Tuesday, January 14, 2025

पुस्तक समीक्षा | समाज में व्याप्त वैचारिक विसंगतियों की अंतर्कथा कहती लघुकथाएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 14.01.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित 
पुस्तक समीक्षा  
समाज में व्याप्त वैचारिक विसंगतियों की अंतर्कथा कहती लघुकथाएं
         - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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लघुकथा संग्रह - पंछी मुण्डेर के
लेखक       - एस.एम. अली
प्रकाशक     - इंक पब्लिकेशन, 333/1/1के, नयापुरा, करेली, प्रयागराज, उ.प्र.    
मूल्य        - 220/- 
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लघुकथा हिन्दी साहित्य की एक सशक्त विधा है। कम शब्दों में किसी कथानक को प्रस्तुत करने की बेहतरीन कला। यह अंग्रेजी कह शार्ट स्टोरी से अलग है। यह उसकी अपेक्षा अधिक छोटी और कम से कम शब्दों में होती है। लघुकथा को जितने कम शब्दों में कहा जाए, वह उतनी ही अधिक प्रभावी और उत्तम मानी जाती है। कई विद्वान हिंदी की पहली कहानी मानी जाने वाली माधवराव सप्रे की कहानी ‘‘एक टोकरी भर मिट्टी’’ को भी लघुकथा की श्रेणी में रखते हैं। किन्तु लघुकथा की विधा को लोकप्रियता मिली कमलेश्वर, बलराम, एवं राजेन्द्र यादव के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं ‘‘सारिका’’, ‘‘हंस’’ आदि से। उस दौर में लघुकथा के विधान तय किए गए और बहुसंख्यक लघुकथाएं लिखीं गईं। लघुकथा की सबसे बड़ी विशेषता मानी गई उसके व्यंजनापूर्ण कथन शैली।
‘‘पंछी मुण्डेर के और अन्य लघुकथाएं’’ कथाकार एस.एम. अली का लघुकथा संग्रह है। इसमें उनकी सौ लघुकथाएं हैं। एक लम्बे समय से वे कथा लेखन में संलग्न हैं। इस संग्रह से पूर्व कथाकार अली के दो कहानी संग्रह मुझे पढने का अवसर मिल चुका है किन्तु यह लघुकथा संग्रह उनके पूर्व संग्रहों से अधिक प्रभावी और सशक्त है। एस. एम. अली लघुकथाओं के माध्यम से अपनी बात कहने में अधिक आश्वस्त दिखाई पड़ते हैं। इस संग्रह में संग्रहीत उनकी लघुकथाओं में जीवन की अंतर्कथा मौज़ूद है। वर्तमान जीवन में भूख, संत्रास, गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी, जाति और धर्म के नाम पर बंटवारा एवं अविश्वास के साथ ही सबसे चिंतनीय स्थिति है घटती हुई संवेदनशीलता। इन समस्त विसंगतियों पर कथाकार अली की पैनी नज़र है। वे इन विसंगतियों को अपनी लघुकथाओं में सामने रखते हैं किन्तु मात्र समस्या अथवा प्रश्न के रूप में नहीं, अपितु वे उनका हल भी प्रस्तुत करते चलते हैं। अर्थात लेखक परिस्थितिजन्य कठिनाइयों एवं विडंबनाओं से भयाक्रांत नहीं है, बल्कि वह रास्ता भी सुझाता है कि स्थितियों को कैसे अनुकूल बनाया जा सकता है। यूं तो संग्रह की पहली लघुकथा ‘‘प्रार्थना’’ है किन्तु मैं उसके पहले दो लघुकथाओं की बात करना चाहूंगी जिनमें पहली है ‘‘शैतान’’। यह लघुकथा मात्र तीन पंक्तियों एवं 26 शब्दों की है। किन्तु इसका कथानक जीवन का पूरा एक आख्यान व्यक्त कर देता है। यह लघुकथा इस प्रकार है- 
‘‘शिक्षक: अनिल, शैतान की परिभाषा बताओ।’’
अनिल: सर अदृश्य शैतान तो एक व्यक्ति को परेशान करता है, पर मानव रूपी शैतान सरेआम सबको परेशान करता है।’’ 
दूसरी लघुकथा जिसे मैं यहां उद्धृत करना चाहूंगी, वह है ‘‘मज़हब’’। धर्म यानी मज़हब हमारे समाज का सबसे संवदेनशील मुद्दा होता है। हर मज़हब परस्पर मिलजुल का रहने की शिक्षा देता है किन्तु हर कट्टर अनुयायी अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को निम्न ठहराने की जुगत में लगा रहता है। यही परस्पर टकराव का कारण भी बनता है। कथाकार अली ने ‘‘मज़हब’’ लघुकथा में मात्र 30 शब्दों में उस कटुप्रसंग को प्रस्तुत कर दिया है जिसमें मानवता नहीं धर्म प्रधान होता है और धर्म को पहचान बना कर अनावश्यक रक्तपात किया जाता है। इस लघुकथा पर दृष्टिपात कीजिए-
‘‘एक आतंकी ने एक युवक पर गन मशीन तानते हुए पूछा-‘‘बोल तेरा नाम क्या है?’’
युवक ने निर्भीकता से कहा-‘‘पहले तू ही बता, तू हिन्दू है या मुसलमान।’’
एस.एम. अली शब्दों की सटीकता को पहचानते हैं। उनकी लघुकथाओं में प्रत्येक शब्द ठीक उसी तरह से नपेतुले ढंग से प्रस्तुत होता है जैसे कविताओं में शब्द सटीकता रची-बसी होती है। डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि -‘‘अली साहब समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों, संकीर्ण मानसिकता का विरोध करने वाले सादगी सम्पन्न, सहज, सरल, ईमानदार व्यक्ति हैं। लेखक का व्यक्तित्व और दृष्टिकोण उसकी रचनाओं में झलकता ही है। अली साहब की रचनाएं दर्शाती हैं कि वे समाज के गरीब, पिछड़े, अभावग्रस्त लोगों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। उनका लेखन समष्टिगत एवं लोकमंगल के लिए है। उनकी भाषा सहज, सरस, प्रवाहमयी है। क्योंकि वे आवश्यकतानुसार हिन्दी के तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी रूपों के साथ उर्दू, अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। यही कारण है कि उनका लेखन जीवंतता की अनुभूति कराता है।’’
कहानी में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग उसमें सहजता का संचार करती है। पात्रानुसार संवाद शिल्प पात्र को चारित्रिक स्पष्टता देता है तथा कथानक को भी बाखूबी व्याख्यायित करता है। कथाकार अली की लघुकथाओं में शाब्दिक सम्पन्नता सशक्त रूप में मौजूद है। वे सामाजिक शांति, परस्परिक सौहाद्र्य एवं गंगा-जमुनी तहज़ीब के हिमायती हैं। यह बात उन्होंने ‘‘अपनी बात’’ में लिखी ही है, साथ ही उनकी कई कथाओं में उनके ये विचार पूरी तीव्रता से मुखर हुए हैं। वस्तुतः एक साहित्यकार का दायित्व भी यही होता है कि वह भ्रम में पड़े हुए लोगों का भ्रम दूर करे और उन्हें उचित-अनुचित में भेद करने के लिए प्रेरित करे। इस संदर्भ में एस.एम. अली की एक लघुकथा है ‘‘चबूतरा’’। यह एक रोचक एवं महत्वपूर्ण लघुकथा है जो चबूतरे को एक स्वस्थ समाज के प्रतीक के रूप में स्थापित करती है। गांव का चबूतरा कभी किसी एक धर्म या समुदाय का नहीं रहा। वह एक सार्वजनिक स्थान होता है जहां सभी बैठ का आपस में दुख-सुख साझा करते हैं। लेकिन यदि उस चबूतरे पर अधिकार को ले कर विवाद होने लगे तो मूर्खतापूर्ण टकराव ही हाथ आता है। यह लघुकथा इसी तथ्य को रेखांकित करती है-  
‘‘एक चबूतरा लगभग सौ साल पहले लोगों ने सार्वजनिक स्थान पर बैठने के लिए बनवाया था।
उस पर न तो मुस्लिम समुदाय का कब्जा था, और न ही हिन्दू समुदाय का।
अब समय ऐसा बदला है कि सामान्य-सी चीजों पर दो समुदाय में हिंसा भड़क उठती है।
चबूतरे पर हिन्दू समुदाय ने अपना दावा ठोका तो मुसलमानों ने अपना।
इसी बात को लेकर नगर में हिंसा भड़क उठी। कई लोगों की जान चली जाने के साथ ही अनेकों घरों में आगजनी के कारण लोग बेघर हो गए थे।
चबूतरा यथावत खड़ा मूर्खों पर आंसू बहा रहा था।
विनोवा भावे ने कहा था - दो धर्मों का कभी झगड़ा नहीं होता। सब धर्मों का अधर्म से ही झगड़ा है।’’
धार्मिक सम्भाव की आकाक्षां से लिखी गई एक और लघुकथा है जो बड़ी सहजता से इस तथ्य को सामने रखती है कि कोई भी धर्म, कोई भी रंग मानवता से बड़ा नहीं होता है। रंग सुंदरता का पर्याय होना चाहिए कट्टरता का नहीं। यही बात कहती है लघुकथा ‘‘भगवा रंग’’। कथा इस प्रकार है-
‘‘हनीफ साहब दावत का लुत्फ उठाते हुए बातचीत के दौरान बोले - ‘मुसलमानों को भगवा रंग से परहेज करना चाहिए।’
रियाज साहब प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति हैं। उनसे न रहा गया ‘माफ करना हनीफ साहब, आप जो भगवा रंग का जरदा (मीठे चावल) खा रहे हैं। आपका अपने बारे में क्या ख्याल है?’
इतना सुनकर हनीफ साहब का चेहरा मलीन हो गया।’’
विशेषता यह भी हैॅ कि लेखक ने अपनी किसी भी लघुकथा में किसी को उलाहना नहीं दिया है अपितु सच को सामने रखते हुए सच को पहचानने का आग्रह किया है। एस.एम. अली कहीं-कहीं कथाकार असगर वज़ाहत की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए दिखाई देते हैं। उनकी कथाओं में समसामयिक चेतना है। वे अपने समकालीन परिवेश से भली-भांति परिचित हैं। वे परिवेश को मात्र जीते नहीं हैं वरन उसका विश्लेषण करते हैं और उसकी पूरी पड़ताल करते हैं। हर परिस्थिति को देखने और सोचने समझने का कथाकार अली का अपना एक दृष्टिकोण है जो समय की मांग पर खरा उतरता है। उनकी लघुकथाएं व्यापक अनुभव जगत से पाठक का साक्षात्कार कराने में सक्षम हैं। उनका बारीक विश्लेषण तर्क की कसौटी भी आसानी से पार कर लेता है। उनकी ये लघुकथाएं हमारे समाज की संवेदनहीन हो रही स्थिति पर सोचने के लिए पाठक को अवश्य बाध्य करेंगी। जैसे एक लघुकथा है ‘‘दिव्यांग’’ इसमें मनुष्यता की गिरावट का कटु दृश्य है-
एक दिव्यांग व्यक्ति ने मंत्री जी से गिड़गिड़ाते हुए कहा - ‘‘साब, मेरे जीते जी शासन की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।’’
मंत्री जी से अपनी पार्टी की बुराई नहीं सुनी गई। फिर उन्होंने खिन्नता भरे लहजे में कहा ‘‘ठीक है, मरने के बाद ऊपर वाले से लाभ ले लेना।
और अंत में संग्रह की शीर्षक कथा की चर्चा करना भी आवश्यक है क्योंकि यह उस देशीय समस्या के साथ-साथ वैश्विक समस्या की ओर भी ध्यान आकर्षित करती है जिसके कारण आज बसे-बसाए देश खण्डहर में तब्दील हो रहे हैं। युद्ध और हिंसा धर्म और जाति को ले कर होती है किन्तु उससे प्रभावित होेते हैं पशुपक्षी भी। ‘‘पंछी मुण्डेर के’’ लघुकथा में एक पुराना मेहराब है जिसमें पंछियों ने अपनी बस्ती बसा ली है लेकिन विभिन्न धर्मों के लोग उस पर आना-अपना दावा करके आपस में झगड़ते हैं और अंत में उसे नेस्तनाबूद कर देते हैं। परिणामतः पंछियों की बस्ती ढंह जाती है, उजड़ जाती है और बेघर हुए पंछी इंसानों को कोसते हुए नए ठिकाने की तलाश में भटकने लगते हैं। इसमें दो मत नहीं है कि कथाकार एस.एम. अली एक संवेदनशील और सजग लेखक हैं। उन्होंने अपनी लघुकथाओं में न केवल लघुकथा के शिल्पगत मानकों को पूरा किया है बल्कि गंभीर और चुनौती भरे कथानकों को बड़ी सहजता से लिख डाला है। उनका यह लघुकथा संग्रह निश्चित रूप से पढ़े जाने योग्य है और उनकी भावी कथायात्रा के प्रति आश्वस्त करता है।                
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