Friday, August 1, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह को “स्वर्गीय ठाकुर विश्वनाथ सिंह स्मृति सम्मान”

“स्वर्गीय ठाकुर विश्वनाथ सिंह स्मृति सम्मान” से मुझे सम्मानित किए जाने पर मैं आदरणीय गांधीवादी चिंतक दादा रघु ठाकुर जी तथा तुलसी न्यास की अत्यंत आभारी हूं..🚩🙏🚩
    🚩बिना किसी पूर्व सूचना या पूर्व घोषणा के सम्मानित होने का अपना एक विशेष सुख होता है जो चौंकता भी है ... जब अचानक सम्मान हेतु नाम पुकारा जाता है ... ऐसे पल अनमोल होते हैं... आत्मविश्वास भी पैदा करता है अपने सृजनकर्म के प्रति विद्वतजन के विश्वास की इस प्रकार अनुभूति होने पर…
बस, मन यही कहता है कि "कृतज्ञ हूं!" 🙏

🌹🙏🌹  पूर्व विधायक भाई श्री सुनील जैन जी, दैनिक आचरण की प्रबंध संपादक डॉ निधि जैन जी, श्री आनंद शर्मा जी तथा दादा रघु ठाकुर जी के कर कमलों से सम्मान ग्रहण करना अत्यंत सुखद लगा 🌹😊🌹
 
  🚩 दादा रघु ठाकुर जी तुलसी न्यास के तत्वावधान में प्रतिवर्ष अपने भ्राता स्वर्गीय ठाकुर विश्वनाथ सिंह जी की स्मृति में व्याख्यान का आयोजन करते हैं जिसमें किसी एक विद्वान को व्याख्यान हेतु आमंत्रित किया जाता है। इस वर्ष का विषय था “प्रशासन और सुशासन”। 
   आज होटल क्राउन पैलेस के सभागार में आयोजित व्याख्यान माला के मुख्यवक्ता थे श्री आनंद शर्मा आई.ए.एस (पूर्व आयुक्त), जो पूर्व में सागर संभाग के कमिश्नर भी रह चुके हैं तथा एक अच्छे संस्मरण लेखक हैं। आज उन्होंने अपने अनुभवों को साझा करते हुए सारगर्भित व्याख्यान दिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता की दादा रघु ठाकुर जी ने।

   🚩 प्रतिवर्ष होने वाले इस आयोजन की यह विशेषता रहती है कि इसमें नगर के गणमान्य बुद्धिजीवी तो उपस्थित होते ही हैं साथ ही सुदूर ग्रामीण अंचल से भी जागरूक नागरिक सहभागिता करते हैं।
  
   🚩 इस अवसर पर आनंद शर्मा जी ने महाकाल पर लिखी अपनी पुस्तक मुझे भेंट की तथा मैंने उन्हें अपनी बुंदेली ग़ज़लों की पुस्तक “सांची कै रए सुनो, रामधई” भेंट की। साथ ही आदरणीय दादा रघु ठाकुर जी को भी यह पुस्तक मैंने भेंट की।
 
   🚩 आयोजन में भोपाल से पधारी स्नेहिल, आत्मीय स्वभाव की विदुषी कवयित्री एवं लोहिया पुस्तकालय भोपाल की प्रभारी डॉ शिवा श्रीवास्तव जी से सुखद भेंट हुई।
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01.08.2025, 
होटल क्राउन पैलेस सभागार
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शून्यकाल | वानर कौन थे ? जिनका उल्लेख रामकथा में प्रमुखता से है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर


दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल

शून्यकाल
वानर कौन थे ? जिनका उल्लेख रामकथा में प्रमुखता से है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                            
        रामकथा पवनपुत्र हनुमान के बिना कभी सम्पूर्ण हो ही नहीं सकती है। हनुमान उस वनार समुदाय के प्रमुख व्यक्ति हैं जिन्होंने श्रीराम की सहायता की। वीर इतने की अकेले ही लंकादहन कर आए। श्रीराम के प्रति सेवाभाव ऐसा कि उनकी सेवाभाव में कोई कभी कमी न हो इसीलिए वे ब्रह्मचारी भी रहे। जिस समुदाय के व्यक्ति में ऐसे विलक्षण गुण हों क्या उस समुदाय को ‘वानर’ के मात्र ‘बंदर’ पर्याय के रूप में देखना उचित होगा? इस विषय पर अनेक विद्वान चिंतन-मनन कर चुके हैं और उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले उन पर विचार करना भी आवश्यक है। तभ हम जान सकेंगे कि असल में कौन थे वानर?   

           वाल्मीकि ‘‘रामायण’’ से ले कर तुलसीदास की ‘‘रामचरित मानस’ तक वनार रामकथा के अभिन्न अंग हैं। तमाम रामकथाओं में जो चेष्टाएं वानरों की वर्णित हैं वे बंदर नामक प्राणि से उस प्रकार मेल नहीं खाती है, जिस प्रकार हम कल्पना कर लेते हैं। बंदर मनुष्य की प्रजाति के ही प्राणि माने गए हैं किन्तु उनमें चिम्पैंजी जैसे बुद्धिमान प्रजाति भी मनुष्य के समान चेष्टाएं करने में सक्षम हैं किन्तु पूरी तरह नहीं। बंदर समूह में रहते हैं तथा एक सामाजिक व्यवस्था बनाए रखते हैं जिसमें सबसे शक्तिशाली ‘अल्फा’ बंदर की हुकूमत चलती है किन्तु वे  घर नहीं बनाते, वे वस्त्र धारण नहीं करते, वे भोजन को पका कर खाने की विधि आज तक नहीं सीख सके हैं। यहा तक कि जिस प्रकार मनुष्य ने आग जलाना सीख कर और पहिए का आविष्कार कर के मानव संस्कृति की नींव डाली, उस प्रकार बंदर नहीं कर सके हैं। वे मनुष्य समान प्राणि हैं किन्तु मनुष्य नहीं हैं। 

रामकथा में जिन वानरों का उल्लेख मिलता है वे मनुष्यों की भांति सभी कार्य करने में पूर्ण सक्षम हैं। उनमें सोच, विचार, चिंतन आदि की विशेषता है। उनमें राजतंत्र है। उनके राजा भवन में रहते हैं। कुछ बिन्दुओं पर तो वे मनुष्सों से अधिक क्षमतावान दिखाई देते हैं। जैसे यदि हनुमान का ही उदाहरण लें तो उनमें विलक्षण क्षमता थी। प्रथम तो उनका जन्म पवन देवता तथा देवी अंजनी के संयोग से हुआ था। यद्यपि देवी अंजनी किष्किंधा की निवासी थीं और उनका विवाह वानरराज केसरी से हुआ था। वानरराज केसरी से विवाह होने पर भी पवन देव से पुत्र का जन्म होना एक अलग कथा है जिसका फिलहाल इस विषय से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि इससे हनुमान के अन्य वानरों के गुणों से मूल गुण भिन्न नहीं होते हैं। जिस प्रकार वानरराज केसरी, बालि, सुग्रीव आदि हैं, उसी प्रकार हनुमान भी हैं। बाल्यावस्था की उनकी चंचलता एक बाल चंचलता है जो लगभग सभी प्राणियों के बच्चों होती है। उदाहरण के लिए यदि स्मरण करें तो वह घटना जिसमें बालक हनुमान सूर्य को फल समझ कर मुंह में डाल लेते हैं। हर मनुष्य का बच्चा जब तक उसे खाद्य-अखाद्य का बोध नहीं कराया जाता है, वह कुछ भी उठा कर अपने मुंह में डालने लगता है। उसके माता-पिता या पालक उसे अपने अनुभवों के आधार पर बताते हैं कि उसे क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। 

रामकथा काल के वानर वन में रहते थे। वनोपज से अपना पेट भरते थे। किन्तु उनमें समाज व्यवस्था मनुष्यों की ही भांति थी। विधिवत वैवाहिक संबंध होते थे। वे युद्धकला सीखते थे। यहां तक कि वेश बदलना तथा मनुष्य से अधिक क्षमतावान होने का कौशल उनमें था। इस दृष्टि से विचार किया जाए तो सीधा उत्तर मिलता है कि वानर वनवासी मनुष्य थे। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि वानरों का मुख वानर अर्थात बंदर जैसा दिखाई देता था। यहां उन विद्वानों का तर्क भी विचारणीय है कि संभवतः वे हिंसक वन्य पशुओं से स्वयं की सुरक्षा के लिए मुखौटों का प्रयोग करते रहे हों। अथवा, अन्य कबीलों से स्वयं को अलग पहचाने जाने के लिए मुखौटों का प्रयोग करते रहे हों। हम सभी जानते हैं कि वनवासी मनुष्यों नृत्य, धार्मिक अनुष्ठान आदि के समय मुखौटा पहने जाने का चलन रहा है। यह चलन भारत में ही नहीं वरन दुनिया के हर महाद्वीप के मनुष्यों रहा है। आफ्रिका में आज भी कई कबीले ऐसे हैं जहां धार्मिक अनुष्ठानों के समय मुखौटे पहने जाते हैं। हमारे देश की कथाकली जैसी नृत्य शैली में मुखौटे की अनिवार्यता रहती है। तो क्या आफ्रिका के मुखौटा धारण कर के धार्मिक अनुष्ठान करने वाले या हमारे देश के कथकली नर्तक मनुष्य नहीं हैं? इसी प्रकार यह विचार करना गलत नहीं है कि वानर भी मनुष्यों में वन क्षेत्र में रहने वाला समुदाय था, स्वीकार्य लगता है। इस बिन्दु पर एक तर्क और दिया जा सकता है, वह भी वर्तमान जीवन से। बंगाल के सुंदरवन राष्ट््रीय उद्यान में बाघों के आक्रमण से बचने के लिए ग्रामीणजन सिर के पीछे की ओर मुखौटा चला कर जाते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं जिससे बाघ को भ्रम हो जाए कि मनुष्य की पीठ उसकी ओर नहीं है, मनुष्य उसकी हरकतों को देख रहा है। अर्थात वनक्षेत्र में जीवनयापन करने के अपने अलग तौर-तरीके होते हैं, उन्हें नगरीय जीवन के आधार पर आंका नहीं जा सकता है। यदि रामकथा काल के वानरों के बारे में विचार करना है तो वनजीवन को ध्यान में रखना होगा।    

मनुष्यों में विशेष प्रतिभा रखने वाला समुदाय जो वन एवं नगरीय वातावरण दोनों में स्वयं को ढाल लेता है, वानर के रूप में रामकथा में वर्णित है। उनमें भी अन्य मनुष्यों की भांति राग, द्वेष, छल-कपट, राजनीतिक लालसा आदि है। बालि और सुग्रीव के चरित्र इन्हीं मानवीय भावनाओं को दर्शाते हैं। राजगद्दी को ले कर भाइयों के बीच युद्ध मानवीय प्रवृति है। वाल्मीकि रामायण, जो इस महागाथा का मूल स्रोत है, हमें कई जगह यह संकेत देती है कि ये वानर विशेष संस्कृति और जीवनशैली वाले लोग थे। देखा जाए तो ‘‘वानर’’ शब्द ही इसका साक्ष्य दे देता है। ‘‘वानर’’ दो शब्दों से मिल कर बना है ‘‘वन’’ तथा ‘‘नर’’। अर्थात वन में रहने वाले नर। यहां ‘‘नर’’ का आशय मनुष्य से है, मात्र पुरुष से नहीं। वाल्मीकि ने वानरों के गुणों का वर्णन करते हुए सुग्रीव को ‘‘धर्मात्मा’’ कहा है, जिसका आशय है ‘‘धर्म का पालन करने वाला।’’ यह विशेषण किसी पशु के लिए नहीं, अपितु मनुष्यों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। अब तक प्राप्त ज्ञान एवं अनुसंधान के आधार पर हम निःसंदेह यह कह सकते हैं कि धर्म की संकल्पना मनुष्यों की अपनी मौलिक संकल्पना है।

अब प्रश्न यह भी उठता है कि वन में निवास करने वाले इन योद्धाओं को ‘‘वानर’’ ही क्यों कहा गया? इसका उत्तर भारतीय संस्कृति की उस परंपरा में मिलता है जहाँ विभिन्न जनजातियां अपनी पहचान के लिए किसी न किसी पशु प्रतीक को अपनाती थीं। वानर जनजाति ने संभवतः बंदर को अपने प्रतीक के रूप में चुना था। यह प्रतीक उनके चपलता, साहस, और निष्ठा का प्रतीक था। जैसे नागा जनजाति सर्प को अपना प्रतीक मानती थी और अपने देवता के रूप में पूजती थी, वैसे ही वानर जनजाति ने बंदर को अपने प्रतीक के रूप में अपनाया रहा होगा। 

वानर सेना के संबंध में एक प्रसंग रामायण के किष्किंधा कांड में आता है। जहां सुग्रीव, हनुमान जी से भगवान राम के पास ‘‘अपने वास्तविक  रूप में’’ जाकर मिलने को कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हनुमान जी में कुछ खास गुण थे, और उनके पास मानवीय विशेषताएं थीं। हनुमान जी का भगवान राम से मिलना और उनका आदरपूर्वक व्यवहार करना यह दर्शाता है कि वे केवल बंदर नहीं थे। वे संवाद करने में, योजना बनाने में, और बुद्धिमानी से काम करने में माहिर थे। रामायण में इनकी निष्ठा, धर्मपालन और उच्च विचारधारा को देखकर यह कहा जा सकता है कि वानर किसी आदिवासी जनजाति के बुद्धिमान लोग थे, जिन्हें भाषा और व्याकरण का अद्भुत ज्ञान था। वाल्मीकि ने ‘‘रामायण’’ में वानरो को ऐसे बलवान प्राणियो के रूप मे चित्रित किया है, जो माया जाननेवाले, शूरवीर, वायु के समान वेगवान, नीतिज्ञ, बुद्धिमान, विष्णु के समान पराक्रमी, किसीसे परास्त न होनेवाले, तरह-तरह के उपायो के जानकार, दिव्य शरीर-धारी और देवताओ की तरह सभी शस्त्रास्त्रो के प्रयोग में कुशल थे। ‘‘कामरूपिणः’’ वाल्मीकि का एक बहु-प्रयुक्त विशेषण है- वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे। राम-लक्ष्मण से पहली भेट के समय हनुमान ने अपना कपि-रूप त्याग कर भिक्षु-रूप धारण कर लिया था। लका मे सीता की गुप्त ढग से खोज करते समय भी उन्होने अनेक रूप-परिवर्तन किये थे।

वानर अपने दांतों और नखों का शस्त्रों के रूप में प्रयोग कर लेते थे। चीनीयुद्ध कला कुंग फू अथवा होउ क्वान में भी वानरों की चपलता तथा अप्रत्याशितता का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार अनदेखा करने का अभिनय करने वाला बंदर अचानक आक्रमण कर देता है ठीक उसी प्रकार कूंग फू शैली में प्रति़द्वंद्वी को अपने लापरवाह होने के भ्रम में डाल कर अचानक आक्रमण किया जाता है। जिस प्रकार भारत में रामकथा के वानरों की कथा प्रचलित है ठीक उसी प्रकार ‘‘मंकी किंग’’ अर्थात ‘‘सुन वुकोंग’’ चीन की प्रसिद्ध लोककथा है जिसमें वानर समुदाय का ठीक वैसा ही वर्णन है जैसा रामकथा में मिलता है। वाल्मीकि द्वारा किए गए वर्णन के अनुसार वानरो के शरीर पर घने रोए होते थे। उनमें सुंदरता का भी अभाव नही था। सुग्रीव के राजप्रामाद में दिव्य वस्त्र और मालाघारी ‘‘प्रियदर्शन’’ वानर मौजूद थे। लक्ष्मण ने वहां रूप और यौवन से गर्वित वानर- स्त्रियां देखी थीं। 

अब एक प्रश्न बच रहता है कि उस पूंछ का क्या जो बंदरों में पाई जाती है, मनुष्यों में नहीं? तो इसके भी दो उत्तर संभावित हैं। पहला तो ये कि वे वनजाति के मनुष्य मुखौटों के साथ पूंछ का प्रतीक भी धारण करते थे। और दूसरा उत्तर मानव के विकासवाद के सिद्धांत में है। मनुष्य के विकास क्रम में, पूंछ वाले पूर्वजों से बिना पूंछ वाले मनुष्य का विकास एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था। यह विकास क्रम लगभग 25 मिलियन वर्ष पूर्व शुरू हुआ, जब मनुष्यों और वानरों के पूर्वजों ने बंदरों से अलग होना शुरू किया और अपनी पूंछ खो दी। इस परिवर्तन के पीछे कई संभावित कारण हैं, जिनमें सीधे खड़े होकर चलने की क्षमता और पेड़ों पर चढ़ने के लिए अनुकूलन शामिल हैं। हमारे पूर्वज, जैसे कि एजिप्टोपिथेकस (लगभग 33 मिलियन वर्ष पूर्व), पूंछ वाले प्राइमेट थे। लगभग 25 मिलियन वर्ष पूर्व, मनुष्यों और वानरों के पूर्वजों ने अपनी पूंछ छोटी करना शुरू कर दी। लगभग 20 मिलियन वर्ष पूर्व, कुछ वानरों और मनुष्यों ने अपनी पूंछ पूरी तरह से खो दी। पूंछ के गायब होने के साथ, मनुष्यों ने सीधे खड़े होकर चलने की क्षमता विकसित की, जिससे पेड़ों पर चढ़ने और जमीन पर चलने में आसानी हुई। मनुष्यों में अभी भी पूंछ की हड्डी का एक अवशेष मौजूद है, जिसे कोक्सीक्स कहा जाता है, जो पूंछ के गायब होने का प्रमाण है। अतः यह संभव है कि मनुष्यों का कोई ऐसा समुदाय वनप्रांतर में बचा रह गया हो जिसने अपनी पूंछ नहीं खोई थी और वे एजिप्टोपिथेकस की कड़ी के थे।

वानर कौन थे? यह भी एक अत्यंत गहन विषय है जो धर्म, समाज और विज्ञान को एक साथ ले कर चलता है। इसे संक्षेप में इतना ही वैचारिकी के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु इन बिन्दुओं पर चिंतन करने से यह तो तयय है कि हम स्वयं को रामकथा के और समीप पाते हैं।
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