चर्चा प्लस
जन्मतिथि 08 जनवरी विशेष:
मोहन राकेश ने हिन्दी साहित्य को जो दिया, अनमोल है वह
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘बाबू मोशाय...जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं!’’ यह संवाद राजेश खन्ना की फिल्म ‘‘आनन्द’’ का है। मोहन राकेश एक ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने लंबी नहीं लेकिन बड़ी ज़िन्दगी जी। उन्होंने जो सृजन किया उसने उन्हें कालजयी बना दिया। आज भी उनके लिखे नाटक ‘‘आषाढ़ का एक दिन’’ और ‘‘आधे-अधूरे’’ दर्शकों को थियेटर तक खींच ले जाते हैं। मोहन राकेश ने ‘‘अंधेरे बंद कमरे’’ जैसी कहानी में जो नई कहानी के मनोवैज्ञानिक मानक गढ़े उसने हिन्दी कथा साहित्य में नूतनता का संचार किया। मोहन राकेश ने अपने 47 साल के जीवन को भले ही पूरे ढंग से न जिया हो, लेकिन साहित्य को उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ जिया।
हिन्दी कहानी में नई कहानी आंदोलन के एक प्रमुख कहानीकार थे मोहन राकेश। सन 1925 की 08 जनवरी को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के अमृतसर में जन्मे मोहन राकेश के पिता मदन मोहन गुगलानी वकील थे। किन्तु जब माहन राकेश की आयु मात्र 16 वर्ष थी तभी पिता देहांत हो गया। मोहन राकेश सिंधी परिवार से थे। उनके पिता बहुत पहले सिंध से पंजाब चले गए थे और वहीं बस गए थे। मोहन राकेश ने लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और हिंदी में एम.ए. किया । मोहन राकेश का बचपन का नाम मदनमोहन गुगलानी था। लेखन के क्षेत्र से जुड़ने के साथ उन्होंने पहले अपना नाम जो मदन मोहन रखा फिर कुछ समय बाद मोहन राकेश के नाम से लिखने लगे।
मोहन राकेश ने 1947 से 1949 तक देहरादून में एक डाकिए के रूप में अपनी आजीविका आरम्भ की थी।, उसके बाद वे दिल्ली चले गए। कुछ समय के लिए पंजाब के जालंधर में अध्यापन की नौकरी भी की। वहां वे डीएवी कॉलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के प्रमुख रहे। उन्होंने शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में भी हिंदी पढ़ाया। शिमला में उनके छात्रों में रस्किन बॉन्ड उनके छात्र रहे। अंततः उन्हें नौकरी करना रास नहीं आया और उन्होंने पूर्णकालिक लेखन के लिए 1957 में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने 1962 से 1963 तक कुछ समय के लिए हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘‘सारिका’’ का संपादन भी किया।
मोहन राकेश में लेखन प्रतिभा बाल्यावस्था से थी। अपने अध्ययनकाल में उन्होंने कई छोटी-छोटी रचनाएं लिखीं। उनकी पत्नी अनीता राकेश के अनुसार -‘‘पिता की सृजनशीलता और मां के संस्कारों से उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था।’’
राकेश मोहन ने 1944 में अपनी पहली कहानी लिखी जिसका शीर्षक था ‘‘नन्हीं’’। किन्तु उनकी प्रथम प्रकाशित कहानी ‘‘भिक्षु’’ है जो सन् 1946 में ‘‘सरस्वती’’ में प्रकाशित हुई। वैसे मोहन राकेश को असली ख्याति अपने नाटकों से मिली। आज भी रंगमंचों पर उनके नाटक उत्साहपूर्वक खेले जाते हैं। मोहन राकेश को नाटकीय परम्परा तथा उपन्यास लेखन का सिरमौर माना जाता है। मोहन राकेश उपन्यासों में कुछ का तो प्रकाशन हुआ और कुछ अप्रकाशित रहे। उनके प्रकाशित उपन्यासों में ‘‘अंधेरे बंद कमरे’’, ‘‘न आने वाला कल’’ तथा ‘‘अंतराल’’ ने लोकप्रियता प्राप्त की। ‘‘अंधेरे बंद कमरे‘’ उपन्यास में आधुनिक जीवन की विसंगतियों की प्रस्तुत किया गया है। पांच सौ पृष्ठों के इस उपन्यास में उन परिस्थितियों का वर्णन है जिनमें लोग स्वयं को अपने ही दायरे में इस तरह कैद करते चले जाते हैं, गोया वे अंधेरे बंद कमरे में कैद हों।
सन 1968 में प्रकाशित उपन्यास‘‘न आने वाला कल’’ माहन राकेश के व्यक्तिगत अनुभवों की छाप लिए है। वहीं, उपन्यास ‘‘अंतराल’’ जो सन 1972 में प्रकाशित हुआ उसमें स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों का अपेक्षाओं के आधार पर आकलन है।
मोहन राकेश का नाट्य संसार सबसे अधिक समृद्ध है। भले ही उन्होंने बहुत कम नाटक लिखे लेकिन उनके लगभग प्रत्येक नाटक को भरपूर सराहना एवं मंच मिला। सन् 1952 में‘‘आषाढ़ एक दिन’’ 1965 में ‘‘लहरों के राजहंस’’, 1959 में ‘‘आधे अधूरे’’ नाटक लिखा। उनका एक नाटक और था जो अधूरा रह गया था। इस नाटक का नाम था ‘‘पैर तले जमीन’’। इसे मोहन राकेश की मृत्यु के बाद कमलेश्वर ने पूरा किया था। मोहन राकेश और कमलेश्वर के बीच एक खास किस्म की दोस्ती और प्रतिद्वंद्विता थी। मोहन राकेश की पत्नी अनीता राकेश ने लिखा था कि ‘‘कमलेश्वर, मोहन राकेश के सबसे ज्यादा तकलीफ देने वाले लेकिन आत्मीय मित्र थे। मोहन राकेश भी कहते थे कि अगर उन्होंने जिंदगी में किसी की ज्यादतियां बर्दाश्त की हैं, तो वह कमलेश्वर की हैं।’’ मोहन राकेश और कमलेश्वर ने ही मिल कर हिन्दी कथा जगत में ‘‘नई कहानी’’ का ठाठ खड़ा करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वस्तुतः यह एक त्रिभुज था जिसकी तीसरी भुजा पर राजेन्द्र यादव थे।
मोहन राकेश की मृत्यु मात्र 47 वर्ष की आयु में 3 दिसम्बर 1972 को हुई। किन्तु अपनी अल्पायु में ही उन्होंने भारतीय हिन्दी नाटको में जो लेखकीय योगदान दिया उसने उन्हें कालजयी बना दिया।
मंचों पर सबसे अधिक प्रस्तुत किया जाने वाला नाटक ‘‘आषाढ़ का एक दिन’’ संस्कृत के महाकवि कालिदास के जीवन पर आधारित है। तीन अंकों के इस नाटक में मानवीय भावनाओं का अद्भुत आरेखन है। यह उपन्यास ग्रामीण अंचल के एक कवि की राजकवि के रूप में स्थापना पाने की यात्रा के धरातल पर गाढ़ा स्त्रीविमर्श रचता है। इस नाटक में व्यक्तित्व-विभाजन और विसंगतिपूर्ण जीवन की समस्याएं हैं। इसमें सत्ता और सृजन के द्वंद्व को उजागर किया गया है। यह नाटक को हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का पहला नाटक माना जाता है। इस नाटक को 1959 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस नाटक पर आधारित एक फिल्म मणि कौल ने बनाई थी, जिसे 1971 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था।
दूसरा नाटक ‘‘लहरों के राजहंस’’ का रचना विधान ‘‘आषाढ़ का एक दिन’’ से आगे का है। इसमें उन्होंने आधुनिक यथार्थवाद की नाट्य रचना पद्धति को अपनाया। यह नाटक मनोवैज्ञानिक स्तर पर मानसिक उद्वेग एवं अंतरद्वंद्व को सामने रखता है। यह नाटक सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के बीच के द्वंद्व को दर्शाता है.इस नाटक में स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों के अंतर्विरोध का आकलन करता है। इस नाटक में ऐतिहासिक आधार को ग्रहण करते हुए आधुनिक यथार्थ को दिखाया गया है। इस नाटक की कथावस्तु तीन अंकों में बंटी हुई है जिसमेंएक ओर नंद और सुंदरी के जरिए सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के द्वंद्व को दिखाया गया है तो वहीं दूसरी ओर भिक्षु आनंद द्वारा गौतम बुद्ध का प्रतिनिधित्व करते हुए नंद के चरित्र को उभारने सहायता का चित्रण है।.
तीसरा नाटक ‘‘आधे-अधूरे’’ जीवन के पूरेपन की खोज है। यह नाटक आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार की विसंगतियों को उजागर करता है। इसमें आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार की सामाजिक, मानसिक और आर्थिक दशाओं का यथार्थ चित्रण है। इसमें पत्नी की कामकुण्ठाओं और पति के आत्मविश्वास रहित व्यक्तित्व से उत्पन्न पारिवारिक कलह का विश्लेषण है। यह नाटक यथार्थ का उद्घोष करता है जिससे इसके मंचन में भी नवीन प्रविधियों का समावेश किया जाता है।
‘‘पैर तले की जमीन’’ मोहन राकेश का अंतिम और अधूरा नाटक है जिसे वे अपने जीवन काल में पूरा न कर पाए। इस संबंध में यह कहा जाता है। कि मोहन राकेश ने इसका पूरा खाका तैयार अपने जीवनकाल में कर लिया था लेकिन दूसरा अंक लिखने से पूर्व ही इनका स्वर्गवास हो गया था। उनकी मृत्यु के बाद मोहन राकेश के घनिष्ट मित्र और हिन्दी के विख्यात कहानीकार कमलेश्वर ने इसे पूरा किया। इसे पूरा करने के लिए कमलेश्वर ने उन नोट्स का सहारा लिया जो मोहन राकेश ने अपने डायरी में लिखे थे और जिन्हें उनकी पत्नी अनिता राकेश ने उपलब्ध कराया।
नाटकों के साथ ही मोहन राकेश ने कुछ एकांकी भी लिखी थीं। उनका पहला एकांकी संग्रह ‘‘अण्डे के छिलके’’, ‘‘बीज नाटक’’ आदि। इनका प्रकाशन मोहन राकेश के मरणोपरांत ही हुआ था। ‘‘अण्डे के छिलके’’ एकांकी, मध्यवर्गीय परिवार में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच की भावनाओं को व्यक्त करती है। इसमें मोहन राकेश ने एक संयुक्त परिवार की अलग-अलग रुचियों को दिखाया जिसमें परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे से छिपकर अपने शौक पूरे करते हैं, लेकिन एक-दूसरे की भावनाओं को समझते भी हैं। इस एकांकी में आधुनिक समाज की दिखावे की संस्कृति और समाज की विकृति की तमाम परतों को खोल कर दिखाया गया है।
‘‘बीज नाटक’’ एकांकी में मानवीय संबंधों और मूल्यों के टूटने से आज के मानव मन का रोगी बनने को दिखाया गया है। मानवीय मूल्यों और संबंधों को सुधारने के अलावा, बाहरी इलाज और नींद की टिकियां लेकर कोई अच्छा नहीं हो सकता। पुरुष कोई नयापन चाहता है, लेकिन उसे वह नहीं मिल रहा है। ऐसे में एक खालीपन व्यक्ति को घेरने लगता है और वह उसमें डूबता चला जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इस एकांकी में मोहन राकेश के उस अवसाद के दर्शन होते हैं जो बचपन से मिले संघर्ष के कारण उनके भीतर घर कर गया था।
मोहन राकेश का जीवनकाल अत्यल्प रहा किन्तु उन्होंने भरपूर सृजन किया। उनके सृजन ने हिन्दी साहित्य को न केवल समृद्ध किया वरन एक ताजापन भी दिया। उनके नाटक ऐतिहासिक परिदृश्य ले कर भी आधुनिक भावबोध एवं मूल्य रचते उनकी कहानियां छीजते संबंधों की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं ताकि उस छीजन को समझा जा सके। मोहन राकेश की एकांकियां जीवनपाठ का नवाचार गढ़ती हैं। उनके लेखन में अनुभव की गहराई और व्यापकता के साथ अस्तित्ववादी विचारधारा के दर्शन होते हैं। स्त्री की स्वतंत्रता का अवगाहन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आह्वान और इन दोनों के साथ सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूकता भी उनके सृजन में स्पष्टतौर पर अनुभव की जा सकती है। मोहन राकेश हिन्दी साहित्य के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न लेखक थे। वे नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार, आलोचक, यात्रा वृत्तांतकार, और संस्मरणकार थे। उन्हें हिन्दी में ‘‘नई कहानी’’ आंदोलन के अग्रदूतों में से एक माना जाता है। उन्होंने हिन्दी नाटकों को आधुनिक प्रविधियों का एक रंगमंच प्रदान किया।
---------------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस #सागरदिनकर #charchaplus #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह
मोहन राकेश के साहित्यिक जीवन पर पर सुंदर आलेख
ReplyDelete