Saturday, July 30, 2011

दक्षिणी सूडान की स्वतंत्रता और स्त्री शक्ति

- डॉ. शरद सिंह 

 आंधी-तूफान के बाद खिलने वाली सुनहरी धूप की भांति दक्षिणी सूडान की स्वतंत्रता एक लंबे गृहयुद्ध के बाद हासिल हुई है। गृहयुद्ध के दौरान पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी और बड़ी संख्या में हताहत हुए। इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम झेला स्त्रियों ने। अपनों के मारे जाने का दुख और शेष रह गए जीवितों के प्रति जिम्मेदारी का संघर्ष। इन सबके बीच अनेक स्त्रियों को बलात्कार जैसी मर्मांतक पीड़ा से भी गुजरना पड़ा।


     छत्तीस वर्षीया जेसिका फोनी ने अपने अभी तक के जीवन में आठ बार प्रसव पीड़ा सहन की है और सुविधा के अभाव में अपने दो बच्चों को मौत के मुंह में जाते देखा है। जेसिका को जब इस बात का पता चला कि उसकी जन्मभूमि एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में दुनिया के नक्शे पर स्थापित होने जा रही है तो वह स्वयं को रोक नहीं सकी। जेसिका की आंतरिक प्रसन्नता और अपने स्वतंत्र राष्ट्र से जुड़ी हुई आशा और दक्षिणी सूडान की राजधानी खींच लाई जहां देश की स्वतंत्रता की विधिवत घोषणा की जाने वाली थी। सुदूर ग्रामीण क्षेत्र से आई जेसिका ने उत्सव का जी भर कर आनंद लिया।    
    आंधी-तूफान के बाद खिलने वाली सुनहरी धूप की भांति दक्षिणी सूडान की स्वतंत्रता एक लंबे गृहयुद्ध के बाद हासिल हुई है। गृहयुद्ध के दौरान पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी और बड़ी संख्या में हताहत हुए। इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम झेला स्त्रियों ने। अपनों के मारे जाने का दुख और शेष रह गए जीवितों के प्रति जिम्मेदारी का संघर्ष। इन सबके बीच अनेक स्त्रियों को बलात्कार जैसी मर्मांतक पीड़ा से भी गुजरना पड़ा। वह दक्षिणी सूडान के इतिहास का एक अंधकारमय समय था किंतु जैसा कि अंधेरा छंटता है और सूरज दिखाई देने लगता है, दक्षिणी सूडान में भी स्वतंत्रता का सूरज उग ही गया। 
   जेसिका फोनी के लिए देश की स्वतंत्रता का एक अर्थ है कि अब उसके सुदूर गांव जैसे ग्रामीण अंचलों में प्रसूति से जुड़ी चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हो जाएंगी। उसे आशा है कि अब उसकी तरह किसी और मां को चिकित्सा सुविधा के अभाव में अपने बच्चों को अपनी आंखों के सामने मरते हुए नहीं देखना पड़ेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकडों के अनुसार दक्षिणी सूडान में मातृ-शिशु मृत्यु दर विश्व में सर्वाधिक है। वहां अब तक प्रत्येक एक लाख प्रसव के दौरान लगभग २०५४ स्त्रियों की मृत्यु हो जाती है। ऐसी विकट स्थिति में जेसिका के सुरक्षित मातृत्व का सपना देश की स्वतंत्रता का पर्याय है।
        
 
जेम्मा नुनू कुंबा
   जेसिका फोनी के सपने को सच होने की संभावना तक लाने का श्रेय उन स्त्रियों को है जो स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर सशस्त्र लड़ाई लड़ती रहीं। सूडान पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की गर्ल्स बटालियन ने द्वितीय गृह युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूडान में दो प्रमुख गृहयुद्ध हुए। पहला सन्‌ १९४३ से १९७२ तक और दूसरा १९८३ से आरंभ हुआ और देश को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने तक चला। गर्ल्स बटालियन की कमांडर अगिएर अगुम ने जिस साहस और दृढ़ता के साथ बटालियन का संचालन किया था वह गृहयुद्ध को सकारात्मक परिणाम में बदलने में एक अहम निर्णायक पक्ष रहा। कमांडर अगिएर अगुम ने सहायता शिविरों के लिए भी काम किया था।
      
अगिएर अगुम की भांति जेम्मा नुनू कुंबा ने भी दक्षिणी सूडान के स्वतंत्रता संघर्ष में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। यह जानते हुए भी कि इस संघर्ष में किसी भी पल वे किसी गोली या बम का शिकार हो सकती थीं। जेम्मा नुनू कुंबा का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य में स्वतंत्रता की भावना प्राकृतिक रूप से पाई जाती है। जेम्मा ने स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल होने के लिए विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। जेम्मा का जन्म अन्या-न्या में उस समय हुआ था जब प्रथम गृह युद्ध शुरू हो चुका था। देश में अस्थिरता का वातावरण था। इसीलिए जेम्मा के भीतर देश की स्वतंत्रता की भावना उम्र बढ़ने के साथ-साथ बलवती होती गई। जेम्मा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष को उचित ठहराती हैं। उनके अनुसार, "प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रता के वातावरण में सांस लेना चाहता है और स्वतंत्रता उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः यदि स्वतंत्रता पाने के लिए सशस्त्र संघर्ष भी करना पड़े तो वह जीवन संघर्ष की भांति उचित है। "
  स्वतंत्र दक्षिणी सूडान में जेम्मा नुनू कुंबा पर जिम्मेदारी है जेसिका फोनी जैसी हजारों स्त्रियों के सपनों को पूरा करने की। वे स्वतंत्र दक्षिणी सूडान की प्रथम महिला गवर्नर होने का गौरव पाने के साथ ही देश के प्रथम राष्ट्रपति साल्वा कीर मयार्दित सरकार में हाउसिंग और इन्फ्रास्ट्रक्चर मंत्री हैं। जेम्मा को अरूबा का सपना भी पूरा करना है जो एक शिक्षिका है और जिसने अपने स्कूल के बच्चों को कठिनतम समय में भी पढ़ाई से जोड़े रखा। अरूबा के स्कूल में न तो फर्नीचर है और न ब्लैक बोर्ड। दाने-दाने के लिए जूझने वाले बच्चों के पास किताबें होने का तो प्रश्न ही नहीं था। फिर भी अरूबा ने हिम्मत नहीं हारी और अपने ज्ञान को मौखिक रूप से बच्चों को देती रहीं ताकि वे जीवन के आवश्यक ज्ञान से वंचित न रह जाएं। अरूबा को कुछ समय भूमिगत भी रहना पड़ा क्योंकि उसके क्षेत्र के सैन्य अधिकारी को संदेह हो गया था कि वह पढ़ाने के साथ-साथ उन लोगों की सहायता करती है जो स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत हैं।
                                     
       
दक्षिणी सूडान
जेम्मा नुनू कुंबा, अगिएर अगुम, अरूबा, साफिया इश्क आदि अनेक स्त्रियों ने अपना सब कुछ दांव पर लगाकर दक्षिणी सूडान को स्वतंत्रता दिलाई है और अब यही स्त्री शक्ति एक सुदृढ़ देश का ताना-बाना रचेगी।
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 17.07.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)


Sunday, July 17, 2011

अपनों के हाथों बिकतीं लड़कियां

 - डॉ. शरद सिंह        
  
        इसमें कोई संदेह नहीं है कि गरीबी की आंच सबसे पहले औरत की देह को जलाती है। अपने पेट की आग बुझाने के लिए एक औरत अपनी देह का सौदा शायद ही कभी करे, वह बिकती है तो अपने परिवार के उन सदस्यों के लिए जिन्हें वह अपने से बढ़कर प्रेम करती है और जिनके लिए अपना सब कुछ लुटा सकती है। लेकिन देह के खेल का एक पक्ष और भी है जो निरा घिनौना है। यही है वह पक्ष जिसमें परिवार के सदस्य अपने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी बेटी या बहन को रुपयों के लालच में किसी के भी हाथों बेच दें। 
        
        औरतों का जीवन मानो कोई उपभोग वस्तु हो-कुछ इस तरह स्त्रियों को चंद रुपयों के बदले बेचा और खरीदा जाता है। इसे मानव तस्करी, महिला तस्करी या तथाकथित "विवाह" का नाम भले ही दे दिया जाए लेकिन उन औरतों की पीड़ा को भला कौन समझ सकेगा जो अपने ही माता-पिता, चाचा, मामा, ताऊ, जीजा आदि निकट संबंधियों के द्वारा "विवाह" के नाम पर बेची जा रही हैं। इस प्रकार के अपराध कुछ समय पहले तक बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों में ही प्रकाश में आते थे लेकिन अब इस अपराध ने अपने पांव इतने पसार लिए हैं कि इसे मध्य प्रदेश के गांवों में भी घटित होते देखा जा सकता है। इस अपराध का रूप "विवाह" का है ताकि इसे सामाजिक मान्यताओं एवं कानूनी अड़चनों को पार करने में कोई परेशानी न हो।

            
 
          मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में भी उड़ीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियों को विवाह करके लाया जाना ध्यान दिए जाने योग्य मसला है, क्योंकि यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें , ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं बल्कि छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये गरीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ्त की नौकरानी पाने के लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीदारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं।

               
                खरीदार जानते हैं कि "ब्याह कर" लाई गईं ये लड़कियां पूरी तरह से उन्हीं की दया पर निर्भर हैं क्योंकि ये लड़कियां न तो पढ़ी-लिखी हैं और न ही इनका कोई नाते-रिश्तेदार इनकी खोज-खबर लेने वाला है। ये लड़कियां भी जानती हैं कि इन्हें ब्याहता का दर्जा भले ही दे दिया गया है लेकिन ये सिर नहीं उठा सकती हैं। ये अपनी उपयोगिता जता कर ही जीवन के संसाधन हासिल कर सकती हैं। इन लड़कियों के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह भी है कि ये अपनी बोली-भाषा के अलावा दूसरी बोली-भाषा नहीं जानती हैं अतः ये किसी अन्य व्यक्ति से संवाद स्थापित करके अपने दुख-दर्द भी नहीं बता सकती हैं। 
        
             इनमें से अनेक लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने इससे पहले कभी किसी बस या रेल पर यात्रा नहीं की थी अतः वे घर लौटने का रास्ता भी नहीं जानती हैं। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लौटकर जाने के लिए इनके पास कोई "अपना" नहीं है। जिन्होंने इन लड़कियों को विवाह के नाम पर अनजान रास्ते पर धकेला है वे या तो इन्हें अपनाएंगे नहीं या फिर कोई और "ग्राहक" ढूंढ़ निकालेंगे।

(साभार- दैनिकनईदुनियामें 16.01.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Saturday, July 2, 2011

जमीला, सारा, दारा और सरकोजी

- डॉ. शरद सिंह

फ्रांस में नए कानून के अनुसार पुलिस बुर्का पहनी किसी भी महिला पर जुर्माना लगा सकती है। फ्रांस इसके पहले २००४ में एक कानून बनाकर स्कूलों में स्कार्फ पर रोक लगा चुका है। उस समय भी सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा था। अततः अब यूरोप के सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले देश फ्रांस में बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और इसका श्रेय फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को है। इस नए नियम के अनुसार अब महिलाएं सार्वजनिक स्थलों पर बुर्का नहीं पहन सकेंगी। 
राष्ट्रपति सरकोज़ी
         इस कानून को प्रयोग में लाना काफी कठिन होगा क्योंकि यह चेहरा ढंकने वाले किसी भी तरीके का विरोध करता है लेकिन अनेक लोगों का यह भी मानना है कि इस कानून का उद्देश्य इस्लाम की निंदा करना नहीं बल्कि महिलाओं को बिना परदे के चलने की स्वतंत्रता देना है जिससे वे अन्य महिलाओं की तरह स्वयं को महसूस कर सकें। राष्ट्रपति सरकोजी को हमेशा से एक प्रगतिशील विचारों का नेता माना जाता रहा है और समय-समय पर उन्होंने अपनी प्रगतिशीलता के प्रमाण भी दिए हैं। 
     देखा जाए तो यह बहुत विचित्र लगता है कि देश की एक बड़ी संख्या में महिलाएं इच्छानुसार मुक्तभाव से कपड़े पहनें और दूसरी ओर कुछ महिलाएं पर्दे के चलन का निर्वाह करती रहें। इस दृष्टि से राष्ट्रपति सरकोजी का यह कदम न्यायसंगत लगता है किंतु बहुत कठिन डगर है इस कानून की।

           
बुर्का इस्लामिक आचार-व्यवहार में इतना रचा-बसा है कि उसे छोड़ पाना मुस्लिम महिलाओं के लिए कितना कठिन होगा इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ प्रमुख इस्लामिक देशों में नन्ही-मुन्नी बच्चियां जिन गुड़ियों से खेलती हैं वे गुड़ियां भी बुर्का सहित गढ़ी जाती हैं। 

बार्बी डॉल फुल्ला
          गुड्डे-गुड़िया का खेल सामाजिक संस्कार देता है और बुर्के वाली गुड़ियों से खेलने वाली नन्ही बालिकाओं को बुर्का पहनने के संस्कार गुड़ियों के द्वारा उनकी अबोध अवस्था में ही उनके मानस में डाल दिए जाते हैं। नन्ही बालिकाएं बचपन से ही अपनी मां को बुर्के में लिपटी देखती हैं, अपनी गुड़ियों को बुर्का पहने देखती हैं और परिवार-समाज के लोगों को बुर्के की तरफदारी करते पाती हैं, तब वे एक झटके से बुर्के के बाहर कैसे आ सकती हैं?

        
जब बार्बी गुड़िया बनाने वाली कंपनी ने सन्‌ २००३ में "फुल्ला" नाम की गुड़िया बनाकर बाजार में उतारी थी जिसे "अबाया" और सिर पर रूमाल पहनाया गया था। अनेक पश्चिमी और एशियाई देशों में इस गुड़िया पर टीका-टिप्पणी की गई थी जबकि इस्लामिक देशों में इसका स्वागत किया गया था। अरब गुड़िया "जमीला" "फुल्ला" से कहीं अधिक बुर्काधारी रूप में सामने आई। 
गुड़िया सारा और दारा
अरब गुड़िया जमीला
इसे सिम्बा टॉय ने मध्य एशिया के बाजारों में सन्‌ २००६ में उतारा था। सऊदी अरब के बाजारों में इसे बहुत पसंद किया गया। इसका चेहरा बहुत ही सुंदरता से गढ़ा गया था किंतु यह भी काले रंग का "अबाया" (बुर्का जैसा वस्त्र) और सिर पर रूमाल बांधे हुए थी।

        
जमीला और फुल्ला से भी पहले ईरान में बॉर्बी की भांति सुंदर और नन्ही लड़कियों के सपनों की गुड़ियां "सारा" और "दारा" सन्‌ २००२ से बाजार में आ चुकी थीं। उस समय इसे अमेरिकी संस्कृति और ईरानी संस्कृति के मध्य टकराव के रूप में देखा गया। छोटी फ्रॉक में सजी बॉर्बी की तुलना में ईरानी सलवार, घुटनों से लंबा घेरदार कुर्ता, वास्केट, सिर पर रूमाल और उस पर चादर।

        
परंपरा और स्वतंत्रता के बीच गहरी खाई होती है जिसे एक मुट्ठी रेत से पाटा नहीं जा सकता है, पुल जरूर बनाया जा सकता हैबशर्ते खाई की गहराई में झाकें बिना उस पर चलने का साहस किसी में हो। अंतर्रात्मा की आवाज कुछ ही पल में सब कुछ बदल सकती है लेकिन कानून किसी बात को विरोध सहित मनवा सकता है, निर्विरोध नहीं।
 (साभार- दैनिकनईदुनिया’ में 01मई 2011 को प्रकाशित मेरा लेख)

Friday, June 10, 2011

राजनीतिक मैदान में महिलाओं का दबदबा

लेख
- डॉ.शरद सिंह

      हर बार का चुनाव कुछ नए प्रतिमान सामने रख जाता है। इस बार के विधान सभा चुनावों ने जता दिया भारतीय राजनीति देश में ही नहीं वरन वैश्विक पटल पर नए प्रतिमान गढ़ रही है। इस बार के विधान सभा चुनावों ने यह भी साबित कर दिया कि राजनीतिक मैदान में महिलाओं का दबदबा बढ़ता जा रहा है। राजनीतिक स्तर पर पहले उत्तर प्रदेश में महिला वर्चस्व था और अब पश्चिम बंगाल तथा तमिलनाडु में में भी महिला वर्चस्व है। राष्ट्रपति महिला हैं, देश की प्रमुख राजनीतिक दल की अध्यक्ष एक महिला हैं। विभिन्न राज्यों में महिलाएं राज्यपाल का पद सुशोभित कर रही हैं। इतना ही नहीं विदेशी मामलों के निपटारे भी एक महिला जिस कुशलता से कर रही है वह भी अपने आप में एक उल्लेखनीय उदाहरण है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में महिलाओं को पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। वे राजनीतिक दल में प्रवेश कर सकती हैं, अपना राजनीतिक दल गठित कर सकती हैं और अपने उसूलों के अनुरूप राजनीतिक मानक तैयार कर सकती हैं।  इसी संवैधानिक अधिकार के कारण भारत का राजनीतिक परिदृश्य महिला शक्ति से परिपूर्ण दिखाई देता है।
         इस परिदृश्य पर महिला आरक्षणविधेयक की जरूरत के बारे में सोचने को मन करता है। क्या सचमुच अब भी इसकी आवश्यकता है? इस प्रश्न के पक्ष और विपक्ष दोनों में मत गिर सकते हैं। ग्रामीण स्तर पर पंचायतों में महिला पंच और सरपंचों का प्रतिशत महिला आरक्षित सीटों के कारण तेजी से बढ़ा। यह सच है कि कतिपय पंचायतों में महिला सरपंच कुर्सी पर कब्जा करती हैं और इसके बाद उनका सारा काम-काज सम्हालते हैं एस.पी. साहबयानी सरपंच पति। लेकिन इसी सिक्के का दूसरा पहलू देखा जाए तो ग्रामीण या पिछड़े इलाके की महिलाओं को अपने अधिकार का पता तो चलने लगा है। उन्हें घर की चार दीवारों से बाहर आने का अवसर तो मिला है। यदि वे आज अपने अधिकारों को जान पा रही हैं तो कल उनका उपयोग करना भी सीख जाएंगी। स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है जितनी कि प्रायः दिखाई देती है।  
        देश के सर्वोच्च पद पर महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील हैं। 

देश की सत्ताधारी पार्टी की कमान श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों हैं। 

केंद्रशासित दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित और  उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती  हैं।   
लोकसभा की अध्यक्ष मीराकुमार हैं। 
 ममता बनर्जी के राज्य में चुनाव जीतने से पहले लोकसभा में 45 और राज्यसभा में 10 महिला संसद सदस्य थीं। यह तो मानना ही होगा कि महिलाओं के राजनीतिक नेतृत्व में लोगों का विश्वास बढ़ा है।
         सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में महिलाओं के राजनीतिक दखल बढ़ने के साथ-साथ महिलाओं की पहचान के मानक भी बदले हैं। आज औरत की पहचान का जो मानक प्रचलन में है वह स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में नहीं थे। यहां तक कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में भी उतने समृद्ध नहीं थे जितने की इस इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में दिखाई दे रहे हैं। फिर भी यह तो याद रखना ही होगा कि महिलाओं का राजनीतिक सफर कहां से और किन कठिनाइयों के साथ शुरू हुआ। 
       महिलाओं के राजनीति में आने के इतिहास को याद रख कर ही वर्तमान का सही आकलन किया जा सकता है।  ऐतिहासिक आधार के बिना महिलाओं की प्रगति का सही आकलन कर पाना कठिन है। महिलाएं राजनीति में सदा दिलचस्पी रखती रही हैं किन्तु पहले वे पर्दे के पीछे रह कर, अत्यंत सीमित दायरे में दखल दे पाती थीं। राजनीति तुम्हारे बस की नहीं है!जैसे जुमलों से उन्हें झिड़क दिया जाता था लेकिन अब महिलाओं की राजनीतिक समझ का पुरुषों को भी लोहा मानना पड़ रहा है। सत्तर के दशक में जब देश में महिलाओं की दशा से जुड़ी पहली विशद् रपट टुवर्डस इक्वा लिटी’ (1975) जारी की गई, तो घर की चारदीवारी के भीतर गहरी हिंसा की शिकार बन रही स्त्रियों के बारे में विशेष जानकारी सामने आई थी। 

अस्सी के दशक में फ्लेविया एग्निस नामक वकील तथा सामाजिक कार्यकर्ता  ने पति द्वारा पत्नी की प्रताड़ना के लोमहर्षक विवरणों को प्रकाश में लाया। उन दिनों फ्लेविया प्रताड़ना के अनुभवों से स्वयं भी गुजर रही थीं। ये वही विवरण थे जो उन आम भारतीय घरों में घटित होते हैं जहां पति अपनी पत्नी को प्रताड़ित मात्रा इसलिए प्रताड़ित करता है कि वह पति है और पत्नी के साथ कोई भी अमानवीयता बरतना उसका अधिकार है। यानी, पत्नी को अकारण मारना-पीटना, उसे अपशब्द कहना, उसकी कमियां गिना-गिना कर मानसिक रूप से तोड़ना आदि। 
        फ्लेविया की आत्मकथा परवाज़अंग्रेजी में थी। सन् 1984 में यह महिला संगठन, ‘वीमेंस सेंटरद्वारा छापी गई, और तब से इसके अनेक संस्करण बाज़ार में आ चुके हैं। तब से अब तक महिलाओं की दशा में आमूलचूल परिवर्तन आया है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा-सुरक्षा के लिए मई महत्वपूर्ण कानून लागू किए जा चुके हैं। महिलाओं की जागरूकता और राजनीति में उनके दबदबे की बढ़त इसी तरह जारी रही तो एक दिन महिला प्रताड़ना जैसे मामले अतीत का किस्सा बन कर रह जाएंगे।  

Thursday, June 2, 2011

गर्भवती स्त्री और कड़वा सच

- डॉ. शरद सिंह

जनगणना 2011 के जारी आंकड़ों ने जोर का झटका जोर से ही दिया। इसने पढ़े-लिखे वर्ग की मानसिकता को भी बेनकाब कर दिया। इन आंकड़ों ने बता दिया कि बालिकाओं का अनुपात तेजी से घटता जा रहा है और गर्भ में ही स्त्री-भ्रूण को कालकवलित करा देने में शिक्षित वर्ग पीछे नहीं है। 10 साल में महिलाओं की प्रति 1000 पुरूषों पर संख्या 933 से बढ़कर 940 जरूर हुई, किन्तु छह साल तक के बच्चों के आंकड़ों में यह अनुपात घटकर 927 से 914 हो गया। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1961 की जनगणना में छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार लड़के पर लड़कियों की संख्या 976 थी। वर्ष 1971 में 964, 1981 में 962, 1991 में 945, 2001 में 927 और अब 2011 में 914 है। इस सिक्के का एक और पहलू है। वह है प्राणहर प्रसव का दुर्भाग्य जिसे स्त्री सदियों से झेलती आ रही है।
तीसरी दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा भारत अधिक विकास कर चुका है किन्तु प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के मामले में अन्य पिछड़े देशों से बहुत अलग नहीं है। भारत में असुरक्षित प्रसव के कारण होने वाली मृत्यु के आंकड़े भयावह हैं। इस प्रकार के प्रसव को प्राणहर प्रसवकहना उचित होगा।  प्रसव के दौरान होने वाली विश्व में होने वाली मातृ-मृत्यु की संख्या में भारत का आंकड़ा 20 प्रतिशत का है। देश में प्रतिवर्ष गर्भावस्था एवं प्रसव के दौरान 78 हजार महिलाओं की मृत्यु हो जाती है।  यहां प्रसव के दौरान 48 में से एक महिला की मौत का खतरा रहता है इसी आकड़े का एक और रूप देखें तो रांगटे खड़े हो जाएंगे कि देश में गर्भावस्था से संबन्घित कारणों से प्रत्येक आठ मिनट में एक गर्भवती की मौत हो जाती है। उल्लेखनीय है कि सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों में 1990 एवं 2015 के बीच गर्भवती-मृत्यु दर के अनुपात को तीन-चौथाई तक कम करना एक लक्ष्य के रूप में निर्धारित किया गया है। 
प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के सबसे प्रमुख कारण हैं-अशिक्षा और गरीबी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार आर्थिक रूप से कमजोर तबके की हर पांच मिनट में एक गर्भवती महिला प्रसवकाल के दौरान मौत के मुंह में चली जाती है। स्त्री के गर्भवती होने पर हर घर में बधाईयां गाई जाती हैं चाहे वह अमीर हो या गरीब। स्त्री का गर्भधारण उसे खाने-कमाने की समस्या से तो छुटकारा दिला नहीं सकता है। एक श्रमिक स्त्री को गर्भधारण के बाद भी वह आराम नहीं मिल पाता है जोकि उसे मिलना चाहिए। सरकार ने श्रमिक गर्भवतियों के लिए अनेक नियम-कानून बनाए हैं लेकिन उसका लाभ उन्हें कितना मिल पाता है इसमें कागजी और ज़मीनी आंकड़ों में बहुत अन्तर है। अच्छे और सुरक्षित प्रसव के लिए अच्छे पैसेका समीकरण इन गरीब गर्भवतियों को प्रसव की उचित सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पाता है। 52 प्रतिशत महिलाएं अपने स्वास्थ्य की चिन्ता किए बिना गर्भधारण करती हैं क्यों कि उन्हें गर्भधारण का निर्णय करने का अधिकार नहीं होता है। परिवार के अभिलाषाएं और पति की इच्छा उन्हें इस बात का अधिकार ही नहीं देती हैं कि उन्हें गर्भ धारण करना चाहिए या नहीं? अथवा उन्हें कब और कितने अंतराल में गर्भधारण करना चाहिए? ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं घरों में अप्रशिक्षित दाइयों से प्रसव कराती हैं। यह भी उनकी इच्छा और अनिच्छा की सीमा से परे होता है। उन्हंे यह तय करने का अधिकार नहीं होता है कि वे कहां और किससे प्रसव कराएं? अर्थात् एक गर्भवती का गर्भधारण से ले कर प्रसव तक की यात्रा उसकी इच्छा की सहभागिता से परे तय होती है। इसी दुर्भाग्य के चलते प्रतिवर्ष लगभग एक लाख महिलाएं प्रसवकाल में अथवा इससे पूर्व प्रसव संबंधी परेशानियों के कारण अपने प्राण गवां देती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रसव के दौरान गर्भवती की मृत्यु का 24.8 प्रतिशत कारण हैमरेज, 14.9 प्रतिशत कारण संक्रमण और  12. 9 प्रतिशत कारण एक्लैंपसिया है। भारत में सबसे अधिक मृत्यु प्रसव कराते समय बरती जाने वाली असावधानी तथा संक्रमण के कारण होती है।
        परिवार खुश होता है कि उनकी बहू उनके परिवार को संतान देने वाली है, पति प्रसन्न होता है कि उसकी पत्नी उसे पिता का दर्जा दिलाने वाली है किन्तु इन खुशियों के बीच गर्भवती की सही देखभाल, स्वास्थ्य-सुरक्षा तथा उसकी इच्छा-अनिच्छा की इस तरह अनदेखी कर दी जाती है कि दुष्परिणाम गर्भवती की मृत्यु के रूप में सामने आता है। जबकि एक गर्भवती सरकार या कानून से कहीं अधिक पारिवारिक दायित्व होती है। गर्भवतियों की मृत्यु के आंकड़े तब तक इसी तरह शोकगान की तरह गूंजते रहेंगे जब तक गर्भवती के प्रति परिवार अपना दायित्व नहीं समझेगा क्यों कि यह एक कटु सत्य है कि मात्र बधाई गाने से खुशियां नहीं पाई जा सकती हैं।

Monday, April 18, 2011

गर्मी, पानी और औरत

- डॉ. शरद सिंह

      गर्मी का मौसम आते ही पानी की किल्लत सिर चढ़कर बोलने लगती है। पानी और औरत तो मानों एक-दूसरे की पर्याय है। ग्रामीण क्षेत्र हो या महानगर की मलिन बस्तियां, पानी भरने का काम महिलाओं के जिम्मे ही होता है। घर के लिए काम में आने वाला तमाम पानी मसलन वह चाहे नहाने या कपड़े धोने के लिए हो या फिर पीने के लिए हो, प्रबंध महिलाओं को ही करना पड़ता है। चाहे पालिका के नल पर लंबी कतार में खड़े हो कर पानी भरना हो या फिर पांच-सात किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके अपने सिर पर पानी ढोकर लाना पड़ता हो यह जिम्मा महिलाओं का ही होता है कि वे अपने परिवार को पानी मुहैया कराएं। कच्ची उम्र से ही यह दायित्व उनके हिस्से में आ जाता है, परंपरागत ढंग से। कोमल बाहों वाली, नाजुक गर्दन वाली ग्रामीण महिलाएं तीन-तीन घड़े एक साथ अपने-अपने सिर पर रखकर कई किलोमीटरों का रास्ता तय करती हैं।

     नारीवादी आंदोलन शहरी क्षेत्रों में पानी की कितनी भी अलख जगा लें किंतु ग्रामीण औरतों की बुनियादी पीड़ाओं को दूर कर पाने का मसला अभी भी दायरे से बाहर खड़ा दिखाई देता है। वैवाहिक जीवन में स्त्री के अधिकार, राजनीतिक जीवन में स्त्री के अधिकार, आर्थिक धरातल पर स्त्री के अधिकार जैसे विषय निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं किंतु उतने ही महत्वपूर्ण हैं वे विषय जो औरतों के जीवन से बुनियादी स्तर पर जुड़े हुए हैं। इनमें से एक ज्वलंत विषय है पानी की आपूर्ति का।

 जिन ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल के स्रोत कम होते हैं तथा जल स्तर गिर जाता है, उन क्षेत्रों की औरतों को कई किलोमीटर पैदल चल कर अपने परिवार के लिए पीने का पानी जुटाना पड़ता है। छोटी बालिकाओं से लेकर प्रौढ़ाओं तक को पानी ढोते देखा जा सकता है। स्कूली आयु की अनेक बालिकाएं अपनी साइकिल के कैरियर तथा हैंडल पर प्लास्टिक के कुप्पे’ (पानी भरने के लिए काम में लाए जाने वाले डिब्बे) की कई खेप जलास्रोत से अपने घर तक ढोती, पहुंचाती हैं। अवयस्क आयु मे आरंभ होने वाला यह क्रम पानी ढोने की शारीरिक क्षमता रहते तक अनवरत चलता है। गोया पेयजल जुटाना भी खालिस औरताना काम हो।

               
देश में पेयजल का संकट अनेक रूप में देखने को मिल जाता है। दिल्ली में पानी की किल्लत के चलते पानी कभी हरियाणा से मंगाया जाता है तो कभी भाखड़ा से।

 स्थिति इसी तरह बिगड़ती गई तो गर्मी, पानी और औरतों के त्रिकोण का एक कोण यानी औरत का पक्ष सबसे कमजोर पड़ जाएगा। आखिर वह अपने परिवार के लिए पेयजल कहां से जुटाएगी?


(साभार-दैनिक नई दुनिया’,03अप्रैल2011 में प्रकाशित मेरा लेख)

Friday, April 8, 2011

बाबा साहब डॉ. अंबेडकर का स्त्रीविमर्श

- डॉ. शरद सिंह
     नवरात्रि में देवी दुर्गा की शक्ति के रूप में आराधना में जगराते किए जाते हैं और व्रत-उपवास रखा जाता है। यह सब स्त्रियां ही नहीं पुरुष भी बढ़-चढ़ कर करते हैं। भारतीय पुरुष भी देवी के शक्तिस्वरूप को स्वीकार करते हैं किंतु स्त्री का प्रश्न आते ही विचारों में दोहरापन आ जाता है। इस दोहरेपन के कारण को जाँचने के लिए हमें बार-बार उस काल तक की यात्रा करनी पड़ती है जिसमें 'मनुस्मृति' और उस तरह के दूसरे शास्त्रों की रचना की गई जिनमें स्त्रियों को दलित बनाए रखने के 'टिप्स' थे, फिर भी पुरुषों में सभी कट्टर मनुवादी नहीं हुए। समय-समय पर अनेक पुरुष जिन्हें हम 'महापुरुष' की भी संज्ञा देते हैं, मनुस्मृति की बुराइयों को पहचान कर स्त्रियों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए आगे आए और न केवल सिद्धांत से अपितु व्यक्तिगत जीवन के द्वारा भी मनुस्मृति के सहअस्तित्व-विरोधी बातों का विरोध किया। इनमें एक महत्वपूर्ण नाम है बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का।

बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर
     आमतौर पर यही मान लिया जाता है कि बाबा साहब अंबेडकर समाज के दलित वर्ग के उद्धार के संबंध में क्रियाशील रहे अतः उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों के विषय में ही चिंतन किया होगा। किंतु अंबेडकर राष्ट्र को एक नया स्वरूप देना चाहते थे। एक ऐसा स्वरूप जिसमें किसी भी व्यक्ति को दलित जीवन न जीना पड़े। अंबेडकर की दृष्टि में वे सभी भारतीय स्त्रियां दलित श्रेणी में थीं जो मनुवादी सामाजिक नियमों के कारण अपने अधिकारों से वंचित थीं।
   19जुलाई 1942  को नागपुर में संपन्न हुई 'दलित वर्ग परिषद्' की सभा में डॉ. अंबेडकर ने कहा था-‘नारी जगत्‌ की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदंड से मैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूं।’
     इसी सभा में डॉ. अंबेडकर ने ग़रीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि- ‘आप सभी सफाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संतानें पैदा नहीं करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।’
      डॉ. अंबेडकर के इन विचारों को कितना आत्मसात किया गया, इसके आंकड़े घरेलू हिंसा के दर्ज आंकड़े ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज़ नहीं होते हैं ऐसे भी हज़ारों मामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति डॉ. अंबेडकर के विचारों को हमने भली-भांति समझा ही नहीं। हमने उन्हें दलितों का मसीहा तो माना किंतु उनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया जो भारतीय समाज का ढांचा बदलने की क्षमता रखते हैं।
नासिक-सत्याग्रह में डॉ. भीमराव अंबेडकर
(सन् 1930-1935)
     डॉ. अंबेडकर ने हमेशा हर वर्ग की स्त्री की भलाई के बारे में सोचा। स्त्री का अस्तित्व उनके लिए जाति, धर्म के बंधन से परे था, क्योंकि वे जानते थे कि प्रत्येक वर्ग की स्त्री की दशा एक समान है। इसीलिए उनका विचार था कि भारतीय समाज में समस्त स्त्रियों की उन्नति, शिक्षा और संगठन के बिना, समाज का सांस्कृतिक तथा आर्थिक उत्थान अधूरा है। इसी ध्येय को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने सन्‌ 1955 में 'हिंदू कोड बिल' तैयार किया। यही 'हिंदू कोड बिल' प्रत्येक तबके की स्त्रियों के अधिकारों का कानूनी दृष्टि से मूलभूत आधार बना।  

    वस्तुतः यह स्त्रियों की दलित स्थिति को बदलने का घोषणापत्र था। इसके जरिए स्त्रियों को समान अधिकार और संरक्षण दिए जाने की पैरवी की। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, गोद लेने, बालिग स्त्री की अनुमति के बिना उसका विवाह न किए जाने का अधिकार दिया जाए। भारतीय संस्कृति में वैवाहिक संबंध परंपरागत मान्यताओं पर आधारित होते हैं। इस परंपरागत आधार का अचानक टूटना सहजता से ग्राह्य नहीं हो सकता है।

         
डॉ. अंबेडकर का विचार था कि यदि स्त्री पढ़-लिख जाए तो वह पिछड़ेपन से स्वतः उबर जाएगी। आज स्त्रियों का बड़ा प्रतिशत साक्षर है, फिर भी वह अपनी दुर्दशा से उबर नहीं पाई है। यह ठीक है कि आज गांव की पंचायतों से ले कर देश के सर्वोच्च पद तक स्त्री मौजूद है लेकिन इसे देश की सभी स्त्रियों की प्रगति मान लेना ठीक उसी प्रकार होगा जैसे किसी प्यूरीफायर के छने पानी को देख कर गंगा नदी के पानी को पूरी तरह स्वच्छ मान लिया जाए।

                     (साभार-‘दैनिक नई दुनिया’ में प्रकाशित मेरा लेख)