बतकाव बिन्ना की | कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम
बतकाव बिन्ना की
कछू नईं से पुराने गरम हुन्ना बी चलहें, मनो देओ तो
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘काए भैयाजी का कर रए? का धूप दिखाबे के लाने जे सब निकारे आएं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। बे पलकां पे गरम कपड़ा बगराए बैठे हते।
‘‘अरे नईं, धूप दिखाबे के लाने नोंई, जा तो छांटबे के लाने निकारे आएं। का है के कछू तो भौतई पुराने हो गए के अब इने पैन्हबे को जी नईं करत। औ कछू ओछे परन लगे। टाईट से होत आएं। हमें तो समझ नईं पर रई के इनको का करो जाए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘कछू ने करो! धरे रऔ! चार पीढ़ी के बाद कोनऊं के काम आई जैहें।’’ भौजी ने भैयाजी खों टोंट मारी।
‘‘अरे तो का करिए? तुमई बताओ।’’ भैयाजी झल्लात भए भौजी से बोले।
‘‘हम तो बता रए के हम तुमाए लाने नोंन, तेल औ हरदी ल्याए दे रए, इनको अथानों डार देओ। फेर चाट-चाट के खात रहियो।’’ भौजी ने एक टोंट औ जड़ दओ।
‘‘तुमसे तो कछू कैबोई फजूल आए।’’ भैयाजी बड़बड़ात भए बोले।
‘‘आप ओंरे काए गिचड़ रए? का हो गओ?’’ मैंने पूछी। बाकी मोए कछू-कछू समझ में तो आ रई हती के मामलो का आए। फेर बी उन ओरन से बुलवाबो तो बनत्तो।
‘‘का आए बिन्ना के तुमाए भैयाजी के जे जो गरम कपड़ा आएं। ईमें से कछू इने ओछे होन लगे, कछू पुराने होबे के कारन इनसे पैन्हने नईं जा रए। अब सल्ल जे आए के इनको का करो जाए। हमने तो कई के कोनऊं गरीब-गुरबा खों दे देओ। बा तुमाए पांव परहे औ खुसी-खुसी पैन्ह लैहे। पर इनकी मति सो अलगई चलत आए। जे कैत आएं के हमाए पुराने कपड़ा को लैहे?’’ भौजी मोए बतात भई बोलीं।
‘‘औ का! को ले रओ पुरानो हुन्ना? सबई खों नए चाऊंने। अबे कऊं दान वारी जांगा में जाओ सो बे सोई कैंहे के जे का पुराने-सुराने उठा ल्याए, नए ल्याते!’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसो कछू नइयां भैयाजी! अपने इते सबई जांगा मुतके लोग ऐसे आएं जोन के पास गरम का, सादे कपड़ा बी पूरे नईयां पैन्हबे जोग। उनके लाने तो जा जड़कारो जीबे-मरबे को मामलो आए। आप जो उने जे अपने पुराने हुन्ना दे देओ सो उनके लाने तो ठंडी से बचबे को सहारो हो जाए। कओ उनके प्रान बच जाएं।’’ मैंने भैयाजी से गई।
‘‘नईं, पैले तो लेत्ते पुराने हुन्ना, मनो अब कोऊ लैहे बी के नईं?’’ भैयाजी के मन की संका ने गई।
‘‘काए ने लैहे। मैंने कई ने के जोन के लिंगे कछू नइयां उनके लाने तो आपके जे पुराने हुन्ना ई सब कछू हो जैहे। तनक दे के तो देखो।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘जेई सो हम कै रए। पर जे हमाई माने तब न!’’ भौजी मुंडी हिलाउत भई बोलीं।
‘‘काए बिन्ना! तुम हमें तो सिखापन दे रईं मनो तुम खुदई हर साल नए कंबल ले के बांटत आऔ।’’ भैयाजी ने मोए टुंची करी।
‘‘नए जेई लाने खरीदने परत आएं के पुराने कंबल घरे नईं धरे। जो धरे होते सो ओई खों देत फिरती। का आए के मोरी मताई कैत्तीं के जड़कारे में गरम कपड़ा बांटे से बड़ो पुन्न मिलत आए। सो तनक पुन्न कमाबे की कोसिस करत रैत हों। बाकी ज्यादा तो मोरी हैसियत नोंई।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कैत्तीं अम्मा जी! जड़कारे में कोनऊं को पैन्हत को, ओढ़त-बिछात को गरम कपड़ा दे देओ, कभऊं ठंड से ठिठुरत भओं को मुफत में चाय-माय पिला देओ सो ईसें भौत दुआएं मिलत आएं। जेई से तो हम तुमाए भैयाजी से कै रए के अब इनें फेर के पुटरियां बांद के ने धरियो। इनमें से जोन खों काम में नईं लाने उने कोऊ जरूरत वारे खों दे देओ। पर जे हमाई सुने तब न!’’ भौजी बोलीं।
‘‘सईं तो कै रईं भौजी। भैयाजी, अब आप सोच-संकोच छोड़ो औ देबे वारे गरम हुन्ना अलग रख लेओ। आजई रात खों चलबी औ अपन तीनों चल के बांट आबी। देखियो कित्तो अच्छो लगहे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘जा हम सोई जानत आएं, बाकी हमें जेई की हिचक लग रई हती के पुराने हुन्ना देख के कोनऊं बिगर ने परे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘को बिगरहे? औ काए बिगरहे? आज आप ग्यारा-बारा बजे रात को मोरे संगे चल के देखो के जोन के पास कछू गरम हुन्ना ने आएं बे कैसे ठिठुरत रैत आएं। आप से उनकी दसा देखी ने जैहे। फेर कइयो के बे आपके पुराने हुन्ना काए ने लैहें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, कै तो ठीक रईं तुम! चलो हमाए दिल की टांटा मिटी। तो तुम चलहो ने संगे?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ, काए ने चलबी। मोए तो ई सब में भौत अच्छो लगत आए। मैं सोई अबे जा के कछू देख लैहों। हो सकत के मोरो एकाद पुरानो सूटर कढ़ आए। बाकी कंबल सो कोनऊं दिनां देने ई आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘औ का बिन्ना, बात जरूरत की होत आए, नए-पुराने की नईं। पैले घरई में जा चलत्तो के बड़ी भैन को छोंटबे वारी फ्राक छोटी वारी खों दे दई जात्ती।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, हम सोई अपनी पुरानी किताबें अपने से छोटी क्लास वारों खों दे देत्ते।’’ भैयाजी जोस में आके बतान लगे।
‘‘सो ऐसई तो जे मामलो आए के जो आप के काम की ने होए बा सामान ऊको दे देओ जोन के पास कछू नइयां। औ मुतकी संस्था ऐसी आएं जो ‘नेकी की दीवार’ नांव से रैक खड़ो कर देत आएं जीमें जोन चाए वो अपने पुराने हुन्ना, लत्ता उते जा के धर सकत आए। जोन खों जरूरत रैत आए बे उते से उठा लेत आएं। मैंने तो खुदई मईना भर पैले ऐसई इक दीवार पे अपने कछू हुन्ना धरे हते। बाकी गरम कपड़ा तो सूधे उनईं खों दए जा सकत आएं जोन खों ईकी जरूरत होए। जब बे अपनी आंखन के आंगू ऊको पैन्हत आएं, ने तो ओढ़त आएं तो बड़ो चैन सो मिलत आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई कै रईं तुम दोई! आज रातई खों अपन चलबी औ जड़कारे में ठिठुरत भओं को जा सुटर-मूटर बांट आबी।’’ भैयाजी जोस से भरत भए बोले।
‘‘जे भई ने बात! चलो, जेई बात पे हम पैले तुम दोई को जड़कारो मिटाएं तुम ओरन खों चाय पिला के।’’ कैत भईं भौजी हंस परीं। बे खुस हो गईं के भैयाजी अखीर मान तो गए।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़िया हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर के जोन हुन्ना-लत्ता आपके काम के ने होएं उनको घरे पुटरिया बांद के सड़न देबो अच्छो आए के ठिठुरत भओं को दे देबो?
---------------------------
बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
---------------------------
#बतकावबिन्नाकी #डॉसुश्रीशरदसिंह #बुंदेली #batkavbinnaki #bundeli #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat
No comments:
Post a Comment