Wednesday, December 31, 2025

चर्चा प्लस | 100 के मुकाबले 140 : कैसी थी 2025 में भारतीय राजनीति की धुरी | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस
100 के मुकाबले 140 : कैसी थी 2025 में भारतीय राजनीति की धुरी
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                             
  दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र भारत। एक मजबूत छवि के साथ दुनिया के सामने खड़े रहने की आकांक्षा। इस सबसे बड़े गणतंत्र के राजनीति की हमेशा  प्रमुख दो धुरी रही है एक कांग्रेस और दूसरी भाजपा या फिर अतीत में जनसंघ। एक ने 140 साल पूरे किए हैं तो दूसरी पार्टी भाजपा की समर्थक आरएसएस ने 100 साल। लेकिन सन 2014 से बदले हुए समीकरण ने कांग्रेस पार्टी को इस तरह विपक्ष के हाशिए पर पटका कि वह अब तक पृष्ठ के मध्य में आने के लिए हाथ-पांव मार रही है। उस पर उसका दुर्भाग्य कि उसके स्तम्भ कहे जाने वाले कद्दावर नेता एक-एक कर के मुखौटा उतार कर दूसरे खेमे की राह लेते जा रहे हैं। यानी जिन्हें बचाना था कश्ती, वही ला रहे हैं जलजला। कांग्रेस के लिए आने वाला साल ‘लास्ट मैन स्टेंडिंग’ में किसके भरोसे रहेगा यह तो वर्ष 2026 ही बताएगा, बहरहाल 2025 बहुत कुछ स्पष्ट कर चुका है। 
       

    

       कांग्रेस कमर कस रही है आगामी 5 जनवरी को ‘मनरेगा’ के मामले को मुद्दा बनाने के लिए। मनरेगा से महात्मा गांधी के नाम को हटाए जाने पर आपत्ति है। आपत्ति स्वाभाविक है। होनी भी चाहिए। किन्तु कई लोगों के मन में सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि आपत्ति का स्वर उठाया गया तो फिर खुल कर विरोध में इतना अंतराल क्यों? क्या है कांग्रेस की रणनीति? या फिर उसके पास कोई रणनीति है ही नहीं? ऐसे कई प्रश्न हैं जो कांग्रेस को घेरे रहते हैं कि कांग्रेस का नेतृत्व बदलेगा या नहीं, यदि बदलेगा तो कब बदलेगा? वैसे इस दौरान कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 140 साल पूरे किए हैं और आरएसएस ने पूरे 100 साल। सभी जानते हैं कि भाजपा को आरएसएस से हमेशा समर्थन मिला है और भाजपा के अनेक नेता ऐसे हैं जो आरएसएस के सक्रिय कार्यकर्ता एवं पदाधिकारी हैं। इसमें कोई बुराई नहीं क्योंकि भाजपा और आएसएस के मूल सिद्धांतों और भाजपा के सिद्धातों में गहरा एक्य है।
28 दिसंबर को कांग्रेस पार्टी की स्थापना को 140 साल पूरे हो गए। इसके पूर्व 2 अक्टूबर 2025 को आरएसएस ने अपने 100 साल पूरे करने का उत्सव मनाया है। आरएसएस को कुछ देर के लिए परे रख कर यदि भाजपा की बात की जाए तो भाजपा एक अजेय पार्टी के रूप में अपनी छवि बना कर डटी हुई है। वहीं कांग्रेस का ग्राफ निरंतर गिरा है। जबकि आकलनकर्ताओं ने लगातार कांग्रेस को चेताने की कोशिशें की हैं। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस में एक स्पार्क दिखाई दिया था लेकिन झारखंड छोड़ कर बाकी राज्यों में करारी हार के सिलसिले ने जो कांग्रेस का दामन थामा तो वह 2025 में भी गिरावट के ग्राफ के रूप में दिखा। यह भी कहा जा सकता है कि वर्ष 2025 कांग्रेस के लिए पनौती रहा। विपक्षी इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की स्थिति कमजोर दिखी। वर्ष 2025 में राहुल गांधी ने “वोट चोरी” को मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन बात बनी नहीं।
कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी नहीं है लेकिन दुर्भाग्य से मुद्दे को उठाने के लिए दमदार आवाज नहीं है, नेतृत्व नहीं है। जो कठोर निर्णय कांग्रेस को लेने चाहिए थे वे उसने नहीं लिए। जिसमें नेतृत्व का प्रश्न भी बहुत कठोर है। वर्ष 2026 में कांग्रेस को सोचना होगा कि उसके लिए पार्टी का अस्तित्व महत्वपूर्ण है या नेतृत्व? एक कमजोर नेता पार्टी की नैया को पार नहीं लगा सकता है। या यूं कहा जाए कि जिसके नेतृत्व पर जनता भरोसा ही नहीं कर पा रही है उसके साथ कैसे खड़ी हो सकेगी? इसी मुद्दे पर बार-बार प्रियंका गांधी का नाम भी सामने आता रहा है किन्तु उनके द्वारा संभावना जता कर ठिठके रहना, उनके प्रति भी भरोसा तोड़ने न लगे। जहां तक तोड़-फोड़ का प्रश्न है तो भाजपा को इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करने पड़ रहे हैं। कांग्रेस के विकेट खुद ही गिरते जा रहे हैं। शशि थरूर ग्लोबल अभिव्यक्ति की चमक से खुद को नहीं रोक सके और अब मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह का सुर बदल रहा है। कैलाश विजयवर्गीज और दिग्विजय सिंह के संवाद कांग्रेस के भविष्य को और स्पष्ट कर रहे हैं।  

इस समय कांग्रेस की मात्र तीन राज्यों में सरकार है। इनमें हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में तो फिर भी ठीक है किन्तु लेकिन कर्नाटक में सीएम की कुर्सी को लेकर सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच का द्वंद्व कांग्रेस को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त है। झारखंड में जेएमएम की सरकार में कांग्रेस भले ही साथ खड़ी है लेकिन वहां भी असंभावित कुछ भी नहीं है।

वर्ष 2026 में कांग्रेस के लिए अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना होगा। सौभाग्य से नए साल में राज्यसभा की करीब दस सीटों पर कांग्रेस को स्वयं को साबित करने का अवसर मिलेगा। इनमें कर्नाटक से तीन, तेलंगाना से दो, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश से एक-एक सीट कांग्रेस को मिल जाए तो यह आॅक्सीजन का काम करेगा। कांग्रेस के सामने अधिक विकल्प नहीं हैं फिर भी उसे साथी चुनने में सावधानी बरतनी होगी। ्श
वर्ष 2026 में 5 विधानसभा चुनाव होंगे। इनमें केरल, असम और पुडुचेरी में कांग्रेस को सीपीएम को कड़ी टक्क्र देनी होगी जोकि 10 वर्ष से अपना प्रभुत्व जमाए हुए है। यह काम कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगा। इस चुनाव में कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन महासचिव और राहुल गांधी के सबसे करीबी नेता केसी वेणुगोपाल की प्रतिष्ठा दांव पर लगेगी। असम और पांडुचेरी में भी कड़ा संषर्ष रहेगा।

कांग्रेस के लिए कुछ महत्वपूर्ण सीटों पर जीत हासिल करने से भी बड़ी चुनौती है अपने आंतरिक संगठन की। यदि देखा जाए तो 100 साल वर्सेस 140 साल में 100 साल वालों का पलड़ा भारी रहा है और आज भी है। आरएसएस का जन्म कांग्रेस के बाद हुआ जिसका श्रेय उसके संस्थापक हेडगेवार को जाता है। इस दल ने एक श्रेष्ठ संगठन की भांति सारे राजनीतिक झंझावातों को झेला है और अपने अस्तित्व को बचाए रखा। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि इस दल में एक गहन अनुशासन है जिसकी कमी कांग्रेस में निरंतर होती गई। किसी भी संगठन के लिए स्वेच्छाचारिता आ आचरण घातक होता है। कोई भी हाईकमान तब अर्थवान होता है जब उस हाई कमान के आदेशों का निःशंक हो कर पालन किया जाए। यह बात कांग्रेस में लगभग नहीं बची है। प्रजातांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर इस तथ्य को सही ठहराने का प्रयास भले ही किया जाए किन्तु सच यही है कि हर दल अथवा संगठन एक अनुशासन मांगता है तथा समर्पण मांगता है। विगत वर्षों में भाजपा में कई ऐसे दिग्गजों को किनारे किया जाता हुआ सभी ने देखा। साथ ही यह भी देखा कि उन्होंने विशेष प्रतिकार नहीं किया। उन्होंने यही साबित किया कि संगठन उनके लिए महत्व रखता है, निज श्रम का प्रतिफल नहीं। यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि इसी मुद्दे पर भाजपा के कई दिग्गज पार्टी को छोड़ सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके उलट कांग्रेस के कई दिग्गज तो शायद न्योते की प्रतीक्षा में ही पलक पांवड़े बिछाए हुए थे। जैसे ही न्योता मिला वैसे ही चे छलांग लगा कर भाजपा की शरण में पहुंच गए। उनके लिए व्यक्तिगत लाभ बड़ा था, पार्टी का संगठन नहीं। इस विषय पर उनके अपने तर्क हो सकते हैं किन्तु भाजपा के आरएसएस बैकग्राउंड वाले दिग्गजों ने किसी तर्क का सहारा नहीं लिया और अपनी प्रतिबद्धता पार्टी के प्रति बनाए रखी। कांग्रेस के नेताओं ने भाजपा के इस आचरण से कोई सबक नहीं लिया।
कांग्रेस सोशल मरडिया पर इतनी ट््रोल की जाती है कि अब तो गोया उसे ट््रोल होने की आदत पड़ गई है। विगत दिनों दो तस्वीरें आईं, जो टृ्रेंडिग करती रहीं। एक तस्वीर में में कांग्रेस की सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला समेत पक्ष-विपक्ष के कई नेताओं के साथ मुस्कुराते हुए चाय की चुस्की ले रही थीं। दूसरी तस्वीर में प्रियंका सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के साथ हिमाचल की सड़कों को लेकर और केरल में अपनी प्राथमिकताओं पर चर्चा कर रही थीं। यूं तो इन दोनों तस्वीरों में कोई विशेष बात नहीं थी क्योंकि संसदीय टी-पार्टी के दौरान ऐसी अनेक तस्वीरें सामने आती हैं किन्तु ट््रोलर्स ने यह प्रश्न उछाल कर इसे भी मजाकिया बना दिया कि कहीं कांग्रेस नेतृत्व ही भाजपा में शामिल होने की तैयारी तो नहीं कर रहा है? निःसंदेह यह बिना सिर पैर का मजाक था लेकिन सोशल मीडिया की अंधभक्त जनता में से कई लोग इसे ले कर मन में भ्रम पाल सकते हैं। कुछ यह भी सोच बैठे कि सब आपस में मिले हुए हैं और जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। यह भ्रांति भाजपा की संहत के लिए तो अच्छी थी किन्तु कांग्रेस की सेहत के लिए नहीं। इसके पीछे कांग्रेस की कोई विशेष सोच थी अथवा बिना सोचे-समझे दिया गया पोज़? कांग्रेस कब झांकेगी अपने गिरेबान में? यह प्रश्न भी सोशल मीडिया पर बार-बार उठता रहा है। इस प्रश्न का मकसद यह नहीं रहा कि भाजपा के प्रति कोई दुराव है, अपितु यह प्रश्न उन लागों के द्वारा उठाया गया जो मानते हैं कि प्रजातांत्रिक मूल्यों के बचाव के लिए एक सशक्त विपक्ष जरूरी है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा जब दीर्घकाल तक विपक्ष में रही तब भी उसने एक जिम्मेदार विपक्षी की भूमिका निभाई थी। क्या अब कांग्रेस में इतनी क्षमता बची है कि वह भाजपा के वर्तमान नेतृत्व की दृढ़ता में सेंध लगा सके? इस विषय पर अमिताीा बच्चन की सुपरहिट फिल्म ‘‘दीवार’’ का सुपरहिट डायलाग याद आता है जिसमें अभिताभ शशि कपूर के सामने अपने रसूख की सूची गिनाते हुए पूछते हैं कि मेरे पास इतना सब कुछ है और तुम्हारे पास क्या है? तो शशि कपूर शांत भाव से उत्तर देते हैं कि मेरे पास मां है। ठीक इसी तरह कांग्रेस के 140 सालाना इतिहास के सामने भाजपा कह सकती है कि मेरे पास आरएसएस है। भले ही आरएसएस का इतिहास छोटा है किन्तु यदि कांग्रेस उससे सबक ले तो समझ सकेगी कि इतिहास के वर्षों की गिनती से अधिक महत्व होता है संगठन की मजबूती का, राजनीतिक संगठन में तो और अधिक।

बहरहाल यह वर्ष 2026 बताएगा कि किसने किससे क्या सीखा। राजनीति में सब कुछ संभव है बशर्ते संभव बनाने की कूवत हो। अंत में बकौल इब्ने इंशा -

इक साल गया, इक साल नया है आने को
पर वक़्त का अब भी होश नहीं दीवाने को।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 31.12.2025 को प्रकाशित) 
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