Saturday, December 7, 2024

शून्यकाल | वैतरणी वह सांस्कृतिक संदेश है जो स्मरण कराता है नदीजल संरक्षण का | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -                    शून्यकाल
वैतरणी वह सांस्कृतिक संदेश है जो स्मरण कराता है नदीजल संरक्षण का
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                  
     वेदों में माना गया है कि हमें ब्रह्मांड में मौजूद सभी प्रकार के जल की रक्षा करनी चाहिए। नदियों के जल को सबसे अधिक संरक्षित माना गया है क्योंकि इनसे कृषि क्षेत्र की सिंचाई होती है जिससे प्राणियों का जीवन चलता है। नदियों का बहता हुआ जल शुद्ध माना जाता है। इसलिए नदियों को प्रदूषित नहीं करना चाहिए। वैदिक मान्यता के अनुसार जो व्यक्ति नदी के जल को नुकसान पहुंचाता है, वह कभी भी वैतरणी नदी (वैतरणी नदी) को पार नहीं कर सकता, जो मृत्यु के बाद मिलती है। चूंकि वैतरणी पार करने के बाद ही स्वर्ग प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए यदि वह वैतरणी पार नहीं कर पाता है तो उसे स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिलता है। यदि मानव संस्कृति का इतिहास देखें तो सारी सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुईं।
हिंदू वैदिक पौराणिक कथाओं के अनुसार वैतरणी नदी में भयानक कीड़े, मगरमच्छ और वज्र जैसी चोंच वाले गिद्ध रहते हैं। मृत्यु के बाद जब यमदूत पापी आत्मा को लेकर वैतरणी नदी से गुजरते हैं तो नदी का खून खौलने लगता है। जो प्रकृति और नदी के जल को नुकसान पहुंचाता है, ऐसा कहा जाता है कि जो जीवन में बुरे कर्म करता है, धर्म-कर्म, दान-पुण्य नहीं करता, उस पापी आत्मा को वैतरणी नदी पार करने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। जो नदी के जल को नुकसान पहुंचाता है, वह कभी भी वैतरणी नदी पार नहीं कर सकता, जो मृत्यु के बाद मिलती है। चूंकि वैतरणी पार करने के बाद ही स्वर्ग मिलता है, इसलिए अगर वह वैतरणी पार नहीं कर पाता है, तो उसे स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिलता है। गरुड़ पुराण के अनुसार नदी पृथ्वी के अलावा और भी कई जगहों पर बहती है। हम जिस नदी की बात कर रहे हैं वह यमलोक से नर्क तक बहती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस नदी का नाम वैतरणी नदी है जो 100 योजन यानि 120 किलोमीटर लंबी है और खून से भरी हुई है। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि इस नदी का एक हिस्सा धरती से होकर यमलोक और फिर वहां से नरक के द्वार तक जाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार जब कोई व्यक्ति मरता है तो उसकी आत्मा यमलोक में यमराज के सामने पेश की जाती है। अगर उसे उसके कर्मों के अनुसार नर्क मिलता है तो यमदूत उस पापी आत्मा को इसी नदी में ले जाते हैं। किसी भी पापी आत्मा को देखते ही नदी का खून उबलने लगता है और नदी भयंकर दहाड़ने लगती है। जो व्यक्ति जीवन में दान-पुण्य करता है, प्रकृति और नदी के जल को नुकसान नहीं पहुंचाता है, उसकी आत्मा की रक्षा वैतरणी नदी करती है। वैसे गरुड़ पुराण में वैतरणी के अतिरिक्त पुष्पोदका नामक नदी का भी उल्लेख है किन्तु वैतरणी को अधिक महत्वपूर्ण तथा अधिक भयानक बताया गया है।

दरअसल गरुड़ पुराण पक्षीरात गरुड़ और कृष्ण के मध्य संवाद पर आधारित है। गरुड़ के पूछने पर श्री कृष्ण कहते हैं कि “हे गरुड़ कुछ जीवात्मायें ऐसी भी होती हैं जिन्हें मृत्यु के पश्चात इसी वैतरणी नदी में रहना पड़ता है जैसे कि जो अपने जीवन काल में आचार्य, गुरु, माता-पिता, एवं अन्य वृद्ध जनों की अवमानना करते हैं उसे इसी महानदी में रहना होता है।”

धार्मिक ग्रंथों में वैतरणी नदी के अस्तित्व का उल्लेख इसी कारण किया गया होगा, ताकि मनुष्य प्रकृति और नदी के जल को नुकसान पहुंचाने से डरे और अच्छे कर्म करें, प्रकृति का संरक्षण करें, जल का संरक्षण करें, जैव विविधता की रक्षा करें। 'जलमेव जीवनम्!' भारतीय संस्कृति में जल और जलाशयों के महत्व को प्राचीन काल से ही स्वीकार किया गया है। जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे वैदिक साहित्य में जल के स्त्रोत, सभी जीवों के लिए जल का महत्व, जल की गुणवत्ता और उसके संरक्षण पर बहुत जोर दिया गया है। वेदों में जल को 'विश्वभेषजम्' कहा गया है, अर्थात जल में सभी औषधियां समाहित हैं (अर्थात शुद्ध जल सभी जीवों के लिए कितना लाभदायक, कल्याणकारी और महत्वपूर्ण है)। ऋग्वेद में जल के गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है-
"अप्स्वन्तरामृतमप्सु भेषजम्।"
- अर्थात जल में अमृत है, जल में औषधि है। दरअसल, आर्य संस्कृति नदियों के किनारे ही पुष्पित, पल्लवित और विकसित हुई। बड़े-बड़े प्राचीन नगर नदियों के किनारे ही समृद्ध हुए। जैसे सरयू के तट पर अयोध्या, क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जयिनी, त्रिवेणी के तट पर प्रयाग, यमुना के तट पर मथुरा आदि। पंजाब को सप्तसिंधु प्रांत कहा जाता है। वैदिक काल में सरस्वती नदी के तट पर रहकर और इसी नदी के जल का सेवन करके ऋषि मुनियों ने वेदों की रचना की और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया।

पवित्र नदियों की महिमा हजारों नामों से गाई जाती है। है। ऋग्वेद में दशम मंडल के नदी सूक्त में भारत में नदियों की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। - अर्थात जल में अमृत है, जल में औषधि है। दरअसल, आर्य संस्कृति नदियों के किनारे ही पुष्पित, पल्लवित और विकसित हुई। बड़े-बड़े प्राचीन नगर नदियों के किनारे ही समृद्ध हुए। जैसे सरयू के तट पर अयोध्या, क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जयिनी, त्रिवेणी के तट पर प्रयाग, यमुना के तट पर मथुरा आदि। पंजाब को सप्तसिंधु प्रांत कहा जाता है। वैदिक काल में सरस्वती नदी के तट पर रहकर और इसी नदी के जल का सेवन करके ऋषि मुनियों ने वेदों की रचना की और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया।

पवित्र नदियों की महिमा हजारों नामों से गाई जाती है। है। ऋग्वेद में दशम मंडल के नदी सूक्त में भारत में नदियों की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है।
गंगा यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमई सच्ता परुष्न्या।
आसिवकन्या मरुद्वृधे वितस्तायर्जिक्ये श्रानुह्य सुषोमया।।
घर पर स्नान करते समय पवित्र नदियों का नाम स्मरण करने की हमारी पवित्र परंपरा है। जैसा-
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेश्मिन सन्निधि कुरु।
- अर्थात 'हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी नदियों! तुम सब मेरे स्नान के लिये इसी जल में आओ।
गंगा सिन्धु सरस्वती सी यमुना गोदावरी नर्मदा
कावेरी सरयू महेंद्रतनया चर्मण्यवती वेदिका।
क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी प्रसिद्धि जया गंडकी
कुर्वन्तु में पूर्णः पूर्णजलैः समुद्रसहितः मंगलम्।
आदिग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित वेदों में जल को प्राणवान तत्व मानकर उसकी स्तुति की गई है। अथर्ववेद में जल को कल्याणकारी बताते हुए कहा गया है कि 'रेगिस्तान में जो जल है, तालाब में जो जल है, घड़े में जो जल लाया जाता है, वर्षा से जो जल प्राप्त होता है, ये सभी जल हमारे लिए कल्याणकारी हों। कुओं का जल हमें समृद्धि प्रदान करे। संग्रहित जल हमें समृद्धि प्रदान करे, वर्षा का जल हमें समृद्धि प्रदान करे। औषधि के रूप में जल को विभिन्न देशों के चिकित्सा, औषधि एवं चिकित्सा पद्धतियों के विज्ञान में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। चरक एवं सुश्रुत संहिता के साथ-साथ प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद एवं अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसके दर्शन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जल सभी रोगों की औषधि है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जो जल स्वर्ण के समान चमकने वाले रंग से परिपूर्ण, अत्यंत सुंदर, पवित्रता देने वाला है, जिससे सवितादेव और अग्निदेव उत्पन्न हुए, जो अग्निगर्भ का सर्वश्रेष्ठ रंग है, वह जल हमारे रोगों को दूर करने वाला है, सभी को सुख और शांति प्रदान करे। ऋग्वेद में जल संस्कृति का सतत प्रवाह है। ऋग्वेद की जल संस्कृति और परंपरा का विकास अथर्ववेद में भी मिलता है। जल सुखी और समृद्ध जीवन का आधार है। शतपथ ब्राह्मण में 'आपो वै प्राणः' कहकर जल को जीवन बताया गया है। सभी देवता जल में ही स्थापित हैं। देवताओं तक अपनी स्तुति पहुंचाने का साधन भी जल ही है।
संत कबीर ने भी यही कहा कि मनुष्य पंचतत्वों से बना होता है। मृत्यु होने पर ये पंचतत्व प्रकृति में मिल जाते हैं। इनमें एक तत्व है जल। कबीर ने कुम्भ को मनुष्य का अस्तित्व और जल को पंचतत्व मानते हुए यह पद कहा था, यद्यपि इसे धार्मिक दृष्टि से आत्मा और परमात्मा के मिलन के रूप में भी देखा जाता है किन्तु परमात्मा ही तो प्रकृति है-
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी। 
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी।।

वास्तव में बहते हुए जल यानी नदी के जल को सबसे पवित्र मानते हुए वेदों में नदी जल के संरक्षण पर जोर दिया गया है क्योंकि नदी ही एकमात्र ऐसा तत्व है जो जीवन के इस पार और उस पार विद्यमान है तथा मनुष्य को सुख और स्वर्ग प्रदान करती है। इसीलिए शास्त्रों में नदी जल को बचाने की अपील की गई है। यदि हम अपनी संस्कृति के मूल्यों के साथ प्रकृति को बचाना चाहते हैं हमें समझना होगा नदियों को बचाने की उस अपील को। यदि हम गंगा या अन्य नदियों को बचाएंगे तो हम वैतरणी को भी अपनी स्मृतियों में सांस्कृतिक मूल्यों की भांति बचा सकते हैं।                               
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