Friday, December 26, 2025

शून्यकाल | ‘सम्मान’ का बदलता हुआ समाजशास्त्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल
‘सम्मान’ का बदलता हुआ समाजशास्त्र
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

      सम्मान पाना, सम्मानित होना सभी को अच्छा लगता है क्योंकि यह उसके अच्छे कार्यों की सामाजिक स्वीकृति की घोषणा होती है। लेकिन स्वयं सम्मान का समाजशास्त्र विगत एक डेढ़ दशक में बदल चुका है। आरोप लगते हैं कि सम्मान खरीदे गए, सम्मान उत्कोच के रूप में दिए गए, भाई-भतीजावाद अपनाया गया  आदि- आदि। कुछ सम्मान को असम्मान की दृष्टि से देखते हुए लौटा भी देते हैं। इन दोनों श्रेणियों की गहराई में जाना विशद विषय है। चूंकि मैंने साहित्य में वाद अथवा खेमे को नई अपनाया अतः सभी से मेरा कुछ न कुछ संवाद रहा। वर्तमान में तो सोशल मीडिया के सौजन्य से सम्मानों की बाढ़ आई हुई है। अक्तूबर - दिसम्बर, 2015 के ‘‘सामायिक सरस्वती’’ के संपादकीय में मैंने बतौर कार्यकारी संपादक सम्मान के बदलते समाजशास्त्र पर टिप्पणी की थी, उसका कुछ अंश इस लेख में शामिल है। पढ़िए और विचार कीजिए कि ‘सम्मान’ आखिर है क्या?
     ‘सम्मान’... मात्र एक शब्द नहीं  अपितु सामूहिक भावनाओं की ऐसी अदरांजलि है जो किसी व्यक्ति को उसके कृतित्व के लिए अर्पित की जाती है। व्यक्ति सिर्फ़ माध्यम होता है और कृतित्व अथवा कर्म उसका मूल..., इसीलिए जब कोई व्यक्ति अपने सम्मान को लौटाता है तो उसके तारतम्य में स्वाभाविक रूप से अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। उचित-अनुचित का गाढ़ा चिन्तन उफनती  नदी के जल के समान बह निकलता है। जहां विचार हैं वहां चिन्तन भी होगा और जहां चिन्तन है वहां विचार भी होंगे। वाद-विवाद स्वस्थ सांस्कृतिक परिदृश्य का द्योतक होता है। जहां वाद-विवाद न हो तो वहां यदि कुछ हो सकता है तो सिर्फ़ तानाशाही। भारतीय लोकतंत्र में उचित और अनुचित को मापने की जितनी मुखर स्वतंत्रता है, उतनी विश्व के किसी और देश में नहीं। अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता भारतीय संविधान की सबसे प्रमुख विशेषता है किन्तु यही विशेषता इस बात का भी आग्रह करती है कि आवेश में आ कर कोई भारतीय नागरिक स्वतंत्रता का इस तरह भी उपभोग न करने लगे कि जिससे वैश्विक पटल पर देश अपमानित होने लगे। व्यक्ति जिस देश में जन्म लेता है उस देश की यदि सुख-सुविधा और संस्कृति उसे विरासत में मिलती है तो उस देश के दुख, कष्ट और विसंगतियां भी उस व्यक्ति के हिस्से आती हैं, जिन्हें स्वीकार करते हुए उन्हें दूर करने अथवा दुरुस्त करने के रास्ते निकालना भी उस व्यक्ति का नागरिक कत्र्तव्य होता है। जिस तरह जन्मदात्री मां का कोई विकल्प (क्लोन) नहीं हो सकता, उसी तरह अपनी मातृभूमि का भी कोई विकल्प अथवा क्लोन नहीं हो सकता है। इसीलिए समस्याओं से घबराकर पलायन के विचारों को मन में प्रश्रय क्यों दिया जाए? अडिग रह कर ही समस्याओं का हल ढूंढा जा सकता है, विचलित हो कर नहीं। बहरहाल, ‘सम्मान’ अर्जन का भाव है विसर्जन का नहीं। इस संदर्भ में रहीम का यह दोहा याद आ रहा है-
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।    
पानी गए न  उबरै  मोती,  मानुष चून।।

इलेक्ट्रानिक माध्यम ने साहित्य का बहुत भला किया है, वहीं कुछ न होने योग्य भी हो रहा है। सोशल मीडिया की अनेक शाखाएं फल-फूल रही हैं। उनमें नए साहित्यकारों एवं नूतन साहित्य की बाढ़ आई हुई है। जैसाकि बाढ़ का पानी अपने साथ सब कुछ बहा लाता है-अच्छी रेत, उपजाऊ मिट्टी घातक मलबा और विषैले तत्व भी। उपजाऊ मिट्टी खेती को हरा-भरा कर देती है किन्तु विषैली वस्तुएं अथवा मलबा खड़ी फसल को भी मिटा देते हैं। जिन खेमों के लिए मूर्धन्य साहित्यकार आपस में परस्पर एक-दूसरे को कोसते रहे, उन्हीं खेमों के असंख्य छोटे-छोटे रूप उग आए हैं। अनेक मठाधीश नवोदितों को साहित्य के पहाड़े सिखा और पढ़ा रहे हैं किन्तु अपने हिसाब से। जहां तक सम्मान का प्रश्न है तो इनमें कागज और छपाई का भी व्यय नहीं है, समारोह का खर्चे का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। सुबह रचना पटल पर आती है और शाम तक एक सम्मानपत्र पटल पर चमचमाने लगता है। लुभावना परिदृश्य है। यह परिदृश्य साहित्य का कितना भला कर रहा है यह तो सभी जानते हैं। जब सम्मान और त्वरित ख्याति की भूख सृजन पर हावी होने लगे साहित्य किसी चौराहे पर उधार का बच्चा गोद में लिए भीख मांगती भिखारिन की भांति दिखाई देने लगता है। 

        जो कल था वह आज भी हो, यह आवश्यक नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं है कि जो आज है वह आगामी कल में भी रहेगा। फिर भी कुछ होने का भाव, कुछ खोने के भाव को भी अपने साथ ले कर आता है। जैसा कि एस. आर. हरनोट ने अपनी कहानी ‘लिटन ब्लाॅक गिर रहा है’ के कथानक की विषय-भूमि में पाया कि लार्ड लिटन के नाम पर शिमला में बनाया गया लिटन ब्लाॅक भवन  अपने निर्माण के लगभग सौ वर्ष से भी अधिक समय के बाद जर्जर हो गया और जब उसे वर्ष 2010 में उसे गिराया गया तो ऐसा लगा गोया एक युग ढह गया। एक निर्जीव इमारत के प्रति इतनी संवेदना कि उसके ढहने पर युग ढहने जैसा महसूस हो, वस्तुतः यही तो वह मानवीय चेतना है जो अन्य प्राणियों से मनुष्य को श्रेष्ठ सिद्ध करती है। समय, मूल्य अथवा व्यक्ति किसी को भी खो देना मानवीय चेतना के लिए सबसे बड़ी पीड़ा का विषय होता है। 
भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो विपरीत धुरी की तरह स्थापित रहे हैं। बेशक दोनों के विचारमूल्यों में हमेशा टकराव होता रहा है किन्तु राष्ट्रवाद का मुद्दा दोनों के लिए समान रूप से सर्वोपरि रहा है। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को परिस्थितिजन्य अनेक लांछन सहने पड़े, फिर भी उसकी साख मिटी नहीं। आखिर ऐसा क्या विशेष है संघ के वैचारिक मूल में? इसी प्रश्न के उत्तर को सामने रखता हुआ सामयिक सरस्वती के अक्टूबर-दिसम्बर 2015 के अंक में राकेश सिन्हा के लेख ‘संघ विमर्श का यथार्थ’ ने चिन्तन के नए कपाट खोल दिए थे। विचारों का सम्मान अजेय होता है और हमेशा अजेय रहेगा।  

     स्मृतियों के पिटारे से एक स्मृति साझा कर रही हूं - 06 नवम्बर से 08 नवम्बर 2015 तक चंडीगढ़ में चंडीगढ़ लिटरेरी सोसायटी द्वारा तीन दिवसीय लिटरेरी फेस्टविल आयोजित किया गया। कुल सोलह सत्र वैचारिक चर्चाओं की सोलह कलाओं की तरह रोचक एवं स्वतःस्फूर्त्त। नयनतारा सहगल, तवलीन सिंह, लीला सेठ, गुल पनाग, पायल धर, नीलांजन मुखोपाध्याय, सोहेला कपूर, अशोक वाजपेयी, सुधीर मिश्र, माधव कौशिक, सगुना जैन आदि लेखकों, रंगकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के साथ अनुभव साझा करना मेरे लिए एक सुखद एवं अविस्मरणीय अनुभव रहा। अहिन्दी भाषी क्षेत्र में मेरे हिन्दी उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ के पाठकों की रुचि ने मुझे चकित कर दिया। वहां पहुंच कर मुझे विश्वास हो गया कि साहित्य विभिन्न भाषाओं के बीच एक बेहतर सेतु का काम कर सकता है। इस लेटरेरी फेस्टिवल से जुड़ा एक तथ्य और है जिसका उल्लेख करना मैं आवश्यक समझती हूं कि इस फेस्ट को आयोजित करने से लेकर इसे सफल बनाने में प्रमुख रूप से महिलाओं का योगदान रहा। फेस्ट की निदेशक थीं सुमिता मिश्रा। जो स्वयं एक अच्छी कवयित्री एवं सफल प्रशासिका रही हैं। सुपर्णा सरस्वती पुरी, हरलीन शेखों, सिमरन ग्रेवाल, पुनीत कपूर की सुव्यवस्था एवं आत्मीयता ने मन को छू लिया। विविध देश, विविध प्रांत विविध भाषाएं, विविध विषय और विविध विधाएं, कुल मिला कर यह आयोजन एक साहित्यिक कुंभ के समान था। वहां कोई विवाद नहीं था। साहित्य था और सिर्फ़ साहित्य। सम्मान था तो प्रत्येक साहित्यकार का परस्पर एक-दूसरे के प्रति।
और अंत में, तमाम विवादों को परे  धकेलते हुए -
शिराओं में बहती आकांक्षाएं
आंखों में तैरते सपने
होंठों पर थिरकती ध्वनियां
मुझे बनने दो धरती, हवा और बादल
बनाने दो आकृतियां अपनी देह से
उगाने दो आत्म-स्वरों की नई फसलें
तमाम बंधनों से परे
तमाम पिंजरों से बाहर
तमाम संबंधों से इतर
हो कर उन्मुक्त.... 
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