Tuesday, December 10, 2024

पुस्तक समीक्षा | मौन को स्वर और शब्द देते गीत-नवगीत | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 10.12.2024 को 'आचरण' में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई योगेन्द्र वर्मा ‘‘व्योम’’ जी के काव्य संग्रह की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा 
मौन को स्वर और शब्द देते गीत-नवगीत
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह- मौन को सुन कर कभी देखो
कवि         - योगेन्द्र वर्मा ‘‘व्योम’’
प्रकाशक     - पंछी बुक्स,एफ-19, गली नं.4, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य        - 299/-
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   ‘‘हिंदी गीत का इतिहास मानव सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है। जिस तरह सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में बदलाव आते गए, उसी तरह गीतों के कथ्य और स्वरूप में भी बदलाव देखे जा सकते हैं। यह ऋचा-गीतों से लेकर हिन्दी नवगीत तक में जाँचा परखा जा सकता है। यह अलग बात है कि वह लंबे समय तक कंठ में ही पड़ा रहा और लिपि के विकास के साथ उसने नए रूप में आना आरंभ किया। इसे मोटे तौर पर संस्कृति के ‘गीत-गोविंद’ से जोड़कर भी देखा जा सकता है।’’ यह कथन है वरिष्ठ गीतकार माहेश्वर तिवारी का, जो उन्होंने गीत-नवगीत संग्रह ‘‘मौन को सुन कर कभी देखो’’ की भूमिका में लिखा है। ‘‘मौन को सुन कर कभी देखो’’ कवि योगेन्द्र वर्मा ‘‘व्योम’’ का गीत-नवगीत संग्रह है। योगेन्द्र वर्मा ‘‘व्योम’’ ने काव्य की विभिन्न विधाओं में सृजन किया है। दोहा, हायकू, ग़ज़ल, मुक्तक तथा गीत एवं नवगीत - इन सभी में उन्होंने अपनी भावानाओं को व्यक्त किया है। कवि व्योम के नवीनतम काव्य संग्रह ‘‘मौन को सुन कर कभी देखो’’ में उन्होंने जीवन में बिखरते मौन को शब्द और स्वर दे कर संवाद के योग्य बनाने का सुंदर प्रयास किया है। 

‘‘संवेदना के युगबोधी आयाम’’ शीर्षक से कवि व्योम की रचनाओं पर आलेखात्मक विचार रखते हुए कवि मधुकर अष्ठाना ने लिखा है कि ‘‘नवगीत लोक-जीवन की यथार्थ संवेदना से अभिसिंचित होते हुए नगरीय बोध से लेकर राष्ट्र की सीमा के भी आगे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों तक अपनी उपस्थिति द्वारा हस्तक्षेप करता है। इसी प्रकार नवगीतकार भी अपने परिवेश के प्रति जागरूक तथा अस्तित्व के प्रति सतर्क रहता है। परिवेश तथा समकालीन जीवन के प्रति यही सजगता उसके सृजन में नवीनता को प्रोत्साहित करती है। यही कारण है कि व्यक्तिगत अनुभूति होते हुए भी उसकी सर्जना में व्यक्तिवादिता का अभाव होता है। इसी संदर्भ में योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों में आधुनिक भावबोध, नवीन सौन्दर्यबोध, यथार्थ अनुभूति की सहजता, महानगरीय जीवन का संत्रास, आर्थिक विवशता, सांस्कृतिक संकट, मूल्यों की अग्निपरीक्षा, आस्था के निकश, अनास्थाओं की भीड़, कुंठित ग्रंथियों की निराशा, वेदना, घुटन, पीड़ा सब कुछ है और इन सबको नूतन भंगिमा में अभिव्यंजित करने की ललक है, जिनके मध्य से आशा की किरणें झाँकती प्रतीत होती हैं।’’

वस्तुतः साठवें दशक के आसपास जब कविता नई कविता के रूप में विकसित हो रही थी तब गीत का स्वरूप नवगीत के रूप में विकसित हुआ। गीत ने तुक और छंद के बंधन शिथिल किए और नवगीत के रूप में नवीनता की ओर बढ़ा। राजेन्द्र प्रसाद सिंह नवगीत का प्रवर्तक माना जाता है। यद्यपि 1955-56 से पूर्व नया गीत, सामने आ चुका था, पर उसे अलग पहचान तब मिली जब ‘‘नवगीत’’ नाम दिया गया। नवगीत में डॉ. शम्भूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, त्रिलोचन, राजेन्द्र गौतम, नईम आदि अग्रणी नाम रहे हैं। नवगीत की सबसे बड़ी विशेषता रही कि इसने छांदासिकता में लचीलेपन को अपनाया और छायावाद एवं रहस्यवाद से आगे बढ़ते हुए यथार्थवाद को अपनी कहन बनाया। कवि योगेन्द्र वर्मा ‘‘व्योम के नवगीतों में यही नूतनता देखी जा सकती है।  

संग्रह का पहला गीत है ‘‘मौन को सुनकर कभी देखो’’। इस गीत में वर्तमान स्थितियों का सटीक वार्णन करते हुए कवि ने आह्वान किया है कि जो कुछ बाजारवाद की चकाचैंध के रूप में दिखाई दे रहा है, उससे परे भी देखा जाना चाहिए, जहां यथार्थ ध्वनित हो रहा हो और संवेदनाएं अभी जीवित हों-
मौन को
सुनकर कभी देखो
रूह भीतर
गुनगुनाती है।
जिन्दगी का गीत गाती है
झूठ के
सुख-साधनों को तज
छल भरे आश्वासनों को तज
रोग बनते /जा रहे हैं जो
शोर के विज्ञापनों को तज
मौन को /चुनकर कभी देखो
रूह भीतर /खिलखिलाती है
जिन्दगी का गीत गाती है।
इलेक्ट्रानिक क्रांति ने जीवन में सुविधाओं को विस्तार कर दिया है किन्तु इसका स्याह पक्ष भी है। इसने संवाद का अवसर तो दिया किन्तु संवाद और संवेदनाएं छीन लीं। बड़ों के बीच अबोलेपन की दूरियां बढ़ा दीं और बच्चों से उनका बचपन छीन लिया। इस कड़वे सच को कवि व्योम ने ‘‘कोरे कागज-सी’’ नवगीत में बड़ी बारीकी से सामने रखा है-
मोबाइल में
उलझी मुनिया
भूली शैतानी।
कोरे कागज-सी /निश्छल है
भोली है मन की /घर भर को
महकाने वाली /खुशबू आँगन की
पता नहीं क्यों /रहती फिर भी
रूखी-अन्जानी।
कोरोना महामारी ने अभिशाप और उससे उपजी मनुष्यत्व की भावना का जो पाठ पढ़ाया उसे कम से कम इस पीढ़ी के वे लोग कभी नहीं भूल सकेंगे जिन्होंने अपने जीवन में इसे महसूस किया या फिर बहुत निकट से इसे देखा। बड़ी संख्या में लोगों को असमय मरना, मजदूरों का विस्थापन, कामबंद होने से उत्पन्न भुखमरी आदि की पीड़ा भुलाई नहीं जा सकती है। इस पीड़ा की मार्मिकता ‘‘खत रोटी के नाम’’ नवगीत में कवि ने व्यक्त की है-
आज सुबह फिर
लिखा भूख ने
खत रोटी के नाम
एक महामारी ने/आकर
सब कुछ छीन लिया/जीवन की
थाली से सुख का
कण-कण बीन लिया
रोज स्वयं के लिए/स्वयं से
पल-पल है संग्राम।
कुछ पाने में दशकों लग जाते हैं किन्तु खोने मे पल भर की भी समय नहीं लगता है। लगभग हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी व्यवसाय में हो लगभग साठ वर्ष की आयु तक रोजी-रोटी की धुन में नर्तन करता रहता है। फिर वरिष्ठजन की सीमा में प्रवेश करते ही उसे अहसास होता है कि वह अब अपने अब तक के प्रयासों से थक चुका है और जो पा सकता था, वह पा चुका है। इसके बाद आरंभ होता है उसके जीवन का द्वितीय चरण जिसे वह अपने लिए जीना चाहता है। इस भावना को ‘‘फिर घर की बुनियाद’’ नवगीत में कुछ इस तरह अभिव्यक्ति दी गई है-
जीवन का
असली सुख मिलता
साठ साल के बाद।
दफ्तर वाली/दौड़ धूप से
मुक्ति मिलेगी अब
अनचाही-अनदेखी
बंदिश/नहीं रहेगी अब
ना तनाव का/झंझट होगा
ना कोई अवसाद।
‘‘पिता आलपिन-से’’ नवगीत में कवि ने परिवार के प्रति समर्पित पिता की भूमिका का शब्दचित्र खींचा है-‘‘आने वाले/कल को उजला/करने की खातिर/अनुशासन की/फटी डायरी/सिलते हैं फिर-फिर/चुभते हैं/पर जोड़े रखते/पिता आलपिन-से।’’
कवि गीतकार योगेन्द्र वर्मा ‘‘व्योम’’ के गीत-नवगीत जीवन में सुखों के अवरोह में अपने शब्दों की ऊर्जा का आरोह गढ़ते हैं। वे मौन को शब्द और स्वर देते हैं। वे अपने नवगीतों के माध्यम से वर्तमान का गहन आकलन करते हैं। कवि व्योम के नवगीत शब्दों की समुच्चय मात्र नहीं भावनाओं के ज्वार हैं जो जीवन के गहरे समुद्र के खारे पानी वाले तलछट से आशा का मोती भी चुन लाना चाहते हैं। कवि व्योम की नवगीत शिल्प पर अच्छी पकड़ है जिससे सभी नवगीत सरस एवं प्रवाहपूर्ण हैं। इनका लालित्य एवं मधुरता मन को छूती है तथा सत्यता विचारों को उद्वेलित करती है। काव्य में गीतात्मकता को बचाए रखने की दिशा में भी यह एक उत्तम कृति है।      
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