Friday, December 27, 2024

शून्यकाल | स्त्री जागरूकता पर डॉ. आंबेडकर के विचार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -  
शून्यकाल

स्त्री जागरूकता पर डॉ. आंबेडकर के विचार
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

   आमतौर पर यही मान लिया जाता है कि बाबासाहेब आंबेडकर समाज के दलित वर्ग के उद्धार के संबंध में क्रियाशील रहे। अतः उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों के विषय में ही चिन्तन किया होगा। किन्तु आंबेडकर राष्ट्र को एक नया स्वरूप देना चाहते थे। एक ऐसा स्वरूप जिसमें किसी भी व्यक्ति को दलित जीवन न जीना पड़े। डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में वे सभी भारतीय स्त्रियां दलित श्रेणी में थीं जो कतिपय सामाजिक नियमों के कारण अपने अधिकारों से वंचित थीं।

         बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर यह भली-भांति समझ गए थे कि जब तक स्त्रियों का ध्यान शिक्षा की ओर नहीं जाएगा तथा वे अपने आत्मसम्मान को नहीं जानेंगी तब तक स्त्रियों का उद्धार संभव नहीं है। वे स्त्रियों को शिक्षा के महत्व से परिचित कराते थे। उन्होंने शिक्षा के साथ ही जीवन की उन बुनियादी बातों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया जिन पर आमतौर पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। वे जहां भी, जो भी समझाते, एकदम स्पष्ट शब्दों में, जिससे उनकी कही हुई बातों का स्त्रियां सुगमता से समझ जातीं और आत्मसात करतीं। डॉ. आंबेडकर ने महाड में चर्मकार समुदाय की स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ‘‘साफ-सुथरा जीवन व्यतीत करो। इसकी कभी चिंता न करो कि तुम्हारे वस्त्र फटे-पुराने हैं। यह ध्यान रखो कि वे साफ हैं। आपके वस्त्र की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता और न ही कोई तुम्हें जेवरात के चुनाव से रोक सकता है। अपने मन को स्वच्छ बनाने का ध्यान रखो और आत्म सहायता की भावना अपने में पैदा करो।’’
इसी सभा में डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि ‘‘तुम्हारे पति और पुत्र शराब पीते हैं तो उन्हें खाना मत दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। स्त्री-शिक्षा उतनी ही आवश्यक है जितनी कि पुरुष शिक्षा।’’  
डॉ. आंबेडकर जिन दिनों जनजागरण अभियान के अंतर्गत मध्यप्रदेश, मुंबई और मद्रास (अब चेन्नई) का तूफानी दौरा कर रहे थे, उन दिनों उन्होंने मालाबार में दलित समुदाय के स्त्रियों को अपने भाषण के द्वारा समझाया कि ‘‘तुम्हारे गांव में ब्राह्मण चाहे कितना भी निर्धन क्यों न हो अपने बच्चों को पढ़ाता है। उसका लड़का पढ़ते-पढ़ते डिप्टी कलेक्टर बन जाता है। तुम ऐसा क्यों नहीं करतीं? तुम अपने बच्चों को पढ़ने क्यों नहीं भेजतीं? क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारे बच्चे सदैव मृत पशुओं का मांस खाते रहें? दूसरों का जूठन बटोर कर चाटते रहे?’’
19 जुलाई 1942 को नागपुर में सम्पन्न हुई ‘दलित वर्ग परिषद्’ की सभा में उपस्थित हजारों स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था,‘‘‘नारी जगत् की प्रगति जिस अनुपात में हुई होगी, उसी मानदण्ड से मैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूं।’’ 
नागपुर सभा में ही डॉ. आंबेडकर ने ग़रीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली स्त्रियों से आग्रह किया था कि ‘‘आप सफ़ाई से रहना सीखो, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह की जल्दी मत करो और अधिक संताने पैदा मत करो। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति के कार्य में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए। लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुल कर विरोध करो, उसकी बुरी आदतों का खुल कर विरोध करना चाहिए और समानता का आग्रह करना चाहिए।’’
डॉ. आंबेडकर के इन विचारों को कितना आत्मसात किया गया इसके आंकड़े घरेलू हिंसा के दर्ज़ आंकड़ें ही बयान कर देते हैं। जो दर्ज़ नहीं होते हैं ऐसे भी हजारों मामले हैं। सच तो यह है कि स्त्रियों के प्रति डॉ. आंबेडकर के विचारों को हमने भली-भांति समझा ही नहीं। उनके मानवतावादी विचारों के उन पहलुओं को लगभग अनदेखा कर दिया जो भारतीय समाज का ढांचा बदलने की क्षमता रखते हैं। जिन चौराहों पर डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा पूरे सम्मान के साथ लगाई गई उनके आस-पास बसी बस्तियों में गंदगी के अंबार को वहां के निवासी ही दूर नहीं कर पाते हैं। गरीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों में बच्चों की संख्या के विषय में कोई रोक-टोक नहीं है। अधिक हुआ तो ‘जितने हाथ-उतना काम’ वाला मुहावरा ओढ़ लेते हैं। स्त्री-पुरुष की जिस समानता की कल्पना डॉ. आंबेडकर ने की थी वह भी बहुसंख्यक परिवारों में आज भी नहीं है। पुरुष घर का मुखिया है, स्त्री को बराबरी का आर्थिक अधिकार भी नहीं है, भले ही वह कमाऊ स्त्री हो। वे रुढ़िवादियों से इन प्रश्नों के तार्किक उत्तर पूछते थे कि क्यों स्त्रियों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाए? इस प्रश्न का सटीक एवं तार्किक उत्तर किसी के पास नहीं था। 
हिन्दू समाज में ही नहीं अपितु भारतीय समाज के सभी वर्गों की स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में डॉ. आंबेडकर ने ध्यान दिया। वे मुस्लिम समाज में स्त्रियों की पिछड़ी दशा के प्रति भी चिन्तित थे। आंबेडकर ने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुव्र्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा, ‘‘बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किए जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। हालांकि कुरान में वर्णित ग़ुलामों के साथ उचित और मानवीय व्यवहार के बारे में पैगंबर के विचार प्रषंसा योग्य हैं लेकिन इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। यदि गुलामी खत्म भी हो जाए पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जाएगी।’’ 
डॉ. आंबेडकर मुस्लिम स्त्रियों को गुलामों जैसी दशा से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने अपने लेखों में मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है। अतः भारतीय मुसलमानों को भी अपनी स्त्रियों की दशा सुधारने के बारे में विचार करना चाहिए। आगे चल कर डॉ. आंबेडकर के इन सकारात्मक विचारों का मुस्लिम समाज सुधारकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना की गई। डॉ. आंबेडकर स्त्री-पुरुष समानता के अग्रदूत थे। वे स्त्रियों विकास में बाधा के लिए धर्म व जाति प्रथा को दोषी मानते थे। वे जानते थे इन बाधाओं को संवैधानिक ढंक से ही दूर किया जा सकता है। उन्होंने जाति-धर्म व लिंग निरपेक्ष संविधान में उन्होंने सामाजिक न्याय की पकिल्पना की। हिन्दू कोड बिल के जरिए उन्होंने  संवैधानिक स्तर से महिला हितों की रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य किया । डा. आंबेडकर ने महिलाओं को मतदान करने का अधिकार प्रदान कर उनकी राजनैतिक अधिकारों की। हिन्दू समाज के लिए कोई पर्सनल लॉ नहीं था। भारतीय हिन्दू समाज में विवाह, उतराधिकार, दत्तक, निर्भरता या गुजारा भत्ता  आदि का नियम-कानून एक समान नहीं था। इसाई तथा पारसियों में एक समय में एक स्त्री से शादी का प्रावधान था। वहीं मुस्लिम समुदाय में चार शादियों को मान्यता प्राप्त है। लेकिन हिन्दू समाज में कोई पुरूष पर कोई सीमा नहीं थी। विधवा को मृत पति के संपत्ति  पर अधिकार नहीं था। सवर्ण समाज में विधवा विवाह की परंपरा नहीं थी। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रख कर हिन्दू कोड बिल तैयार किया गया जिसमें में हिन्दू विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम, गोद लेना (दत्तक  ग्रहण) अधिनियम,  हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, निर्बल तथा साधनहीन पारिवारिक सदस्यों का भरण पोषणउतराधिकारी अधिनियम, हिन्दू विधवा को पुनर्विवाह अधिनियम आदि का प्रवधान था। डॉ. आंबेडकर ने जैसे ही हिन्दू कोड बिल को संसद में पेश किया। संसद के अंदर और बाहर विरोध की लहर दौड़ गई। धार्मिक कट्टरपंथियों से लेकर आर्य समाजी तक डॉ. अंबेडकर के विरोधी हो गए। संसद में भी इस बिल का विरोध किया गया और सदन में इस बिल को सदस्यों का समर्थन नहीं मिल पा रहा था। किन्तु डॉ. अंबेडकर अडिग रहे। उनका कहना था कि- ‘‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिन्दू कोड बिल पास कराने में है।’’
डॉ. आंबेडकर ने विधेयक को विखंडित करके लागू किए जाने के विरोध में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमण्डल से अपना त्यागपत्र भी दे दिया था। अंततः सरकार को हिन्दू कोड बिल विधेयक पास करना पड़ा। हिन्दू कोड बिल के जैसा महिला हितों की रक्षा करने वाला विधान बनाना भारतीय कानून के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है।  न्यायशास्त्र की दृष्टि से ‘रामायण’ का विश्लेषण करते हुए किन्तु डॉ. अंबेडकर ने कहा कि ‘‘अगर राम और सीता का मामला मेरे कोर्ट में होता तो मैं राम को आजीवन कारावास की सजा देता।’’ उनके ये शब्द स्त्रियों के प्रति उनकी तीव्र मानवीयता की ओर संकेत करते हैं। स्त्रियों के लिए बाबासाहेब के जो भी विचार थे वह समस्त भारतीय स्त्रियों के लिए थे, मात्र किसी वर्ग विशेष की स्त्रियों के लिए नहीं।
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