Friday, March 22, 2024

शून्यकाल | श्रीराम से होली खेलने वाली बुंदेला रानी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम...      
शून्यकाल
श्रीराम से होली खेलने वाली बुंदेला रानी
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                           
     श्रीराम की ओर सभी कवियों ने दास भाव से देखा किन्तु सखीभाव से एक ही रानी ने देखा। बुंदेलखंड की विशेषता बहुत बड़ी सांस्कृतिक विशेषता इसी रामभक्ति में मौजूद है। सभी जानते हैं कि मीरा को कृष्णभक्ति करने पर राणा द्वारा विषपान कराया गया। लेकिन बुंदेलखंड में इससे बिलकुल अलग इतिहास है। यहां रानी की कृष्ण भक्ति को लेकर राजा के मन में मनिक रोष जागा किन्तु शत्रुता नहीं। बुन्देलखण्ड की ऐतिहासिक स्थली ओरछा में एक रानी हुई जिसका जीवन श्रीराम की भक्ति में डूबा हुआ था। इनका मूलनाम था गणेश कुंवरी अथवा कंचन कुंवरी।
जब बात हो बुंदेलखंड होली की तो यहां की परम्पराओं और कथाओं में स्त्रीशक्ति को बखूबी देखा जा सकता है। बुंदेलखंड की वे महिलाएं जो हर दिन समस्याओं का सामना करती हैं लेकिन उनके भीतर मौजूद उत्सवधर्मिता होली आते ही उनके साहसी व्यक्तित्व को सबके सामने ला देती है। कवि पद्माकर ने अपने इस कवित्त में बुंदेलखंड की महिलाओं के साहस भरे पक्ष को बड़ी सुंदरता से सामने रखा है -
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी
नैन नचाय कही मुसकाय ’’लला फिर आइयो खेलन होरी
बरसाने की ‘लट्ठमार‘ होली विश्वविख्यात है लेकिन बुंदेलखंड में भी कुछ स्थानों पर ‘लट्ठमार‘ होली खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। एक लट्ठमार होली का संबंध हिरण्यकश्यपु की कथा से ही है। झांसी जिले के रक्सा विकास खंड के पुनावली कलां गांव की लट्ठमार होली बरसाने से ज्यादा रोचक होती है। यहां महिलाएं गुड़ की भेली एक पोटली में बांधकर कर पेड़ की डाल पर टांग देती हैं। फिर महिलाएं लट्ठ लेकर स्वयं उसकी रखवाली करती है। यह पुरुषों के लिए चुनौती के समान होता है। जो भी पुरुष इस पोटली को पाने का प्रयास करता है, उसे महिलाओं के लट्ठ का सामना करना पड़ता है। इस रस्म के बाद ही यहां होलिका दहन होता है और फिर रंग खेला जाता है। इस परम्परा के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि राक्षसराज हिरणकश्यपु के समय होलिका विष्णुभक्त प्रह्लाद को अपनी गोदी में लेकर जलती चिता में बैठी थी। वहां उपस्थित महिलाओं से यह दृश्य देखा नहीं गया और उन्होंने राक्षसों के साथ युद्ध करते हुए विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रहलाद को बचा लें। उन साहसी महिलाओं की पुकार सुन कर विष्णु ने प्रहलाद को बचा लिया। इसी घटना की याद में ’लट्ठमार होली’ का आयोजन किया जाता है, जिसके द्वारा महिलाएं यह प्रकट करती हैं कि वे अन्याय के विरुद्ध लड़ भी सकती हैं।
यूं तो कृष्ण के साथ गोपियों एवं भक्त रानियों द्वारा होली खेलने के प्रसंग अनेक ग्रंथों में मिलते हैं जबकि श्री राम को सदा मर्यादा पुरुषोत्तम माना जाने के कारण उनके साथ होली खेले जाने के प्रसंग मेरे संज्ञान में नहीं हैं। किन्तु बुन्देलखण्ड की ऐतिहासिक स्थली ओरछा में एक रानी हुई जिसका जीवन श्रीराम की भक्ति में डूबा हुआ था। उस रानी का नाम था कंचन कुंवरी। रानी कंचन कुंवरी ओरछा के राजा महाराज सुजान सिंह की पत्नी थी। वह बाल्यावस्था से ही श्रीराम की अनन्य उपासिका थी। विवाह के बाद ओरछा आने पर भी उसकी राम-भक्ति में कोई कमी नहीं आई। अपने राममय जीवन में वह अपनी कल्पनाओं में भला होली खेलने राम के पास नहीं जाती तो और कहां जाती?

श्रीराम की ओर सभी कवियों ने दास भाव से देखा किन्तु सखीभाव से एक ही रानी ने देखा। बुंदेलखंड की विशेषता बहुत बड़ी सांस्कृतिक विशेषता इसी रामभक्ति में मौजूद है। सभी जानते हैं कि मीरा को कृष्णभक्ति करने पर राणा द्वारा विषपान कराया गया। लेकिन बुंदेलखंड में इससे बिलकुल अलग इतिहास है। यहां रानी की कृष्ण भक्ति को लेकर राजा के मन में मनिक रोष जागा किन्तु शत्रुता नहीं। बुन्देलखण्ड की ऐतिहासिक स्थली ओरछा में एक रानी हुई जिसका जीवन श्रीराम की भक्ति में डूबा हुआ था। इनका मूलनाम था गणेश कुंवरी। जिसका उल्लेख लोकगीतों में मिलता है-
राजा मधुकर शाह की रानी कुंवर गणेश।
अवधपुरी से ओरछा लाई अवध नरेश।।

श्रीराम प्रतिमा की अयोध्या से ओरछा आने की कथा भी बहुत दिलचस्प है। ओरछा नरेश मधुकरशाह कृष्ण भक्त थे। एक दिन उन्होंने अपनी रानी कंचन कुंवरी से कृष्ण भक्ति के लिए वृंदावन चलने को कहा। लेकिन रानी श्रीराम भक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। क्रोध में आकर राजा ने उन्हें ताना मारते हुए कहा कि ‘‘तुम इतनी राम भक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ!’’
 कहा जाता है कि रानी कंचन कुंवरी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरंभ कर दी। कई माह व्यतीत हो गए किन्तु उन्हें श्रीराम के दर्शन नहीं हुए। अंततः वे निराश होकर अपने प्राण त्याग ने सरयू नदी में कूद गईं। यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। रानी ने उन्हें अपना मंतव्य बताया। तब श्रीराम ने ओरछा चलना स्वीकार कर लिया किन्तु उन्होंने तीन शर्तें रखीं- पहली शर्त - यह यात्रा पैदल होगी। दूसरी शर्त - यात्रा केवल पुष्प नक्षत्र में होगी। और तीसरी शर्त - श्रीराम की मूर्ति जिस जगह रखी जाएगी वहां से पुनः नहीं उठेगी।
रानी ने सभी शर्तें मान लीं और राजा मधुकरशाह को संदेश भेजा कि वो रामराजा को लेकर ओरछा आ रहीं हैं। राजा मधुकरशाह ने श्रीराम के विग्रह को स्थापित करने के लिए करोड़ों की लागत से चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया। लेकिन जब रानी ओरछा पहुंची तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल में रख दी। यह निश्चित हुआ कि शुभ मुर्हूत में मूर्ति को चतुर्भुज मंदिर में रखकर इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। लेकिन राम के इस विग्रह ने चतुर्भुज मंदिर जाने से मना कर दिया। श्रीराम ओरछा के रामराजा कहलाए और राजमहल ही उनका मंदिर बन गया। श्रीरामराजा महल में विराजमान हैं।
शयन आरती के पश्चात उनकी ज्योति हनुमानजी को सौंपी जाती है, जो रात्रि विश्राम के लिए उन्हें अयोध्या ले जाते हैं-
सर्व व्यापते राम के दो हैं खास निवास,
दिवस ओरछा रहत हैं, शयन अयोध्या वास।
रामराजा की इस मूर्ति के बारे में भी एक रोचक कथा प्रचलित है। लोक प्रचलित मान्यता है कि जब श्रीराम वनवास जा रहे थे तो उन्होंने अपनी एक बालमूर्ति मां कौशल्या को दी थी। मां कौशल्या उसी को बाल भोग लगाया करती थीं। जब श्रीराम अयोध्या लौटे तो कौशल्या ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। यही मूर्ति रानी गणेश कुंवरी को सरयू के तल में मिली थी।
रसखान, पद्माकर आदि कवियों ने श्रीकृष्ण और गोपियों के परस्पर होली खेलने का जी भर कर वर्णन किया है किन्तु रानी कंचन कुंवरी ने श्रीराम और सीता के साथ होली खेलने का वर्णन करते हुए कविताएं लिखीं। ये पंक्तियां देखिए -
रसिया है खिलाड़ी, होरी को रसिया।
अबीर गुलाल भरत नैनन में, डारत है रंग केशर को ।
पकड़ न पावत भाज जात है, मूठा भर-भर रोरी को।।

कंचन कुंवरी ने श्रीराम के साथ होली खेले जाने की कविता लिखते हुए परम्परागत शैली को तो अपनाया है किन्तु मर्यादाओं को कहीं भी नहीं लांघा है। जैसे-
खेलत ऐसी होरी, करत रघुबर बरजोरी।।  
नाको गेह खड़ो पनघट में छैल सकारी खोरी
धूम मचावत, रंग बरसावत, गावत हो-हो होरी
भरत अकम जोरा-जोरी।।
सारी तार-तार कर डारी,  मोतिन की लर तोरी
‘कंचन कुंवरी’ मुरक गई बेसर में बहुभांति निहोरी
सुनी ऊने एक न मोरी।।
सीता जी की सखी के रूप में स्वयं को देखती हुई रानी कंचन कुंवरी एक मधुर कल्पना को अपने गीत में पिरोती हैं कि फागुनी उमंग में डूबे अवध नरेश श्रीराम ने जब सहज भाव से होली खेलने के लिए रानी कंचन कुंवरी को मार्ग में रोकने का प्रयास किया तब रानी को कौशल्या माता का वास्ता देना पड़ा। यह वर्णन अपने आप में अद्वितीय और अनूठा है। इसमें भक्ति के दासभाव पर सखाभाव प्रभावी हो गया है और ब्रज के कान्हा की होली की छटा उभर आई है -
मोरी छैको न गैल खैल रसिया,
मदमाते छाक होरी के राजकुंवर
हो अवध बसिया,
संग की सखियां दूर निकर गईं
हो जों अकेली, मोरो डरपै जिया,
सास, ननद कहूं जो सुन पैहें
गारी दैहें, मोरे प्राण पिया,
‘कंचन कुंवरी’ कौशल्या बरै
तन मन तुम पै वार दिया,
मोरी छैको न गैल खैल रसिया।
श्री राम से होली खेलने के लिए सीता जी से अनुमति लेने का ध्यान भी रानी कंचन कुंवरी ने रखा है और सीता यानी मिथिलेश लली से अनुमति मिल जाने पर रानी श्रीराम को सीता की भांति सजा कर होली खेलना चाहती है। यहां रानी का श्रीराम के प्रति ‘सखी भाव’ प्रकट होता है-
रसिया को आज पकड़ लैबी, है आज्ञा मिथिलेश लली की,  
तुरतई पालन कर लैबी, सकल अभूषण प्यारी जी के
सज नागर भेष बना देबी, ‘कंचन कुंवरी’ चरनन में नूपुर
नखन महावर दे देबी।
श्रीराम की भक्त कवयित्री कंचन कुंवरी ने ब्रज और अवधी मिश्रित बुन्देली में भजन, बधाई, दादरा, बन्ना, झूला गीत और फाग गीतों की रचना की है जिन्हें आज भी समूचे बुन्देलखण्ड में ढोलक और मंजीरे के साथ गाया जाता है। किन्तु इन सभी रचनाओं में श्रीराम के साथ होली खेलने का वर्णन सबसे विशिष्ट कहा जा सकता है। भक्ति साहित्य में ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। तो यही है बुंदेली होली और बुंदेली स्त्री स्वाभभिमान की कथा।
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