Wednesday, December 25, 2024

चर्चा प्लस | 25 दिसम्बर, जन्मदिवस विशेष | अटल जी के विचार धर्मस्थलों के राजनीतिक उपयोग पर | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
25 दिसम्बर, जन्मदिवस विशेष ....
अटल जी के विचार धर्मस्थलों के राजनीतिक उपयोग पर 
     - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘जो राजनीति को सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं या सम्प्रदाय को राजनीति के साथ सम्बद्ध करते हैं, वे अंतःकरण से असाम्प्रदायिकता के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते। फिर चाहे वे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कितने ही भाषण दें, अधिवेशन में बैठ कर लम्बे-लम्बे प्रस्ताव पास करें। आज राजनीति और सम्प्रदाय को मिलाने के फिर से प्रयत्न हो रहे हैं। अगर इनको रोका नहीं जा सका तो देश में साम्प्रदायिकता फिर से सिर उठाएगी और हमारी स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता के लिए एक भयंकर संकट खड़ा हो जाएगा।’’- यही तो कहा था अटल बिहारी वाजपेयी ने जो सर्वकालिक सटीक आग्रह कहा जा सकता है।
 
    धार्मिक स्थलों का राजनीतिक मामलों के लिए उपयोग किया जाना चाहिए या नहीं? यह एक विवाद का प्रश्न रहा है। एक पक्ष सहमत होता है तो दूसरा असहमत। इस ज्वलंत प्रश्न पर अटल बिहारी वाजपेयी ने 17 फरवरी, 1961, लोकसभा में धर्मस्थलों का राजनीतिक उपयोग करने से रोकने के सम्बन्ध में प्रस्ताव के अंतर्गत भाषण देते हुए अपने जो विचार प्रकट किए थे, वे इस प्रकार थे-
‘‘सभापति जी, 
मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए खड़ा हुआ हूं, यद्यपि चाहता हूं कि प्रस्ताव के अंतर्गत प्लेसस आॅफ पिलग्रिमेज का,े तीर्थ के जो स्थान हैं, उनको लाने के सम्बन्ध में प्रस्तावक महोदय को फिर से विचार करना चाहिए। जहां तक पूजा के स्थानों का राजनीतिक प्रचार के लिए दुरुपयोग रोकने का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते और अगर हम भारतीय गणराज्य के असाम्प्रदायिक स्वरूप को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो इस सम्बन्ध में हमारे सामने अंतिम निर्णय लेने की स्थिति आ गई है। जिन परिस्थितियों में देश का विभाजन हुआ, विभाजन के जिन दुष्परिणामों को हम अभी तक भूल नहीं सके हैं, उनको ध्यान में रख कर हमें ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकना है जो राष्ट्रीय एकता को दुर्बल करती हैं, भारतीय गणराज्य के असाम्प्रदायिक स्वरूप पर कुठाराघात करती हैं और देश में फिर से साम्प्रदायिकता के उन्माद का जागरण करती हैं।
‘‘हमने एक असाम्प्रदायिक राज्य का निर्माण किया है। इसका स्वाभाविक पर्याय यह है कि राजनीति और सम्प्रदाय को अलग-अलग रखा जाना चाहिए। जो राजनीति को सम्प्रदाय के साथ जोड़ते हैं या सम्प्रदाय को राजनीति के साथ सम्बद्ध करते हैं, वे अंतःकरण से असाम्प्रदायिकता के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते। फिर चाहे वे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कितने ही भाषण दें, अधिवेशन में बैठ कर लम्बे-लम्बे प्रस्ताव पास करें। आज राजनीति और सम्प्रदाय को मिलाने के फिर से प्रयत्न हो रहे हैं। अगर इनको रोका नहीं जा सका तो देश में साम्प्रदायिकता फिर से सिर उठाएगी और हमारी स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता के लिए एक भयंकर संकट खड़ा हो जाएगा। 
‘‘हमने लोकतंत्रात्मक मार्ग का अवलम्बन किया है। किसी भी सम्प्रदाय को स्वतंत्रता है कि वह राजनीतिक दल का निर्माण करे, खुले मैदान में आकर चुनाव लड़े, अपनी आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर विचार करे। इसके लिए मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे या गिरजाघर में जाकर आंदोलन चलाने की क्या आवश्यकता है? मुझे ताज्जुब हुआ कि श्री सरहदी साहब ने जहांगीर के काल का उदाहरण दिया। समय बीत गया है। यह केवल सिख बन्धुओं के लिए ही सही नहीं है। अतीत काल में स्वतंत्रता के लिए जितने संघर्ष हुए, वे सब धर्म के साथ जुड़े हुए थे लेकिन आज पूजा की पद्धति को और राजनीति को जोड़ने का कोई औचित्य नहीं है। हां, गुरुद्वारे में बैठकर, मंदिर में बैठकर अगर पूजा करने में कोई कठिनाई उत्पन्न होती है, राज्य की ओर से कोई भेद-भाव की नीति बरती जाती है, शुद्ध धार्मिक मामलों में, तो उसका विचार हो सकता है लेकिन मस्जिदों में चुनावों के सम्बन्ध में फतवे दिए जाएं, गुरुद्वारों से एक पृथक राज्य के निर्माण का राजनीतिक और साम्प्रदायिक आंदोलन चलाया जाए, गिरजाघरों को भारत की एकता को खंडित करने का केन्द्र बनाया जाए और फिर उसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप लोग मंदिरों में भी राजनीतिक गतिविधियों को ले जाने का प्रयत्न करें, इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। तेरह वर्ष हुए देश का विभाजन हुए।’’
(सांसद नवल प्रभाकर के इस हस्तक्षेप पर कि, ‘आर. एस. एस. की मीटिंगें मंदिरों में ही होती हैं।’)
‘‘आर.एस.एस. कोई राजनीतिक दल नहीं है और मेरा निवेदन है कि अगर होता हैं तो वह भी गलत हैं और वह चीज भी बंद होनी चाहिए, और जब मैं इस बात का समर्थन करता हूं तो आर. एस. एस. भी बचने वाला नहीं है मगर कांग्रेस के माननीय सदस्यों में यह नैतिक साहस होना चाहिए कि इस प्रस्ताव का वे समर्थन करें, मगर यह वे नहीं कर सकते। वे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध भाषण दे सकते हैं मगर चुनाव लड़ने के लिए साम्प्रदायिक तत्वों से समझौता करते हैं। वे राष्ट्रीयता की बात करते हैं मगर दलों के स्वार्थों को बलि पर नहीं चढ़ा सकते। यही कारण है कि तेरह वर्ष के बाद भी साम्प्रदायिकता फिर से पनप रही है और यह तब तक नहीं मिटेगी जब तक कि हम इस साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में कभी न समझौता करने वाला दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे।
‘‘कोई भी दल हो, पूजा का कोई भी स्थान हो, उसको अपनी राजनीतिक गतिविधियां वहां चलाने की छूट नहीं होनी चाहिए। अभी कहा गया है कि राजनीतिक गतिविधियों की परिभाषा क्या हो, किसे कहा जाए कि यह राजनीतिक गतिविधि है और किसे कहा जाए कि यह नहीं है। मेरा निवेदन है कि केन्द्रीय सरकार ने अपने कर्मचारियों के लिए नियम बना रखे हैं कि वे राजनीति में भाग नहीं ले सकते। यह परिभाषा की कठिनाई उनके सामने तो नहीं आती है। सरकार का कोई कर्मचारी अगर राजनीतिक गतिविधि में भाग लेता है तो उसे दण्ड भोगना पड़ता है और अगर कोई परिभाषा की कठिनाई है भी तो उस पर बैठ कर विचार किया जा सकता है। उसके सम्बन्ध में लोगों की राय ली जा सकती है और एक ऐसी सर्वसम्मत परिभाषा बनाई जा सकती है, जिसके अंतर्गत सत्ता प्राप्ति को या राजनीतिक चुनाव लड़ने को इसमें शामिल करते हुए बाकी के सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध न लगे। 
‘‘इसके लिए आवश्यक है कि इस प्रस्ताव की मूल भावना से सब सहमत हों। राजनीतिक गतिविधियों की परिभाषा नहीं हो सकती, इसलिए धार्मिक स्थानों में राजनीति चलती रहे, इस चीज को स्वीकार करने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। सिद्धांत के रूप में मैं चाहता हूं कि हम स्वीकार कर लें कि समय आ गया है कि पूजा के स्थान राजनीति के अड्डे न बनाए जाएं और फिर इसके लिए कैसा कानून बनाया जाए, उसकी परिभाषा क्या हो, उसकी परिधि क्या हो, ये विचार के विषय हो सकते हैं। इन पर मिल बैठ कर गम्भीरता से सोच सकते हैं। 
‘‘मेरा निवेदन है कि राष्ट्रीय एकता पर जो संकट है, कोई भी राष्ट्रवादी उसकी ओर से आंखें नहीं मूंद सकता और यह संकट भिन्न-भिन्न रूपों में खड़ा है। मेरा निवेदन है कि हम किसी भी सम्प्रदाय की साम्प्रदायिकता को बर्दाश्त न करें। चाहे वह कम संख्या वालों की हो, चाहे अनेक संख्या वालों की। जो नियम बनते हैं, वे सबके लिए एक से होते हैं मगर देखा गया है कि पंजाब में गुरुद्वारों में पुलिस नहीं जा सकती पर चंडीगढ़ के आर्यसमाज मंदिर में पुलिस प्रवेश कर सकती है। अगर नियम बने हुए हैं तो सभी के लिए एक से होने चाहिए। अभी जालंधर में आर्यसमाज मंदिर में प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी, जबकि महीनों तक गुरुद्वारों का उपयोग क्या एक साम्प्रदायिक आंदोलन को चलाने के लिए नहीं होता रहा है?
‘‘वह रोक उठा ली गई है, इसका मैं स्वागत करता हूं। मैं इस बात का समर्थन नहीं करता कि आर्यसमाज के मंदिरों में राजनीतिक गतिविधियां चलें। मैं कहता हूं कि किसी को भी इस तरह की कार्रवाई करने का अधिकार नहीं होना चाहिए, फिर चाहे वो गुरुद्वारे हांे, चाहे आर्यसमाज मंदिर हों या दूसरे धर्मस्थान हों। इस सम्बन्ध में हमें कट्टरता और कठोरता की नीति अपनाने की आवश्यकता है। अगर हमने इस नीति को नहीं अपनाया तो असाम्प्रदायिक राज्य स्थापित करने का हमारा स्वप्न कभी भी सत्य नहीं हो सकेगा। 
‘‘देश के विभाजन से भी अगर हम शिक्षा नहीं लेंगे, राजनीति को मजहब से अलग नहीं रखेंगे, इस सम्बन्ध में जनमत की भावना का कानून के रूप में प्रयोग नहीं करेंगे तो केवल यह कह कर कि जनमत जाग्रत किया जाए, कोई अधिक परिणाम नहीं निकल सकता। मैं पूछना चाहता हूं कि हिन्दू कोड बिल के बारे में जनमत कितना जाग्रत किया गया था? हिन्दू कोड बिल तो बन गया मगर सिविल कोड बिल अभी तक नहीं बना है। गुरुद्वारों में पुलिस प्रवेश नहीं कर सकती, आर्यसमाज मंदिरों में कर सकती है। मस्जिदों में चुनाव जीतने के लिए फतवे दिए जा सकते हैं, विदेशी मिशनरी गिरजाघरों में बैठकर राष्ट्रीय एकता विच्छेदन करने के षड्यंत्र कर सकती हैं और इन सब चीजों को आज बर्दाश्त किया जाता है। अगर इन संकटों को हम आज भी नहीं समझेंगे तो हमारी स्वतंत्रता और हमारी राष्ट्रीयता की रक्षा नहीं हो सकेगी।
‘‘मैं कहना चाहता हूं कि यह प्रस्ताव नहीं है, यह शासन को कसौटी पर कसा जा रहा है और एक-एक कांग्रेसी की राष्ट्रीयता को मानो आज चुनौती दी जा रही है। अगर वे चाहते हैं कि राजनीति का साम्प्रदायिकता में प्रवेश नहीं होना चाहिए तो इस प्रस्ताव का उनको समर्थन करना चाहिए, वरना कहा जाएगा कि वे राष्ट्रीय एकता की बातें तो कर सकते हैं मगर उसके निर्माण के लिए कदम नहीं उठा सकते। धन्यवाद!’’
अटल बिहारी वाजपेयी के लोकसभा में इस भाषण से साफ पता चलता है कि वे धार्मिक स्थलों को समान राजनीतिक दृष्टि से देखे जाने के पक्षधर थे तथा धार्मिक स्थलों का राजनीति से दूर रहना उचित समझते थे।
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