Tuesday, December 24, 2024

पुस्तक समीक्षा | राष्ट्र के अतीत और वर्तमान का सटीक आकलन करती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 24.12.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कर्नल पंकज सिंह जी के काव्य संग्रह "लहू से लिखे वे ग्यारह पन्ने" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा  
राष्ट्र के अतीत और वर्तमान का सटीक आकलन करती कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह   - लहू से लिखे वे ग्यारह पन्ने
कवि         - कर्नल पंकज सिंह
प्रकाशक     - एन.डी. पब्लिकेशन, बाधापुर पूर्व, नई दिल्ली   
मूल्य        - 200/- 
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    वर्तमान समय वैश्विकता का समय है। आज पूरे विश्व को एक ग्लोबल गांव की भांति देखा जाने लगा है। इंटरनेट के संजाल ने दुनिया के प्रत्येक भाग को परस्पर समीप ला दिया है। मनुष्य से मनुष्य का यह संपर्क विकास का एक अच्छा सोपान है। किन्तु इससे एक संकट अवश्य आ खड़ा हुआ है, वह है राष्ट्रीय चेतना का। ऐसा नहीं है कि वर्तमान युवा मानस में अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं है, प्रेम है किन्तु उस प्रेम के प्रति वह सघन अनुभूति नहीं है जो कि होनी चाहिए। यह राष्ट्रवाद का कट्टर स्वरूप नहीं अपितु वह आंतरिक प्रेरणा है जो राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना जगाती है। जो यह याद दिलाती है कि राष्ट्र से ही हमारी पहचान है। यदि राष्ट्र है तो हम हैं अन्यथा हमारी पहचान एक ग्लोबल शरणार्थी से अधिक कुछ भी नहीं बचती है। आज जब देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति अनुराग की भावना धुंधली पड़ती जा रही है, ऐसे दौर में अतीत की गौरव गाथाएं हैं जो धुंधले होते इस अनुराग की पुनस्र्स्थापना कर सकती हैं। जहां तक बात साहित्य की है तो काव्यजगत में वर्तमान के खुरदरे यथार्थ, विसंगतियों, विडंबनाओं एवं कुछ प्रतिशत श्रृंगार रस की कविताएं रची जा रही हैं। देशभक्ति एवं राष्ट्रप्रेम की कविताओं की प्रचुरता दिखाई नहीं पड़ती है। जबकि ऐसी कविताओं की आवश्यकता हर युवा पीढ़ी के लिए होती है ताकि उन्हें सरसता एवं रागात्मकता के साथ अतीत के गौरव और राष्ट्र-सम्मान से जोड़ा जा सके। इस संदर्भ में कर्नल पंकज सिंह का नवीनतम काव्य संग्रह ‘‘लहू से लिखे वे ग्यारह पन्ने"  एक महत्वपूर्ण कृति है। भारतीय सेना में पदस्थ कर्नल पंकज सिंह का यह दूसरा काव्य संग्रह ‘‘श्वास कितनी शेष है’’ की कविताओं में कुछ और भी विशिष्टता है। यह संग्रह जीवन दर्शन, प्राणोत्सर्ग की उच्चता के साथ ही वर्तमान जीवन की विडंबनाओं को लक्षित करने वाली कविताओं से परिपूर्ण है। अतीत से वर्तमान और वर्तमान का आकलन करता समग्र शाब्दिक आरेखन है इन कविताओं में।

कवि पंकज सिंह को पौराणिक ग्रंथों एवं महाकाव्यों का समुचित ज्ञान है जो कि उनकी कविताओं में स्पष्ट मुखरित होता है। महाभारत या इतिहास के किसी भी दौर से जब वे कथा एवं चरित्र उठाते हैं, तो उनको राष्ट्रीयता की दृष्टि से ही देखते और प्रस्तुत करते हैं। वे ‘‘महाभारत’’ के पात्रों में सबसे दृढ़पात्र भीष्म पर कविता लिखते हुए व्याख्यायित करते हैं कि सुख का वास्तविक अभिप्राय क्या है? कवि के अनुसार सत्य एवं आदर्श का पक्ष लेते हुए कष्ट सहना भी सुख का ही एक स्वरूप है -‘‘वहीं वे वृद्ध कंधे जो अचल अवलंब थे/आदर्श व्रत का ले समर में भी उठा/जाने किस बोधि से अभिभूत हों/रहें हैं भोग अब शरशैय्या सहर्ष।’’ 

राष्ट्रीयता के तारतम्य में वे इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि सबसे परम तीर्थ कौन-सा है। ‘‘परम तीर्थ’’ शीर्षक कविता में कवि ने रणभूमि को वह पुण्यक्षेत्र एवं परम तीर्थ कहा है, जहां हर सैनिक अपने प्रत्येक मोहपाश को तोड़ कर युद्धकर्म करता है - 
जहाँ श्रीकृष्ण उपस्थित हैं प्रतिपल, 
और गूंज रही है गीता भी। 
जहाँ निष्काम कर्म का पथ है, 
बड़ा सरल और सीधा भी।
जो सहज विजय माया पर करके, 
पाश मोह का तोड़ लड़े।
समर स्थली तो परमतीर्थ है, 
यहाँ सैनिक के चरण पड़े।
कवि पंकज सिंह की कविताओं में एक आंतरिक आंच है जो उनकी कई कविताओं में तपन का अहसास कराती है। कवि का अपना आकलन है, अपने सटीक तर्क हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता है। एक गीत तो हम सभी लगभग बाल्यावस्था से सुनते आए हैं- ‘‘दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग बिना ढाल...’’, इस गीत को ले कर कवि पंकज सिंह ने एक कविता ‘‘सत्य का स्वार्थ’’ में उन साहित्यकारों को ललकारा है जो सत्य को स्वार्थ के अनुरुप ढाल कर प्रस्तुत करते हैं। यह कविता बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल इस बहुचर्चित गीत के मानकों को तोड़ती है वरन साहित्य के सृजनकर्ताओं से भी आत्मावलोकन एवं आत्ममंथन का आग्रह करती है। ‘‘सत्य का स्वार्थ’’ कविता का एक अंश देखिए-
दे दी हमें आजादी 
बिना खड़ग बिना ढाल?
बंद करो
बहुत हुआ यह स्वांग 
ये जो आजादी के दिये
जल रहे हैं ना
ये क्रांतिकारियों के खून से रोशन हैं
तुम्हारी रगों के पानी से नहीं ।

कवि पंकज सिंह को किसी से द्वेष नहीं है, वे मात्र यही चाहते हैं कि सच पर झूठ का लेपन न किया जाए। संग्रह की शीर्षक कविता है ‘‘लहू से लिखे वे 11 पन्ने’’। यह कविता हृदय, मन और विचारों को आलोड़ित कर देने में सक्षम है। इस लम्बी कविता में कवि ने ‘‘प्रपंच के पंन्नों पर पाखंड गान’’ लिखने वालों को एक बार फिर ललकारा है। कवि की हर ललकार तर्क सहित है। हर तर्क में उदाहरण निहित है। ग्यारह पन्नों के विवरण देते हुए लिखी गई इस कविता का आरम्भ हुआ है 1857 के ‘‘कुचा चालान’’ से। फिर नाना साहब का संघर्ष, नील की खेती का शोषणअध्याय, कूका सिखों का बलिदान, अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों का अमानवीय दमन, चौरीचौरा कांड, आजाद हिंद फ़ौज़ के युद्धबंदियों की हत्या, नेवी विद्रोह के बाद किया गया कत्लेआम का स्मरण कराया है। प्रस्तुत है बानगी स्वरूप कविता का एक छोटा-सा अंश-‘‘हमें स्वतंत्रता मिली अहिंसा से/रक्त विहीन आंदोलन से?/क्रान्ति का ज्वालामुखी/तब ही फट सकता है/जब उसमें लहू का लावा उबल रहा हो।/सैकड़ों जलियांवाला बागों में/हमारे करोड़ों देशवासियों का/गर्म रक्त बहा है, उनके प्राण चढ़े हैं।’’ 

‘‘राज़, जो दफ़न हो जाएंगे’’, इस कविता में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जीवन और मृत्यु के रहस्य को कवि ने केन्द्र में रखा है। ‘‘चंद्रशेखर आज़ाद की मां’’, ‘‘तोपें और जौहर’’ और ‘‘क्रांतिकारी पुत्र का पत्र पिता के नाम’’ ऐसी हृदयस्पर्शी कविताएं हैं जो बलिदान की गहनता और पवित्रता से परिचित कराती हैं। पंकज सिंह ने क्रांतिकारी महावीर सिंह राठौर के संदर्भ में कविता लिखते हुए कविता के पूर्वकथन में लिखा है-‘‘महान क्रांतिकारी महावीर सिंह राठौर शरीर से जीतने बलिष्ठ थे, उनका आत्मबल उतना ही दृढ़ था। उन्होंने अपने पिताजी को पत्र लिख कर विवाह न करने और क्रान्ति की राह पर जाने की अनुमति मांगी पिता और पुत्र के ये पत्र भारतीय संस्कारों की महानता को दर्शाते हैं।’’ ‘‘क्रांतिकारी पुत्र का पत्र पिता के नाम’’ कविता में शब्दों का चयन और भावनाओं का संस्कार भावविह्वल कर देने वाला एवं प्रशंसनीय है-
हे तात् आपके चरणों में 
सादर वंदन मैं करता हूँ, 
बनी रहे आशीष आपकी 
मैं यही निवेदन करता हूँ।
कुछ तो है शब्दों की मर्यादा 
कुछ मेरे अंतस के भाव गहन, 
पर समझ सकेंगे सहज मुझे 
हूँ रक्त आपका मैं पावन।

‘‘मां’’ कविता में कवि ने मां के बिछोह तथा वर्तमान परिवेश में मां के प्रति संतानों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार शब्दों में पिरोया है। कवि ने लिखा है-‘‘पढ़ लेता था खत तेरे मां,/ बिन खोले ही।/ अब क्यूँ करता हूं इंतजार,/तेरे चेहरे की झुर्रियां कुछ बोलेंगी।/कुछ बोल न दें, /यही सोच कर सहमा जाता हूं। /अपने हृदय के कलुष में /अकुलाता हूँ।/था कच्चा आंगन कच्ची दीवारें, /पर तेरे आंचल की छत थी। /अब अपने घर में ज्यादा लगता है /मां की खातिर एक कोना भी।’’

भावनाओं के विविध रंग इस संग्रह की कविताओं में हैं। गौरवपूर्ण अतीत है तो मुसीबतों से जूझता संकटग्रस्त वर्तमान का चित्रण भी है। जैसे एक कविता है-‘‘जिंदगी लड़ती है’’। यह कविता सिद्ध करती है कि दायित्वबोध, देशप्रेम, गौरवशाली कथाओं के साथ ही वर्तमान जीवन की दारिद्र्य पूर्ण स्थितियां भी कवि कर्नल पंकज सिंह के संज्ञान में हैं। वे यह भली-भांति जानते हैं कि एक आम नागरिक के लिए जीवन भी एक संग्राम है और इस संग्राम में डटे रहना उसका प्रारब्ध है। इस कविता की दृश्यात्मकता को इन कुछ पंक्तियों में अनुभव किया जा सकता है, जो सत्य की कठोरता से गुज़र कर मुखर हुई हैं-
जिंदगी लड़ती है। 
पड़ी अस्पताल में खटिया पर, 
हुई रक्त से गीली तकिया पर, 
रिसते हुए सिलेंडर से, 
हठ सासों का करती है.... 
जिंदगी लड़ती है...

कर्नल पंकज सिंह की कविताओं के मुख्य दो स्वर हैं - पहला राष्ट्रीय गौरव तथा दूसरा सत्यनिष्ठा पूर्ण यथार्थ का आग्रह। भाषा का ओज, कविताओं में समाज और राष्ट्र के लिए आह्वान, विचारों का विस्तार इस संग्रह की कविताओं की अनन्यतम विशेषताएं हैं। उनकी राष्ट्रीयता सर्वकालिक एवं सर्वव्यापी है। वे राष्ट्रीयता के अपने विचार को किसी परिधि में नहीं बांधना चाहते हैं। उनकी कविता में भावनाओं की गूँज और अनुगूँज दोनों मौज़ूद हैं। सबसे बड़ी बात कि कवि पंकज सिंह राष्ट्रीय गौरव को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प हैं। इस संग्रह की कविताओं में राष्ट्र के अतीत और वर्तमान का समुचित एवं सटीक आकलन है जो पाठकों को पसंद आएगा।  
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