चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
चर्चा प्लस
‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना...’’ ग़ज़ल लिखने वाले शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’- यह ग़ज़ल जिस शायर ने लिखी थी उसका नाम था बिस्मिल अज़ीमाबादी। यह ग़ज़ल क्रांतिकारियों का प्रिय तराना बन गई थी। इसे भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल तथा उनके साथियों ने भी गाया। जिससे प्रायः यह भ्रम होता रहा कि जैसे इसे राम प्रसाद बिस्मिल ने लिखा हो। बिस्मिल अज़ीमाबादी वह शायर थे जिनके दिल में देशभक्ति का जज़्बा था और उनके इसी जज़्बे ने उनसे यह ऐतिहासिक ग़ज़ल लिखा दी जो क्रांतिकारी देशभक्तों में निरंतर उत्साह का संचार करती रही।
बिस्मिल अज़ीमाबादी का असली नाम सैयद शाह मोहम्मद हसन उर्फ शाह झब्बो था। उन्होंने शायरी शुरू की तो अपना तखल्लुस अर्थात उपनाम बिस्मिल रखा। शायरों में अपने नाम अथवा तखल्लुस के साथ अपने गांव, शहर का नाम जोड़ने का चलन हमेशा से रहा है अतः सैयद शाह मोहम्मद हसन ने अपने तखल्लुस ‘‘बिस्मिल’’ के साथ अपने शहर के नाम पर ‘‘अज़ीमाबादी’’ शब्द और जोड़ लिया जिससे वे बन गए ‘‘बिस्मिल अज़ीमाबादी।
बिस्मिल अज़ीमाबादी का जन्म सन 1901 में हुआ था। उनका जन्म स्थान पटने (अजीमाबाद) से तीस किलोमीटर पर स्थित गांव खुसरू पूर में हुआ। लेकिन दो साल के थे कि पिता चल बसे। शिक्षा-दीक्षा का भार नाना सैयद शाह मुबारक हुसैन पर आन पड़ा। उनके पूर्वज चांदपुरा से खुसरूपुर (नवादा, जिला पटना, बिहार) चले गए थे, जो अब नालंदा में है। वहां से वे आगे पटना चले गए और लोदीकटरा इलाके में बस गए। उनके पैतृक पक्ष से उनके वंश का पता हजरत मखदूम शाह से चलता है, जिनका मकबरा चांदपुर, नालंदा में स्थित है। उनकी मातृवंश भी समाज में विशेष स्थान रखता था। वे मशहद मुकद्दस (ईरान) से भारत आए और विभिन्न स्थानों पर थोड़े समय रहने के बाद अंततः काको (जिला गया, बिहार) में बस गए, जो अब बिहार के जहानाबाद जिले में है। उनके नाना सैयद शाह हबीब उर रहमान (उर्फ शाह मुबारक काकवी) आखिरकार अजीमाबाद (पटना) में बस गए थे। उनके नाना और मामा (खान बहादुर सैयद शाह तहीउद्दीन उर्फ शाह कमाल, उपनाम कमाल अज़ीमाबादी) मशहूर शायर थे और वाहिद इलाहाबादी के शिष्य थे। बिस्मिल अज़ीमाबादी की आरम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई और बाद में स्कूल में दाखिला मिल गया। उन्होंने स्कूल में कुछ साल पूरे किए थे, जब बड़े भाई शाह नबी हसन की शादी के कुछ साल बाद ही निःसंतान मृत्यु हो गई और घर की पूरी जिम्मेदारी उनके युवा कंधों पर आ गई और वे स्कूल के बाद आगे नहीं पढ़ सके। लेकिन साहित्य की विरासत उनके रक्त में थी। उनका एक शेर है-
सोचने का भी नहीं वक्त मयस्सर मुझ को
इक कशिश है जो लिए फिरती है दर दर मुझ को
साहित्य के माहौल में पले-बढ़े होने के कारण बचपन से ही उनमें इसकी रुचि रही। उन्होंने समकालीन और पुराने उस्तादों की कई रचनाएं याद कर ली थीं। जिस दौर में वे रहते थे, वह अजीमाबाद का सबसे गौरवशाली दौर था, शहर का एक भी पढ़ा-लिखा घर ऐसा नहीं था, जिसके घर में कोई शायर न हो। लगभग हर सप्ताह मुशायरे हुआ करते थे, जिसमें भारी भीड़ होती थी। भाई की मृत्यु के बाद जब घर का बोझ उन पर पड़ा, तो बिस्मिल ने उर्दू शायरी में अपनी रुचि कम कर दी। कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा, दिल को छू लेने वाला था। ‘‘सरफरोशी की तमन्ना’’ बिस्मिल की एक बेहद लोकप्रिय गजल है।
बिस्मिल का विवाह सैयद शाह मजहर हसन की सबसे छोटी बेटी हसीना खातून से हुआ था। वे कपड़ों के शौकीन थे और वेश-भूषा का विशेष ध्यान रखते थे। आमतौर पर वे काली शेरवानी, सिर पर काली नाव के आकार की टोपी, पैरों में पंप शू और हाथ में छड़ी पहनना पसंद करते थे। उन्हें पान और हुक्का का बहुत शौक था। बिस्मिल के जीवन में दुख और दर्द के दौर आए और थोड़े-थोड़े अंतराल पर खुशी भी आई जिससे उनकी ज़िन्दादिली बनी रही।
अब दम-ब-खुद हैं नब्ज की रफ्तार देख कर
तुम हंस रहे हो हालत-ए-बीमार देख कर
सौदा वो क्या करेगा ख़रीदार देख कर
घबरा गया जो गर्मी-ए-बाजार देख कर
अल्लाह तेरे हाथ है अब आबरू-ए-शौक
दम घुट रहा है वक़््त की रफ्तार देख कर
बिस्मिल के पिता ने अपने जीवनकाल में ही हरदासपुर बीघा (जो पटना से कुछ किलोमीटर दूर है) के खूबसूरत इलाके में एक खूबसूरत मकान बनवाया था। वे इस गांव के जमींदार थे और उनकी जमीन पर काफी खेती होती थी। कभी-कभी बिस्मिल के पिता छुट्टियों में यहां आते और कुछ दिन रुकते थे। जब बिस्मिल और उनके भाई कलकत्ता से लौटे तो उनकी मां उन्हें हरदासपुर बीघा के इस मकान में रहने के लिए ले गईं। वे 1945 तक वहां रहे और उन्हें हरदासपुर बीघा से काफी लगाव हो गया था। उन्होंने ‘‘परिंदों के शौकीन’’ शीर्षक से एक निबंध लिखा, जिसमें उन्होंने हरदासपुर बीघा का एक सुंदर वर्णन किया। बिस्मिल का खुसरुपुर से भी बहुत गहरा नाता था, जहां वे झब्बू भाई के नाम से मशहूर थे और उनका बहुत सम्मान किया जाता था। वे खुशी या गम के किसी भी मौके पर हमेशा वहां मौजूद रहते थे और दोनों ही मौकों पर बराबर हिस्सा लेते थे। खुसरुपुर के लोग बिस्मिल को बहुत पसंद करते थे और महत्वपूर्ण मामलों में उनसे सलाह लेते थे। वे अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान सभी वर्गों में लोकप्रिय थे। 1947 में भारत स्वतंत्र हो चुका था लेकिन देश सांप्रदायिक तनाव का बिस्मिल अज़ीमाबादी पर भी बहुत गहरा असर हुआ। अज़ीमाबाद में होने वाले सभी मुशायरों में वे हमेशा सबसे आगे रहते थे।
अब मुलाकात कहां शीशे से पैमाने से
फातिहा पढ़ के चले आए हैं मयख़ाने से
क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं
जी तो कहता है कि उठ जाइए मय-ख़ाने से
फूंक कर हम ने हर इक गाम पे रक्खा है क़दम
आसमां फिर भी न बाज आया सितम ढाने से
हम को जब आप बुलाते हैं चले आते हैं
आप भी तो कभी आ जाइए बुलवाने से
बिस्मिल ने खूब लिखा, लेकिन उनकी अधिकांश रचनाएं खो गई हैं। फिर सैयद शाह मेहदी हसन और सैयद शाह हादी हसन ने उनकी बची हुई रचनाओं को क्रमबद्ध करके एक किताब “हिकायत-ए-हस्ती” में संकलित किया और इसे बिहार उर्दू अकादमी ने प्रकाशित किया। उनकी अधिकांश बची हुई रचनाएं इस किताब में उपलब्ध हैं।
न अब चमन की ख़बर है न आशियाने की
मैं क्या करूं कि तबीअत नहीं ठिकाने की
बिगड़ रही है कुछ ऐसी फजा जमाने की
चमन की ख़ैर है या-रब न आशियाने की
बिस्मिल अज़ीमाबादी की सबसे बड़ी बेटी का उनके जीवनकाल में ही निधन हो गया और इसने उन्हें बहुत प्रभावित किया। इसने उन्हें तोड़ दिया। उनका स्वास्थ्य हर गुजरते दिन के साथ बिगड़ता गया। दूसरी ओर उनकी पत्नी लंबे समय से बीमार चल रही थीं। उनका मानसिक संतुलन और धैर्य बिखर गया था। 1976 में उन्हें स्ट्रोक हुआ जिससे वे लकवाग्रस्त हो गए। वे अगले दो सालों तक जीवन से संघर्ष करते रहे। वे न तो बोल सकते थे, न ही सुन सकते थे और न ही समझ सकते थे। अंततः 20 जून 1978 को उनका निधन हो गया और उनकी वसीयत के अनुसार उन्हें कुर्था गांव में उनकी मां के बगल में दफनाया गया।
चलिए एक बार फिर स्मरण करते हैं बिस्मिल अज़ीमाबादी की यह प्रसिद्ध ग़ज़ल -
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
ले तिरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफिल में है
वाए किस्मत पांव की ऐ जोफ कुछ चलती नहीं
कारवाँ अपना अभी तक पहली ही मंजिल में है
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज्जत-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंजिल में है
शौक से राह-ए-मोहब्बत की मुसीबत झेल ले
इक खुशी का राज पिन्हाँ जादा-ए-मंजिल में है
आज फिर मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
आएं वो शौक.-ए-शहादत जिन के जिन के दिल में है
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये गनीमत वक़्त है खंज़र कफ-ए-क़ातिल में है
माने-ए-इज़हार तुम को है हया, हम को अदब
कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है
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