चर्चा प्लस
कश्मीर की दशा पर जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जवाहरलाल नेहरू को खुलकर चिट्ठियां लिखी थीं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
कश्मीर प्राकृतिक रूप से जितना सुंदर है उतना ही राजनीतिक रूप से प्रताड़ित होता रहा है। उसे लगभग हमेशा अशांति के दंश झेलने पड़े हैं। यदि विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं की आपबीती सुनी जाए तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं और शरीर में सिहरन दौड़ जाती है। इधर एक अरसे से कश्मीर में आतंकी गतिविधियों ने गुपचुप पांव पसार रखे हैं। उनके मंसूबों का पता तब चलता है जब वे कोई चोट पहुंचा देते हैं। कश्मीर का अतीत भी कम पीड़ा भरा नहीं रहा। कश्मीर में 1952 में एक आंदोलन हुआ था जिसके दौरान पं. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को क्रमशः पांच पत्र लिख कर कड़ा विरोध जताया था।
राजनीतिक दृष्टि से कश्मीर हमेशा शतरंज की बिसात पर बैठा मिला है। यदि कश्मीर के अतीत में झांक कर देखा जाए, वह भी बहुत पहले नहीं, मात्र स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के पहले दशक में तो वहां भी कश्मीर दुर्भाग्य की आग में झुलसता दिखाई देगा। अगस्त-सितम्बर 1951 में कश्मीर में संविधान सभा के चुनाव निर्धारित हुए। शेख अब्दुल्ला इन चुनावों को भारत के निर्वाचन आयोग की देख-रेख में कराने को सहमत नहीं हुए अतः शेख प्रशासन स्वयं ही इनका प्रबंधन कर रहा था। नेशनल कांफ्रेंस के अतिरिक्त प्रजा परिषद तथा निर्दलीय उम्मीदवारों ने अपने नामांकन दाखिल किये किन्तु बिना किसी ठोस आधार के उनमें से अधिकांश के नामांकन रद्द कर दिये गये। कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी खड़े नहीं किये थे क्योंकि कांग्रेस नेशनल कांफ्रेंस को ही अपना प्रतिनिधि मानती थी। परिणाम यह हुआ कि नेशनल कांफ्रेंस के 75 में से 73 प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिये गये। दो स्थानों पर हुए चुनाव में भी नेशनल कांफ्रेंस विजयी रही। यह लोकतंत्र का खुला उपहास था। यहीं से जम्मू और लद्दाख के लोगों के मन में अपने भविष्य को लेकर आशंकाएं बलवती होने लगीं।
अगस्त, 1952 में प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार पं. नेहरू ने यह भी स्वीकार किया कि राज्य का अपना अलग झंडा होगा। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति नहीं, बल्कि वह विधानसभा द्वारा चुना जायेगा। भारतीय संविधान के अंतर्गत मौलिक अधिकार एवं कर्तव्य संबंधी प्रावधान पूरी तौर पर लागू नहीं होंगे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का अधिक्षेत्र नहीं होगा, केवल अपीलीय मामले उसके समक्ष प्रस्तुत होंगे। युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण को छोड़ कर किसी भी स्थिति में केन्द्र द्वारा बिना राज्य की सहमति के आपात स्थिति लागू नहीं की जा सकेगी। इन तमाम बातों से राज्य की जनता के मन में संदेह के बादल उत्पन्न हुए और पूरे देश में भ्रम की स्थिति निर्माण हुई।
*प्रजा परिषद का आंदोलन*
शेख अब्दुल्ला के राष्ट्रविरोधी मंसूबे और केन्द्र सरकार की समझौतापरस्त नीतियां जहां देशभर में राष्ट्रीय जनमानस को उद्वेलित कर रही थीं, वहीं राज्य के अधिकांश नागरिकों को भयाक्रांत कर रही थीं। विशेष रूप से राज्य की हिन्दू-सिख जनता को अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा था। शेख की मनमानी का विरोध करने वाले हर व्यक्ति का उत्पीड़न किया जा रहा था।
शेख अब्दुल्ला के दबाव में हुए दिल्ली समझौते, राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत राजप्रमुख को असंवैधानिक ढंग से बदल कर ‘सदरे रियासत’ की घोषणा आदि घटनाक्रम ने राज्य में अनिश्चितता और आशंका का वातावरण उत्पन्न कर दिया। परिणामस्वरूप प्रजा परिषद को निर्णायक आन्दोलन की ओर बढ़ने को बाध्य होना पड़ा। 23 नवंबर 1952 को जम्मू में एक जनसभा को संबोधित करते हुए पं. प्रेमनाथ डोगरा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके साथ ही पूरे जम्मू संभाग में प्रत्यक्ष आंदोलन प्रारंभ हो गया। हर दिन हजारों की संख्या में अहिंसक आंदोलनकारी सड़कों पर निकल पड़ते। पुलिस के अमानवीय अत्याचार भी उन्हें रोक न पाते। संघर्ष बढ़ता जा रहा था और आगे चल कर प्रतिक्रियास्वरूप इसके हिसक हो जाने की भी प्रबल संभावना थी। डाॅ. मुखर्जी नहीं चाहते थे चंद लोगों की सत्तालोलुपता के कारण हजारों निर्दोषों का रक्त बहे।
दिल्ली में आंदोलन की आग जम्मू में आंदोलन अपने चरम पर था। हर दिन आंदोलनकारियों पर लाठी और गोली चल रही थी। 30 दिसम्बर, 1952 को सुन्दरवनी में शेख की मिलीशिया ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां चलायीं जिसमें 25 वर्षीय विष्णुलाल और 20 वर्षीय रामजी दास नामक सत्याग्रहियों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गयी। 3 महिलाओं सहित 25 लोग घायल हुए। बेलीराम नामक एक युवक, जो गोली लगने से घायल हो गया था, का सिर एक भारी पत्थर से कुचल कर उसकी हत्या कर दी गयी।
जब यह समाचार दिल्ली पहुंचा तो अगले ही दिन पूरी दिल्ली में जुलूस और विरोध प्रदर्शनों का क्रम शुरू हो गया। हौजकाजी में पुलिस ने कठोरतापूर्वक लाठियां बरसाईं जिसमें 60 लोग घायल हुए। आंसू गैस के गोले भी दागे गये। इसने विरोध को और अधिक गति दे दी। इस समय कानपुर में भारतीय जनसंघ का वार्षिक अधिवेशन जारी था। जनसंघ ने एक तथ्यान्वेषी शिष्टमण्डल जम्मू भेजने की घोषणा की किन्तु भारत सरकार ने उसे वहां जाने की अनुमति नहीं दी।
जवाहरलाल नेहरू को प्रथम पत्र कश्मीर में हिन्दुओं पर बढ़ते जा रहे अत्याचार को देखते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1 जनवरी 1953 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को प्रथम पत्र लिखा-
‘‘हमने कानपुर में जनसंघ अधिवेशन में कश्मीर के विषय पर विचार-विमर्श किया था और सभी की इच्छा थी कि मैं इस पर आपसे और शेख अब्दुल्ला से सीधे विचार-विनिमय करूं। मैं जानता हूं कि आप इस विषय में हमसे सहमत नहीं हैं। फिर भी मैं इस आशा से आपको यह पत्र लिखने को प्रेरित हुआ हूं कि आप खुले मस्तिष्क से उन लोगों का दृष्टिकोण समझने की कोशिश करेंगे जो आपसे सहमत न हों। यह बहुत आवश्यक है कि जिन परिस्थितियों ने इस आंदोलन को प्रेरणा दी, उसका निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया जाए और शीघ्र ही ऐसा शांतिपूर्ण समझौता किया जाए जो इससे सम्बद्ध सभी के लिए न्यायोचित हो।
प्रजा परिषद के नेताओं और अन्य लोगों ने बारम्बार यह प्रयास किया है कि वैधानिक ढंग से कोई शांतिपूर्ण समझौता हो जाए। आपको, डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद, राज्यमंत्री शेख अब्दुल्ला को पत्र भेजे गए। इनमें से कुछ के साथ साक्षात्कार करने का प्रयत्न भी किया गया, जिनका अधिकतर अवसर ही नहीं दिया गया। समय-समय पर सभाएं होती रहीं और गूढ़ विचार-विनिमय के बाद जनता के समक्ष प्रजा परिषद तथा इसके समर्थकों के दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए। प्रकटरूप से संबंधित अधिकारियों ने जनता के इन विचारों पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि इनसे घृणा का व्यवहार किया। दूसरी ऐसी बातों की ओर जो विवादास्पद थीं, अधिकारियों ने अनावश्यक तत्परता से ध्यान दे कर एक संकटप्रद स्थिति पैदा कर दी।
आप और शेख अब्दुल्ला को अब तक यह समझ लेना चाहिए था कि यह अंादोलन बलप्रयोग अथवा आतंक से नहीं दबेगा। जम्मू और कश्मीर की समस्या पर पार्टी की दृष्टि से विचार नहीं करना चाहिए। यह एक राष्ट्रीय समस्या है, जिसके लिए एक संयुक्त अभिमत बनाने का प्रयत्न होना चाहिए।
जम्मू और कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है ओर इस हेतु शेष भारत के लोगों का इस राज्य के मामलों में रुचि लेना बिलकुल स्वाभाविक और उचित है।
जम्मू के लोग किसी भी परिस्थिति में भारत के साथ अपना संबंध तोड़ने को तैयार नहीं हैं। विलय के इस मूलप्रश्न को हमेशा के लिए सुलझाने में जितनी देर होगी उतनी ही गुत्थियां तथा अशांति की संभावनाएं बढ़ेंगी।
क्या यह मांग करना जम्मू वासियों का पैतृक अधिकार नहीं है कि वे उसी संविधान से अनुशासित होंगे जो शेष भारत में व्यवहार में है। इन लोगों का यह नारा ‘एक प्रधान, एक विधान, एक निशान’ उनकी देशानुराग पूर्ण भावनाओं की अभिव्यक्ति है, जिसके द्वारा वे अपना संघर्ष चला रहे हैं।’’
*पत्र का उत्तर*
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इस पत्र का उत्तर देते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि -‘‘मैं बिलकुल तैयार हूं और मुझे विश्वास है कि शेख अब्दुल्ला भी जम्मूवासियों की शिकायत सुनने और यथासंभव उन्हें दूर करने के लिए तैयार हैं। किन्तु प्रजा परिषद की मांगे मूलभूत संवैधानिक प्रश्न हैं जो किन्हीं कारणों से मानी नहीं जा सकती है। वे एक बड़े कठिन और विवादग्रस्त संवैधानिक प्रश्न को युद्ध द्वारा सुलझाना चाहते हैं। यह सहज ही प्रकट है कि इन तरीको सं वांछित परिणाम नहीं निकल सकता।
आपको यह समझ लेना चाहिए कि मैं जम्मू-कश्मीर के प्रश्न को सुलझाने को उत्सुक हूं, लेकिन यह प्रश्न अब इतना उलझ गया है कि इसे आज्ञा या लोकसभा के कानून द्वारा हल करना कोई हंसी-खेल नहीं है, जैसाकि कुछ लोग समझते हैं। जम्मू समस्या को हल करने का सीधा तरीका यह है कि पहले आंदोलन बिलकुल बंद कर दिया जाए और तब शिकायतों पर विचार किया जाए। मुझे आशा है आप इस ओर अपने प्रभाव से प्रजा परिषद् का मार्गदर्शन करेंगे। यदि आप चाहते हैं तो मैं आपसे मिल कर प्रसन्न होऊंगा, किन्तु मैं दस दिनों के लिए मुम्बई और कोलकाता जा रहा हूं।’’
*एक राजनीतिक चूक*
इस प्रकार अपने पत्र में जवाहरलाल नेहरू ने प्रजापरिषद को ही दोषी ठहराया। इसके बाद अपने एक भाषण में भी प्रजा परिषद के आंदोलन को साम्प्रदायिक ठहराया। इस तरह एक राजनीतिक चूक ने कश्मीर की स्थिति को किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचने से रोक दिया।
सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली के लिए ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व’’ श्रृंखला में श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जीवनी लिखते समय मुझे इन पत्रों की जानकारी मिली। कश्मीर की स्थिति को दर्शाते इस पत्राचार के उस प्रथम पत्र को जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखा था तथा प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया उत्तर मैंने ‘‘चर्चा प्लस’’ की इस कड़ी में रखा है। शेष चार पत्रों के लिए आप मेरी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: श्यामाप्रसाद मुखर्जी’’ पढ़ सकते हैं जो अमेजन एवं फ्लिपकार्ट से भी मंगाई जा सकती है। मुझे लगता है कि कश्मीर के वर्तमान की पीड़ा को समझने के लिए उसके अतीत को जानना भी आवश्यक है। तब अहसास होगा कि वहां दर्द की जड़े कितनी गहरी हैं।
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