ. हरिसिंह गौर जैसे महापुरूषों के उदात्त चरित्रों को अपनी रचनाओं में सम्मानजनक स्थान दिया है। ये रचनाऐं शुचिता की ऐसी त्रिवेणी हैं जिनमें अवगाहन कर पाठक अपने आपको परिष्कृत करने का अवसर भी पाता है।’’
आचार्य पं. महेश दत्त त्रिपाठी ने कवि के कला पक्ष को रेखांकित करते हुए लिखा है कि- ‘‘विद्यार्थी जी की रचनाएँ छंदबद्ध हैं जिनमें मनहरण घनाक्षरी, लावनी, दोहे, चैपाई, मत्तगयंद सवैया, ताटंक जैसे छन्द पठनीय होने के साथ गेय हैं। अपने माता-पिता का पुण्य-स्मरण, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, सागर सपूत डॉ. हरिसिंह गौर को समर्पित रचनाएँ मनमोहक हैं, साथ ही राष्ट्र के अमर वीरों का पुण्य-स्मरण भी पाठकों को मातृभूमि के प्रति समर्पण की प्रेरणा देता है। ‘‘विद्यार्थी जी’’ का यह काव्य-संग्रह सृजन का सुकृत प्रयास सराहनीय एवं स्तुत्य है।’’
संतोष श्रीवास्तव ‘‘विद्यार्थी’’ की कविताएं आस्थावान पारंपरिक मूल्यों एवं पारिवारिक संबंधों की उष्मा से परिपूर्ण हैं। परिवार के प्रति पिता के दायित्वों एवं कर्तव्यों पर लिखी कविताओं के माध्यम से कवि ने सम्पूर्ण पिताओं के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की है। भारतीय संस्कृति की परम्पराओं के पोषण की दिशा में संतोष श्रीवास्तव ‘‘विद्यार्थी’’ का यह प्रथम काव्य संग्रह महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।
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