Thursday, December 19, 2024

बतकाव बिन्ना की | मुतकी किसां आएं जा गुरसी की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
------------------------
बतकाव बिन्ना की
मुतकी किसां आएं जा गुरसी की
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
    जाड़ो आओ औ गुरसी की याद आन लगत आए। कोऊ ईको गुरसी कैत आए तो कोऊ ईको गोरसी कैत आए। नांव कोनऊं लेओ मनो, काम एकई रैत के जो ठंडी से बचाउत आए। संकारे भौजी को संदेसा आओ के संझा खों उनके घरे मोए पौंचने। काय से के उनके इते गुरसी जलाई जैहे। बे गुरसी जला भी सकत आएं, काय से के उनके घर के भीतर को खुलो आंगन ईके लाने भौतई बढ़िया आए। ऊपर से खुलो होबे से दम घुटबे को डर नईयां। ने तो बंद कमरा में गुरसी जला लेओ तो कओ दम घुट जाए। 
संझा के जब मैं भैयाजी के इते पौंची तो उते देख के जी खुस हो गओ। उते नओ औ पुरानो को गजब को मेल दिखानो। भौजी ने उते खटिया और कुर्सियां डाल रखी हतीं। खटिया पे अच्छी पतरी सी पल्ली बिछी हती औ कुर्सियिन पे सोई गदरियां धरी हतीं। जीसे नैचे से ठंडो ने लगे। बा खटिया औ कुर्सियन के बीचो-बीच घड़ा रखे की तिपाई घांई एक तिपाई धरी हती। ओई तिपाई पे घड़ा की जांगा गुरसी धरी हती। मने कुर्सी औ खटिया पे बैठ के आगी तापो औ मजे करो। इत्तई नईं, उतई एक कुर्सी के लिंगे एक टेबल धरी हती जीपे मोंपफली और कछू औ खाबे की चीजें धरी हतीं। उतई नैंचे एक टुकनिया धरी हती जीमें मोमफली को छिलका मैंको जा सकत्तो। इत्तो नोनो इंतजाम देख के तो मोरो जी गार्डन-गार्डन हो गओ।
‘‘भौजी, आपने सो इते गजबई को इंतजाम कर रखो आए। इत्तो तो मैंने सोचई ने हतो।’’ मैंने भौजी की तारीफें करीं।
‘‘अरे हमने सोची के अब ज्यादा देर कोनऊं से नैचे नईं बैठो जात, सो काए ने ऊपर बैठबे को इंतजाम करो जाए। जेई से हमने गुरसी ऊपर जमा लई आए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, हमने इने जे सब जमात देखो तो हम दौड़ के मोंमफली ले आए। गुरसी के ऐंगर बैठ के भुनी मोंमफली खाबे को मजोई कछू औ रैत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मोय ने पता रई, ने तो मैं सोई कछू ले आती।’’ मोय उते की व्यवस्था देख के तनक सकोंच सो लगो।
‘‘इते सब आए, तुमें कछू लाबे की जरूरत नईं हती। हम तो चाय बनाबे को बी जुगाड़ करे बैठे। चलो, आओ बैठो, जिते बैठने होय।’’ भौजी बोलीं।
मैंने एक कुर्सी पकड़ी औ ऊपे जम गई। गुरसी में अच्छे बड़े-बड़े कंडा धरे हते। संगे चैलियां सोईं लपट दे रई हतीं। मैंने अपनी गदेलियां गुरसी के आंगू कर दईं। रामधई बड़ो अच्छो लगो, गरम-गरम।
‘‘बिन्ना तुमें पता के शहरन में जे गुरसी को चलन कैसो चलो।’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नईं, मोय नईं पतो। बाकी मैंने कछू किसाएं तो सुन रखी आएं।’’मैंने भैयाजी से कई।
गुरसी को घेर के बैठे हों औ किसां-कहानी की बतकाव ने चले, भला जे कैसे हो सकत?
‘‘चलो हम तुमें एक किसां सुनात आएं।’’ कैत भए भैयाजी किसां सुनान लगे। बे बतान लगे के एक राजा हतो। ऊको भौतई बड़ो महल रओ। इत्तो बड़ो के ऊमें सौ ठइयां हाथी समा जाएं। राजा के सोबे के लाने अच्छी गद्दा-पल्ली बिछी करत्ती। उनके कमरा में मुतकी मशालें जला दई जात्तीं जोन से उनको कमरा जड़कारे में गरम रैत्तो। एक दार का भओ के राजा चलो शिकार खेलबे के लाने। जंगल में पौंच के बा दिन भर शिकार के पांछू-पांछू इते-उते भगत रओ सो ऊको ठंड ने लगी। मनो संझा होत-होत बा थक गओ औ ऊको ठंड लगन लगी। तभई ऊको समझ आई के बा तो रास्ता भटक गओ आए। ऊके सबरे सिपाई को जाने कां रै गए। अब राजा करे तो का करे? अंदियारो घिरबे के संगे ऊको औ जाड़ो लगन लगो। तभई बा भटकत-भटकत एक झोपड़ी के लिंगे पौंचो। ऊने झोपड़ी को दरवाजा खटखटाओ। दरवाजा खुलो तो ऊमें एक डुकरिया निकरी।
‘‘तुम को आ? औ इते काए आए?’’ डुकरिया ने राजा से पूछी।
‘‘हम इते के राजा आएं। निकरे हते शिकार के लाने, मनो अब भटक के तुमाए दोरे आ गए। घनो जाड़ो लग रओ। जो तुमने हमें झोपड़ी में जांगा ने दई तो हमाए प्रान कढ़ जैहें।’’ राजा ने डुकरिया से कई।
‘‘सो, कढ़ आओ भीतरे।’’ डुकरिया एक तरफी हटत भई बोली।
राजा झोपड़ी के भीतरे पौंचो तो ऊको जा देख के भौतई अचरज भओ के उते ऊके राजमहल से ज्यादा गरम हतो। बाकी गरमी पा के राजा के प्रान लौटे। 
‘‘लेओ तुम हमाए पलका पे सो जाओ। काय से के तुमसे नैंचे ने सोत बनहे। औ हमाए इते एकई पलका आए।’’ डुकरिया ने अपने पलका की तरफी इसारा करो।
राजा ने देखो के बो कैबे भर को पलका हतो। चार ठों लकरियां के ऊपरे पटिया बांध के पलका बना लओ गओ हतो। ऊपे तनक सो भूसा बिछो हतो। डुकरिया ने राजा के लाने बा भूसा पे अपनो एक फटो सो हुन्ना बिछा दओ। औ दूसरो हुन्ना चदरा घांई ओढ़बे खों दे दओ। राजा पलका पे लेट गओ। उते ऊको औ गरम लगो। उते एकऊ मशालें ने हतीं। बस, एक छोटी सी ढिबिया जल रई हती। फेर जे गरमी कां से आ रई? राजा सोचन लगो।
राजा खों सोच-फिकर में परो देख डुकरिया ने ने ऊसे पूछी के को सोच रए? तो राजा ने पूछई लओ के जे गरमी कां से आ रई? जा सुन के डुकरिया मुस्कान लगी। ऊने राजा से कई के तनक पलका के नैंचे झांक के देखो। राजा ने पलका के नैचे  झांक के देखो तो उते ऊको एक मिट्टी को तसला घांई बरतन दिखानो। ऊ बरतन में गोबर के कंडा सुलग रए हते। बोई की गरमी से पूरी झुपड़िया गरमा रई हती। राजा बा देख के दंग रै गओ। ऊने पूछी के जे का आए? तो डुकरिया ने बताई के जे गुरसी आए। मिट्टी में भुसा मिला के बनत आए। ईको गोबर से लीपो जात आए। ईमें कंडा औ चैलियां जलाई जात आएं। जा जान के राजा भौत खुस भओ। बा थको हारो तो हतई, सो कछू देर में ऊको गहरी नींद आ गई। भुनसारे ऊकी नींद खुली तो ऊने डुकरिया को ईनाम में अपनी अंगूठी देनी चाही, पर डुकरिया ने लेबे से मना कर दई। तब राजा ने ऊसे कई के तुम हमाई अंगूठी भर नोईं हमाई माला बी रख लेओ, मनो हमें अपनी गुरसी दे देओ। डुकरिया ने राजा ने ऊकी कछू चीज ने लई औ अपनी गुरसी ऊको भेंट में दे दई। तब लौं राजा के सिपाई ऊको ढूंढत भए उते आ गए। संगे एक मंत्री सोई हतो। 
राजा ने मंत्री से कई के जा जांगा देख लेओ औ ई डुकरिया के लाने इते अच्छो सो मकान बना देओ। कछू नौकर-चाकर बी रखवा दइयो, जोन को खर्चा हम देबी। ईके बाद राजा गुरसी ले के अपने महल चलो गओ। महल में पौंच के ऊने दिन भर अपनो जरूरी काम-काज करो औ संझा होतई सात गुरसी ले के अपने कमरा में बैठ गओ। ऊने कंडा मंगाए, गुरसी जलवाई औ तापन लगो। कछू देर में जा बात ऊके पूरे राज में फैल गई। फेर का हतो, सबने गुरसी बनाई औ जला-जला के तापन लगे। ई तरां से डुकरिया की गुरसी को चलन चल निकलो। आज की बोली में कई जाए के डुकरिया की गुरसी वायरल हो गई औ हिट हो गई। 
‘‘सो, जा हती गुरसी की किसां।’’ - भैयाजी बोले।            
‘‘भौतई नोनी हती। हमें सोई एक किसां पता। बाकी बा कल सुनाबी।’’ मैंने कई।
‘‘हमें सोई पतो। हम परों सुनाबी।’’ भौजी बोलीं।
‘‘औ का, जा गुरसी की मुतकी किसां आएं।’’ भैयाजी बोले।  
फेर हम ओरें मोंमफली खात भए, चाय पियत भए इते-उते की बतियात रए। रात के बारा बजत-बजत भैयाजी मोए पौंचाबे के लाने मोरे घर लौं आए। भौजी ने तो कई रई के उनई के इते रै जाओं, लेकन मैंने मना कर दई। भैयाजी के जाबे के बाद मैं सोचन लगी के गुरसी के संगे कित्ती बतकाव हो गई। जबके आजकाल टीवी औ मोबाईल के आगूं मों बांध के सबरे बैठे रैत आएं।                                                                                                                   
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के ई बारे में, के जे गुरसी कैसे सबखों जोड़े राखत रई।   
 -----------------------------   
#बतकावबिन्नाकी  #डॉसुश्रीशरदसिंह  #बुंदेली #batkavbinnaki  #bundeli  #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम  #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat

No comments:

Post a Comment