दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
नया साल और साहित्य की घटती पठनीयता का सवाल
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
नए साल का स्वागत हम कर चुके हैं किन्तु कई ज्वलंत प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में वैचारिक द्वार पर खड़े हैं। उन्हीं में से एक प्रश्न है साहित्य के पाठकों की कमी का। लगभग पूरी दुनिया के साहित्यिक समाज में साहित्य की घटती पठनीयता को लेकर पिछले कुछ दशक से चिंता व्याप्त है। विशेषरूप से उन भाषाओं के साहित्य को ले कर जिनका चलन अन्य भाषाओं से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है जैसे हिंदी साहित्य। हिन्दी साहित्य के पाठकों की संख्या पिछले कुछ दशकों में घटी है, यह कहा जाता है। आइए देखते हैं कि क्या सचमुच हिंदी साहित्य की पठनीयता कम हो रही है या यह कोई भ्रम है? यदि यह सच है तो मूल समस्या क्या है?
मैं यहां पहले ही स्पष्ट कर दूं कि यहां चर्चा मुद्रित पुस्तकों के पाठकों की जा रही है, ई-पुस्तकों अथवा डिज़िटल माध्यमों की नहीं।
कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम के सिलसिले में कुछ साहित्यिक मित्रों से मिलने और चर्चा करने का अवसर मिला। कार्यक्रम शुरू होने में समय था अतः चर्चा निकली किताबों की। एक कवयित्री ने बड़े उत्साह के साथ बताया कि उन्होंने कल ही गगन गिल की कविताएं पढ़ी हैं। उनका कहना था कि गगन गिल वास्तव में बहुत अच्छा लिखती है। मैंने उनसे पूछा कि वे तो वर्षों से कविताएं लिख रही है क्या इसके पहले आपने उनकी कविताएं नहीं पढ़ीं? उन्होंने मुझे यह कहकर चौंका दिया इससे पहले तो उन्होंने गगन गिल का नाम भी नहीं सुना था। मैंने पूछा तो फिर अब आपने उनका नाम कहां सुन लिया? उन्होंने बड़ी ईमानदारी से उत्तर दिया की ‘‘गगन गिल को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है न, और यह खबर मैंने अखबारों में पढ़ी थी।’’ यह बात वह महिला कह रही थी जो स्वयं एक कवयित्री है। एक कवयित्री होने के बावज़ूद वे हिंदी में लिखे जा रहे काव्य को लेकर किस तरह बेखबर है यह सोचकर मुझे चिंता हुई। क्या तब तक उस काव्य का रसपान नहीं किया जा सकता है जब तक वह पुरस्कार की पाइप लाइन से न गुज़रे?
मैंने उन कवयित्री से पूछा कि आपने अब तक किन-किन कवि या कवयित्रियों की रचनाएं पढ़ी हैं? उन्होंने बहुत ही संकोच से उत्तर दिया की बहुत कम। फिर उन्होंने साहित्यिक किताबें न पढ़ पाने के कई कारण गिना डाले। थोड़ी देर बाद कार्यक्रम आरंभ हुआ और पहले वक्ता ने ही हिंदी साहित्य के पाठकों की कमी केे प्रति चिंता जताई। उन्होंने दोष दिया अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव को। स्वाभाविक है सबसे पहले दोषी अंग्रेजी का बढ़ता प्रभाव ही दिखाई देता है। विडंबना देखिए कि जो हिंदी साहित्य का सृजन करते हैं जो हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं वे ही सबसे पहले अच्छे से अच्छे अंग्रेजी स्कूल में अपने बच्चों को भर्ती करते हैं और उनके अंग्रेजी बोलने की दक्षता पर खुश होते हैं। खैर, ये अलग मुद्दा है। बहरहाल इस घटना के बाद मैंने चिंतन किया तो मुझे लगा कि पाठकों की तो छोड़िए, हिंदी साहित्यकार हिंदी का कितना साहित्य पढ़ते हैं, यह विचारणीय है। एक बार एक महाविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक ने बड़े शान से मुझे बताया था कि वे चेतन भगत की किताबें पढ़ते हैं। चेतन भगत की किताबें पढ़ने में कोई दोष नहीं है किन्तु दुख इस बात का था कि वे उसे हिन्दी साहित्य मान कर पढ़ते थे। उन्होंने चेतन भगत की अंग्रेजी पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद पढ़ कर मान लिया कि चेतन भगत हिन्दी के साहित्यकार हैं। उस पर इससे भी बड़े दुख की बात थी कि वे हिन्दी के प्राध्यापक थे। हिन्दी के साहित्यकारों के रूप में जहां वे सूर, तुलसी और प्रेमचंद को जानते थे, उसी श्रृंखला में उन्होंने चेतन भगत को भी खड़ा कर दिया था।
इस तरह की घटनाएं सोचने को विवश करती हैं कि जब हम हिन्दी साहित्य में पाठकों की कमी का स्यापा करते हैं तो उसमें कितने प्रतिशत विशुद्ध पाठक हैं और कितने प्रतिशत साहित्यकार? यहां साहित्यकार से आशय आलोचक, समीक्षक एवं सृजनकर्ताओं आदि सभी से है। क्या कथित बड़े आलोचक नवोदित या अचर्चित लेखकों की रचनाएं पढ़ते हैं। साहित्यिक आयोजनों के दौरान अनेक नवोदित अथवा छोटे समझे जाने वाले साहित्यकार अपनी पुस्तकें अतिथि के रूप में आमंत्रित बड़े साहित्यकार को इस आशा से भेंट करते हैं कि वह बड़ा साहित्यकार उनकी पुस्तक कम से कम एक बार तो जरूर पढे़गा, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है। बहुत कम बड़े साहित्यकार ऐसे हैं जो नवोदित या छोटे साहित्यकारों की पुस्तकों पर गहराई से दृष्टिपात करते हैं। वहीं, यदि वह नवोदित साहित्यकार उनके परिचय के दायरे का है तो फिर बात अलग है। फिर तो उसे स्थापित करने के लिए बड़े-बड़े साहित्यकार बड़े-बड़े मंचों से उनके नाम और उनकी पुस्तक का उल्लेख करते हैं। खैर यह भी विषयांतर है। मूल प्रश्न है हिन्दी साहित्य की पुस्तकों के पाठकों की कमी का। यह सच है कि हिन्दी साहित्य के पाठकों की कमी होती जा रही है और उसका एक कारण रहा है उनकी कीमतें। वैसे इस समस्या को प्रकाशकों ने जल्दी ही समझ लिया और अब वे भी हार्ड बाउंड के साथ पेपरबैक्स संस्करण प्रकाशित करते हैं ताकि पाठक उसे आसानी से खरीद सकें। इससे बुकस्टाॅलों पर हिन्दी साहित्य की घटती दर को एक बार फिर बढ़त मिली है। यद्यपि इससे लेखक को आर्थिक नुकसान होता है किन्तु हिन्दी का लेखक तमाम प्रकार के नुकसान उठाने का आदी होता है। वह अपनी जेब से पैसे खर्च कर के किताब छपवाता है, फिर उसे मुफ्त में बांटता है जिससे लोग उसकी किताब पढ़ें। लेकिन किताब लेते समय कोई भी यह ईमानदारी नहीं दिखाता है कि साफ कह दे कि ‘‘मैं अभी नहीं पढ़ सकूंगा या सकूंगी।’’ वह किताब लेने से मना नहीं करता है। फिर वह किताब या तो उसके घर के रद्दी के ढेर में शामिल हो जाती है या फिर किसी और को यह जाने बिना भेंट कर दी जाती है कि वह उसे पढ़ेगा भी या नहीं।
अब दिल पर हाथ रख कर स्वयं साहित्यकार ईमानदारी से सोचें कि वे परस्पर एक-दूसरे का कितना साहित्य पढ़ते हैं? क्या मेरे शहर के साहित्यकार अपने शहर के सभी रचनाकारों की पुस्तकें पढ़ चुके हैं या पढ़ते हैं? उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। यही हाल हर शहर में है। जो आज लिख रहे हैं विशेषरूप से सोशल मीडिया की वाहवाही से प्रेरित हो कर उनमें से बहुतायत ऐसे हैं जिन्होंने न तो स्थापित रचनाकारों की पुस्तकें पढ़ी हैं और न वर्तमान अद्यतन रचनाकारों की। यदि वे पढ़ते नहीं हैं तो वे कैसे समझ पाते हैं कि क्या लिखा गया है? क्या लिखा जा रहा है? या क्या लिखा जाना चाहिए? फिर भी वे लिख रहे हैं और निरंतर लिख रहे हैं, इस भ्रम के साथ कि उन्हें जरूर पाठक समुदाय मिल जाएगा। जब साहित्यकार परस्पर एक-दूसरे की रचनाओं से स्वयं विमुख रहते हैं तो पाठकों को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं कि वे साहित्य नहीं पढ़ रहे हैं।
रहा असली पाठकों का प्रश्न तो हिन्दी को युवा पाठक मिलना इसलिए भी कम हो चला है क्योंकि आज का युवा अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाता है इसलिए उसे हिंदी से ही लगाव नहीं रहता है तो हिन्दी साहित्य कहां से पढ़ेगा। अतः पाठकों की संख्या कम होना स्वाभाविक है। सो, हिन्दी साहित्य की ओर पाठकों को आकर्षित करने और उन्हें पढ़ने के लिए लालायित करने की दिशा में क्या किया जा सकता है, यह मंथन का विषय है। इस पर विस्तार से चर्चा ‘‘शून्यकाल’’ के आगामी लेख में। तब तक इस लेख की यदि कोई बात उद्वेलित करती तो उस पर चिंतन और मंथन किया जा सकता है। मेरे इस लेख में सपाट बयानी में महसूस हो सकती है लेकिन मुझे लगता है कि समय अब सपाट बयानी का ही आ गया है। घुमा फिरा कर चिंतन या मंथन करने से साहित्य को ही और अधिक नुकसान पहुंचेगा, यह मेरी निजी राय है।
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