Friday, February 28, 2025

शून्यकाल | ग्लोबल होते धार्मिक मेलों से भी मिलता है जीवन का सही सबक | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम- शून्यकाल
      ग्लोबल होते धार्मिक मेलों से भी मिलता है जीवन का सही सबक
       - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       मेले का जिक्र आते ही भीड़ का एक दृश्य आंखों के सामने घूम जाता है और यदि किसी से पूछा जाए कि मेला घूमने चलना है? तो वह नाक-भौं सिकोड़ते हुए यही कहेगा कि ‘कौन जाए उस भीड़ में!’ वहीं यदि बात हो किसी शॉपिंग मॉल में जाने की तो उसे राजी होने में दो पल भी नहीं लगेंगे। जबकि शॉपिंग मॉल की भीड़ में हम सिर्फ एक उपभोक्ता होते हैं, वहीँ किसी धार्मिक मेले में हम पहले एक भक्त होते हैं, फिर एक भ्रमणकर्ता होते हैं और फिर कहीं अंत में उपभोक्ता होते हैं। बहुत कुछ जानने, समझने और सीखने को मिलता है धार्मिक मेलों में। यहां प्रस्तुत है महाशिवरात्रि के अवसर पर बड़े महादेव जी परिसर के मेले का मेरा अनुभव, मेरा संस्मरण।
      त्योहार हमारे जीवन में रस घोलते हैं। यांत्रिक हो चले जीवन में सरसता अति आवश्यक है अन्यथा भावनाएं भी शून्य होने लगेंगी और संवेदनाएं और असंवेदना में ढल जाएंगी। त्योहार और मेलों का घनिष्ठ संबंध है। जब कोई त्यौहार पड़ता है तो मंदिरों के आसपास मेले अवश्य भरते हैं। मेले व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाते हैं। मेले ले जाते हैं एकाकीपन से भीड़ की ओर, एकांत से कोलाहल की ओर, अवसाद से उल्लास की ओर।
          शिवरात्रि एक ऐसा त्यौहार है जो शिव और पार्वती के विवाह उत्सव के रूप में मनाया जाता है। शिव मंदिर शहर के मध्य से लेकर सुदूर ग्रामीण अंचल तक मौजूद हैं। मेले सब जगह भरते हैं कहीं छोटे, कहीं बड़े। सागर शहर से लगभग 12 किलोमीटर दूर खुरई मार्ग पर सिंधु नगर में बड़े महादेव जी की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है। यह सिंधु समाज द्वारा स्थापित की गई थी तथा आज भी सिंधु समाज ही इस प्रतिमा की देखरेख करता है। संयोगवश शिवरात्रि को बड़े महादेव जी के दर्शन का अचानक शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ। बिना किसी पूर्व योजना के।
          मैं अंधविश्वासी नहीं हूं किंतु प्राकृतिक संरचना, संवेग एवं घटनाओं पर पूरा विश्वास करती हूं। यह कहूं कि ईश्वर के अस्तित्व पर मेरा विश्वास है तो यह गलत नहीं होगा। यह बात अलग है कि कई बार में ईश्वर को संबोधित करके कहती हूं यदि आप हैं तो इस संसार में दुख क्यों है? पीड़ितजन क्यों है? पुण्यात्मा क्यों कष्ट झेलते हैं और भ्रष्टाचारी या अपराधी क्यों आनंद की जिंदगी व्यतीत करते हैं, कोरोना जैसी महामारी क्यों आई? यद्यपि यह मेरी निजी शिकायत है, निजी प्रश्न हैं और निजी रोष है। लेकिन कभी-कभी कुछ ऐसी अविश्वसनीय घटनाएं घट जाती हैं कि मन सोच में पड़ जाता है। इस महाशिवरात्रि को भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ।
         हुआ यह कि मैं अपनी कॉलोनी के मंदिर में पार्थिव शिवलिंग निर्माण के लिए पहुंची। वहां मैंने महिलाओं और बच्चों के साथ बैठकर उत्साह पूर्वक शिवलिंग निर्माण किया। इस दौरान कुछ ऐसा प्रसंग आया कि मेरा मन खिन्न हो गया और मैं वापस घर आ गई। मैं कुछ देर दुखी मन से चुपचाप उदास बैठी रही। फिर मेरी अपने एक बड़े भाई से फोन पर चर्चा हुई और अचानक कार्यक्रम बन गया बड़े महादेव जी के दर्शन करने का। पहले तो मन हुआ कि न जाऊं लेकिन फिर लगा कि जाने से मन हल्का हो जाएगा। घर में उदास बैठे रहने से कोई फायदा नहीं है, कोई आंसू भी पोंछने नहीं आएगा। फिर मुझे उस प्रसंग का किसी से जिक्र भी नहीं करना था। कुछ देर बाद मैं सबके साथ निकल पड़ी बड़े महादेव जी के दर्शन करने के लिए। 
          हल्के-फुल्के हंसी मजाक के साथ 12 किलोमीटर का रास्ता तय करके जब बड़े महादेव जी की प्रतिमा स्थल पर पहुंची तो अचानक ऐसा लगा कि जैसे यह तो बड़े महादेव जी का बुलावा था। शायद उन्हें पता चल गया था कि मैं दुखी हूं और उन्होंने मुझे उसे कोलाहल में अपने पास बुला लिया। यह मेरे मन का वहम भी हो सकता है लेकिन सच यही था कि मैं उस समय बड़े महादेव जी के सम्मुख जा पहुंची थी। वह कहावत है न कि यदि धरती पर एक पत्ता भी हिलता है तो उसका असर नक्षत्रों तक होता है। शायद उस समय मुझे हुई मानसिक पीड़ा ने प्रकृति का कोई पत्ता हिला दिया था और प्रकृति ने मुझे उस स्थान पर पहुंचा दिया था जहां धर्म, दर्शन, प्रकृति और जन सभी मौजूद थे। 
         मेरे सामने था ग्लोबल होता ग्रामीण मेला। इस मेले में भीड़ का सैलाब था। महिलाएं, पुरुष, बच्चे सभी उत्साहपूर्वक  शिव प्रतिमा की ओर बढ़े जा रहे थे। सबका प्रथम उद्देश्य था - शिव के दर्शन करना। दूसरा उद्देश्य मेला घूमना और  तीसरा उद्देश्य था रोजमर्रा के जीवन से अलग हटकर जीवन जीना। शिवस्थली तक रास्ते के दोनों और कतार से दुकानें लगी हुई थीं। बीच में फिर दुकानों की एक पंक्ति थी जो रोड डिवाइडर का काम कर रही थी। दूकानों में तरह-तरह के समान बिक्री के लिए सजा कर रखे गए थे। इनमें चूड़ी, बिंदी, बर्तन, खिलौने, कपड़े, खाने की वस्तुओं से लेकर इलेक्ट्रिक स्कूटर का स्टाल भी लगा हुआ था। यही तो था मेले का ग्लोबल रंग कि एक ठेले पर चना चटपटे बिक रहा था तो दूसरे ठेले पर चाऊमीन। एक ठेले पर देसी कुल्फी बिक रही थी तो दूसरे ठेले पर इंग्लिश फालूदा। इस तरह खाने-पीने की वस्तुओं का भी एक खूबसूरत कंट्रास्ट वहां मौजूद था। 
           दर्शनार्थियों में भी भारतीय और पाश्चात्य का मिला-जुला पहनावा देखा जा सकता था। युवा लड़के-लड़कियां, बच्चे और पुरुष जींस, शर्ट और टॉप पहने  थे, वही लगभग हर उम्र की महिलाएं साड़ी पहने थीं। कुछ सीधे पल्ले की तो कुछ उल्टे पल्ले की। उल्टे पल्ले की साड़ियां स्टाइलिश तरीके से पहनी गई थीं, बिल्कुल किसी टीवी सीरियल की अभिनेत्री की भांति। अधिकांश महिलाओं ने भी मस्तक पर हल्दी और सिंदूर से शिव आकृति बनवा रखी थी। साथ में मैचिंग की चूड़ी, झुमके, गले का हार उनकी सुरुचि और साज-सज्जा की एक अलग ही कहानी कह रहा था। ऐसे मेलों में कई रोचक प्रसंग भी देखने सुनने को मिलते हैं।
          एक 20-22 साल की विवाहिता युवती ने वही ठेले पर बिक रहे एक काले चश्मे को पहनते हुए अपने पति से बुंदेली में कहा- "हम जे चश्मा ले रए। जे हम पे सूट कर रओ।" मैंने भी देखा, वह चश्मा सचमुच उस पर बहुत सूट कर रहा था। लेकिन उसके पति ने उससे ठिठोली करते  हुए कहा, "जे पैन्ह के तुम हीरोइन नोंई बन जेहो।"
        "हम तो ऊंसई हिरोइन आएं। कओ तो  कछु करके दिखा दें।" उसे युवती ने भी इठलाकर हंसते हुए नहले पर दहला मारा। "कछु करके दिखा दें" का रिस्क उसका पति नहीं उठा सकता था इसलिए उसने हथियार डाल दिए और तुरंत उसके लिए चश्मा खरीद दिया। वह युवती शान से चश्मा लगाकर इधर-उधर देखने लगी। अचानक उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और उसे एहसास हुआ कि मैं उसे देख रही हूं तो उसने झेंप कर मुस्कुरा दिया। मैंने भी मुस्कुराया और कहा, “जंच रओ जे चश्मा तुम पे।” इसके बाद मैं आगे बढ़ गई। वह युवती अपरिचित थी और अपरिचित ही रही। लेकिन उसकी और उसके पति के बीच की हंसी-ठिठोली मेरे मस्तिष्क में अपनी छाप छोड़ गई। 
           मैं जब किसी मेले में जाती हूं तो वहां कुछ न कुछ खाना मुझे अच्छा लगता है। वहां मेले में ग्रामीण परिवेश का खाना तो बिल्कुल नहीं था लेकिन चना चटपटे देखकर मेरा भी मन हो गया खाने का। मेरे साथ गए मेरे बड़े भाई प्रोफेसर आनंद प्रकाश त्रिपाठी जी तथा भाभी डॉ बिंदु त्रिपाठी जी का व्रत था अतः वे दोनों कुछ भी खाने वाले नहीं थे। किंतु हमारे साथ एक प्यारी सी लड़की नताशा (वैसे वह शिक्षिका है) उसका व्रत नहीं था। तो मैंने और नताशा ने चना चटपटे लिए। नताशा तो संकोचवश खड़ी-खड़ी खाती रही किंतु मैं आदतन अपने फक्कड़पन से एक बंद शटर से टिक कर बैठ गई। बैठने के दौरान वहां उबड़-खाबड़ होने से मैं ज़रा डिसबैलेंस हुई और मेरी बाएं हाथ की कोहनी शटर से  टकराई जिससे जोरदार आवाज़ हुई। बाजू में दूसरी शटर से टिक कर बैठे दो देहाती युवक यह देखकर मुझ पर हंस पड़े। मैंने भी उनकी ओर देखा और हंसने लगी। फिर मैं व्यवस्थित बैठकर चना चटपटे खाने लगी। यही, 2 मिनट बाद  मेरा ध्यान उन दोनों युवकों की ओर गया। वे सहज भाव से आपस में बात करने में तल्लीन हो गए थे। जैसे 2 मिनट पहले वहां कुछ घटित हुआ ही न हो। 
             मेले में यूं तो आधुनिक झूले, घिसलपट्टी आदि थे लेकिन वहां एक स्टॉल पर 10 रुपए में पूड़ी-सब्जी का दोना भी उपलब्ध था। इस महंगाई के जमाने में एक बहुत बड़ी नेमत। अच्छी खासी भीड़ थी उसे स्टॉल पर। इतना सस्ता भोजन कौन नहीं पाना चाहेगा? वहीं मेले के प्रवेश स्थल के निकट धर्मार्थ प्रसादी वितरण की व्यवस्था भी थी। वह प्रसादी मैंने भी ग्रहण की। काजू आदि मेवे डली साबूदाने की एक कटोरा स्वादिष्ट खीर। देखा जाए तो 10 रुपये के एक दोना पूड़ी-सब्जी या एक कटोरा खीर में किसी का हमेशा के लिए पेट भरने वाला नहीं है लेकिन इससे जो पारस्परिक सामंजस्य और आत्मीयता बढ़ती है वह सामाजिक व्यवस्थाओं परंपराओं और आस्थाओं के प्रति विश्वास को दृढ़ करती है। प्रसादी वितरण करने वाला कभी किसी से उसकी जाति या धर्म नहीं पूछता है। उसके लिए वे सब एक समान होते हैं जो उसके सम्मुख प्रसादी पाने के लिए हाथ बढ़ाते हैं। सामाजिक समरसता का इससे अच्छा उदाहरण और भला क्या हो सकता है? 
          धार्मिक मेलों की एक और सबसे बड़ी विशेषता यह भी होती है कि वहां महिलाओं के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ या अभद्रता नहीं होती है। अधिकांश लोग धार्मिक भावना से वहां पहुंचते हैं, दृश्य भगवान का डर उनके मन में मौजूद होता है जो उन्हें कुछ भी गलत करने से रोकता है।  धार्मिक भावना की आड़ में यदि कोई उटपटांग व्यक्ति पहुंच भी जाए तो उसके लिए वहां उपस्थित कारसेवक पर्याप्त होते हैं जो “अपनी सेवा” से उन्हें अच्छी “समझाइए” दे देते हैं। यद्यपि ऐसे अवसर यदाकदा ही आते हैं। इसीलिए धार्मिक मेलों में स्त्रियां, बालिकाएं और बच्चे सभी उन्मुक्त भाव से अपने उल्लास को जी पाते हैं। बस, ज़ेबकतरों का डर बना रहता है।
          धार्मिक मेलों की परंपरा समय के साथ भले ही बिक्री के सामानों, खाद्य वस्तुओं, ईवी गाड़ियों के प्रचार स्टॉलों, आधुनिक झूलों के रूप में ग्लोबल हो रही हो लेकिन उसका मूल चरित्र अभी भी संस्कारवान और पुरातन ही है, जो सुखद है। वस्तुतः हमें शॉपिंग मॉल संस्कृति से कुछ समय निकालकर मेलों में जाने और ग्राम्य जीवन के साथ शहरी जीवन को घालमेल होते देखने का भी आनंद लेते रहना चाहिए। मेला घूमना तन, मन, समाज, संस्कार, परिवार, उल्लास और उत्साह सभी के लिए जरूरी है।
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Thursday, February 27, 2025

बतकाव बिन्ना की | कालंजर में बनो महादेव के ब्याओ को मंड़वा | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
कालंजर में बनो महादेव के ब्याओ को मंड़वा
      - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘काय बिन्ना कां हो आईं?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘गढ़पैरा गए रए।’’ मैंने भैयाजी खो बताई। 
‘‘अब तो उते लौं पौंचबो कठिन ने रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, छिड़ियां के उते शेड डाल दओ गओ आए, जींसे छायरे-छायरे छिड़ियां चढ़ी जा सकत आएं। औ दूसरी तरफी से मने फोरलेन वारी रोड की तरफी से ऊपर लौं रोड बना दई गई आए। रोड मनो अबे कच्ची-सी आए, पर हो सकत के जल्दी पक्की कर दई जाए। हम ओरें तो रोडई से गए रए। सो पैले शीश महल पौंचे, फेर मंदिर गए। वां हनुमान बब्बा के दरसन करे। बाकी बंदरा मुतके आएं उते। एक ठंइयां डंडा धर के जाने परो। डंडा ठकठकाए से बे ओरे दूर भाग जात आएं। फेर बी डर तो लगत आए।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘जे बंदरा की सल्ल सो सबई जांगा आए। इते तो परसाद ई छुड़ात आएं औ उते मथुरा-बृंदाबन में सो चश्मा लौं छुड़ा लेत आएं।’’ भैयाजी ने हंस के कई।
‘‘हऔ जे तो आप ने सांची कई। आप कभऊं कालंजर गए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘एक दफा गए रए। भौत पैले। अबे तो कुल्ल समै से उते नईं गए। इते से दूर परत आए न!’’ भैयाजी ने कई।
‘‘हऔ! उते पन्ना से नजदीक रऔ, सो दो-तीन बेरा जाबे खों मिलो रओ। बड़ी नोंनी जांगा आए। औ आप खों तो पतो हुइए के कालंजर के बारे में शिवपुराण में सोई लिखो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, कछू पढ़ो तो रओ, मनो अब याद नईं। काय से शिवपुराण पढ़े बी कुल्ल टेम हो गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘चलो अबई तो शिवरात्रि कढ़ी कहानी, सो आपके लाने शिव औ काली के ब्याओ की किसां सुना दई जाए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘कैसी किसां?’’ भैयाजी ने पूछी, ‘‘कालंजर से ऊको का लेबो-देबो?’’
‘‘अरे, कालंजर ई से तो लेबो-देबो आए। काजंलर में शिव औ काली के ब्याओ को मंडवा गड़ो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई में? चलो बताओ, का किसां आए?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘जा किसां शिवपुराण में लिखी धरी। मैं अपने मन से नईं सुना रई। ध्यान से सुनियो! का भओ के जबे राच्छस औ देवता हरें समुद्र मंथन कर रए हते तो ऊमें से हलाहल नांव को विष निकरो। बा हलाहल से तीनों लोक जरन लगे। सब ओरें गदर-सी मच गई। बा हलाहल सब खों मार ने देवे जा सोच के भगवान शिव जू ने ऊको पी लओ। मनो बा हलाहल ऐसो हतो के जो भगवान जू के पेट में बा चलो जातो तो बे सोई मर सकत्ते। सो भगवान शिव जू ने ऊको अपने गले में रोक लओ। बा जहर के कारन उनको गलो नीलो पड़ गओ। तभई से बे नीलकंठ कहाऊन लगे।’’ मैं किसां सुना रई हती के भैयाजी ने मोय टोकों।
‘‘ईसे कालंजर औ शिव जू के ब्याओ को का लेबो-देबो?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘तनक गम्म तो खाओ! आगे सुनो आप! का भओ के शिवजू को गलो तो नीलो पड़ गओ मनो ऊनके पूरे सरीर में जलन होन लगी। सो बे उते से हिमालय के लाने चल परे। उने लगो के हिमालय पौंच के तनक ठंडो लगहे। बे जा रए हते आकास मार्ग से। सो जब बे कालंजर के ऊपरे से निकरे तो उने तनक ठंडो सो, अच्छो सो लगो। सो बे सुस्ताने के लाने उतई ठैर गए। बा जांगा रई काली माई की। सो काली माई ने कई के तुम पैले हमसे ब्याओ करो फेर इते ठैर सकत आओ। सो भगवान जू तो जानत हते के काली औ पार्वती सो एकई आएं, सो उन्ने मान लई। सबरे देवता हरें उते पौंचे उन्ने शिव औ काली के ब्याओ के लाने उते मंड़वा गाड़ो। औ धूम-धाम से ब्याओ भओ। शिव तो उतई ठैर गए मगर काली ने अपनी जांगा शिव जू खों सौंपी औ बे कामाख्या चली गईं। फेर कई जुग बीते। बाद में कालंजर के राजा ने जेई किसां पे उते मंदिर औ मूर्तियां बनवाईं। मंडवा सोई बनवाओ। उते नीलकंठ मंदिर में भगवान शिव जू की जोन मूर्ति रखी ऊमें शिव जू खों मों इत्तो अच्छो बनाओ गओ आए के का कई जाए। उनको मों खुलो आए, मनो बा हलाहल के करैपन से खुलो रए गओ होए। भौतई नोंनी मूर्ती बनाई बनाबे वारे ने। उते दुर्गा माई की अठारा हाथ वारी मूर्ति भी आए जोन खों चट्टान काट के बनाओ गओ रओ। औ काली की तो मुतकी मूर्तियां रईं। कओ जात आए के जबे श्रीराम बनवास के लाने निकरे हते तो कालंजर से होत भए गए रए। कालंजर में सीता मैया ने रसोई बनाई रई। उते एक जांगा सीता मैया की रसोई सोई आए। बाकी नीलकंठ मंदिर के आगूं जो मड़वा बनो, बा तो देखबे जोग आए। पथरन के खम्बा में ऐसे-ऐसे बेलबूटा काढ़े गए आएं के देखतई बनत आए। बा देख के सोचो जा सकत आए के शिवजू औ कालीमाई के ब्याओ के टेम पे देवता हरों ने ऊको कित्तो सुंदर सजाओ हुइए।’’ मैंने भैयाजी खों बताई।
‘‘हम उते गए तो आएं, मनो एक तो भौतई पैले गए रए औ फेर दोस्तन के संगे गए रए सो उते देखो कम, हुड़दंगी ज्यादा करी हती। जा सब सो पतोई नई परो।’’ भैयाजी तनक पछतात भए बोले।
‘‘आपके लाने उते कोनऊं सत्संग खों मिलो के नईं?’’ मैंने भैयाजी से हंस के पूछी। भैयाजी मोरी जा बात तुरतईं समझ गए। 
‘‘काए नईं मिलो? एक बाबा हतो उते। अच्छी चिलम लए रओ। हम ओरन ने जान के ऊसे पूछी के जो का आए? सो बा बोलो के मोरी सत्संग करो सो खुदई सब समझ जैहो। हमाए एक संगी रओ उको सोई जाने का सूझी उने कई के देओ हमें सोई सूंटन देओ। ऊने बाबा के हाथ से चिलम छुड़ाई और एक सुट्टा ले लओ। पांचेक मिनट में बा उतई आड़ो डरो दिखानों। हम ओरे तो डर गए रए के बा कऊं निपट तो नईं गओ? मनो बाबा हंसन लगो औ बोलो डरो नईं कछू ने हुइए। दो-चार घंटा में सई हो जैहे। रामधई! ऊको जब लौं होश ने आओ हम ओरन की धुकधुकी बंधी रई। कऊं बा निपट गओ तो हम ओरन को का हुइए। ऊके घर वारे सो जेई कैंहे के हमाए मोड़ा खों संगे ले गए औ मार-मूर के ले आए। हम ओरन खों तो उम्मरकैद दिखान लगी हती। बाकी जब ऊको होश आओ, तब कऊं जा के हम ओरन की जान में जान आई। औ ऊकी तबीयत पूरी ठीक होतई साथ हम ओरन ने ऊको खूबई लपाड़े लगाए। ऊकी बेवकूफी में हम ओरन की जान कढ़ी जा रई हती।’’ भैयाजी ने अपनी किसां सुनाई।
‘‘उते पैले ऐसे बाबा हरें खूब मिलो करत्ते। तभई तो हमने आप से पूछी के आप ओरन खों मिले के नईं।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, राम को नांव लेओ! आज लौं फुरूरी सी होत आए बा समै याद कर के। बाकी अब एकाद बेर फेर के जाबी, जा सब देखबे के लाने।’’ भैयाजी ने कई। फेर बे अपने कालेज के दोस्तन की और किसां सुनान लगे।                  बाकी असली बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के आप ओरें कबे प्लान बना रए कालंजर जा के शिव जू को मंड़वा देखबे के लाने? 
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Wednesday, February 26, 2025

चर्चा प्लस | शिव के विविध रूपों का अनूठा शिल्प सौंदर्य है खजुराहो में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
शिवरात्रि पर विशेष:
शिव के विविध रूपों का अनूठा शिल्प सौंदर्य है खजुराहो में  
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
         शिव और पार्वती का विवाह भी जगत कल्याण के लिए हुआ था। खजुराहो की मंदिर भित्तियों पर शिव-पार्वती की संयुक्त प्रतिमाओं के अतिरिक्त शिव की अनेक ऐसी प्रतिमाएं है जिनमें शिव के कल्याणकारी सौंदर्य को देखा और अनुभव किया जा सकता है। शिव समस्त संसार का कल्याण करने वाले देवता माने गए हैं। समुद्र-मंथन से निकला हुआ गरल यानी विष स्वर्ग में निवास करने वाले देवताओं को भी भस्म कर सकता था यदि शिव उसे अपने गले में धारण नहीं करते। आदि ग्रंथों एवं पुराणों में शिव के विविध रूपों का वर्णन मिलता है। ये रूप खजुराहो की मूर्तियों में मौजूद हैं।
         
      शिवरात्रि शिव और पार्वती के विवाहोत्सव का दिन है। पुराणों के अनुसार इस विवाह की कथा भी रोचक है। शिव का प्रथम विवाह देवी सती से हुआ था। किन्तु अपने पिता राजा दक्ष द्वारा आमंत्रित न किए जाने पर भी सती पिता के धर गईं किन्तु वहां दक्ष ने शिव और सती दोनों के लिए अपमान बोधक शब्द कहे जिससे व्यथित हो कर सती ने यज्ञ कुण्ड में कूद कर आत्मदाह कर लिया। इस घटना से शिव व्यथित हो गए। तब सती ने हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया। इसके बाद पार्वती को शिव को प्राप्त करने के लिए वर्षों तपस्या करनी पड़ी तब कहीं जा कर शिव और पार्वती के विवाह का मुहूर्त आया। लेकिन जब पार्वती की मातुश्री ने शिव की बारात में गण आदि को देखा तो वे घबरा गईं और उन्होंने विवाह रोकने का अनुरोध किया। उन्हें लगा कि ऐसे वर के साथ अपनी पुत्री का विवाह कैसे कर दें? तब देवताओं ने स्वयं उन्हें समझाया और तब शिव-पार्वती का विवाह निर्विघ्न सम्पन्न हो पाया। 
‘शिवपुराण’ के अनुसार जब देवताओं और असुरों ने समुद्र-मंथन किया तो उसमें हलाहल विष निकला। यह इतना घातक था कि देवताओं को भी भस्म कर सकता था। देवता हलाहल विष की विषाक्तता से भयभीत हो उठे तक शिव ने आगे बढ़ कर उस विष का पान कर लिया। लेकिन वे भी उसे यदि अपने गले से नीचे पेट में उतरने देते तो वह विष शिव को भी क्षति पहुंचा सकता था अतः विष को शिव ने अपने गले में ही रोक लिया जिससे शिव का गला नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। विष को गले में धारण करने के बावजूद उसका प्रभाव इतना तेज था कि उनके शरीर में जलन होने लगी और उन्हें गरती का अनुभव होने लगा तब वे हिमालय की ओर आकाशमार्ग से चल पड़े। बीच में विंध्य पर्वत के ऊपर से गुज़रते हुए उन्हें शीतलता का अनुभव हुआ और वे कुछ समय के लिए वहीं रुक गए। वह विश्रामस्थल कालंजर था। उस समय कालंजर में निवास कर रही देवी उमा से शिव ने विवाह किया और दोनों साथ-साथ कुछ समय वहां रहे। इसके बाद देवी उमा कामाख्या चली गईं और शिव हिमालय के लिए निकल पड़े। इस पौराणिक कथानक के आधार पर कालंजर में उमा-महेश्वर की अनेक प्रतिमाओं से ले कर विवाहमंडप तक मिलता है। शिल्पकारों ने जिस सुंदरता से कालंजर में नीलंकठ एवं उमा-महेश्वर के विवाह की कथा को पत्थरों में तराशा है ठीक उसी प्रकार खजुराहो में शिव के विवध रूपों की अनेक प्रतिमाएं हैं जो पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं। सन् 2000 में डाॅक्टरेट की उपाधि के लिए खजुराहो की मूर्तिकला पर शोध करते समय और उसके बाद ‘खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व’ पुस्तक लिखते समय मुझे खजुराहो के मंदिरों में मौजूद शिव प्रतिमाओं की सम्पूर्ण विविधता को देखने और जानने का अवसर मिला। मेरी यह पुस्तक सन् 2006 में विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी, उ.प्र. से प्रकाशित हुई। खजुराहो के मंदिर 950 से 1050 ई. के मध्य निर्मित हुए जिनमें मातंगेश्वर मंदिर प्राचीनतम हैं। विश्वनाथ मंदिर, लक्ष्मण और कंदरिया महादेव मंदिर के बीच की कड़ी है। इस मंदिर के मंडप दीवार पर लगे शिलालेख से पता चलता है, कि धंग द्वारा 1002 ई. में शंभु मरकतेश्वर के मंदिरों का निर्माण कराया गया था जिसमें मरकत तथा पाषाण निर्मित दो लिंगों की स्थापना का उल्लेख है। वर्तमान में पाषाण लिंग ही शेष है। इसी मंदिर के ठीक सामने नंदी मंदिर स्थित है। यह विश्वनाथ मंदिर का समकालीन है। 
त्रिदेव में तीसरे देवता महेश अर्थात शिव हैं। जिनकी विविधता पूर्ण अनेक प्रतिमाएं खजुराहो के मंदिरों में मिलती है। ये एक ऐसे देव है जिनकी आराधना वैदिक काल से पूर्व सैन्धव युग में की जाती थी। वैदिक काल में शिव कारूद्र रूप अधिक प्रसिद्ध रहा।  सांख्यायन तथा कौशितकि उपनिषदों में शिव, रूद्र, महादेव, महेश्वर, ईशान आदि नाम आते हैं। महाभारत में शिव के सहस्त्र नामों का उल्लेख हुआ है। उनके लिये शंकर, ईशान, शर्व, नीलकंठ, त्रयम्बक, धूर्जटि, नंदीश्वर, शिखिन, व्योमकेश, महादेव आदि नाम आये हैं। इन सभी रूपों में आयुध प्रतीकों की भिन्नता पायी जाती है, कभी शिव के हाथ में डमरू, खड्ग, खेटक, पारा तथा त्रिशूल रहता है तो कभी खप्पर, रूद्राक्षमाला, तलवार, धनुष, खट्वांग तथा ढाल आदि आयुध प्रतीक रहते हैं। खजुराहो में निर्मित शिव मूर्तियों में चतुर्भुजी, अष्टभुजी, बारहभुजी, सोलहभुजी रूप मिलते है। जिनमें विविध आयुध प्रदर्शित है।
चतुर्भुजी नटराज - दूला देव मंदिर में चतुर्भुज नटराज की मूर्ति है जिसमें उनकी प्रथम तीन भुजाओं में क्रमशः त्रिशूल, डमरू, खप्पर (कपाल) है जबकि चौथी भुजा भग्नावस्था में है। कुछ प्रतिमाओं में एक भुजा में अग्नि लिये हुये भी प्रदर्शित किया जाता है।
अष्टभुजी नटराज - खजुराहो संग्रहालय में स्थित अष्टभुजी प्रतिमा में उनकी आठों-भुजाओं में क्रमशः त्रिशूल, खड्ग, डमरू, खेटक, खट्वांग तथा खप्पर हैं। एक अन्य प्रतिमा में त्रिशूल, पाश, डमरू, अभय, कपाल अग्नि तथा घंटा प्रदर्शित है।
बारह भुजी नटराज - दूलादेव मंदिर में बारहभुजी नटराज की एक सुन्दर प्रतिमा है जिसमें बायां पैर नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है। भुजाओं में त्रिशूल, पाश, डमरू, खेटक, खट्वांग, खड्ग, खप्पर, दृष्टिगत् है।
कल्याण सुन्दर शिव - शिव का कल्याण सुन्दर रूप शिव पार्वती के विवाह के अवसर का है। खजुराहो संग्रहालय, वामन मंदिर तथा भरत चित्रगुप्त मंदिर में स्थित कल्याण सुन्दर शिव को त्रिशूल के आयुध प्रतीक से युक्त दिखाया गया है।
नीलकंठ - खजुराहो के विभिन्न मंदिरों में नीलकंठ शिव की मूर्तियां हैं। कंदरिया मंदिर में नीलकंठ की भुजाओं में पदम, त्रिशूल, खट्वांग, तथा विषपात्र है। भरत चित्रगुप्त मंदिर  में नीलकंठ को विषपात्र, त्रिशूल खट्वांग कमंडलु, डमरू तथा कमल सहित दिखाया गया है। एक अन्य प्रतिमा में नीलकंठ को खप्पर, डमरू, कमल तथा खट्वांग धारी दिखाया गया है। लक्ष्मण मंदिर तथा कंदरिया मंदिर में उन्हें विषपात्र, डमरू, खट्वांग तथा कमंडलु युक्त प्रदर्शित किया है। पार्श्वनाथ मंदिर में आलिंगनबद्ध नीलकंठ की भुजाओं में खट्वांग एवं कमल नाल दिखाया गया है।
अघोर शिव - जगदंबा मंदिर में अघोर शिव की प्रतिमा है। जिसमें उन्हें शूल, डमरू, पाश, दंड, धारण किये हुये बताया गया है। पार्श्वनाथ मंदिर में खट्वांग, पुस्तक तथा नीलकंठ पक्षी धारी अघोर शिव है। पार्श्वनाथ मंदिर में शिव के हाथ में घंटिका है। कंदरिया महादेव मंदिर में अष्टभुजी अघोर प्रतिमा है। जिसमें खप्पर, त्रिशूल, शक्ति डमरू, घंटिका, सर्प, खट्वांग तथा कमंडलु दिखाया गया है। विश्वनाथ मंदिर में अघोर शिव त्रिशूल डमरू घंटिका गदा और कमंडलुधारी हैं। दूलादेव मंदिर में शिव अघोर की वरद् मुद्रा, सर्प, त्रिशूल, डमरू, खट्वांग और कमंडलु धारी हैं।
गज संहार शिव - खजुराहो में गज संहार शिव की विभिन्न प्रतिमायें हैं। कंदरिया महादेव मंदिर में सोलह भुजी गज संहार शिव है। जबकि कुछ अन्य प्रतिमायें बारहमुखी हैं। शिव के इस रूप में उन्हें त्रिशूल वज्र डमरू तथा हाथी का चमड़ा लिये हुये प्रदर्शित किया गया है।
भैरव - खजुराहो में दो प्रकार की भैरव प्रतिमायें है। प्रथम श्वान वाहन सहित तथा दूसरी नग्न प्रतिमा है। एक अन्य प्रकार भी भैरव प्रतिमा का है जिसमें उन्हें भैरवी के साथ आलिंगन मुद्रा में दिखाया गया है। इस प्रतिमा में भैरव चक्र (छल्ला), कमल तथा घंटिका धारी हैं। कंदरिया महादेव, वामन तथा चतुर्भुज मंदिर में नग्न भैरव को पेय पात्र, डमरू, घंटी, नरमुण्ड, सहित दिखाया गया है। विश्वनाथ मंदिर, जगदम्बा मंदिर, भरत चित्रगुप्त मंदिर तथा लक्ष्मण मंदिर में भैरव पेय, डमरू, घंटी, नरमुण्ड, तथा खड्ग लिये हुये हैं। विश्वनाथ मंदिर में भैरव की एक ऐसी प्रतिमा भी है जिसमें उन्हें कमल, सर्प, खट्वांग तथा नरमुण्ड लिये हुये दिखाया गया है। इसी प्रकार लक्ष्मण मंदिर में खड्ग, घंटिका तथा सर्प सहित वामन मंदिर में खड्ग, करबाल तथा खट्वांग सहित हैं। कंदरिया मंदिर की प्रदक्षिणा में खड्ग, जगदम्बा मंदिर में पाश तथा खड्ग तथा विश्वनाथ मंदिर में खेटक, खड्ग तथा सर्प सहित भैरव हैं। श्वान वाहन युक्त भैरव प्रतिमा में गदा, डमरू, घंटिका, खप्पर, कमल तथा सर्प आयुध प्रतीक हैं। आदिनाथ मंदिर में गदा, सर्प के साथ फल प्रदर्शित हैं जबकि विश्वनाथ मंदिर की प्रदक्षिणा में गदा, खड्ग सर्प तथा नरमुण्ड और दूलादेव मंदिर में स्थित प्रतिमा में खड्ग, ढाल तथा नरमुण्ड है। जगदम्बा मंदिर में भैरव की एक ऐसी प्रतिमा भी है जिसमें उनके एक हाथ में पक्षी तथा शेष दो हाथों में घंटिका तथा खट्वांग है।
त्रिपुरान्तक - खजुराहो में आलिंगन मुद्रा की त्रिपुरान्तक प्रतिमा है। जिसमें उन्हें, घट, धनुष, बाण तथा नरमुण्ड धारण किये हुये बताया गया है।
यदि मुद्राओं के आधार पर देखा जाए तो खजुराहो में मौजूद शिव की चतुर्भज प्रतिमाओं को ही तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है - प्रथम श्रेणी में शिव की वे चतुर्भुजी प्रतिमायें है जिनमें शिव वरद मुद्रा में त्रिशूल, घट तथा सर्प धारण किये है। द्वितीय श्रेणी में वे शैव मूर्तियां हैं जिसमें पहली भुजा वरद अथवा अभय मुद्रा में है। तथा दूसरी भुजा में त्रिशूल है। अन्य भुजाओं में पाश, कमल अथवा पुस्तक है। तृतीय श्रेणी में शिव की वे प्रतिमायें है जिनमें शिव के दूसरी अथवा तीसरी भुजा में सर्प प्रदर्शित है जबकि पहली भुजा वरद, अभय अथवा आलिंगन मुद्रा में है। वरद मुद्रा में दूसरे हाथ में पुस्तक अथवा कमल तीसरे में  सर्प और चौथे में घट प्रदर्शित है। अभय मुद्रा में दूसरे हाथ में पाश तीसरे में सर्प तथा चौथा कटि पर है।
भारतीय शिल्पकला यूं भी अत्यंत समृद्ध है और जब उसमें कथानक का समावेश हो जाता है तो ऐसा लगता है जैसे प्रतिमाएं जीवंत हो कर उन कथाओं को स्टेज पर मंचित कर रही हों। यूं भी भारत में प्रतिमा निर्माण की परम्परा बहुत प्राचीन है। खजुराहो का मूर्तिशिल्प शिव प्रतिमाओं के बिना पूर्ण हो ही नहीं सकता था। शिव जो संहारक हैं तो कल्याणकारी भी हैं। भोले हैं लेकिन दुखहर्ता हैं। संभवतः खजुराहो का शैव-शिल्प भी यही कहना चाहता है कि -‘शिव सबका कल्याण करें!’
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Tuesday, February 25, 2025

पुस्तक समीक्षा | गहन संवेदनाओं की तपन है ‘'गढ़ई भर चाय'' में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 25.02.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा

     गहन संवेदनाओं की तपन है ‘'गढ़ई भर चाय'' में
    - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह    - गढ़ई भर चाय
लेखिका        - डाॅ. वंदना मिश्र
प्रकाशक        - इंडिया नेट बुक्स प्रा.लि., सी-122, सेक्टर 19, नोएडा - 201301        
मूल्य           - 300/-
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     कहानियां कभी हमारे मन के आकाश के रंगों से बुनी जाती हैं तो कभी हमारे आस-पास मौजूद संवेदनाओं के आकलन से। यह कहानीकार पर निर्भर होता है कि वह गल्प कथानक को चुनना चाहता है या यथार्थ को। दोनों ही प्रकार के कथानकों की अपनी महत्ता होती है। दोनों जीवन से जोड़ती हैं- एक सीधे-सीधे और दूसरे कल्पनालोक के इच्छाधारी आकारों के माध्यम से। डाॅ. वंदना मिश्र यथार्थ के कथानकों को चुनती हैं। चाहे अतीत हो या वर्तमान, वे अपने अनुभव के दायरे से पात्रों को ढूंढती हैं और वे ऐसी कहानी रचती हैं कि पढ़ने वाले को लगे कि अरे, ऐसी ही भाभी, ऐसे ही चाचा, ऐसे ही मामा तो हमारे गांव में रहते थे या हमारे घर के बाजू में रहते हैं! यही खूबी है डाॅ. वंदना मिश्र के कथा सृजन की। ‘‘गढ़ई भर चाय’’ उनका दूसरा कहानी संग्रह है। इसके पूर्व ‘‘अहम सवाल’’ नामक उनका कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उन्होंने बाल साहित्य भी लिखा है। बच्चों के लिए गीत और लोरियां भी। मणिमधुकर के नाटकों का समीक्षात्मक विवेचन भी उन्होंने किया है। डाॅ वंदना मिश्र का अपने गंाव और अपनी ज़मीन से जुड़ाव उनकी कहानियों में देखा जा सकता है। कहानी संग्रह ‘‘गढ़ई भर चाय’’ का नाम ही आंचलिकता को समेटे हुए है।
डाॅ वंदना मिश्र बुंदेलखंड की हैं और वे जानती हैं कि बुंदेली में लोटे को ‘‘गढ़ई’’ कहते हैं। उनकी स्मृतियों में गांव का वह परिदृश्य भी ताज़ा है जिसमें ‘कट चाय’ का कोई महत्व नहीं है। यदि चाय पिला कर सत्कार किया जाना है तो कम से कम गढ़ई भर चाय तो होनी ही चाहिए। चाय की यह मात्रा वस्तुतः अपनत्व का वह प्रतीक है जो गांवों में भरपूर पाई जाती थी। अब तो ग्रामीण परिवेश को भी सोशल मीडिया की हवा लग चुकी है। वे वैश्विकमंच से जुड़ गए हैं और परस्पर आपस में अबोले होते जा रहे हैं। फिर भी गांवों में एकाध ‘‘मीरा भाभी’’ अभी भी मिल जाएंगी जो एक पीढ़ी पहले की हैं और जिनके सामाजिक सरोकार असीमित हैं। ‘‘गढ़ई भर चाय’’ की नायिका है मीरा भाभी जिन्होंने अपने आधे चेहरे को घूंघट से ढांके रख कर पूरा जीवन बिता दिया किन्तु दूसरों के दुख-दर्द में सबसे आगे बढ़ कर शामिल हुईं। अपने कार्य कौशल से वे गांव भर की औरतों की ज़रूरत बन गईं। पुरुषों ने भी उनकी क्षमताओं पर विश्वास किया और उन्हें सरपंची सौंप दी। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि व्यक्ति दूसरों से तो जीत जाता है किन्तु अपनों से मात खा जाता है। यही मीरा भाभी के साथ हुआ। डाॅ. वंदना मिश्र ने मीरा भाभी के बहाने उस ग्रामीण परम्परा, विश्वास एवं घनिष्ठता को प्रस्तुत किया है जो ग्राम्य जीवन की पहचान थी और जिसे सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया कथित आधुनिकता के ग्रहण ने। यह कहानी उन सभी को अपने अतीत में झांकने और अपने सरोकारों को आकलित करने का आग्रह करती है जो अपना गांव छोड़ कर शहरों मे बस गए हैं और उन्हें ग्रामीण जीवन-मूल्य पिछड़े हुए लगते हैं। यह एक सुगठित और विचारपूर्ण कहानी है।
संग्रह में कुल 19 कहानियां हैं। प्रथम कहानी ‘‘गढ़ई भर चाय’’ के बाद दूसरी कहानी है ‘‘गंतव्य’’। सरकार की हर योजना हर किसी को पसंद आए यह आवश्यक नहीं है। कई बार राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी ऐसे मसलों पर हावी हो जाती है। विडंबना तब बढ़ती है जब विरोध हिंसक एवं विध्वंसक प्रदर्शन में ढल जाता है। दूकानों को लूटना, बसों को आग लगा देना, रेलगाड़ी की बोगियों में घुस कर मार-पीट या लूटपाट करने लगना, यात्रियों से अभद्रता करना जैसे विरोध के तरीके अवसरवादियों को खुली छूट दे देते हैं कि वे विरोधकर्ताओं का मुखौटा पहन कर, उनमें शामिल हो कर आतंक मचाएं। सरकार की अग्निपथ योजना जिसके अंतर्गत अग्निवीरों की भर्ती की जानी थी, देश के कई हिस्सों में जनता इसी तरह के विरोधों का निशाना बनी। ‘‘गंतव्य’’ कहानी में ऐसी ही एक त्रासदी का विवरण है जब विरोधकर्ता एक रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म और वहां खड़ी एक रेलगाड़ी पर टूट पड़ते हैं। स्त्रियों के साथ अभद्रता, सामानों की लूट, भगदड़ में परिवारों का बिखरना। कुल मिला कर एक आतंक का वातावरण निर्मित हो जाता है। इसी विरोधी आतंक के बीच कुछ देवदूत सदृश लोग मददगार के रूप में सामने आते हैं और पीड़ित यात्रियों की हरसंभव सहायता करते हैं। यह कहानी विरोध के अमानवीय ढंग पर तर्जनी उठाती है।
‘‘अनोखा रिश्ता’’ कहानी वर्तमान परिवेश के उस कथानक पर है जिसमें कामकाजी स्त्री के पारिवारिक दायित्वों और उसके कामकाज के बीच संतुलन का प्रश्न उठ खड़ा होता है। वस्तुतः सामाजिक सोच का खाका कुछ इस तरह सेट हो चुका है जिसमें परिवार कामकाजी बहू तो चाहता है किन्तु उसे घर के कामकाज से मुक्त रखने की कल्पना भी नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति पर तर्क होता है कि एक स्त्री को घर के कामकाज तो सम्हालने ही होंगे, भले ही वह नौकरी करती हो क्योंकि वह स्त्री है। इसी सोच के चलते कई घरों में संबंध बिगड़ने लगते हैं और जिन घरों में इस तरह का दबाव कम होता है तथा सूझ-समझ से काम लिया जाता है वहां स्थिति सम्हली रहती है। ‘‘अनोखा रिश्ता’’ परिवार विमर्श की एक अच्छी कहानी है।
‘‘विनय न मानति जलधि जड़’’ शीर्षक कहानी रक्षाबंधन के पर्व में भाई बहन के परस्पर मिलने की तीव्र अभिलाषा पर बांध के टूटने की आपात स्थिति से उत्पन्न प्रश्नों को उठाता है। बांध का सही न बनाया जाना चंद लोगों की मानवीय लिप्सा का दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है जो आमलोगों को जीवन को गहरे तक प्रभावित करती है। संदर्भ मात्र इतना है कि एक बहन को अपने भाई के घर पहुंच कर उसकी कलाई पर राखी बांधना है किन्तु बांध दरकने से आई बाढ़ इस सुखद अवसर को अपने साथ बहा ले जाती है। तब बहन को ही यह सोच कर तसल्ली करनी पड़ती है कि राखी तो कृष्ण जन्माष्टमी तक बांधी जा सकती है। यह कहानी अपने पीछे एक प्रश्न छोड़ जाती है कि भ्रष्टाचार करने वाले लोग जन-धन की क्षति, सुखों की बलि आदि के बारे में विचार क्यों नहीं करते?
संग्रह में एक कहानी है ‘‘विवाह सम्पन्न’’। यह राधा और कृष्ण के प्रेम को व्याख्यायित करती है किन्तु  आधुनिक संदर्भ में। कृष्ण का अपनी आयु से बड़ी राधा के प्रति प्रेम यशोदा माता को विचलित करता है। यमुनातट पर नहीं भोपाल के चिनार पार्क में राधा और कृष्ण का मिलना-मिलाना वर्तमान समाज के लिए सहज नहीं है। द्वापर और कलियुग के बीच का वैचारिक द्वंद्व इस कहानी में रोचक ढंग से प्रस्तुत हुआ है। वहीं ‘‘आॅनलाईन’’ कहानी बाजार के बदले स्वरूप एवं पारिवारिक संबंधों में आती शुष्कता को दर्शाती है। आज सब कुछ आॅनलाईन मंगाया जा सकता है- मेकअप सामग्री से ले कर नाश्ता तक। लेकिन इस सुविधा ने संबंधों की उष्णता को बुझा दिया है। यह एक सास और नवविवाहित बेटे-बहू के मध्य आॅनलाईन बाजार की उपस्थिति की कहानी है।
आज शहरों का रंग-रूप तेजी से बदलता जा रहा है। सुव्यवस्थित सलीकेदार सड़कें और यातायात के नियम-कायदे का पालन करवाते चैराहे विकसित शहरों की पहचान बन गए हैं। इस पहचान पर एक कलंक का धब्बा भी है और वह है भिखारियों की उपस्थिति। भौतिक विकास के बीच मानवजीवन के उस पहलू का विकास कहीं छूट-सा गया है जहां हर किसी को रोटी, कपड़ा, मकान मिलना चाहिए था। सरकार की तमाम योजनाओं के बीच भी भिखारियों का पाया जाना उन योजनाओं को मुंह चिढ़ाता रहता है। यह भिखारी प्रथा क्रूरता और कठोरता को भी रेखांकित करता है। एक युवक जिसके दोनों हाथ कटे हुए हैं, चैराहे पर खड़ा हो कर भीख मांगता है। दयावान लोग द्रवित हो कर उसके गले में लटके बैग में भीख के रूप में चंद रुपए डाल देते हैं। शाम तक वह अच्छी रकम पा जाता है किन्तु न तो उसके फटे कपड़े बदल पाते हैं और न कभी लगता है कि उसने भरपेट भोजन किया है। इस अहसास के पीछे मौजूद कड़वा सच अकसर छिपा रह जाता है। ‘‘नाक के नीचे’’ शीर्षक कहानी इसी सच्चाई से जोड़ती है।
चाहे फ्लाईओव्हर बने या आवासीय परिसर, सबसे पहले काटे जाते हैं हरे-भरे वृक्ष। देखा जाए तो नगरीय विकास के लिए सबसे पहली बलि प्रकृति और उसकी हरियाली की ही होती है। ‘‘यह कदम्ब का पेड़ अगर’’ कहानी विकास के नाम पर हरियाली के काटे जाने और उससे होने वाले नुकसान की कथा कहती है।
संग्रह की कहानी ‘‘खिड़कियां’’ वृद्ध विमर्श की कहानी है। एक मां जो अपनी बेटी को सास-ससुर की सेवा करने की शिक्षा दे कर ससुराल भेजती है, वह अपने ही बेटे और बहू की उपेक्षा की शिकार हो जाती है। मां से पाई हुई शिक्षा से प्रेरित हो कर बेटी तो अपने ससुराल में सबका ध्यान रखती है और सबसे प्रेम पाती है किन्तु वहीं दूसरी ओर बेटी को संस्कारों की शिक्षा देने वाली मां अपने ही घर में उपेक्षित हो कर भी बेटी के साथ जाना मंजूर नहीं करती है क्योंकि इससे उसे सामाजिक मान्यताएं टूटती हुई दिखती हैं। एक ओर व्याकुल बेटी और दूसरी ओर संस्कारों एवं परंपराओं की डोर थामें जर्जर मां। इस विकट स्थिति से उबरने का रास्ता भी सुझाया है लेखिका ने जिससे यह कहानी सार्थक बन पड़ी है। क्योंकि इसमें समस्या को भर नहीं रखा गया है अपितु सुझाव भी दिया गया है। यद्यपि एक और सुझाव को स्पर्श कर के छोड़ दिया गया है कि मां अपनी विवाहिता बेटी के पास भी रह सकती है यदि उसका दामाद भी उसे साथ रखने को तैयार हो। इस ओर संकेत अवश्य किया है लेखिका ने कि कुछ मानकों एंव परंपराओं का समय के साथ एवं विशेष परिस्थितियों में बदलना भी जरूरी है।
डाॅ वंदना मिश्र के कहानी संग्रह ‘‘गढ़ई भर चाय’’ में गहन संवेदनाओं की तपन है। वे जीवन से जुड़े विविध पहलुओं को आकलन भरी दृष्टि से परखती हैं और उन्हें कथानक के रूप में प्रस्तुत करती हैं। शैली और भाषा की दृष्टि से संग्रह की सभी कहानियां समृद्ध हैं। कुछ कथानकों को और विस्तार दिया जा सकता था किन्तु उनकी संक्षिप्तता भी खटकती नहीं है। अपितु कुछ कहानियां काव्यात्मक सौंदर्य लिए हुए हैं। यह कहानी संग्रह पठनीय है तथा सामाजिक सरोकारों के विचारों से परिपूर्ण है।
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