दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - 'शून्यकाल'
धैर्य और पठन की कमी हानिकारक है हिन्दी साहित्य के लिए
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी। हां, हिन्दी को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है।
हिन्दी आज दुनिया में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में लगभग 64.6 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इस हिसाब से तो हिन्दी साहित्य को ललहलहाती फसल की भांति दिखाई देना चाहिए लेकिन उस पर तुषार का असर दिखाई देता है। हिन्दी का साहित्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है? क्या हम हिन्दी वाले किसी भ्रम में जी रहे हैं अथवा स्थिति हम हिन्दी साहित्य वालों द्वारा ही स्थिति बिगाड़ी गई है? भाषा और साहित्य परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। भाषा का प्रसार साहित्य के प्रसार का आधार बनता है। एक समय था जब हिन्दी में लोकप्रियता एक मानक की भांति थी। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले और अंग्रेजी के प्राध्यापक भी हिन्दी में साहित्य सृजन कर के स्वयं को धन्य समझते थे। अनेक ऐसे चर्चित साहित्यकार हुए जो जीवकोपार्जन के लिए अंग्रेजी में अध्यापनकार्य करते थे किन्तु उन्होंने स्थापना पाई हिन्दी साहित्य रच कर। किन्तु आज स्थिति विचित्र है। आज हिन्दी का साहित्यकार एक व्याकुल प्राणी की भांति अपनी स्थापना के लिए छटपटाता रहता है। जिस साहित्य को पूर्व आलोचकों ने ‘‘लुगदी’’ साहित्य कह कर हाशिए पर खड़े कर रखा था आज उसी साहित्य की नैया पर सवार हो कर प्रसिद्धि की गंगा पार करने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि यह अलग बहस का मुद्दा है कि किसी भी साहित्य को मात्र इसलिए ठुकरा दिया जाना कहां तक उचित था कि वह रीसाइकिल्ड मोटे कागाज पर छापा जाता था। वह कागज अपेक्षाकृत खुददुरा होता था। उसका रंग भी पीला-भूरा सा होता था लेकिन उसमें छपने वाली किताबें लोकप्रियता में सबसे आगे थीं। भले ही उसे साहित्य की श्रेणी में न रखा गया हो लेकिन वे किताबे खूब पढ़ी गईं।
अगर बात हिन्दी की करें तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बनाने हेतु प्रयास सतत जारी हैं। वर्ष 2018 में सुषमा स्वराज ने यह पक्ष सामने रखा था कि हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने हेतु कुल सदस्यों में से दो तिहाई सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होगी।’’ इस महत्त्वपूर्ण कार्य हेतु आवश्यक है कि कुछ ठोस पहल की जानी चाहिए थीं किन्तु अभी तक ऐसा कुछ हो नहीं सका है। अभी संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं जैसे- हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए विदेश मंत्रालय में हिन्दी एवं संस्कृत प्रभाग बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ हिन्दी में नियमित रूप से एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने हिन्दी में न्यूज वेबसाइट चलाई है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जो तर्क दिए जाते हैं वे हैं- कि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है, इसकी लिपि रोमन, रूसी, और चीनी जैसी लिपियों का अच्छा विकल्प बन सकती है, हिन्दी के कारण दुनिया की कई भाषाओं को मदद मिलेगी आदि-आदि। अब एक लक्ष्य और निर्धारित किया गया है वह है ‘‘पंच प्रण’’ का। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘‘पंच प्रण’’ की घोषणा करते हुए कहा है कि अब हमें वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लेना है। इसमें हिन्दी को हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भांति देखा गया है। लेकिन आज एक पूरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर तैयार हो चुकी है और उसके बाद की दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रही है। आज के युवा माता-पिता और उनके बच्चे हिन्दी से कट चुके हैं। उनके लिए हिन्दी घर के नौकरों और बाजार-हाट में खरीददारी की भाषा है। उनके लिए नौकरी और सामाजिक सम्मान की भाषा अंग्रेजी है। उन्हें जिस भाषा से लगाव ही नहीं है, वे उसके साहित्य के प्रति लगाव कहां से पैदा करेंगे? वे हिन्दी का साहित्य क्यों खरीदेंगे? और क्यों पढ़ेंगे? यह एक कटु सच्चाई है। यदि हम शुतुरमुर्ग की भांति रेत में अपने सिर को घुसा कर सोच लें कि कोई संकट नहीं है तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।
वर्ष 2024 के उत्तरार्द्ध में एक चर्चित साहित्य उत्सव में बतौर कवयित्री एक ऐसी अभिनेत्री को बुलाए जाने पर बवाल मचा जिसकी साहित्यिक प्रतिभा का तो किसी को पता नहीं था किन्तु उसके विचित्र कपड़ों के माध्यम से देह प्रदर्शन की ख्याति अवश्य है। उस अभिनेत्री ने कौन-सी राह पकड़ी है, यह उसका निजी मामला है। उस पर किसी को आपत्ति न थी और न है। अचम्भा तो इस बात का हुआ कि क्या साहित्य को ख्याति पाने के लिए किसी ऐसे सहारे की आवश्यकता है?
हिन्दी के साहित्य को वैश्वि पटल पर पहुंचाने के लिए क्या उसके अनुवाद का सहारा लेना जरूरी है? यह प्रश्न उठा था जब लेखिका गीतांजलि श्री को उनके हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टम्ब ऑफ सेण्ड’ के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। उत्तर भी उन्हीं दिनों मिल गया था कि बुकर पुरस्कार में हिन्दी भाषा की कोई श्रेणी नहीं है। दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा को एक विदेशी पुरस्कार दाता अपनी भाषाई श्रेणी में नहीं रखता है किन्तु उसका पुरस्कार पाने के लिए उसकी मान्य भाषा को हम स्वीकार कर लेते हैं। यह एक गजब का विरोधाभास है। निःसंदेह अनुवाद में कोई बुराई नहीं है। अनुवाद तो दो संस्कृतियों और दो भाषाओं के बीच सेतु का कार्य करता है किन्तु पीड़ा तब होती है जब हम अपनी ही भाषा हिन्दी को ले कर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।
खैर, बात हिन्दी साहित्य की है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानो हिन्दी साहित्य जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी अथवा आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के समय की गरिमा को खो चुका है। यदि इन मनीषियों का उदाहरण न भी लिया जाए तो वह साहित्यिक विमर्श जो चेतना को झकझोरे रखता था और जिसे जगाए रखने का श्रेय राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह को दिया जाता था, वह विमर्श भी मानों कहीं सो गया है। अब ऐसा लगता है कि विचार-विमर्श के लिए किसी के पास समय नहीं है। हिन्दी के सारे साहित्यकार बड़ी शीघ्रता में हैं। यह शीघ्रता है रातों-रात प्रसिद्धि पाने की। सोशल मीडिया ने साहित्य को एक अच्छा पटल दिया किन्तु उस पटल पर इतने खरपतवार की भांति साहित्यकार उग आए कि पूरा पटल भ्रम में डाल देता है कि असली रचना किसी है? एक बुद्धिजीवी महिलाओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप में एक फार्वडेड पोस्ट मिली जिसमें एक कविता को यह कह कर प्रस्तुत किया गया था कि यह मुंशी प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कविता है। मुझसे नहीं रहा गया और मैंने उस पर टिप्पणी कर दी कि प्रेमचंद कथाकार थे, उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं। और यह कविता तो उनकी कदापि नहीं है। उस अग्रेषित पोस्ट को ग्रुप में साझा करने वाली विदुषी महिला ने बड़े उपेक्षा भाव से उत्तर दिया कि ‘‘यह कविता प्रेमचंद की हो या न हो लेकिन कविता अच्छी है और मार्मिक है।’’ अर्थात् उस गलत पोस्ट को उन्होंने व्यक्तिगत लेते हुए उसकी अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली। उसके बाद मैंने उस ग्रुप से स्वयं को अलग कर लिया। क्योंकि किसी सोते हुए को जगाना आसान है किन्तु जागे हुए को भला आप कैसे जगाएंगे?
वर्तमान में हिन्दी के नवोदित साहित्यकारों में आमतौर पर जो लक्षण देखने को मिल रहे हैं उनमें सबसे प्रमुख है दूसरों के लिखे साहित्य को पढ़ने की आदत की कमी और लेखकीय साधना या अभ्यास की कमी। मुझे याद है कि सागर के वरिष्ठ साहित्यकार शिवकुमार श्रीवास्तव प्रायः यह बात कहा करते थे कि जब कोई कविता या कहानी लिखो तो उसे लिख कर एक सप्ताह के लिए किसी दराज़ में छोड़ दो। फिर एक सप्ताह बाद उसे पढ़ कर देखो। उसमें मौजूद कमियां स्वयं दिखाई दे जाएंगी।’’ यह बात थी साहित्य में धैर्य रखे जाने की।
एक बार एक पुस्तक की भूमिका लिखने के लिए मुझे पांडुलिपि दी गई। मैंने उसे पढ़ा। मुझे लगा कि यदि उसमें रखी गई कविताओं में तनिक सुधार कर दिया जाए तो वे बहुत बेहतर हो जाएंगी। मैंने उस साहित्यकार को फोन पर यह बात बताई। उसका उत्तर था,‘‘अब इसको तो आप ऐसे ही रहने दीजिए, सुधार का काम अगले में देखा जाएगा। इसको जल्दी से जल्दी छपवाना है। प्रकाशक से सब तय हो गया है।’’ उनके इस उत्तर से मेरे लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया। यदि मैं भूमिका लिखने से मना करती हूं तो उस साहित्यकार से मेरे संबंध बिगड़ेंगे और यदि भूमिका लिखती हूं तो साहित्य से मेरे संबंध खराब होंगे। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने बीच का रास्ता निकाला और तनिक समीक्षात्मक होते हुए भूमिका लिख दी। वह साहित्यकार प्रसन्न कि मैंने सुधार किए बिना भूमिका लिख दी और मुझे तसल्ली थी कि मैंने समीक्षात्मक ढंग से उसकी खामियों की ओर भी संकेत कर दिया था। यद्यपि ईमानदारी से कहा जाए तो यह उचित नहीं था। भूमिका को भूमिका की भांति ही होना चाहिए किन्तु उस साहित्यकार के हठ ने मुझे यह कदम उठाने को विवश किया। कहने का आशय ये है कि इस समय का नवोदित साहित्यकार अपनी आलोचना अथवा अपने सृजन की कमियों को सुनना ही नहीं चाहता है औ आशा करता है कि हर कोई उसकी रचना को पढ़े। हिन्दी साहित्य को पुनःप्रतिष्ठा उसके साहित्य से ही मिल सकती है बशर्ते ऐसा लिखा जाए जो उसे उसका पाठक बनने को विवश कर दे।
(यह चर्चा लम्बी है अतः शेष आगामी कड़ी में।) ----------------------------
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