Tuesday, December 31, 2024

नववर्ष 2025 की हार्दिक शुभकामनाएं - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रिय मित्रों, आप सबको नववर्ष 2025 की हार्दिक शुभकामनाएं 🎉❤️🌹🎉
वर्ष 2024 की जो भी दुखद घटनाएं रहीं वे हमारी स्मृतियों से डिलीट हो जाएं और 2025 हमारी झोली को खुशियों से भर दे  यही दुआ है मेरी 🙏🚩🎵🎷🎉🎻

Dear friends, I wish you all a Very Happy New Year 2025 🎉❤️🌹🎉
May all the sad events of 2024 be deleted from our memories and may 2025 fill our bags with happiness, this is my prayer. 🙏🎉❤️🌹🚩🎉

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पुस्तक समीक्षा | छोटी-छोटी कहानियों का बड़ा संसार | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 31.12.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई सुश्री ऊषा वर्मन के कहानी संग्रह "दिल का टुकड़ा" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा  
छोटी-छोटी कहानियों का बड़ा संसार
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह  - दिल का टुकड़ा
लेखिका      - ऊषा वर्मन
प्रकाशक     - जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053    
मूल्य        - 395/- 
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    ऊषा वर्मन एक उत्साही कहानीकार हैं। पूर्व में उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है जिसे मैंने पढ़ा है। अब जब उनके इस नए कहानी संग्रह ‘‘दिल का टुकड़ा’’ को पढ़ा तो मैंने पाया कि ऊषा बर्मन ने अपने कथालेखन के प्रति मेहनत की है। उनके पहले कहानी संग्रह की कहानियों की अपेक्षा इस दूसरे कहानी संग्रह की कहानियों की विषयवस्तु में पर्याप्त विविधताएं हैं और सटीकता है। कथानकों को अपेक्षकृत विस्तार भी मिला है। स्वतः उपजने वाली कहानी और सप्रयास लिखी जाने वाली कहानी में अंतर किया जाना कोई कठिन काम नहीं है। स्वतः उपजी कहानियां मन को गहरे तक छूती हैं क्योंकि उनमें घटना और घटना क्रम का सच उपस्थित होता है, जबकि सप्रयास लिखी गई कहानी यथार्थ की छायामात्र होती है। 
      समाज किस्से कहानियों से भरा पड़ा है। यह मानना सही होगा कि हर कहानी सच्ची होती है। यदि किसी कहानी में राक्षसी प्रवृति का पात्र है तो इसका अर्थ है कि कहानीकार समाज में मौजूद शोषक एवं अपराधी मानसिकता के चरित्र को व्यंजनात्मकरूप से सामने रखना चाहता है। देश की स्वतंत्रता के बाद हिन्दी कहानी ने तेजी से विकास किया। हिन्दी कहानी में अनेक नई प्रवृतियां उभर कर आईं। कथाकार कमलेश्वर ने नई कहानी आंदोलन को स्थापना दी। यद्यपि उनके समकालीन लेखकों को भी उतना ही श्रेय है जितना कमलेश्वर को। हिंदी साहित्य में नई कहानी आंदोलन की शुरुआत 1955-56 से मानी जाती है। कमलेश्वर के साथ ही मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती आदि ने नई कहानी के स्वरूप को तय किया और कहानी में कल्पना को घटा कर यथार्थ का प्रतिशत बढ़ाया। इससे कहानी कला में नए आंदोलन आरम्भ हुए जैसे- अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी, समानांतर कहानी, सक्रिय कहानी तथा जनवादी कहानी। इसके साथ ही कहानी में विमर्श को पहचान दी जाने लगी और फिर लिखी गईं कहानियों को दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्डजेंडर विमर्श आदि नामों से रेखांकित किया जाने लगा। यह रेखांकन उनके विषय के आधार पर था। यदि शिल्प और संप्रेषण की चर्चा करें तो आधुनिक कहानी कला के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहती है प्रस्तुति की बारीकियों की। जब तक कोई कथाकार अपने चयनित कथानक के विषय की बारीकियों से तादात्म्य स्थापित नहीं करता है, तब तक वह कहानी को सही स्वरूप नहीं दे सकता है। आधुनिक यथार्थवादी कहानी तथ्यपरक होती है। कथानक तथ्य चाहे राजनीति का हो, समाज का हो, परिवार का हो या लैंगिक संबंधों का हो, सम्पूर्णता से प्रस्तुत किए जाने की मांग करता है। जैसाकि मैं हमेशा कहती हूं कि इसके लिए कहानीकार का अपने कहानी के पात्रों में कायांतरण आवश्यक होता है। 
ऊषा बर्मन की कई कहानियां मन को गहरे तक स्पर्श करती हैं। ‘‘जिगर का टुकड़ा’’, ‘‘खजूर का बंटवारा’’, ‘‘बेटियां तो पराई होती हैं’’, ‘‘मित्र मिलन’’, ‘‘शालिनी’’ आदि कुछ ऐसी कहानियां हैं जो समाज में व्याप्त धारणाओं एवं स्थितियों का सटीक विश्लेषण करती हैं। संग्रह में एक कहानी है ‘‘कलमकार’’। यह कहानी एक प्रभावी पैरा से आरम्भ होती है, जोकि इस प्रकार है- ‘‘चित्त खराब होता है तो चिंतन खराब होता है, चिंतन खराब होता है तो मन खराब होता है। मन खराब होता है तो तन खराब होता है। तन खराब होता है तो धन खराब होता है और धन खराब होता है तो सबकुछ खराब होता है। तन-मन-धन को बचाना है, दुश्मन को भगाना है। वो कहते हैं न पहला सुख निरोगी काया, दूसरी हो पास में माया।’’ 
      यह पैरा लेखिका के दार्शनिक पक्ष की समझ को सामने रखता है। यह पैरा बताता है कि लेखिका जीवन के मीठे, कड़वे अनुभवों को भली-भांति समझती है और उसे अपनी कहानी के माध्यम से साझा करना चाहती है। निःसंदेह, कई बार एक के अनुभव दूसरे के लिए सबक साबित होते हैं। फिर जीवन तो सतत सीखने का नाम है। व्यक्ति अनुभवों से ही सीखता है और एक कहानीकार अपने अथवा आत्मसात किए गए पराए अनुभवों को अपने कथापात्रों के द्वारा प्रस्तुत करता है, ताकि लोग उसे पढ़ें, समझें और उनसे कुछ सीख सकें। 
      इस संग्रह में एक कहानी है ‘‘मध्यस्थता’’। यह कहानी विवाहविच्छेद एवं कुटुम्ब न्यायालय के संदर्भ में है। यूं भी आजकल एकल परिवार के चलन ने पारिवारिक संबंधों को सरलीकृत करने के बजाए पेंचीदा बना दिया है। संयुक्त परिवार के जहां अपने नुकसान थे तो फायदे भी बहुत से थे। पति-पत्नी के बीच होने वाले झगड़ों को प्रायः घर के बुजुर्ग ही निपटा दिया करते थे। इसीलिए विवाहविच्छेद की स्थितियां कम बनती थीं। लेकिन आज पति-पत्नी के एकल परिवार में परस्पर संवाद और समझ-बूझ जब एक बार बिगड़ती है तो फिर वह बिगड़ती ही चली जाती है और स्थिति कटुता भरी हो जाती है। अपनी कहानी ‘‘मध्यस्थता’’ में लेखिका ने विवाहविच्छेद को सौजन्यतापूर्वक निपटाए जाने की पैरवी की है। पति-पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों में होने वाले मतभेद का ब्यौरा देते हुए लेखिका ने लिखा है कि-‘‘ बात छोटी थी पर स्वाभिमान पर कुठाराघात करने वाली थी। नीरा ने कोलगेट खत्म होने पर, उसे काटकर पेस्ट निकाला तो नीरज ने कह दिया कितनी छोटी हरकत करती हो, उसे फेंको और दूसरा निकाल लो। उस समय तो बात आई गई हो गयी पर नीरा के मन में छोटी हरकत जैसा छोटा-सा शब्द भी चुभ गया। एक और घटना नीरा की ननद नौकरी करती थी और मायके में उनके साथ में रहती थी तो वह नहाकर अपने अंतःवस्त्र तक भी नीरा को धुलने के लिये छोड़ जाती थी उसे आफिस की इतनी जल्दी होती थी। गलत तो गलत होता है पर नीरा ये सब भी करती रहती थी।’’
     जब ऐसी मामूली बातों पर झगड़े होने लगें तो यह मानना चाहिए कि अधिक समय तक परस्पर निर्वाह होना कठिन है। यदि दोनों पक्ष इस सत्य को स्वीकार कर रहे हों कि रिश्ते को निभाया नहीं जा सकता है तो सौजन्यता से और प्रेमपूर्वक अलग हो जाना ही उचित है। तलाक की प्रक्रिया को कटुता का रूप देने के बजाए आपसी समझ के साथ निपटा लिया जाए तो दो परिवारों के बीच का सौहार्द्र अलगाव के बाद भी बना रह सकता है। यह एक स्वस्थ दृष्टिकोण इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने आह्वानित किया है। 
हमारे जीवन में कोरोनाकाल एक ऐसा स्याह समय बन कर अपनी छाप छोड़ गया है कि उससे किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति आज तक प्रभावित है। लगभग हर रचनाकार ने कोरोना आपदा से जुड़ी कोई न कोई रचना अवश्य लिखी है क्योंकि इस आपदा ने हर रचनाकार की संवेदनाओं को झकझोर दिया था। कोरोना आपदाकाल में जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ था। काम-धंधे बंद हो गए थे। आर्थिक रूप से सबसे अधिक प्रभावित हुए थे दिहाड़ी मजदूर और छोटे-मोटे काम करके पेट पालने वाले। वे लोग भी प्रभावित हुए थे जिनकी आमदनी जनसंपर्क पर आधारित होती है, जैसे बीमा एजेंट। ‘‘एक पंथ दो काज’’ में ऊषा बर्मन ने अपनी कथानायिका वारुणी के जीवन की समस्याओं के माध्यम से कोरोना काल की विषमताओं तथा उन्हीं में से रास्ता निकाल लेने का ब्यौरा दिया है। कोरोना काल में एलआईसी एजेन्ट वारुणी का काम लड़खड़ा जाता है। फिर भी वह हिम्मत नहीं हारती है और परिस्थितियों का सामना करती है। 
        एक और कहानी है जिसकी मैं चर्चा करना चाहूंगी, वह है ‘‘बेटी का बाप’’। यह एक बहुत छोटी-सी कहानी है किन्तु लेखिका की गहन संवेदनाओं से परिचित कराती है। शादियों के कई रिसेप्शन में हम सभी आए दिन शामिल होते रहते हैं। अकसर तरह-तरह की बातें वहां सुनने को मिलती हैं। कई लोग रिसेप्शन में परोसे गए भोजन में मीनमेख निकालते सुनाई देते हैं। ऐसे लोग यह नहीं सोचते हैं कि हमारे देश में वैवाहिक समारोह ही कितना खर्चीला होता है। बाजारवाद के चलते वैवाहिक समारोहों में दिखावे का चलन बढ़ता ही जा रहा है। साधन सम्पन्न लोग सादगी को अपनाने के बजाए दिखावे को बढ़ावा दे कर मध्यम और निम्न मध्यमवर्ग के लिए और मुश्किलें खड़ी कर देते हैं। आज हर तबके में ‘‘अच्छी शादी’’ की मांग रहती है। जिसका अभिप्राय है भरपूर दिखावा और भरपूर खर्च। जबकि एक बेटी के पिता के लिए यह खर्च वहन करना बहुत कठिन होता है, फिर भी सामाजिक दबाव के चलते इस भेड़चाल में फंसना उसकी विवशता होती है। उस पर जब कोई व्यवस्था पर कटाक्ष करे तो यह अनुचित है। इसी स्थिति को लक्ष्य कर के लेखिका ने लिखा है कि ‘‘कितना आसान है ये कहना कि दहीबड़े स्वादिष्ट नहीं थे। रसगुल्ला में रस नहीं था। पूड़ियाँ मोटी थी या रोटियां जली हुई थी। सब्जियों में स्वाद नहीं था या फुल्की कड़क थी और पानी में पुदीना नहीं था।’’    
चूंकि ऊषा बर्मन मेरे ही शहर की हैं तथा उनसे मैं परिचित भी हूं अतः मुझे मालूम है कि वे बहुत यात्राएं करती हैं। यद्यपि उनकी अधिकांश यात्राएं धार्मिक होती हैं किन्तु वे यात्रा के दौरान मानवीय चेष्टाओं का आकलन करती रहती हैं। यह तथ्य उनकी कहानी ‘‘बस का सफर’’ में देखा जा सकता है जिसमें वे कहानी के आरम्भ में ही लिखती हैं कि-‘‘अक्सर ऐसा देखा जाता है कि बस पूरी तरह से भरी हुई है, पैर रखने को भी जगह नहीं है और दौड़ता भागता पैसेंजर बस में चढ़ता है कंडक्टर से पूछता है सीट है क्या ? कंडक्टर बड़े ही विश्वास के साथ कहता है। हां है, बस अगले स्टॉप पर मिल जायेगी । पैसेंजर खड़े खड़े ही जेब से पैसे निकालता है, पैसे देकर टिकिट भी ले लेता है और फिर आशान्वित होकर खड़ा रहता है अगले स्टॉप की चाह में। अगला, फिर अगला, फिर अगला करते करते कई स्टॉप निकल जाते हैं और कभी कभी तो उसका स्टॉप भी आ जाता है खड़े खड़े सफर करते हुये। बस में उसकी सवारियां बढ़ती जाती हैं और वह सबको इसी तरह बरगलाता रहता है। कुछ लोग समय पर पहुंचने की मजबूरी के चलते शांत रहते हैं और कुछ लोग आगबबूला भी हो जाते हैं गाली-गलौच भी करते हैं पर उसको क्या फर्क पड़ता है। उसका तो काम ही है अधिक से अधिक सवारियों को ढोकर, ज्यादा से ज्यादा धनराशि कमाना।’’
‘‘दिल का टुकड़ा’’ संग्रह में बहुत बड़ी कहानी कोई भी नहीं हैं, कुछ छोटी हैं तो कुछ बहुत छोटी। लेकिन इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि कहानी का आकार क्या है? यदि कहानी में ‘दम’ है तो वह छोटी हो कर भी गहरा प्रभाव छोड़ सकती है। ऊषा बर्मन की छोटी-छोटी कहानियां एक बड़ा संसार रचती हैं, एक ऐसा संसार जो यथार्थपरक है और विचारशील है। बेशक ऊषा के लिए अभी शिल्प को साधना बाकी है लेकिन इस संग्रह की कहानियों को देखते हुए उन्हें एक संभावनापूर्ण लेखिका कहा जा सकता है।  
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Monday, December 30, 2024

समय विकट है, कठिन है फिर भी साहित्य की उपलब्धियां इस बात का विश्वास दिलाती हैं कि उम्मीद अभी बाकी है। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, प्रलेस सागर, मकरोनिया इकाई, गोष्ठी

"समय विकट है, कठिन है फिर भी साहित्य की उपलब्धियां इस बात का विश्वास दिलाती हैं कि उम्मीद अभी बाकी है। यूनेस्को के मेमोरी ऑफ़ द वर्ल्ड कमेटी फॉर एशिया एंड द पैसिफिक के क्षेत्रीय रजिस्टर में वर्ष 2024 में हमारे देश की तीन कृतियों को शामिल किया गया है जो कि गौरव की बात है यह तीन कृतियां है- गोस्वामी तुलसीदास कृत "रामचरितमानस", विष्णु शर्मा कृत "पंचतंत्र" और आचार्य आनंदवर्धन कृत "सहृदयलोक-लोकन" अर्थात "ध्वन्यालोक"। इस तरह तीन भारतीय का यूनेस्को की संरक्षित पुस्तकों में शामिल किया जाना  हमारे लिए गौरव की बात है और यह सन 2024 की महत्वपूर्ण साहित्यिक उपलब्धि है।" ये विचार मैंने साझा किए कल शाम प्रगतिशील लेखक संघ सागर की मकरोनिया इकाई की वर्ष 2024 की अंतिम विचार गोष्ठी में।
   ❗️गोष्ठी की अध्यक्षता की प्रलेस सागर  के अध्यक्ष श्री टीकाराम त्रिपाठी जी ने। कुशल संचालन किया डॉ सतीश पांडेय जी ने तथा आभार प्रदर्शन प्रलेस सागर के सचिव पेट्रिस फुसकेले ने किया। 
      ❗️गोष्ठी में डॉ गजाधर सागर, श्री टीका राम त्रिपाठी, मैं डॉ सुश्री शरद सिंह, श्री पी आर मलैया, डॉ एम के खरे, श्री मुकेश तिवारी, श्री वीरेंद्र प्रधान, श्री पेट्रिस फुसकेले, श्रीमती दीपा भट्ट, सुश्री ज्योति झुडेले, डॉ सतीश पांडेय,श्रीमती नम्रता फुसकेले, श्री खरे, श्रीमती ममता भूर आदि ने भाग लिया। प्रथम चरण में वर्ष 2024  की उपलब्धियों एवं समस्याओं पर सभी ने अपने-अपने विचार रखें। द्वितीय चरण में रचना पाठ का कार्यक्रम हुआ। 
    ❗️ गोष्ठी में सर्वसम्मति से यह भी निर्णय लिया गया कि मकरोनिया में होने वाली प्रत्येक प्रलेस गोष्ठी में सुरक्षित रचना पाठ के साथ ही किसी भी विधा के किसी एक साहित्यकार की रचनाओं पर विचार विमर्श किया जाएगा। इस विमर्श श्रृंखला की शुरुआत आगामी बैठक में कबीर के कृतित्व पर विमर्श से की जाएगी।
     ❗️कार्यक्रम के अंत में स्थानीय दिवंगत साथियों सहित श्याम बेनेगल, जाकिर हुसैन एव़ं पूर्व प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह जी को श्रद्धांजलि दी गई।
    🙏 सभी छायाचित्रों के लिए भाई मुकेश तिवारी जी का हार्दिक आभार 🌹🙏🌹

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