Tuesday, September 23, 2025

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास  | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | गोल्डन केज : स्त्री जीवन और मन की परतों को खोलता एक रोचक उपन्यास 
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - गोल्डन केज
लेखिका -  डॉ. श्वेता भटनागर
प्रकाशक - स्टोरीमिरर इन्फोटेक प्राइवेट लिमिटेड, यूनिट संख्या-एफ/705, सातवीं मंजिल, कैलाश कॉर्पोरेट लाउंज, वीर सावरकर रोड, विखेओली पार्क साइट, विक्रोली वेस्ट,
मुंबई-400079
मूल्य - 499 /-
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‘‘गोल्डेन केज: ए वूमेन्स जर्नी थ्रू एक्सपेक्टेशन्स एंड इंपावरमेंट’’ यदि इसका हिंदी अनुवाद किया जाए तो अर्थ होगा, ‘‘सोने का पिंजरा: अपेक्षाओं और सशक्तिकरण के बीच एक स्त्री का सफर’’। डाॅ. श्वेता भटनागर का उपन्यास है ‘‘गोडन केज’’। डॉ. श्वेता भटनागर मैक्सिलोफेशियल सर्जन और सागर, मध्यप्रदेश स्थित मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। कथा साहित्य में उनका रुझान है। वे दो बेटियों की माँ हैं अतः स्वाभाविक रूप से वे एक ऐसे संसार की कल्पना अपने कथानक में करती हैं जहां स्त्री को अपनी इच्छानुरूप जीवन जीने का अवसर मिले। ‘‘गोल्डेन केज: ए वूमेन्स जर्नी थ्रू एक्सपेक्टेशन्स एंड इंपावरमेंट’’ उनका पहला उपन्यास है। अंग्रेजी में है। यह उपन्यास एक पड़ताल है स्त्री की महत्वाकांक्षा और परिस्थितियों के पारस्परिक टकराव की। यह उपन्यास बात करता है स्त्री के स्त्री होने के साथ ही एक मानव होने की। यह उपन्यास प्रश्न करता है स्त्री की अभिलाषाओं के बारे में।

यह प्रश्न हमेशा बहस का विषय रहा है कि एक स्त्री क्या चाहती है? वह किस प्रकार का जीवन जीना चाहती है? स्त्रीवादी स्वर कहता है कि स्त्री दैहिक स्वतंत्रता चाहती है। गैरस्त्रीवादी सामाजिक स्वर कहता है कि स्त्री के लिए आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है। किन्तु जब किसी आम स्त्री से पूछा जाता है तो वह भ्रमित स्वर में उत्तर देती है कि ‘‘मुझे पता नहीं, मुझे क्या चाहिए?’’ स्त्री जीवन की समाज द्वारा जो यात्रा सुनिश्चित की गई उसमें विवाह, संतानोत्पत्ति एवं गृहणी धर्म का पालन जैसे पड़ाव एवं कर्तव्य निर्धारित किए गए। किन्तु समय के साथ स्त्री ने अपने घर की खिड़की से बाहर झांका। पहले डरते-डरते और दृढ़ता से। उसे घर की खिड़की से बाहर की दुनिया अधिक स्वतंत्र और ताज़ा दिखाई दी। कुछ ने सहमति पा कर, कुछ ने विद्रोह कर और कुछ ने मात्र कौतूहलवश बाहर की दुनिया को देखने के लिए धर से बाहर कदम रखा। रास्ता चुना धनोपार्जन का। आर्थिक स्वतंत्रता का। इससे एक कामकाजी स्त्री ने अवतार लिया। आर्थिक लाभ भला किसे पसंद नहीं? उसके इस कदम का स्वागत किया गया, भले ही अहसान जताने के भाव से। घर में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी। वह प्रसन्न हुई। लेकिन उसकी यह स्वतंत्रता पुरुषों की भांति नहीं थी। उसे संतान को जन्म देना था, बच्चों को पालना था, घर भी सम्हालना था, भोजन पकाना था, समस्त रिश्तों का यथावत निर्वाह करना था। अर्थात उसे कामकाजी होने पर पारिवारिक दायित्वों से कोई छूट नहीं थी। शिकायत करने की गुंजाइश नहीं थी क्योंकि ‘‘यह तुम्हारा निर्णय था’’ अथवा ‘‘तो छोड़ दो नौकरी’’ का ताना उसके लिए तय था। इस तरह कामकाजी स्त्री दो फड़ में बंट गई। वह सुपर वूमेन बनने के प्रयास में ह्यूमन भी नहीं रह गई। एक रोबोट जिसे में भावनाएं एवं इच्छाएं नहीं होनी चाहिए। यही तो है स्त्री का ‘सुनहरा पिंजरा’ जो है तो सोने का किन्तु पिंजरा ही है।     
 
 उपन्यास की नायिका साहित्या नामक एक महत्वाकांक्षी स्त्री है जो अपने महत्वाकांक्षी सपनों और पारिवारिक अपेक्षाओं के बीच संतुलन बिठाती है। साहित्या में शैक्षणिक प्रतिभा है। वह अपने करियर में सफल है लेकिन विवाह के बाद स्थितियां जटिल होने लगती हैं। एक स्थिति ऐसी भी आती है जब कार्यस्थल में भी उसे निराशा का सामना करना पड़ता है और व्यक्तिगत विश्वासघात उसे तोड़ने का पूरा प्रयास करता है। किन्तु साहित्या जीवट है। वह हार नहीं मानना चाहती है। वह संघर्ष करती है। जब उसे लगता है कि उसका अस्तित्व बिखर रहा है, उसकी पहचान खो रही है, ठीक उसी समय वह स्वयं को सम्हालती है और एक बार फिर उठ खड़ी होने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देती है। अपने प्रयासों से नया व्यवसाय खड़ा करना कठिन था फिर भी वह अपनी शर्तों पर अपना व्यवसाय फिर से बनाती है। अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करती है। यह साहित्या का एक ऐसा प्रयास था जो उसे उसके सुनहरे पिंजरे से आजादी दिला सकता था।

मशहूर उर्दू उपन्यासकार कुर्रतुलैन हैदर नारीवादी लेखिका नहीं थीं लेकिन वे स्त्री स्वतंत्रता की प्रबल समर्थक थीं। एक बार एक साक्षात्कार में उनसे पूछा गया कि ‘‘आपके हर उपन्यास की नायिका पुरुषों के समान सशक्त और सक्षम होती है, फिर भी आप मानती हैं कि आप नारीवादी नहीं है, ऐसा क्यों?’’ इस प्रश्न का बड़ा सटीक उत्तर दिया था कुर्रतुलैन हैदर ने,‘‘स्त्री का जीवन कोई वाद नहीं है और न ही उसकी स्वतंत्रता की आकांक्षा को नींव बना कर उस पर किसी वाद का महल खड़ा किया जा सकता है। हां, मैं स्त्री स्वतंत्रता की प्रबल पक्षधर हूं किन्तु यह नारा बन कर हवाओं में सिर्फ उछलता रहे यह भी मुझे स्वीकार नहीं है।’’ यही बात ध्वनित होती है डाॅ. श्वेता भटनागर की कहानी में। उनके उपन्यास की नायिका स्वतंत्रता चाहती है किन्तु अपनी उन शर्तों पर जहां उसका स्त्री होना उसे खुद भी बोझ प्रतीत न हो।

        यह भी एक विचित्र स्थिति है कि शैशवावस्था छोड़ते ही परिवार और समाज तय करने लगता है कि लड़की को लड़की बनना है और लड़के लड़का। यद्यपि यह बात तो बायोलाॅजिकली प्रकृति ही तय कर चुकी होती है। फिर भी लड़की को गुड्डे-गुड़िया और लड़के को गाड़ी, हथियार आदि खिलौनों के रूप में सौंपा जाता है। यह दोनों की सामाजिक एवं पारिवारिक स्किल तय करने का परंपरागत सामाजिक तरीका है। इससे आगे क्या होता है इस पर डाॅ. श्वेता भटनागर ने उपन्यास की प्रस्तावना में सटीक शब्दों में लिखा है कि ‘‘हर छोटी बच्ची एक दिन कामयाब होने और अपनी काबिलियत के लिए जानी जाने का सपना देखती है। किसी भी छोटी बच्ची से पूछिए कि वह बड़ी होकर क्या बनना चाहती है, तो आपको मासूम मगर महत्वाकांक्षी जवाब मिलेंगे- शिक्षक, डॉक्टर, वैज्ञानिक, वगैरह। लेकिन अपनी जिंदगी में मैंने कभी किसी छोटी बच्ची को यह कहते नहीं सुना कि वह गृहिणी बनना चाहती है। वही छोटी बच्ची बड़ी होकर अपने सपनों के लिए अथक परिश्रम करती है, उसे अपने उज्ज्वल भविष्य की संभावना पर विश्वास होता है। कुछ लोग उच्च शिक्षा और अपने सपनों को प्राप्त करने में भाग्यशाली होते हैं, जबकि कुछ को बचपन से ही इस बुनियादी जरूरत के लिए संघर्ष करना पड़ता है। एक दिन, वह कॉलेज में होती है - हँसती-खिलखिलाती, और आजादी की दुनिया में जी रही होती है। जैसे ही उसकी शिक्षा पूरी होती है, अक्सर शादी अगला पड़ाव बन जाती है, और वह एक ऐसे घर में प्रवेश करती है जहाँ उसके छोटे से छोटे फैसले भी सूक्ष्म स्वीकृति की माँग करते हैं। उसके सपने और इच्छाएँ, जो कभी बहुत ज्वलंत थीं, चुपचाप गौण हो जाती हैं। उसकी महत्वाकांक्षाएँ एक अदृश्य कारागार में बंद हो जाती हैंः परिवार, समाज की अपेक्षाओं और परंपराओं के अदृश्य भार से निर्मित एक सुनहरा पिंजरा। सुनहरा पिंजरा सिर्फ एक कहानी नहीं है, यह उन अनगिनत महिलाओं के जीवन का दर्पण है जो आजादी की चाहत में चुपचाप इन बोझों को सहती हैं।’’

उपन्यास के आरंभ में तीन टिप्पणियां भी हैं जिनका उल्लेख करना समीचीन होगा। पहली टिप्पणी है केशव भटनागर की। वे कहते हैं कि ‘‘हमेशा खुद पर विश्वास रखें। अगर आपके दो काम करने वाले हाथ, दो काम करने वाले पैर और एक काम करने वाला दिमाग है, तो आप दुनिया के सबसे भाग्यशाली लोगों में से एक हैं। इनका अच्छा इस्तेमाल करें। अपना रास्ता खुद बनाएँ।’’ उनके बाद प्रवीण खरे का कथन है कि ‘‘आप दुनिया में सफल होना चाहते हैं, तो अपने दुश्मनों को न्यूनतम रखें।’’ और तीसरी टिप्पणी है श्वेता भटनागर खरे की कि ‘‘ईश्वर ने तुम्हें एक ही जीवन दिया है, अपने आप पर एक उपकार करो, इसे अपनी इच्छानुसार जियो।’’

उपन्यास की नायिका इन्हीं टिप्पणियों के अनुसार अपने जीवन को नया आकार देने के लिए कृतसंकल्प दिखाई देती है। उपन्यास के कुछ प्रसंग सहसा ध्यान खींचते हैं। जैसे -‘‘आखिरकार, चेयरमैन ने मेज पर जोर से हाथ पटक दिया। ‘‘बस, बस,‘‘ उनकी आवाज में आदेशात्मक भाव था। ‘‘आर्थिक नुकसान से इनकार नहीं किया जा सकता। हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। क़ानूनी कार्रवाई जरूर होनी चाहिए।’’ साहित्या का दिल धड़क उठा। वे उसे लड़ने का मौका दिए बिना ही उसकी किस्मत पर मुहर लगा रहे थे। फिर, पहली बार, पराग बोले। ‘‘इस समय कोई भी कानूनी कार्रवाई लंबी जाँच की माँग करेगी। इससे न सिर्फ कंपनी की छवि धूमिल होगी, बल्कि लंबित परियोजनाओं में भी देरी होगी, और फिर जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई नामुमकिन होगी।’’ उन्होंने सहजता से कहा। ‘‘सबसे अच्छा यही होगा कि उनकी सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी जाएँ और एक सार्वजनिक बयान जारी किया जाए।’’ साहित्या ने बीच में कहा, ‘‘मैं किसी भी जांच से गुजरने को तैयार हूं, मैं आपको सार्वजनिक रूप से मेरी छवि खराब नहीं करने दूंगी, अन्यथा मैं कानूनी कार्रवाई करूंगी और इस कंपनी को मानहानि के तहत जिम्मेदार ठहराऊंगी।’’
पराग बोला, ‘‘साहित्य, तुम ठीक से सोच नहीं रहे हो, सारे सबूत तुम्हारे खिलाफ हैं और अगर तुम दोषी पाए गए तो सिर्फ तुम ही नहीं, तुम्हारे मातहत काम करने वाले सभी निर्दोष लोगों पर गबन, चोरी और धोखाधड़ी समेत वित्तीय भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे।’’ उसी समय, साहित्या के मोबाइल पर एक मैसेज आया, जिसमें लिखा था, ‘‘चली जाओ, वरना।’’
कमरे में सन्नाटा छा गया। आखिरी वार हो चुका था।
साहित्या जड़वत खड़ी रही, उसका मन दौड़ रहा था। सब खत्म हो गया था।’’
इसी तरह उपन्यास में एक और प्रसंग है जो हार को जीत की ओर ले जाने का प्रस्थान बिन्दु बन कर उभरता है। दृश्य कुछ इस प्रकार है कि ‘‘बिना ठोस सबूत के, कंपनी उस पर मुकदमा कर सकती थी, जिससे वह कानूनी पचड़े में पड़ सकती थी और उसके नए उद्यम में देरी हो सकती थी। वह अतीत को अपने भविष्य को बर्बाद करने नहीं दे सकती थी। उसने खुद को याद दिलाया कि हर चीज का एक समय होता है। फिलहाल, उसे अपना स्टार्टअप बनाने पर ध्यान केंद्रित करना था। बदला तो इंतजार कर सकता था, लेकिन उसके सपने नहीं। वह खिड़की के पास बैठी, विचारों में खोई हुई, सामने के बगीचे को घूर रही थी। निराशा का बोझ उस पर भारी पड़ रहा था। तभी, दो नन्हे हाथों ने उसकी कमर को थाम लिया। आर्या की उत्साह भरी आवाज गूँजी, ‘‘मेरी मम्मा सबसे अच्छी हैं! मेरी मम्मा सबसे अच्छी हैं!’’ साहित्या की आँखों में आँसू आ गए। शायद उसे बस यही चाहिए था। कोई ऐसा जो उस पर विश्वास करे। उसने ऊपर देखा तो उसके पिता बगीचे के दूर छोर पर घास काट रहे थे। उन्होंने आर्या की नजरें पकड़ लीं और हाथ हिलाया। आर्या ने भी उत्साह से हाथ हिलाया। उसके मन में उसके शब्द गूंजने लगे, ‘‘यदि एक रास्ता अवरुद्ध हो, तो दूसरा रास्ता अपना लो, किसी छोटी सी बाधा के कारण चलना मत छोड़ो।’’

‘‘गोल्डन केज’ यद्यपि अंग्रेजी में लिखा गया है किन्तु इसकी भाषा सरल है। इसे आसानी से पढ़ा और समझा जा सकता है। फिर भी यह एक अच्छी और सारगर्भित कृति है अतः इसे अनुवाद हो कर उस तबके पाठकों तक भी पहुंचना चाहिए जिनसे इसके कथानक का अधिक सरोकार है अर्थात हिन्दी जानने वाले मध्यमवर्गीय पाठकों का। डाॅ. श्वेता भटनागर की लेखनी में अपार संभावनाएं हैं और वे स्त्री जीवन के प्रति एक सशक्त लेखन क्षमता रखती हैं। यह उपन्यास निश्चित रूप से पठनीय है।
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(23.09.2025 )
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Monday, September 22, 2025

डॉ. (सुश्री) शरद सिंह द्वारा नाटक रश्मिरथी की नाट्य समीक्षा

🎭 मेरी नाट्य समीक्षा प्रकाशित करने के लिए हार्दिक आभार दैनिक भास्कर 🙏🏻
🎭 कल आरंभ हुए तीन दिवसीय नाट्य समारोह में प्रथम दिवस रश्मिरथी नाटक का मंचन किया गया। इस एकल नाटक को मुंबई की नाट्य संस्था सुरभि बेगूसराय ने प्रस्तुत किया जिसके परिकल्पनाकार, निर्देशक एवं अभिनेता थे हरीश हरिऔध।
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नाट्य समीक्षा
 “रश्मिरथी” : जन्म से नहीं, कर्म से व्यक्ति का महत्व होता है। 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
नाट्य कला समीक्षक
          
     संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से सागर की रंगप्रयोग नाट्य संस्था द्वारा तीन दिवसीय राष्ट्रीय नाट्य समारोह का शुभारंभ स्थानीय रविंद्र भवन में “रश्मिरथी” नाटक से हुआ।  राष्ट्रीय कवि रामधारीसिंह दिनकर के खंडकाव्य “रश्मिरथी” पर आधारित  इस एकल नाटक को मुंबई की नाट्य संस्था सुरभि बेगूसराय ने प्रस्तुत किया जिसके परिकल्पनाकार, निर्देशक एवं अभिनेता थे हरीश हरिऔध।
      ‘रश्मिरथी' रामधारी सिंह दिनकर की वह कालजयी रचना है जो हमेशा समय और समाज को चुनौती देती आई है। ‘रश्मिरथी' का अर्थ है सूर्य की किरणों के रथ का सवार। यह रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित एक प्रसिद्ध खंडकाव्य है, जो महाभारत के एक प्रमुख पात्र कर्ण के जीवन के उतार-चढ़ाव को वर्णित करता है। इस खंडकाव्य में कर्ण के जीवन, वीरता, निष्ठा, अपमान, प्रतिकार के साथ ही उस सामाजिक भेदभाव का चित्रण किया गया है, जिसे अनेक मनुष्य ने पीढ़ियों तक झेला है। ‘रश्मिरथी' नाटक में भी कर्ण के बहाने मूल संदेश यही है कि जन्म से नहीं, कर्म से व्यक्ति का महत्व होता है।     
    ‘रश्मिरथी' नाटक के निर्देशक हरीश हरिऔध को मंच और फिल्मों में अभिनय का भी अनुभव है। एकल अभिनय यूं भी चुनौती भरा होता है। ‘रश्मिरथी' में उनका एकल अभिनय है। एकल अभिनय नाटक अपने आप में चुनौती भरे होते हैं। दर्शकों को बांधे रखना और पूरी कहानी को एक ही अभिनेता द्वारा संचालित करना, मानसिक रूप से थका देने वाली प्रक्रिया के लिए भावनात्मक और मानसिक दृढ़ता की आवश्यकता, कोई सह-अभिनेता न होने के कारण निरंतर प्रदर्शन दबाव, और दर्शकों की प्रतिक्रिया या समर्थन के अभाव में भी अपनी कला का विश्वसनीय और प्रभावी प्रदर्शन करना। इससे भी बड़ी चुनौती होती है अगर संवाद कविता के रूप में हों। इस चुनौती को एक निर्देशक और अभिनेता के रूप में हरीश हरिऔध ने बखूबी स्वीकार किया एवं अपने बेहतरीन अभिनय और प्रभावी संवाद अदायगी से “रश्मिरथी” की एक-एक पंक्ति को जीवंत कर दिया। हरीश हरिऔध ने मूल पात्र कर्ण के  अभिनय के अतिरिक्त दुर्योधन, भीम, परशुराम आदि पात्रों का भी भावपूर्ण अभिनय किया जिसमें लगभग सभी रसों का समावेश था। इस  एक घंटा 40 मिनट की प्रस्तुति में ‘महाभारत’ के महापात्र कर्ण के जीवन, संघर्ष, और चेतनाओं का संजीव एवं सटीक चित्रण किया गया। हरीश हरिऔध ने एकल अभिनय की सीमाओं को पार कर कर्ण के अंतर्द्वंद, गर्व, पीड़ा और साहस को जिस सजीवता से मंच पर उतारा। पूरे नाटक के दौरान कई बार हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। उनके चेहरे के हाव-भाव, स्वर की उतार-चढ़ाव भरी अभिव्यक्ति, और संवाद अदायगी उनके एक मंजे हुए अभिनेता होने का प्रमाण दे रही थी। 
         "नहीं पूछता है कोई, तुम व्रती, वीर या दानी हो? सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?" जैसे संवाद काव्यात्मक होते हुए भी दर्शक के विचारों को झकझोरने वाले थे। 
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लोकसंगीत ज्ञान परंपरा का बुनियादी संवाहक हैं। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"लोकसंगीत ज्ञान परंपरा का बुनियादी संवाहक हैं। लोक कलाओं का जन्म लोक से होता है। इसीलिए इन कलाओं में परंपराएं, जातीय स्मृतियां एवं लोकाचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ज्ञान के रूप में हस्तांतरित होती रहती हैं। और, जब हम लोकपर्व मनाते हैं तो इसका अर्थ होता है कि हम लोक की ज्ञान परंपरा का उत्सव मनाते हैं, उसका पोषण करते हैं, उसका संरक्षण करते हैं। लोक पर्व 2025  वस्तुतः लोक परंपरा के संरक्षण का उद्घोष है।" बतौर मुख्य अतिथि मैंने लोक कलाओं और विशेष रूप से उसमें लोकसंगीत के महत्व को परिभाषित करते हुए अपने विचार व्यक्त किए।
    ❗️अवसर था लोक कला निकेतन सोशल वेलफेयर सोसायटी, सागर एवं सागर की अग्रणी संस्था श्यामलम द्वारा आयोजित पर्व 2025 का।
     ❗️अध्यक्षता की वरिष्ठ रंगकर्मी राजेन्द्र दुबे जी ने विशिष्ट अतिथि थे बुंदेली संग्रहालय के संस्थापक दामोदर अग्निहोत्री जी ।
      🚩वरिष्ठ एवं ख्यातिलब्ध लोक गायक शिवरतन यादव जी एवं उनके शिष्य कपिल चौरसिया जी ने लोकगीतों की अपनी सुंदर प्रस्तुति दी।
     🚩आयोजन की सफलता पर श्यामलम अध्यक्ष आदरणीय बड़े भाई उमाकांत मिश्रा जी, भाई अतुल श्रीवास्तव एवं प्रिय रचना तिवारी जी को हार्दिक बधाई 💐
20.09.2025
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Sunday, September 21, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | अब हमें उते चोखरबा मारबे की दवाई सोई ले जाने परहे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

टॉपिक एक्सपर्ट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
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टाॅपिक एक्सपर्ट
अब हमें उते चोखरबा मारबे की दवाई सोई ले जाने परहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
परों हमें पता परी के हमाए एक चिन्हारी वारे भौतई बीमार आएं, सो हमने सोची के तनक उनके इते हो आओ जाए। उने देख लेबी औ संगे उन ओरन खों कोनऊं जरूरत हुइए तो मदद कर देबी। सो, हम उनके इते पौंचे। उते देखो के सब भैंराने से दिखाने। पूछबे पे पता परी के दद्दा खों बाटलें चढ़नी, सो उने अस्पताल में भर्ती करने परहे। संगे उतई कछू जांचे-मांचे सोई हुंइए। हमने पूछी के कोन के अस्पतालें ले जा रए? सो दद्दा को मोड़ा बोलो के हम ओरें तो कै रये के कोनऊं पिराईवेट अस्पताल ले चल रये, मनों दद्दा अड़ी बता रये के हमें तो सरकारी अस्पताल जानें, चाये जिला अस्पतालें ले चलो, चाये मेडिकल कालेज ले चलो, मनो जाबी सरकारी में ई।
     सो ठीक तो आए। जां दद्दा को मन करे उतई ले जाओ। हमने कई। जा सुन के दद्दा की बाई बोलीं, “हमने इनकी धुतिया, कुर्ता औ कुल्ला-मुखारी को समान रख लओ। बाकी बा चोखरबा मारबे की दवाई अबे मंगाहो के उतई कऊं मिल जैहे?” बाई की बात जो दद्दा ने सुनी तो बे बमक परे के तुम ओरें जो हमें मारबो चात हो इतई काए नईं मार देत? बा उते जिला अस्पतालें ले जाबे का जरूरत? मोए सोई अचरज भओ के बाई चोखरबा मारबे की दवाई की काए कै रईं? इत्ते में बाई दद्दा से बोलीं के तुमें मारबे खों नोंई चोखरबा खों मारबे खों चाऊने। काए से हमने सुनी है के उते सरकारी अस्पतालन में चोखरवों ने बच्चन खों चींथ खाओ। सो, कऊं तुमें चींथ लओ तो हमाओ का हुइए? बाई की बात सुन के हमें लगी कि बात में दम तो आए। या तो परसासन सरकारी अस्पतालन की दसा सुदार देवे, ने तो दवा की दुकानों के संगे चोखरबा मारबे की दवा की दुकानें खुलवा देवे। ईसे उते भरती होबे वारन खों चोखरबा तो ने खा पाहें।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, September 19, 2025

शून्यकाल | कोई हौआ नहीं हमारी ही नई जेनरेशन है जेन जी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल | कोई हौआ नहीं हमारी ही नई जेनरेशन है जेन जी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
कोई हौआ नहीं हमारी ही नई जेनरेशन है जेन जी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
नेपाल की वर्तमान क्रांति ने जो एक शब्द सामने लाया, वो है “जेन जी”। ऐसा लगा मानो कोई अनोखे क्रांतिकारी पैदा हो गए हों। उनकी आवाज़ की बुलंदी से दूसरे देश भी सकते में आ गए। विद्रोह और सत्ता परिवर्तन से सभी सत्ताधारियों को डर लगता है। जबकि जेनरेशन जी कोई गैर नहीं हमारी ही जनरेशन है जो अव्यस्थाओं के विरुद्ध डटकर खड़ी हो गई और उसने अव्यस्थाओं को नकार दिया।

     जब किसी देश में कोई क्रांति होती है तो पूरी दुनिया चौंकती है। एक जमी- जमाई राजनीतिक व्यवस्था यह कभी नहीं चाहती कि उसकी नीतियों के विरुद्ध कोई उठ खड़ा हो। सभी देश सतर्क हो जाते हैं। कोई सत्ताधारी यह नहीं चाहता कि उसकी सत्ता को किसी भी तरह की चुनौती मिले, वे निर्विघ्न अपनी सत्ता चलाना चाहता है। किंतु हर नई पीढ़ी एक नई सोच लेकर पैदा होती है। उसके भीतर सब कुछ ठीक-ठाक कर देने की तीव्र आकांक्षा होती है। 

   हाल ही में नेपाल में जो क्रांति हुई उसमें नई जनरेशन जेन जी की अहम भूमिका रही। दरअसल, 1997 से 2012 के बीच जन्मे लोगों को जनरेशन जेड यानी जेन जी कहा जाता है। कोई राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन नहीं है, बल्कि ये एक पीढ़ी यानी जेनरेशन समूह के लिए प्रयोग होने वाले शब्द है। इस पीढ़ी के लोगों ने नेपाल में तख्तापलट कर दिया है। वर्ष 2025 तक यह पीढ़ी दुनिया की करीब 30 फीसदी वर्कफोर्स बन चुकी है और अपनी अलग सोच और आदतों से समाज और अर्थव्यवस्था दोनों पर असर डाल रही है।  यह पीढ़ी इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में पली-बढ़ी है, जिसके कारण यह तकनीक-संपन्न तो है ही, ये जागरूक और सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय भी मानी जाती है। ये ज़िलेनियल्स भी कहे जाते हैं। ये आज के समय की सबसे चर्चित और प्रभावशाली पीढ़ी है। टेक्नोलॉजी उनके डीएनए में है, वो नए ऐप्स और ट्रेंड्स को बहुत तेजी से अपनाते हैं।

       जेनरेशन यानी पीढ़ियों को अलग- अलग उम्र के हिसाब से बांटा गया है। इसमें जन्म से लेकर 124 साल तक की उम्र के लोग शामिल होते हैं। सबसे नई जेनरेशन का नाम बीटा है। इसमें 0 से 14 साल तक के बच्चे शामिल हैं। ये पीढ़ी पहले के मुकाबले काफी टेक्निकल होगी। इसकी वजह ये है कि इन्हें इंटरनेट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस समेत तमाम जानकारियां होंगी।

      बाकी जेनरेशन को इस प्रकार नाम दिया गया है- 1901 से 1927 के बीच जन्मे लोगों को ग्रेटेस्ट जेनरेशन कहा जाता है। इसके बाद आती है साइलेंट जेनरेशन। यह 1928-1945 के बीच जन्म लेने वाले लोगों को गिना जाता है। सन 1946-1964 के बीच जन्म लेने वाले बेबी बूमर्स जनरेशन के कहलाते हैं। इसी तरह 1965 -1980 के बीच जन्म लेने वाले लोग जेनरेशन एक्स कहलाते हैं। मिलेनियल्स या जेन वाई पीढ़ी में 1981-1996 के बीच जन्म लेने वाले लोगों को शामिल किया गया है। इसके बाद क्रम आता है जेन जी का। जो 1997- 2012 के बीच जन्मे हैं।

    2025 से जन्मे बच्चों को बीटा जेनरेशन कहा जाएगा। जेन जी की अपनी विशेषताएं हैं जिनमें सबसे प्रमुख है उनका तकनीक प्रेम। जेन जी तकनीक का बहुत सहजता से उपयोग करते हैं और उनके लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। आर्थिक मामलों में यह पीढ़ी अधिक व्यावहारिक है। वित्तीय चुनौतियों का सामना करने के कारण ये पीढ़ी अधिक व्यावहारिक और बचत करने वाली हो सकती है। ये आर्थिक जोखिम उठाने से पीछे नहीं हटते हैं। जेन जी "ज़ूमर्स" या "पोस्ट-मिलेनियल्स" भी कहलाते हैं।
     मिलेनियल जनरेशन, जिसे जेनरेशन वाई भी कहा जाता है, वह पीढ़ी है जो जेनरेशन एक्स और जेनरेशन जेड के बीच आती है, और इसके सदस्य आम तौर पर 1981 से 1996 के बीच पैदा हुए माने जाते हैं। इन्हें मिलेनियल इसलिए कहते हैं क्योंकि इस पीढ़ी के सबसे बड़े सदस्यों ने 2000 के दशक में वयस्कता हासिल की थी। मिलेनियल्स इंटरनेट और मोबाइल उपकरणों के साथ बड़े होने वाली पहली पीढ़ी हैं, और उन्हें "डिजिटल नेटिव्स" भी कहा जाता है। 

         मिलेनियल पीढ़ी की अपनी कुछ विशेषताएं हैं। जैसे, तकनीक से जुड़ाव। इंटरनेट और सोशल मीडिया के साथ सहज होने के कारण, वे एक वैश्विक समुदाय से जुड़े हुए महसूस करते हैं और नई तकनीक को जल्दी अपनाते हैं। वे मानते हैं किवे बेबी बूमर्स के बच्चे हैं और उन्होंने अपनी युवावस्था में महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक बदलाव देखे हैं, जैसे कि बड़ी मंदी का दौर। ऐसे लोग व्यक्तिगत पहचान पर बल देते हैं। वे खुद को एक समूह के बजाय एक व्यक्ति के रूप में पहचानना पसंद करते हैं और व्यक्तिगत ब्रांडिंग पर अधिक ध्यान देते हैं। मिलेनियल पीढ़ी के लोग यथास्थितिवादी नहीं हैं वे परिवर्तन को प्राथमिकता देते हैं। वे समुदाय की भावना और विविधता के प्रति अधिक सहनशील होते हैं और अक्सर अधिकार की भावना रखते हैं। इन लोगों में नेतृत्व की तीव्र भावना होती है तथा वे समाज के प्रति जिम्मेदारी महसूस करते हैं।

      जेनरेशन के क्रमिक विकास को देखने के बाद अब फिर से बात करते हैं जेन जी की। जेन जी बहुत की स्मार्ट तरीके से सोचते हैं। यही कारण है कि ये अपनी भविष्य की प्लानिंग बहुत पहले से ही शुरू कर देते हैं। एक सर्वे के मुताबिक, करीब दो-तिहाई जेन जी ने 19 साल की औसत उम्र से ही बचत करना शुरू कर दिया था।  नौकरी में अनिश्चितता और घर खरीदने की बढ़ती कीमत भी उन्हें परेशान करती है। अपनी कमाई बढ़ाने और वित्तीय स्थिरता पाने के लिए जेन जी में अतिरिक्त काम करने का चलन बढ़ा है। जेन जी डेस्कटॉप के बजाय मोबाइल पर ही ज्यादा काम करते हैं। 81 फीसदी लोग सोशल मीडिया पर ही प्रोडक्ट खोजते हैं और 85 फीसदी नए प्रोडक्ट्स के बारे में इन्हीं प्लेटफॉर्म से पता लगाते हैं। ऑनलाइन रिव्यू पर भरोसा करते हैं। जेन जी ने अपना जीवन तकनीक और आधुनिक उपकरणों के इर्द-गिर्द ही बिताया है। ऐसे में इन लोगों को टेक्नोलॉजी का किंग भी कहा जाता है। इसकी वजह ये है कि इनकी शुरुआत की टेक्नोलॉजी के साथ हुई है। इसी कारण से इस पीढ़ी को जेन जी कहा जाता है।

   जेनरेशन का यह सिलसिला हमेशा से चला रहा है। नई जनरेशन पुरानी जनरेशन को चौंकाती है और नए मूल्य स्थापित करती है। पुरानी पीढ़ी परिवर्तन से परेशानी महसूस करती है क्योंकि चली आ रही परिपाटी चली आ रहे हैं मूल्य एवं पहले से जमी व्यवस्थाएं खंडित होती हैं। इसे एक बहुत ही साधारण सामाजिक घटनाक्रम से समझा जा सकता है कि भारत में पहले स्त्रियां घूंघट में रहती थीं। घूंघट वाली पीढ़ी से आगे की नई पीढ़ी आई तो उसने घूंघट ओढ़ना छोड़ दिया यह नहीं पीढ़ी के लिए नवाचार था जबकि पुरानी पीढ़ी के लिए विद्रोह था। इसी प्रकार यदि आर्थिक पक्ष में देखा जाए तो पुरानी पीढ़ी अथवा वर्तमान पीढ़ी अपने शासकों एवं व्यवस्थाओं के प्रति आवाज उठाने से घबराती है संकोच करती है तथा असुरक्षा का अनुभव करती है किंतु वहीं नई पीढ़ी आक्रामक ढंग से व्यवस्था की कमियों को चुनौती देती है। किसी-किसी देश में नई पीढ़ी का यह आक्रोश विद्रोह के रूप में सामने आता है जब वही पीढ़ी बलपूर्वक उन व्यवस्थाओं को चुनौती देकर ठीक कर देती है जिन्हें वह उचित नहीं समझती और जिन्हें वह अपने शोषण का कारण समझती है। नेपाल में यही हुआ। वहां नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी की व्यवस्थाओं को चुनौती दिया तथा अव्यवस्था के विरुद्ध शंखनाद कर दिया।
      
      जेनरेशन जी वह उत्साही पीढ़ी है जो करियर कौशल हासिल करने में रुचि रखती हैं और लचीले और व्यक्तिगत शिक्षण तरीकों को महत्व देती है। वे स्वतंत्र, रचनात्मक, व्यावहारिक और तकनीक-प्रेमी छात्र हैं जो घंटों बैठकर व्याख्यान सुनने के बजाय गहन, सक्रिय शैक्षिक अनुभव पसंद करते हैं। बेशक, वे अलग-अलग पृष्ठभूमि और सीखने की शैलियों वाला एक विविध समूह हैं, यही वजह है कि लचीलापन और सीखने के कई तरीके (जैसे, दृश्य, श्रवण, गतिज, ई-लर्निंग, आत्म-खोज, आदि) उनके लिए कारगर साबित होते हैं। जेनरेशन जेड के लिए आर्थिक सुरक्षा मायने रखती है। कई अध्ययनों में बताया गया है कि व्यक्तिगत वित्त, नौकरी, कर्ज, जीवन यापन की लागत और आवास की असुरक्षा जेनरेशन जेड के लिए तनाव के प्रमुख । 2023 में, 12 से 26 वर्ष की आयु के लगभग दो- तिहाई (64%) जेनरेशन जेडर्स ने कहा कि वित्तीय संसाधन उनके भविष्य के लक्ष्यों के लिए एक बाधा थे। वे स्थिर, अच्छे वेतन वाली नौकरी, किफायती आवास चाहते हैं और कॉलेज के कर्ज से बचना चाहते हैं।

        इस तरह यदि देखा जाए तो जेनरेशन जी अथवा जेनरेशन जेड कोई ऐसे विद्रोही नहीं है जो विध्वंस चाहते हो वह सिर्फ ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जिसमें उनका भविष्य सुरक्षित हो सके। अतः जिन देशों में युवाओं का भविष्य सुरक्षित है उन देशों को जेनरेशन जी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है और न ही जेनरेशन जी को 60-70 के दशक के हिप्पी संप्रदाय जैसा मानने की भूल की जानी चाहिए। यह अव्यवस्था से जेनरेशन का टकराव मात्र है।
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Thursday, September 18, 2025

बतकाव बिन्ना की | जबे हाई कोरट में चली कुलरिया पे बतकाव | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
जबे हाई कोरट में चली कुलरिया पे बतकाव
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

         ‘‘देख तो बिन्ना एक बोल के कितेक मतलब निकार लए जात आएं।’’ भौजी ने मोसे कई।
‘‘काए का हो गओ भौजी? कोन के बोल की कए रईं?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘अरे, तुमने सोसल मिडिया पे नईं देखी का? ऊमें हाई कोरट की कारवाई को सीन वायरल हो रओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘कोन सो सीन?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘अरे, आजकाल तुम सोसल मिडिया नईं देख रईं का?’’ भौजी ने अचरज करत भई पूछी।
‘‘मैं देखत तो रैत हों, बाकी ऊमें तो मुतके सीन चलत रैत आएं। जैसे आजकाल बा महाराष्ट््र वाले डिप्टी सीएम की घरवाली को सील वायरल हो रओ।’’ मैंने कई।
‘‘ऊकी तो ने कओ बिन्ना! अरा-रा-रा! ऊको तनकऊ ने लगो के बा का पैन्ह के कोन से परोगराम में जा रई। ऊपे से तनक एक जम्फर सोई डार लेती तो का बिगर जातो। मोय तो बड़ी सरम आई ऊकी वीडियो देख के। काए से के जगां-जगां की बात होत आए। अब संसद में कोनऊं सांसद भैया चड्डी पैन्ह के चलो जाए तो कैसो लगहे।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कै रईं भौजी! हरेक जांगा की एक मरजादा होत आए। समुन्दर में नहाबे जाओ तो बिकनी पैन्ह लो, मनो कोनऊं जलसा में जा रईं तो तनक सलीके को पैन्हों। ने साड़ी पैन्हों तो सलवार सूट पैन्ह लेओ, गाउन पैंन्ह लेओ, घांघरा पैन्ह लेओ।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘सई कै रई बिन्ना, मनो हम ऊ वीडियो की बात नईं कर रए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘तो आप कोन से वीडियो की कए रईं?’’ मैंने पूछी।
‘‘हम बा वारे वीडियो की बात कर रए जीमें हाई कोरट के जज हरें कुलरिया को मीनिंग पूछ रए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘अच्च्छा, बो वारी। बा तो भौतई गजब की आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ हमें तो अपनी श्वेता यादव बिन्ना पे गरब होत आए के ऊने कुलरिया की सई मीनिंग बता दई ने तो बा बाई तो कुलच्छिनी कैलाई जा रई हती।’’ भौजी बोलीं।
‘‘का बतकाव हो रई तुम ओरन में? कोन को कुलच्छिनी कै रईं?’’ भैयाजी कहूं बायरे से घरे भीतरे आत भए पूछन लगे।
‘‘आप खों तो सोई पतो हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘इने कां से पतो हुइए? जे तो आजकाल करै दिनों में बिजी चल रए। अब रिस्तेदारी में आबो-जाबो चल रओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सो आपई बता देओ भैयाजी खों।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘का बताने?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘चलो हम बता रए आपके लाने!’’ भौजी बोलीं औ फेर भैयाजी खों बतान लगीं,‘‘का भओ आए के हाई कोरट में कोनऊं केस चल रओ तो। ऊमें एक लुगवा की बात रई के ऊने अपनी घरवारी से का कई जा पे बात हो रई हती। जो कागज हतो ऊमें कुलरिया का के लिखों रओ। जज हरों को समझ में ने आओ के जो कुलरिया को का मतलब भओ?‘‘
‘‘फेर?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘फेर जे के जज हरों ने उते कोरट में बैठे सबईं से पूछी के कोनऊं को ईको मतलब पता आए का? सो उते बैठी एक लुगाई ने बताई के कुलरिया को मतलब होत आए कुलच्छिनी। जा सुन के उते कोरट में बैठीं अपने सागरे की श्वेता यादव बोल परीं। बे उते डिप्टी एडवोकेट जनरल आएं, सो बे बोल परीं के कुुलरिया को मतलब कुल्हड़िया होत आए कुलच्छिनी नोईं। जो सुन के बे जज हरें बोले के हऔ आप तो सागरे की आओ, आपको तो सई पतो हुइए। फेर बे ओरें जा सोई बोले के देखो तो दोई मीनिंग में कित्तों फरक आए।’’ भौजी ने भैयाजी खों सुनाई।
‘‘सई कई उन ओरन ने। काए से कुलच्छिनी बोले तो ऊकी घरवारी बुरे चाल-चलन वारी कई जैहे, औ जो कुल्हरिया कई जाए तो बा लड़ाई-झगड़ा में एक हथियार कहानो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जेई तो होत आए के जो अपनी बोली-भाषा सई ने पतो होय तो कछू के कछू मीनिंग निकर आऊत आए। सो अपनी बोली तो सबईं खों आनी चाइए।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! फेर अपनी बुंदेली तो ऊंसई बड़ी घड़िया-घुल्ला सी मीठी आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई भौजी! बाकी बात चल रई मीनिंग की सो मोए एक सांची किसां याद आ रई के उते पन्ना में हमाए इते एक बऊ खाना बनाबे खों आत रईं। बे बताऊत तीं के बे मरजसेठ के इते काम करबे सोई जात आएं। सो मोरी उमर लरकोरे की रई, उत्ती अकल तो रई नईं सो मैं सोचत्ती के बऊ कोनऊं सेठ की कैत आएं। फेर एक बार अम्मा ने सुनी तो बे बोलीं के अम्मा कोनऊं सेठ की नोईं कैत, बे तो मजिस्टरेट की बात करते आएं। सो अब आपई ओरें कओ के कां सेठ औ कां मजिस्टरेट। सो जे होत आए सई मीनिंग ने जानबे से।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी खों बताई। 
‘‘अरे, ऐसईं एक बार हमाए संगे भई! का भओ के हम गए तुमाई भौजी के संगे उते फोर लेन के एक होटल पे खाना खाबे। तुमाई भौजी बोलीं के भोजन बाद में मंगइयो, पैले हमाए लाने फिंगर च्सि मंगा देओ। हमने फिंगर चिप्स मंगा दई। तुमाई भौजी बोलीं की उंगरियन में तेल छप जाहे सो ईको खाबे के लाने कांटा सोई मंगा देओ। सो हमने बा बैरा से कई के भैया तनक कांटा सोई ले आओ। बा गओ औ एक कटुरिया में कछू सुफैद पाउडर सो ले आओ। हमने सोची के हो सकत के जे फिंगर चिप्स पे भुरकबे के लाने कछू मसाला वारो पाउडर हुइए। इत्ते में तुमाई भौजी ने ऊको चींख लओ। सो जे उचक परीं औ बोलीं के जे आटा काए के लाने ले आओ? जा तो पिसी को आटा आए। हैं! हमने सोई चींखों सो बा आटो ई रओ। हमने देखो के बा जो बैरा ला के आटा की कटुरिया धर गओ रओ, बा काउंटर के इते मजे से ठाड़ो हतो। हमने ऊको बुलाओ औ पूछी के भैया जे आटा काए धर गए? सो बा बोलो के आपई नने तो मांगो रओ। हमने कई मोरे भैया, हमने आटा नोंई कांटा मांगो रओ? बा मोरो मों तनक लगो। ऊको कांटा समझ ने परी। तब तुमाई भौजी ने ऊको समझात भईं बोलीं के कोटा मने फोर्क चाउने। सो बा बोलो अच्छा फोर्क चाउने? औ फेर बा लपक के कांटा लेओ। जे तो दसा भई।अब का कई जाए के ऊको कांटा ने समझ आ रओ हतो, फोर्क समझ गओ। जबकि हतो बा अपने इतई बुंदेलखंड को फुर्रा।’ भैया हंसत भए बतान लगे।
‘‘सई में कई दफा ऐसेई मजे की किसां घट जात आए। एक दफा मैं अपने संगवारियन के संगे इतई सागरे के एक होटल में खाना खाबे के लाने गई। हम ओरन ने अच्छो खानो खाओ। औ फेर अखीर में ऊसे हात धोबे के लाने पानी को कुनकुनो कटोरा लाबे की कई। कछू देर तो बा आओ नईं, हम ओरें ऊसई भिड़े हात बतकाव करत बैठे रए। फेर जबे बा आओ तो एक छोटे तसला में पानी लेओ। हम ओरन देखों तो हमाई हंसी रोके ने रुकी। मोरे संगे की एक जनी बोलीं के भैया हम आरन खों सपरने नोंई, हात धोने आए। इत्ते में बा होटल को मैनेजर आ गओ। बा माफी मांगन लगो के जे मोड़ा नओ धरो आए, ईको अबे कछू पतो नइयां। हम ओरन ने कई के चलो कछू नईं, बाकी हंसत-हंसत हम ओरन को खाना पच गओ।’’ मैंने अपनी एक औ किसां सुना दईं।
सो ऐसई-ऐसई कछू देर बतकाव चली। फेर मैं अपने घरे औ भैयाजी औ भौजी अपने घरे।           
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के अपनी बोली औ अपनी भासा अच्छे से आनी चाइए के नईं? अपन ओरें अपनी बोली भाषा के जानकार होंए तो अपने लोगन की कछू ज्यादा मदद कर सकत हैं। काए मैंने सई कई के नईं?      
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Wednesday, September 17, 2025

चर्चा प्लस | पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
पितृपक्ष में श्राद्ध का है पौराणिक महत्व एवं मानवीय मूल्य
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
पितृपक्ष पूर्वजों के प्रति अपने दायित्वों को पूर्ण करने का पक्ष होता है। पक्ष अर्थात 15 दिन की अवधि। 365 दिन में 15 दिन पूर्वजों के प्रति विशेष कर्तव्यों के लिए निर्धारित किए गए हैं। यह निर्धारण आधुनिक नहीं वरन पौराणिक काल से चला आ रहा है। पौराणिक काल में श्राद्धकर्म किस तरह आरम्भ हुआ इस संबंध में कुछ रोचक कथाएं मिलती हैं जो सदियों से हर पीढ़ी को पूर्वजों के प्रति श्रद्धा रखने की सीख देती आई हैं। तो चलिए एक दृष्टि डालते हैं इन कथाओं पर, क्योंकि पारिवारिक टूटन के संवेदनहीन होते इस समय में ऐसी कथाओं को जानना और समझना जरूरी है। इन कथाओं का मात्र धार्मिक नहीं वरन मानवीय मूल्य भी है।  
पितृ पक्ष, भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक चलता है। इन 15 दिनों में दौरान पितरों अर्थात पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए जो भी श्रद्धापूर्वक अनुष्ठानिक कार्य किए जाते हैं, उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध कर्म आरंभ होने के संबंध में कई कथाएं भी प्रचलित हैं, यूं तो इनका पाठ तर्पण करते हुए किया जाता है। किन्तु ज्ञान की दृष्टि से इन्हें किसी भी समय पढ़ा, सुना और समझा जा सकता है। 

पितृ पक्ष आरंभ होने के संबंध में सबसे प्रमुख कथा है दानवीर कर्ण की कथा। इस बहुप्रचलित कथा के अनुसार कुंतीपुत्र कर्ण ने अपने जीवनकाल में सोना, चांदी, आभूषण आदि का दान हाथ खोल कर दिया। कर्ण के द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा। उसके दान-पुण्य कर्म के कारण यह तो सुनिश्चित था कि कर्ण को अंततः स्वर्ग में स्थान मिलेगा। मरणोपरांत कर्ण को नर्क के कुछ दण्ड के बाद स्वर्ग में सम्मानजनक स्थान दिया गया। स्वर्ग में कर्ण को भरपूर सुख-सुविधा दी गई। किन्तु जब भोजन का समय आया तो कर्ण यह देख कर चकित रह गए के उन्हें सोने की थाली में सोने के सिक्के और आभूषण ही परोसे गए। पहले तो कर्ण को लगा कि सेवक से कोई त्रुटि हो गई होगी किन्तु जब दो-तीन बार वही प्रक्रिया दोहराई गई तो कर्ण ने इन्द्रदेव से इसका कारण पूछा।  तब इंद्र ने कहा, ‘‘कर्ण, तुम सबसे बड़े दानवीर थे। तुमने अपने प्राणों की परवाह किए बिना अपना दिव्य कवच दान कर दिया, यहां तक कि मुत्यु के कुछ क्षण पूर्व तुमने अपना सोने का दांत भी स्वयं तोड़ कर दान कर दिया। किन्तु कर्ण, तुमने अपने पूरे जीवन में सिर्फ स्वर्ण का ही दान दिया, कभी भोजन दान नहीं दिया। जबकि स्वर्ग का नियम है कि यहां मनुष्य की आत्मा को वही खाने के लिए दिया जाता है, जिसका उसने धरती पर दान किया होता है। इसलिए तुम्हारी थाली में स्वर्ण ही परोसा जा रहा है।’’
यह सुन कर कर्ण ने इन्द्र से पूछा कि अब मैं अपनी भुल कैसे सुधार सकता हूं? मैं तो मृत्यु को प्राप्त हो चुका हूं। यहां दान आदि का कोई प्रावधान नहीं है, न कोई दान लेने वाला है। अब मेरा उद्धार कैसे होगा?’’
इस पर इन्द्र ने उससे कहा कि ‘‘इसका बस यही उपाय है कि मैं तुम्हें 15 दिन के लिए वापस पृथ्वी पर भेज देता हूं। इस अवधि में तुम अपने पूर्वजों की स्मृति में भोजन का दान करो। यह दान ब्राह्मणों और गरीबों दोनों को करना है।’’
इन्द्र के द्वारा पृथ्वी पर 15 दिन के लिए आने के बाद कर्ण ने ब्राह्मणों एवं गरीबों को भरपूर भोजनदान दिया। इसके बाद 15 दिन की अवधि पूर्ण होते ही उसे वापस स्वर्ग बुला लिया गया। स्वर्ग में पहुंचते ही भांति-भांति के सुस्वाद भोजन से कर्ण का स्वागत किया गया। 
इस कथा का मानवीय मूल्य यह है कि हर तरह का दान-पुण्य कर के मनुष्य यह समझे कि मैंने अपने कर्तव्य पूर्ण कर लिए है, तो ऐसा नहीं है। मनुष्य के सारे कर्तव्य तभी पूर्ण माने जाते हैं जब वह भूखों, निराश्रितों एवं निर्धनों को भोजन दान करता है। संग्रहण की प्रवृति वाले समाज में इस तरह की कथाएं ही प्रेरित करती हैं कि उनका भी समुचित ध्यान रखा जाए जिन्हें एक टुकड़ा रोटी भी नसीब नहीं है। फिर जब कोई सद्कर्म करता है तो भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि इससे उसके पूर्वज भी प्रसन्न होते हैं तथा उनकी आत्मा को शांति मिलती है। जीवन की व्यस्तताओं में कई बार सब कुछ जानते-समझते हुए भी कर्तव्यों की अवहेलना हो जाती है इसीलिए 15 दिन का वह समय निर्धारित किया गया है जिसमें कर्ण ने धरती पर आ कर दानकर्म एवं श्राद्धकर्म किया था।    

पौराणिक कथा के आधार पर पितृ पक्ष की एक लोकथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे। दोनों की अपने नामों से विपरीत स्थिति थी। जोगे जिसकी दशा जागी की होनी चाहिए थी, वह धन-सम्पन्न था। वहीं उसका भाई भोगे जिसे नाम के अनुरुप भोग-विलास का जीवन मिलना चाहिए था वह निर्धन था। इतना निर्धन कि कभी-कभी उसके घर में फांके की थिति आ जाती थी। दोनों भाई अलग-अलग रहते थे। दोनों भाइयों में परस्पर प्रेम था लेकिन जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था। जबकि भोगे की पत्नी बड़ी सरल स्वभाव की थी। पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे को लगा कि इससे धन व्यर्थ व्यय होगा अतः उसने टालने का प्रयास किया। जोगे की पत्नी का विचार था कि यदि वे लोग श्रद्धभोज करेंगे तो इससे समाज में उनके धन का भरपूर प्रदर्शन होगा और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। जोगे ने पत्नी को समझाया कि यह सब छोड़ो क्योंकि तुमसे अकेले सब नहीं सम्हाला जाएगा। इस पर जोगे की पत्नी ने कहा कि मैं भोगे की पत्नी को काम करने के बुला लूंगी। आप तो जाइए और मेरे मायके वालों को न्योता दे आइए।  अंततः जोगे को पत्नी के कहं अनुसार कार्य करना पड़ा। जोूगे की पत्नी भोगे की पत्नी को अपने घर काम करने के लिए बुला लाई। भोगे के घर यूं भी खाने का ऐसा कुछ नहीं था कि वे श्राद्धभोज कराना तो दूर एक भी भूखे को भोजन दान कर सकें। सो, भोगे ने पत्नी को मदद करने जाने को कहा और स्वयं कंडा आदि जला कर घरन में मौजूद अन्न का इकलौता दाना अग्नि को समर्पित कर के पितरों को ‘‘अगियारी’’ दान कर दी। जब पितर धरती पर आए तो वे पहले जोगे के घर गए। वहां उन्हें कुछ भी नहीं मिला क्योंकि उस घर में सभी लोग नाना प्रकार के व्यंजन से अपना पेट भरने में ही जुटे थे। उन लोगों ने पितरो की ओर ध्या भी नहीं दिया। इसके बाद पितर भोगे के घर गए। वहां उन्होंने देखा कि अन्न का एक दाना अगियारी के रूप में उन्हें दान दिया गया है। उसी समय भोगे के बचचे आ गए और अपनी मां से खाना मांगने लगे। घर में खाने को तो कुछ था नहीं अतः भोगे की पत्नी ने चूल्हे पर पानी उबलने को रख दिया था जिससे बच्चों को बहलाया जा सके। यह देख कर पितरों को लगा कि देखों तो भोगे ने अपने घर का अन्न का इकलौता दाना भी हमें अर्पित कर दिया जबकि उसके बच्चे भूखे हैं। यदि भोगे के पास पर्याप्त धन होता तो वह हमें भरपूर भोग लगाता। पितरों ने अगियारी की राख चाटी और तृप्त हो गए। इस बीच बच्चे दौड़ कर गए और उन्होंने चूल्हे पर चढ़े पतीले का ढक्कन खोला कि उसमें खाने का कुछ पक रहा होगा, तो उन्हें वहां पतीला सोने के सिक्कों से भरा हुआ मिला। बच्चों ने मां को इस बारे में बताया। बच्चों की मां ने भोगे को बताया। भोगे ने पितरों को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इसके बाद उनके दिन फिर गए। अगले वर्ष श्राद्ध पक्ष में भोगे ने विनम्र भाव से पितरों का श्राद्ध करते हुए गरीबों को भरपूर भोजन दान दिया। इसके बाद भोगे को कभी निर्धनता का मुख नहीं देखना पड़ा।
यह कथा भी यही संदेश देती है कि जितना भी हमारे पास है उसे मिल-बांट कर खाएं ताकि कोई भूखा न रहे। 

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि धरती पर आए। वे घूमते-घूमते गंगातट पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक गरीब व्यक्ति बहुत परेशान था। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। नारद मुनि ने उससे पूछा कि तुम्हें क्या कष्ट है? तो उस निर्धन व्यक्ति ने कहा कि पितृ पक्ष चल रहा है किन्तु मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे मैं दान कर के पितरों का श्राद्ध कर सकूं। मेरे पितर मुझ पर नाराज हो रहे होंगे। यह सुन कर नारद मुनि ने कहा कि यह मत सोचो कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, निर्धन तो वे हैं जिनके पास सब कुछ होता है फिर भी वे दान करने का कलेजा नहीं रखते हैं। तुम तो पेड़ की एक पत्ती तोड़ो और मुझे दान कर दो। तुम्हारा ब्राह्मण दान पूर्ण हो जाएगा। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। इसके बाद नारद वहां से चले गए। किन्तु उस व्यक्ति को लग रहा था कि मैंने मात्र ब्राह्मण दान किया है, वह भी उस ब्राह्मण ने कृपा कर के मेरी दी हुई पत्ती खा कर उसे दान मान लिया, अब मैं अपने जैसे निर्धनों को दान कैसे दूं? वह सोच ही राि था कि अचानक उसके सामने एक निर्धन आ गया। उस व्यक्ति को कुछ नहीं सूझा तो उसने पेड़ की एक और पत्ती तोड़ी और उसे उस निर्धन को देते हुए कहा कि मेरे पास इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीलं है। यदि तुम कृपा कर के इसे ग्रहण कर लो तो मेरे पितर प्रसन्न हो जाएंगे। यह सुन कर उस निर्धन ने पत्ती खा ली। इस प्रकार श्राद्ध कर के वह व्यक्ति अपने धर लौटा तो देखा कि उसकी पत्नी प्रसन्नमुद्रा में द्वार पर खड़ी है। उस व्यक्ति के पूछने पर पत्नी ने बताया कि एक आदमी आया था और वह स्वर्ण मुद्राओं से भरा घड़ा दे गया है जो तुम्हारे पूर्वजों ने तुम्हारे लिए छोड़ा था। यह सुन कर वह व्यक्ति समझ गया कि यह उसके दानकर्म का सुफल है जिससे उसके पूर्वज प्रसन्न हो गए। वह यह नहीं जानता था कि नारद ही पहले ब्राहमण और फिर निर्धन बन कर उससे दान ले गए थे और बदले में उसकी सहायता की।
यह कथा भी पूर्वजों की स्मृति में भोजन दान के महत्व को स्थापित करती है। इस कथा का भी उद्देश्य यही है कि इस धरती पर कोई भूखा न रहे। सब मिल बांट अन्न खाएं, ऐसा न हो कि एक संग्रहण करे और बाकी भूखे रह जाएं। 

वस्तुतः हमारी भारतीय संस्कृति में प्रत्येक त्योहार, संस्कार एवं अनुष्ठान का गहरा सामाजिक महत्व  एवं मानवीय मूल्य है। पितरो का स्मरण, पितरों के प्रति श्राद्ध आदि हमें अपनी पारिवारिक परंपरा पर गौरव करना सिखाती है। वहीं इन सब के साथ जुड़े दानकर्म ये उन लोगों के प्रति कर्तव्य का भी स्मरण रहता है जो हमारे ही समाज के अभिन्न अंग हैं, हमारे समान ही हैं किन्तु आर्थिक रूप से कमजोर हैं, निर्धन हैं। दानकर्म ऐसे जरूरतमंदों की मदद करने का अवसर देता है जिसे कर के हमें स्वयं भी आत्मिक शांति मिलती है।     
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(दैनिक, सागर दिनकर में 19.09.2025 को प्रकाशित)  
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Tuesday, September 16, 2025

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की प्रखरता है मनीष जैन की कविताओं में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

'आचरण' में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा 
 पुस्तक समीक्षा

भावनाओं की प्रखरता है मनीष जैन की कविताओं में
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह  - कुछ कही : कुछ अनकही 
कवि       - मनीष जैन
प्रकाशक  - 63/1, कटरा बाजार, सागर (म.प्र.)
मूल्य       - 200/-
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काव्य अभिव्यक्ति का सबसे कोमल माध्यम होता है क्योंकि यह भावनाप्रधान होता है। यदि यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि हर व्यक्ति के भीतर एक कवि मौजूद होता है। कभी व्यक्ति अपने भीतर के कवि को पहचान लेता है और अपनी भावनाओं तादात्म्य स्थापित कर लेता है। तब काव्य उसकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाता है। कवि मनीष जैन ने भी अपने मन की कोमल भावनाओं को पहचान कर उन्हें काव्यात्मक अभिव्यक्ति का रूप दिया है। फिर भी हर अभिव्यक्ति कभी पूरी नहीं होती है, बहुत कुछ कहने पर भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। इसी भाव के आधार पर है कवि मनीष जैन का काव्य संग्रह ‘‘कुछ कही: कुछ अनकही’’। 

10 मार्च 1975 सागर, मध्य प्रदेश में जन्मे मनीष जैन ने डॉ. हरीसिंह गौर वि.वि. से  बी. फार्मा तथा इंदौर आई.पी.एस. से एम.बी.ए. किया है। वर्तमान में वे ज्ञानवीर विश्वविद्यालय, सागर के कुलसचिव के पद पर कार्य कर रहे हैं। प्रस्तावना में मनीष जैन ने लिखा है कि “मैंने अपने गुजरे कल से आज तक के सफर में जो देखा, सुना, महसूस किया, ख्वाबों खयालों से, चर्चाओं से, किताबों से कुछ जाना कुछ माना और जिसको लिखा मैंने, जैसे सागर में मिलती नदियां हों, नदियों में घुलती श्रद्धा हो, सागर की गहराई में सीप हों, सीपों में छुपे मोती हों, सागर के लहरों का संगीत हो, संगीत में मचलते पैर हों, पैर के निशान बनती रेत हो, रेत के ढलते आशियां हो, आशियां में बसते ख्वाब हों, ख्वाबों के टूटने पर आँसु हों, आँसुओं में धुंधले होते चेहरे हों, चेहरे जो कुछ पराये कुछ अपने हों, अपनों से कुछ कहीं कुछ अनकही बातें हों।” उनके इस उद्गार से उनकी कविताओं की भाव भूमि का स्पष्ट पता चलता है। 
मनीष जैन की कविताओं में जीवन दर्शन है और विचारों की परिपक्वता भी। उनकी कविताओं की प्रकृति बताती है कि वे सप्रयास कुछ नहीं लिखते, कविताएं स्वतः उनके मन से प्रवाहित होती है। यह कविता देखिए- 
शब्द नहीं है पास मेरे 
सागर को सागर कहना है
सूरज को सूरज कहना है 
अवतार को भगवन कहना है
इस जीवन का सार बता दे 
परदा है पर पार बता दे 
उनकी अमृत वाणी को 
प्यास सभी की कहना है
आशीष ही जिनकी दौलत है उनकी 
कल्याण करे जो जग का
उनके चरण कमल को 
जग का साहिल कहना है
दिल की करनी को जो बदल दे
आँखों की तस्वीर बदल दे 
ऐसी गीता को भाग्य विधाता कहना है।

कवि मनीष जैन अपनी कुछ कविताओं में नास्टैल्जिक हो उठते हैं और स्वयं को लक्षित कर के स्वयं से ही प्रश्न करते हैं। जैसे यह कविता है-
मैं अकेला ही खड़ा था जंग के मैदान में 
मेरी लड़ाई खुद से थी 
जंग के मैदान में मैं क्या हूँ एक प्रश्न है
मुझसे क्या चाहते हैं बड़ा प्रश्न है
मैं जो हूँ प्रश्न ही नहीं है
हो रहे हैं प्रश्न के प्रहार मुझ पर
जंग के मैदान में
पहचान खुद की खो चुकी है
आँख कई बार रो चुकी है
आडंबर का अंबर सर्वव्याप्त है
यथार्थ की धरा लुप्त हो चुकी है
जंग के मैदान में
तुम्हारे अंदर की लौ अब बुझ चुकी है
जाने क्या वजह है कि
जलने की चाह भी रूक चुकी है जंग के ।

वस्तुतः स्वयं से जंग तभी थमती है जब व्यक्ति स्वयं को पहचान लेता है, पूरी तरह से नहीं फिर भी आंशिक पहचान का हो जाना भी स्वयं को पहचानने से कम नहीं होता है। कवि मनीष जैन जीवन के यथार्थ को स्वीकार कर लेने का आग्रह करते हैं। यूं भी सत्य को स्वीकार कर लेने से बड़ी और कोई स्वीकार्यता नहीं होती है। जब स्वयं की पहचान हो जाती है तो भावनाएं भी किसी ग़ज़ल की अभिव्यक्ति सी संवेदनात्मक हो जाती हैं-
सच तो सच है 
पर आज सच को भी सहारा चाहिए 
आइना तुम्हे तुमसा ही दिखाएगा 
कभी खुद को औरों में भी ढूँढ़ना चाहिए 
बुढ़ापे की झुर्रियों में है छुपे कई साल देखो 
एक सवाल के तुम्हें बोलो कितने जवाब चाहिए 
किसी की यादों का झोंका गर 
आँखो में आँसू ला दे 
कागज को रूमाल बनाकर 
गजल कोई लिख देना चाहिए।

मनीष जैन ने एक ऐसे विषय को अपनी कविता का विषय बनाया है जिस पर चिंतन किया जाना आवश्यक है। यह विषय है आत्मघात अथवा आत्महत्या। कोई इंसान किन मानसिक परिस्थितियों में पड़ का आत्मघाती कदम उठाता है इसे समझने का प्रयास प्रायः कम ही किया जाता है। लोग परिणाम देखते हैं और निष्कर्ष गढ़ने लगते हैं। किन्तु मनीष जैन उस तह को टटोलते हैं जहां किसी भी प्रकार की प्रबल विवशता आत्मघात के लिए उकसाती है-
कितना मजबूर वो इंसा होगा 
खुद को मारने को जो मजबूर होगा 
यूँ ही नहीं रूठ जाता किसी से कोई
दरम्याँ उनके कोई मसला जरूर होगा
जिसका हुनर ही उसका अभिशाप बन गया 
वो हाथ कटा ताज का मजदूर होगा 
बिछड़ते वक्त उसकी आँख में आँसू नहीं थे 
हर वादे की तरह यह वादा भी उसने निभाया होगा 
खुशियाँ जिंदगी में है मृग तृष्णा की तरह
हर नये कदम के साथ लक्ष्य और दूर होगा 

संग्रह में दार्शनिक तीव्रता की कविताएं ही नहीं वरन छायावादी भाव की कविताएं भी हैं जैसे यह कविता देखिए- 
आज रात चांद सोया नहीं 
जागते-जागते सुबह हो गई 
ना जाने उसे किसका था इंतजार 
इसी इंतजार में सुबह हो गई 

मनीष जैन का यह प्रथम काव्य संग्रह है जो कवि में मौजूद अपार संभावनाओं की ओर स्पष्ट संकेत करता है। संग्रह की कविताओं में शिल्पगत शिथिलता अथवा कच्चापन अवश्य है किन्तु भावनाओं की प्रखरता ने उन्हें परिपक्वता प्रदान किया है जिससे सभी कविताएं अच्छी बन पड़ी हैं। ‘‘कुछ कही: कुछ अनकही’’ काव्य संग्रह में छोटी-बड़ी कुल 50 कविताएं हैं। शिल्प की दृष्टि से बेशक ये कविताएं अनगढ़ प्रतीत हो सकती हैं किंतु इनमें शब्दों का सुघड़ संयोजन एवं भावों का स्पष्ट प्रस्तुतिकरण है। जैसाकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि ‘‘काव्य भावना प्रधान होता है अतः कला पक्ष का तीव्र आग्रह कभी-कभी शिथिल भी हो सकता है।’’ बस, अनेक स्थानों पर प्रूफ का दोष खटकता है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि संग्रह की कविताएं पढ़े जाने के बाद देर तक चेतना के परिसर में टहलती हुई अनुभव होती हैं और यही खूबी इन्हें पठनीय बनाती है।  
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(16.09.2025 )
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Saturday, September 13, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | जो हिन्दी बचहे सो बुंदेली सोई बचहे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

(पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में)
टॉपिक एक्सपर्ट
जो हिन्दी बचहे सो बुंदेली सोई बचहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

     कहनात आए के जो मताई पे संकट होए तो मौसी, बुआ, फुआ सबई पे संकट घिरन लगत हैं। काए से के मताई तो मताई होत आए चाए जैसी दसा में होए। सो, जो मताई खों संकट से ने बचा पाए तो मौसी, बुआ, फुआ खों कां से बचाहे? आप ओरें सोच रये हुइयो के कल हिन्दी को दिवस आए औ  जे आज रिस्तेदारी गिनान लगीं। अब का करो जाए, बातई ऐसी आए। का है के हिन्दी अपनी मताई घांई ठैरी औ बुंदेली सग्गी मौसी। रई अंग्रेजी की, तो बा रई पाउनी, जो रै गई किराएदार बन के। मनो कछू किराएदार ऐसे होत आएं के रैबे आए कछू समै की कै के औ फेर मकान मालिक खों खदेड़ के मकान खों कब्जान लगत हैं। ऐसई अंग्रेजी ने हिन्दी के संगे करो आए। पैले जे अंग्रेजी अंग्रेज ब्यापारियन के संगे पाऊनी बनके आई फेर किराएदार घांई इतेई टिक गई। फेर ऊने ऐसो महौल बनाओ के जो अंग्रेजी जानहे, ऊको लाट साब घांई नौकरी मिलहे औ जो ने जानहे ऊको चपड़ासी से ऊंचो कछू ने मिलहे। जेई ने हिन्दी खों खदेड़ दऔ। बाकी 2020 वारी नई शिक्षा नीति ने तीन भासा को फार्मूला दे के कछू अच्छो करो है।
    बाकी होता का है के अपन ओरें खुदई अंग्रेजी से चिमटे रैत आएं। चाए कर्जा काए ने लेने परै मनो मोड़ा-मोड़ी खों पढ़ाहें सो अंग्रेजी स्कूल में। मनो उते ने पढ़ाओ तो जनम सफल ने हुइए। सो जे खयाल अब छोड़ो चाइए। काए से के हिन्दी पढ़े से बी अच्छी नौकरी मिलत है। औ अपन खों तो जे सोई ध्यान राखने के जो हिन्दी बचहे तो बुंदेली बी बची रैहे ने तो बुंदेली को पूछबे वारे ने बचहें। सो, खाली हिन्दी के मईना में नोंई, पूरे साल भरे हिन्दी पे भरोसा राखो, बुंदेली खों संगे राखो।
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Thank you Patrika 🙏
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Friday, September 12, 2025

शून्यकाल | वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल

वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                 
       संयुक्त परिवार की व्यवस्था बहुत पीछे छूट जा रही है। एकल परिवार में संवेदनाओं एवं समर्पण की कमी साफ दिखाई देने लगी है। यहां तक कि अपने वृद्ध माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम तलाशे जाते हैं। भले ही वे वृद्धाश्रम फाइव स्टार सुविधाओं वाले क्यों न हों, किंतु रहते तो अपनों से दूर हैं। जहां अपने जैसे होते हैं किंतु अपने नहीं होते। अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम के हवाले करने वाली पीढ़ी भगीरथ के पितृमोक्ष कर्म को क्या कभी समझ सकेगी?
 किसी कठिन कार्य को अथक प्रयास करके पूरा करना “भगीरथ प्रयास” कहलाता है। कौन थे भगीरथ? वस्तुतः भगीरथ अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा थे। वे अंशुमान के पौत्र और राजा दिलीप के पुत्र थे। वंशवृक्ष के क्रमानुसार देखें तो सगर के बाद उनके पुत्र अंशुमान राजा हुए, अंशुमान के बाद दिलीप और राजा दिलीप के बाद भगीरथ। 
    राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया और इस दौरान उनके घोड़े को ऋषि कपिल ने अपने आश्रम में बांध लिया। सगर के पुत्र अश्व को ढूंढते हुए ऋषि कपिल के आश्रम में पहुंचे और उन लोगों ने आश्रम को अपवित्र कर दिया। तब क्रोधित होकर ऋषि कपिल ने उन सभी को भस्म कर दिया, जिससे उनकी आत्माओं को मोक्ष नहीं मिला और वे भटकने लगीं।
   राजा सगर ने अपने पुत्रों की आत्माओं को मोक्ष दिलाने का प्रयास किया किंतु वह सफल नहीं हुए। राजा सगर के बाद अंशुमान ने भी अपने पिता तथा संबंधियों को मोक्ष दिलाने का प्रयास किया किंतु वह भी असफल रहे। अंशुमान ने इस बात का पता किया की अपने संबंधियों की आत्माओं को किस तरह मोक्ष दिलाया जाए? ऋषियों ने उन्हें बताया की इतनी बड़ी संख्या में आत्माओं को मुक्ति दिलाने के लिए एक बड़ी प्रवाहित जल राशि की आवश्यकता होगी जो आकाश में स्थित गंगा के माध्यम से ही संभव है। किंतु गंगा को पृथ्वी पर कैसे लाया जाए यह जटिल प्रश्न था। इस जटिल प्रश्न का उत्तर ढूंढने के लिए अंशुमान ने अपने पुत्र दिलीप को राज्य-भार सौंपा और स्वयं  तपस्या करने लगे। अंशुमान मैं तपस्या करते हुए अपने प्राण त्याग दिए किंतु उन्हें गंगा को पृथ्वी पर लाने का उपाय नहीं मिला। इसी प्रकार राजा दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने की चिंता करते हुए रोग ग्रस्त हो गए तथा उनका भी प्राणांत हो गया। तब राजा भगीरथ ने अपनी कठिन साधना और घोर तपस्या के बल से उन्होंने पहले ब्रह्मा को प्रसन्न किया और उनसे दो वर मांगे- पहला वर कि  गंगा जल चढ़ाकर वे अपने भस्मीभूत पितरों को स्वर्ग प्राप्त करवा सकें और दूसरा यह कि उनको कुल की सुरक्षा करने वाला पुत्र प्राप्त हो। क्योंकि भागीरथ उसे समय तक निःसंतान थे। ब्रह्मा ने उन्हें दोनों वर दिए।
     भगीरथ यह सोचकर प्रसन्न हुए कि अब वह अपने पूर्वजों को मोक्ष दिल सकेंगे किंतु उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि गंगा को धरती पर लाना आसान नहीं है। भागीरथ ने गंगा से निवेदन किया कि वे धरती पर उतरें और उनके पूर्वजों की भस्म को अपने जल में समाकर पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करें। गंगा ने भागीरथ की प्रार्थना स्वीकार कर ली और वे आकाश से पृथ्वी पर उतरीं। किंतु गंगा का वेग इतना अधिक था की पृथ्वी की ऊपरी सतह गंगा के जल को संभाल नहीं सकी और गंगा अपनी जल राशि सहित धरती में समा गईं।
   प्रथम प्रयास असफल होने पर भगीरथ दुखी तो हुए किंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक बार फिर उन्होंने गंगा से प्रार्थना की कि वह पृथ्वी पर पधारें। भागीरथ के निवेदन पर गंगा ने कहा कि वे यदि फिर पृथ्वी पर आएंगी तो पहले की भांति धरती में समझ जाएंगी। अतः उनके बैग को कम करने के लिए कोई उपाय ढूंढें। भगीरथ ने एक बार फिर ब्रह्मा की तपस्या की। इस बार उन्होंने पर के अंगूठे पर खड़े होकर एक वर्ष तक तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने गंगा को रोकने का उपाय बताते हुए कहा कि उन्हें भगवान शिव से सहायता लेनी चाहिए वह अपनी जटाओं में गंगा को धारण करके उन्हें धरती में सामने से रोक सकते हैं। भगीरथ ने इस बार भगवान शिव की तपस्या की और उनसे सहायता करने का वचन मांगा। भगवान शिव ने भगीरथ को आश्वासन दिया कि वह गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर लेंगे ताकि वे धरती में ना सम सकें।
    भगीरथ ने एक बार फिर गंगा से प्रार्थना की कि वे शिव की जटाओं से होती हुईं पृथ्वी पर उतरें ताकि उनका वेग काम हो जाए। गंगा ने प्रार्थना स्वीकार कर ली और वह आकाश से उतरकर शिव की जटाओं में जा पहुंचीं। किंतु वे शिव की जटाओं में इस तरह उलझ गई कि उन्हें जटाओं से बाहर निकलने का मार्ग नहीं मिला और वह धरती तक नहीं पहुंच सकीं।
      एक बार फिर असफल होने के बाद भगीरथ ने भगवान शिव की फिर तपस्या की। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा को अपनी जटाओं से निकलने का मार्ग देते हुए उन्हें बिंदुसर की ओर छोड़ा। तब गंगा सात धाराओं के रूप में प्रवाहित हुईं। पूर्व दिशा में ह्लादिनी, पावनी और नलिनी,पश्चिम में सुचक्षु, सीता और महानदी सिंधु के रूप में। सातवीं धारा राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलीं और उस स्थान पर पहुंची जहां भगीरथ के पूर्वजों की भस्म बिखरी हुई थी। गंगा ने भस्म को अपनी जल राशि में स्वीकार किया इसके बाद राजा भगीरथ भी  गंगा में स्नान करके पवित्र हुए। 
     फिर गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर  समुद्र तक पहुंच गयीं। इस अथक प्रयास से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने भगीरथ से कहा कि —“हे भगीरथ, जब तक समुद्र रहेगा, तुम्हारे पितर देववत माने जायेंगे तथा गंगा तुम्हारी पुत्री कहलाकर भागीरथी नाम से विख्यात होगी। साथ ही वह तीन धाराओं में प्रवाहित होगी, इसलिए त्रिपथगा कहलायेगी।”
    महाभारत के अनुसार भगीरथ अंशुमान का पौत्र तथा दिलीप का पुत्र था। उसे जब विदित हुआ कि उसके पितरों को अर्थात सगर के साठ हज़ार पुत्रों को सदगति तब मिलेगी जब वे गंगाजल का स्पर्श प्राप्त कर लेंगे। तब भागीरथ ने हिमालय जाकर कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से गंगा प्रसन्न गईं। किन्तु गंगा ने कहा कि वे तो सहर्ष पृथ्वी पर अवतरित हो जाएंगी, पर उनके पानी के वेग को शिव ही थाम सकते हैं, अन्य कोई नहीं। अत: भगीरथ ने पुन: तपस्या प्रारम्भ की। शिव ने प्रसन्न होकर गंगा का वेग थामने की स्वीकृति दे दी। गंगा भूतल पर अवतरित होने से पूर्व हिमालय में शिव की जटाओं पर उतरीं। फिर पृथ्वी पर अवतरित हुई तथा भगीरथ का अनुसरण करते हुए उस सूखे समुद्र तक पहुँचीं, जिसका जल अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। उस समुद्र को भरकर गंगा ने पाताल स्थित सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार किया। गंगा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल का स्पर्श करने के कारण त्रिपथगा कहलायी। गंगा को भगीरथ ने अपनी पुत्री बना लिया। 

अपने पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष दिलाने के लिए भगीरथ ने तब तक प्रयास किया जब तक वे सफल नहीं हो गए। उनका अपने पूर्वजों के प्रति इसने और सम्मान का भाव था जिसके कारण वह निरंतर तपस्या करते रहे और उन्होंने अपने पूर्वजों की भटकती आत्मा को मोक्ष दिला कर ही अपने वंशज होने के कर्तव्य की पूर्णता का अनुभव किया।
      भगीरथ के प्रयासों को देखते हुए यह विचार करने की आवश्यकता है की जो पीढ़ी अपने जीवित माता-पिता के प्रति संवेदनहीन होती जा रही है वह अपने पूर्वजों के प्रति भला कैसी निष्ठा रखेगी? बाजारवाद से प्रभावित होकर पितृ मोक्ष के दिखावे वाली कार्यों को पूर्ण करना वह आत्मिक शांति अथवा पुण्य नहीं दिला सकता है जो अपने जीवित माता-पिता की सेवा करने से तथा उन्हें अपने साथ रखने से पुण्य प्राप्त होता है। क्या युवा  पीढ़ी के वे लोग इस बात को समझ सकेंगे जो अपने माता-पिता को बोझ मानने लगते हैं तथा साथ रखने में संकोच करते हैं अथवा उनके लिए अच्छे से अच्छा वृद्धाश्रम ढूंढ कर अपने कर्तव्य को पूर्ण मान लेते हैं। पितृपक्ष में इस बिंदु पर चिंतन करना अत्यंत आवश्यक है ताकि युवा पीढ़ी को अपनी परंपराओं एवं पूर्वजों के प्रति संवेदनशील होने के महत्व को समझाया जा सके।  
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शून्यकाल | वृद्धाश्रम पोषक पीढ़ी नहीं समझ सकती भगीरथ का पितृमोक्ष कर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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Thursday, September 11, 2025

बतकाव बिन्ना की | पितर पूछ रए, सबरे कौव्वा हरें कां गए? | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

   
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बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
पितर पूछ रए, सबरे कौव्वा हरें कां गए?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘काए भौजी, भैयाजी नईं दिखा रए?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘बे कारी बरिया लौं गए।’’ भौजी ने बताई।
‘‘कारी बरिया? उते काए खों गए? हमने तो सुनी आए के उते तांत्रिक-मांत्रिक कछू उल्टो-सूदो पूजा-पाठ करत आएं। सो, भैयाजी उते का करबे के लाने गए?’’ मोए जा सुन के अचरज भऔ के भैयाजी कारी बरिया के इते गए आएं? का आए, के ऊको कारी बारिया जे लाने कओ जात आए के उते एक भौत पुरानो बरिया को पेड़ आए। ऊ पेड़ के नैंचे कारी जू की एक मूरत धरी आए। उते मनौती वारी लुगाइयां मनौती को धागा बांधवे जात आएं औ अमावस औ पूरनमासी को उते तांत्रिक हरें कछू स्पेशल पूजा करत आएं। सो अमावस औ पूरनमासी को रात की बेरा ऊ तरफी कोनऊं नईं फटकत। मनो आज तो ऐसो कछू आए नईं औ फेर जे दिन को टेम ठैरो, सो भैयाजी काए के लाने गए हुइएं?
‘‘सो भैयाजी काए के लाने उते गए?’’ मैंने फेर के भौजी से पूछी।
‘‘अरे उनकी ने कओ! बे हमाई कोन सुनत आएं। तुम तो जानत आओ के आजकाल करै दिन मने पितरों के दिन चल रए। अब ईमें कौब्बा खों भोग देनो जरूरी आए। औ कौव्वा हरें दिखात लौं नइयां। हमने तो कई तुमाए भैयाजी से के छत पे बरा औ पुड़ी डार देओ। जो कौव्वा आहें सो बे खा लैहें ने तो कोनऊं औ पंछी खा लैहे। अब तुमई बताओ के जो कौव्वा नईं दिखा रए तो अपन ओंरे का कर सकत आएं। पर तुमाए भैयाजी खों तो जो दिमाक में चढ़ गई सो चढ़ गई। कोनऊं ने उनको बता दओ के उते कारी बरिया पे कौव्वा आत आएं, सो बे बड़ा-पुड़ी ले के कारी बरिया खों चले गए। बाकी हमने उने समझाई रई के आप जा तो रए हो मनो उते बारा बजे के टेम पे ने रुकियो।’’ भौजी बोलीं।
‘‘काए बारा बजे का होत आए?’’ मैंने पूछी।
‘‘ऐसो कओ जात आए के दुफारी के बारा बजे बरिया को भूत उठ बैठत आए। अब रामजाने का सांची औ का झूठी? बाकी तुमें याद हुइए के पर की साल बा हल्के को मोड़ा खेलत-खेलत कारी बरिया के इते पौंच गऔ रऔ औ दुफारी के बारा बजतई सात ऊपे भूत चढ़ गओ। ईके बाद बा छै मईना बीमार रओ। वा तो ऊकी मताई ने उते बालाजी जा के झरवाओ, तब कऊं जा के ऊपे से भूत भागो।’’ भौजी ने कई।
‘‘आप मानत आओ भूत-प्रेत खों?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘मानत तो नईयां, बाकी रिस्क को ले? कऊं सई में कोनऊं भूत-वूत भओ तो?’’ भौजी बोलीं।
हम ओरें बतकाव करई रई तीं के इत्ते में भैयाजी हांपत-हांपत घरे लौटे।
‘‘का भओ? कौव्वा मिले?’’ भौजी ने उने देखतई सात पूछी।
‘‘तनक पानी तो पिलाओ पैले। गाला सूको जा रओ। भौतई गरमी आए। ऐसी सड़ी गरमी के का कई जाए!’’ भैयाजी अपने गमछा से अपने मों पे पंखा सो करन लगे। 
‘‘पंखा चल रओ भैयाजी!’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाओ।
‘‘हऔ! बाकी पतो सो नई पर रओ।’’ भैयाजी ऊंसई पंखा झलत से बोले। 
‘‘तनक देर में ठंडो लगहे। अभईं आप बायारे से निंगत आ रए न, जेई से ज्यादा गरमी लग रई हुइए।’’ मैंने भैयाजी खों तनक सहूरी बांधगे को प्रयास करो।
इत्ते में भौजी पानी ले आईं। भैयाजी की दसा ऐसी हती के बे एकई घूंट में पूरो गिलास भर पानी गटक गए। ईके बाद भैयाजी की दसा ठीक भई।
‘‘सो का भओ? कौव्वा मिले?’’ भौजी ने फेर के पूछी।
‘‘कां मिले? उते बरिया तरे ठाड़ें-ठाड़े गोड़े औ दुखन लगे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘उते आपई भर पौंचे हते के औ बी कोनऊं रओ?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘दो-चार जने औ रए। हम ओरें उते कुल्ल देर ‘कां-कां’ पुकारत ठाड़े रए, बाकी उते कौव्वा तो कौव्वा, कौव्वा की छायारीं लौं ने आई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हमने तो पैलेई कई रई के सुनी-सुनाई पे ने भगत फिरो। अब कौव्वा ने मिल रए तो जे बात अपने पुरखा लौं जानत आएं। बे बुरौ ने मानहें। आप तो हमाई कई मानो औ छत पे धर दओ करे। जो इते से कोनऊं कौव्वा कड़हे तो खा लैहे, ने तो कछू औ पंछी खा लैहे। काए से जब कौव्वाप ने मिलें तो करो का जाए?’’ भौजी ने भौयाजी खों समझाओ।
‘‘भौजी सई कै रईं, भैयाजी! नाएं-मांए भगत फिरबे को मौसम ने आए जे। यां तो पानी गिरत आए ने तो भड़भडावे वारी धूप कढ़ आत आए। ईमें बीमार पड़बे को डर रैत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो तो सई कै रईं तुम! भारी गरमी आए। इत्तो पानी गिरो मनो ठंडक ने आई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब तो पितर हरें सोई हेरत हुइएं के सबरे कौव्वां कां बिला गए?’’ भौजी बोलीं।
‘‘का आए भौजी के कौव्वा हरें ऊंचे पेड़न पे अपनो घोसला बनात आएं। अब अपने धनी-धोरी हरों ने मकान औ कालोनी बनाबे के चक्कर में सबरे पेड़े कटा दए। अब कौव्वा कां रएं? कां अपनो घोंसला बनाएं? जेई लाने तो इते कौव्वा नईं दिखात। अबई ओरें सोचो के जोन से ऊको घर छीन लओ जाए तो बो उते काए खों रैहे? बा उते जाहे जिते ऊके बाल-बच्चा पल सकें।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना! हमें याद ठैरी के हमाए उते मायके में नीम को ऊंचो सो पेड़ रओ, ऊपे कौव्वा को घोंसला रओ। औ हमाई मताई बतात रईं के कोयल सोई अपनो अंडा कौव्वा के घोसला में दे के चली जात आए। कौव्वा ऊको अंडा बी अपनो अंडा समझ के पालत-पोसत रैत आए औ अंडा फूटबे पे कौव्वा के बच्चा तो कां-कां करत आए औ कोयल के बच्चा कूं-कूं करन लगे आएं। तब कौव्वा खों पतो परत के ऊके संगे का धांधली करी गई।’’ भौजी ने कई।
‘‘जे सई आए भौजी। बाकी अप ओरें चाओ तो मोसे पूछ सकत आओ के सबरे कौव्वा कां मिलहें।’’ मैंने भैयाजी औ भौजी दोई से कई।
‘‘कां मिलहें?’’ दोई ने एक संगे पूछी।
‘‘सबरे कौव्वा टीवी चैनल में मिलहें। कछू एंकर के रूप धरे तो कछू डिस्कन वारे पाउना के रूप में। आप ओरन ने देखो हुइए के उते कित्ती कांव-कांव होत आए। इत्ती कांव-कांव तो असली वारे कौव्वा बी नईं करत आएं।’’मैंने हंस के कई।
‘‘जा तुमने सई कई बिन्ना। बरा-पुड़ी के ले हमें कोनऊं टीवी चैनल पे जाओ चाइए रओ।’’ भैया सोई हंसन लगे।
‘‘अबे बी कछू नईं बिगरो! अबे तो करै दिन चलहें। औ भौजी, जो कोनऊं दिनां पुरखां हरें पूछें के सबरे कौव्वा कां हिरा गए सो उने बोल दइयो के बे सबरे टीवी प्रोगराम में बैठे।’’ मैंने भौजी से कई। फेर मैंने कई के, ‘‘ बात असल में जे आए के जे जो सबरे रीत-रिवाज बनाए गए, ले जेई के लाने के अपन ओरें पेड़-पौधा, पसु-पक्छी सबई की परवा करें। सो सबके लाने कोनऊं ने कोनऊं त्योहार बना दए गए। अब अपने ओरन खों कौव्वा खों तो भोग लगाने, मनो कौव्वा खों रैन नई देने, सो कैसे काम चलहे?’’ मैंने कई।
‘‘तुम कछू कओ, अब हम तो जा रए कोनऊं टीवी चैनल वारों के इते। काए से हमें कौव्वा तो जिमानेंई आए।’’ भैयाजी बोले औ हंसन लगे। 
 बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के कौव्वा के घोंसला के लाने हमने कित्ते पेड़ लगाए? औ संगे जे सोई सोचियो के जबें पितरों के इते पौंचबी तो उनें का जवाब देबी?    
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Wednesday, September 10, 2025

चर्चा प्लस | अंग्रेजी के मोहपाश में बंध कर हिन्दी का भला नहीं हो सकता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस


अंग्रेजी के मोहपाश में बंध कर हिन्दी का भला नहीं हो सकता


- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                             

सितम्बर आते ही हिन्दी मास, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस के प्रति जागरूकत बढ़ जाती है। शेष माह में हिन्दी अंग्रेजी की सेविका की भांति जीती-खाती रहती है। पढ़ने में यह बात जितनी भी बुरी लगे किन्तु सच यही है। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके।


वर्ष 2025 का हिन्दी मास आरम्भ हुए सप्ताह भर बीत गया है। पहले गणेशोत्सव की धूम और अब पितृपक्ष की व्यस्तता। लगभग हर घर के बच्चे जा रहे हैं अं्रग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने। सो, हिन्दी के प्रति उतनी जागरूकता ही पर्रूाप्त समझी जा रही है जितनी सरकारी आदेश के हिसाब से जरूरी है। मुझे याद आ रही है विगत वर्ष ठीक दस वर्ष पहले 2015, जुलाई की 19 तारीख। मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं हिन्दी भवन न्यास के तत्वावधान में भोपाल में पावस व्याख्यानमाला का आयोजन में मनोज श्रीवास्तव ने एक महत्वपूर्ण तथ्य रखा था कि हम बार-बार संयुक्त राष्ट्रसंघ स्वीकृत भाषासूची में हिन्दी को शामिल किए जाने की मांग करते हैं, किन्तु विश्व श्रम संगठन अथवा सार्क संगठन में भी हिन्दी के लिए स्थान क्यों नहीं मांगते हैं? उसी समय विश्वनाथ सचदेव ने इस ओर ध्यान दिलाया कि जहां हम हिन्दी के प्रति अगाध चिन्ता व्यक्त करते नहीं थकते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम के शासकीय विद्यालय खोल रहे हैं, क्या यह हमारा अपनी भाषा के प्रति दोहरापन नहीं है?
यह अत्यंत व्यावहारिक पक्ष है कि हम अपने दैनिक बोलचाल में खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं जो आसानी से सबकी समझ में आ जाती है। यहां तक कि अहिन्दी भाषी भी इसे समझ लेते हैं किन्तु जब हिन्दी के विद्वान तकनीकी अथवा वैज्ञानिक शब्दावली के लिए जिन हिन्दी शब्दों का चयन करते हैं, वे प्रायः संस्कृतनिष्ठ होते हैं। जैसे- ‘चार पैरों वाले’ के स्थान पर ‘चतुष्पादीय’। जब किसी को पांव में ठोकर लगती है तो उससे हम यह नहीं पूछते कि ‘तुम्हारे पद में आघात तो नहीं लगा?’ हम यही पूछते हैं कि ‘तुम्हारे पैर में चोट तो नहीं लगी?’ जिस शब्दावली से विद्यार्थी परिचित होता है, उससे इतर हम उसके सामने इतनी कठिन शब्दावली परोस देते हैं कि वह तुलनात्मक रूप से अंग्रेजी को सरल मान कर उसकी ओर आकर्षित होने लगता है। संदर्भवश एक बात और (व्यक्तिगत राग-द्वेष से परे यह बात कह रही हूं) कि जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दावली की पैरवी करते हैं वे ही महानुभाव अपने बेटे-बेटियों को ही नहीं वरन् पोते-पोतियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने की होड़ में जुटे हुए भारी ‘डोनेशन’ देते दिखाई पड़ते हैं और गर्व से कहते मिलते हैं। कोई विद्यार्थी किस भाषाई माध्यम को शिक्षा के लिए चुनता है (अथवा उसे चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है) यह मसला उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि भाषा को ले कर हमारे दोहरे चरित्र का मसला है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलवाने तथा विश्वस्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने की लड़ाई आज आरम्भ नहीं हुई है, यह तो पिछली सदी के पूर्वार्द्ध से छिड़ी हुई है।

हिन्दी के पक्ष में संघर्ष

पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगो को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी।
बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
सम्मेलनों में सिमटी हिन्दी चिन्ता

पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी से 14 जनवरी 1975 तक नागपुर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में हुआ। सम्मेलन से सम्बन्धित राष्ट्रीय आयोजन समिति के अध्यक्ष महामहिम उपराष्ट्रपति बी. डी. जत्ती थे। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे माॅरीशस के प्रधानमंत्राी शिवसागर रामगुलाम। सम्मेलन में तीन महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए थे- 1.संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए 2. वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो तथा 3. विश्व हिन्दी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अत्यन्त विचारपूर्वक एक योजना बनायी जाए।
भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन इस क्रम में दसवां सम्मेलन था। सन् 1975 से 2015 तक प्रत्येक विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रति वैश्विक चिन्ताएं व्यक्त की जाती रहीं, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए योजनाएं बनती रहीं किन्तु  यदि हम अंग्रेजी के प्रति अपनी आस्था और समर्पण को इसी तरह बनाए रहेंगे, एक ओर विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे महत्वांकांक्षी आयोजन करेंगे और दूसरी ओर ठीक उसी समय अंग्रेजी माध्यम के सरकारी विद्यालय खोलंेगे तो हमारे हिन्दी के प्रति आग्रह को विश्व किस दृष्टि से ग्रहण करेगा?
हिन्दी के प्रति हमारी कथनी और करनी में एका होना चाहिए। हिन्दी समाचारपत्र अपनी व्यवसायिकता को महत्व देते हुए अंग्रेजी के शीर्षक छापते हैं जबकि एक भी अंग्रेजी समाचारपत्र ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें हिन्दी लिपि में अथवा हिन्दी के शब्दों को शीर्षक के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा हो। ‘‘सैलेब्स’’ हिन्दी के समाचारपत्र में मिल जाएगा लेकिन अंग्रेजी के समाचारपत्र में ‘‘व्यक्तित्व’’ अथवा ऐसा ही कोई और शब्द शीर्षक में देखने को भी नहीं मिलेगा।

हिन्दी को रोजगार से जोड़ना होगा

विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे। त्रिभाषी फार्मूला इस दिशा में एक अच्छी पहल है किन्तु इसके परिणाम भी उतनी तीव्रता से सामने नहीं आ रहे हैं जितनी तीव्रता से आना चाहिए। जब तक हम अंग्रेजी के मोह से बंधे रहेंगे तब तक हिन्दी क्या, कोई भी भारतीय भाषा पूरा सम्मान और विश्वास नहीं पा सकती है। 
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