Wednesday, June 25, 2025

चर्चा प्लस | कितना सोचा जाता है बेटियों के बारे में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
कितना सोचा जाता है बेटियों के बारे में?
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह               
       ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’- बहुत सुखद नारा है। यह उस समय और भी सुखद लगता है जब किसी कन्या विद्यालय की छात्राएं अथवा किसी महिला संगठन की महिलाएं हाथों में तख़्तियां लिए इस नारे को जोर-शोर से बुलंद करती हुई जुलूस निकालती हैं। ऐसा लगता है कि बेटियों को अब एक सुविधाजनक दुनिया मिल कर रहेगी। किन्तु सच्चाई इससे अभी भी कोसों दूर है। बेटियों के लिए स्कूल के दरवाजे तो खोले गए हैं लेकिन उन्हें वे सारी सुविधाएं अभी भी नहीं मिल रही हैं, जो मिलना चाहिए। स्कूलों में भी बेटियों के लिए सुरक्षा और सुविधाओं में अभी भी कमी है। क्या कारण है इसका?


हमारे देश की बेटियां सबसे अधिक श्रमशील और सबसे अधिक जीवट हैं। वे हर प्रकार की विषम परिस्थिति में स्वयं को अडिग बनाए रखती हैं। दुर्भाग्यवश बेटियों के इस गुण को समाज ने जानते हुए भी समझने से इनकार कर किया। एक समय वह भी आया जब 1000 बेटों पर 911 बेटियों की औसत दर का आंकड़ा आ गया था। ऐसा इसलिए हुआ कि उस समय तक भ्रूण के लिंग की जांच और भ्रूण हत्या का कारोबार खुल कर चल रहा था। फिर सरकार ने इस विकट स्थिति को अपने संज्ञान में लिया और मेडिकली परमिशन के बिना भ्रूण के लिंग की जांच अथवा भ्रूण की हत्या को अपराध घोषित किया गया। इसके लिए अलग से अधिनियम बनाया गया। गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (पीसीपीएनडीटी अधिनियम) के तहत, भ्रूण के लिंग का निर्धारण करना या किसी को बताना अवैध करार दिया गया, और ऐसा करने वालों के लिए सजा का प्रावधान रखा गया। गर्भधारण पूर्व और प्रसूति-पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के तहत दण्डनीय अपराध यदि-
1.गर्भवती महिला को उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण के लिंग के बारे में जानने के लिए उकसाया जाए।
2.गर्भवती महिला पर उसके परिजनों या अन्य व्यक्ति द्वारा लिंग जांचने के लिए दबाव बनाया जाए।
3.वे डॉक्टर जो इस तकनीक का दुरूपयोग करते हैं या कोई भी ऐसा व्यक्ति अपने घर या बाहर कहीं पर लिंग की जांच के लिए किसी तकनीक का प्रयोग या मशीन का प्रयोग करता है- लेबोरेटरी, अस्पताल, क्लीनिक तथा कोई भी ऐसी संस्था जो सोनोग्राफी जैसी तकनीक का दुरुपयोग लिंग चयन के लिए करते हैं।
4.गर्भवती महिला एवं पति द्वारा स्वयं इस तरह का कोई कृत्य जिससे लड़के के जन्म को बढ़ावा दिया जा रहा हो जैसे - आयुर्वेदिक दवाईयाँ खाना या कोई वैकल्पिक चिकित्सा या कोई भी व्यक्ति गर्भवती स्त्री और उसके रिश्तेदारों को शाब्दिक रूप से या सांकेतिक मुद्राओं से भ्रूण का लिंग बताए तो अपराधी माना जाएगा।
5. भ्रूण के लिंग के चयन की सुविधा के बारे में किसी प्रकार के इश्तहार या प्रकाशन या पत्र निकालने वाले भी अपराधी माने जाते हैं।
इस कानून के अन्तर्गत प्रत्येक जुर्म संज्ञेय व गैर जमानती है और समझौता योग्य नहीं है। गर्भधारण पूर्व और प्रसूति-पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 अधिनियम के अन्तर्गत दण्डात्मक प्रावधान में लिंग चयन के लिए भ्रूण की जांच कराने पर 03 साल तक की जेल और रु. 10000 तक का जुर्माना हो सकता है। दुबारा ऐसा अपराध करने पर 05 साल की जेल और रु. 50000 तक का जुर्माना हो सकता है। इस तरह की जांच करने वाले डॉक्टर एवं तकनीकी सहायक को 03 साल तक की जेल और रु. 10000 तक का जुर्माना हो सकता है। डॉक्टर या तकनीकी सहायक द्वारा दुबारा अपराध करने पर 05 साल तक की जेल और रू. 50000 तक जुर्माना हो सकता है। लिंग चयन के लिए भ्रूण की जांच करने वाले केन्द्रों का पंजीयन रद्द किया जा सकता है। लिंग चयन के लिए भ्रूण की जांच सम्बंधी विज्ञापन देना अपराध है। ऐसा करने वाले को 03 साल की जेल और रु. 10000 का जुर्माना हो सकता है। यदि गर्भवती महिला की सोनोग्राफी/अल्ट्रासाउण्ड तकनीक से जांच की जाती है तो अल्ट्रासाउण्ड करने वाले को 02 साल तक जांच का पूरा ब्यौरा रखना होगा। ऐसा नहीं करने पर सजा हो सकती है या ऐसी जांच के लिए गर्भवती महिला से लिखित अनुमति लेना जरूरी है। साथ ही गर्भवती महिला को इस अनुमति की कॉपी देना भी जरूरी है। इस संबंध में मदद एवं शिकायत के लिए टोल फ्री नंबर भी हैं- समाधान शिकायत निवारण प्रकोष्ठ-18001805220, वूमेन्स पावर लाइन-1090, पुलिस-100 एवं निःशुल्क विधिक सहायता-18004190234, 15100 नंबर।
सामाजिक जागरूकता के बिना सरकार के सारे प्रयास शत प्रतिशत परिणाम तो नहीं दे सकते हैं किन्तु इस अधिनियम के लागू किए जाने से कन्या भ्रूण को पहचान कर मारे जाने का अमानवीय अपराध न्यूनतम स्तर पर आ गया। इससे बेटियों को जन्म लेने का एक बार फिर अवसर मिलने लगा। लेकिन जन्म लेने के बाद अनचाही बेटियों का जीवन क्या पूरी तरह सुरक्षित और आरामदायक होता है? नही! अनेक अनचाही बेटियां परिवार की उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार होती रहती हैं। घर में उन्हें और उनकी जन्मदात्री मां को कोसा जाता है, उनसे रूखा व्यवहार किया जाता है। पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव इतना अधिक होता है कि वे चाह कर भी अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं कर पाती हैं और अपनी प्रताड़ना को अपनी नियति मान कर चुपचाप सहती रहती हैं। अनचाही बेटियों को न तो भरपेट खाना मिलता है और न सुखद जीवन। उन्हें भी बड़ी होने पर विवाह के बाद यही शब्द सुनने को मिलते हैं कि ‘‘बहू जल्दी से पोतेे का मुंह दिखा दे!’’ यानी किस्सा दोहराए जाने को तैयार।
कन्या भ्रूण के हित में बने अधिनियम से बेटियों को जन्म पाने का अवसर मिलने लगा है। अनेक परिवार उन्हें पढ़ाने में भी रुचि रखते हैं। कोई बेटी के अच्छे भविष्य के लिए, तो कोई पढ़ा-लिखा कर अच्छा वर जुटाने के उद्देश्य से तो कोई मात्र बेटियों को मिलने वाले स्कालरशिप हड़पने के उद्देश्य से। ध्यान रहे कि यहां इस संदर्भ में पढ़े-लिखे समझदार परिवारों की चर्चा नहीं की जा रही है और न ही उन परिवारों की जो अपनी बेटियों को अच्छे प्रायवेट स्कूलों में शिक्षा दिलाते हैं। यहा मैं चर्चा कर रही हूं आम सरकारी स्कूलों की जिनके लिए नियम तो अनेेक बनाए गए हैं किन्तु उनका पालन हो रहा है या नहीं, इसे संज्ञान में लेने वाला कोई दिखाई नहीं देता है। ग्रामीण क्षेत्रों अथवा निचली बस्तियों में चल रहे आम सरकारी स्कूलों में बेटियों के हित में तय की गई योजनाओं का अता-पता नहीं मिलेगा। कहीं यदि कोई प्राचार्य व्यक्तिगत रुचि ले कर कोई कार्य करा रहा है तो उस अपवाद की बात भी यहां नहीं हो रही है। लड़के और लड़कियों के एक साथ पढ़ने में कोई बुराई नहीं है। बल्कि को-एजुकेशन में दोनों के बीच पारस्परिक समझ स्वाभाविक रूप से विकसित होती है और किसी प्रकार का ‘‘टैबू’’ मन में घर नहीं बना पाता है। किन्तु मूल समस्या है स्कूलों में बेटियों को मिलने वाली सुविधाओं की।
सरकार द्वारा तय तो यह किया गया कि प्रत्येक स्कूल में जहां बालिकाएं पढ़ती हैं, सेनेटरी नैपकिन उपलब्ध कराए जाएं। इसके लिए दो विकल्प थे कि एक तो स्कूलों में बालिकाओं को सेनेटरी नैपकिन्स दिए जाएं और दूसरा विकल्प था कि उन्हें सेनेटरी नेपकिन्स खरीदने के लिए पैसे दिए जाएं। अलग-अलग राज्य सरकारों ने अलग-अलग रास्ते चुने हैं।
मध्य प्रदेश में डॉ मोहन यादव की सरकार ने किशोरियों को सैनिटरी नैपकिन खरीदने के लिए नकद राशि प्रदान करने वाली भारत की पहली राज्य सरकार बनने की पहल की। यह नकदी राज्य सरकार की स्वास्थ्य एवं स्वच्छता योजना के तहत प्रदान की जा रही है। इसके अंतर्गत सातवीं से 12वीं कक्षा तक की प्रत्येक स्कूली बालिकाओं को सेनेटरी पैड खरीदने के लिए सालाना पैसे दिए जाते हैं। इस योजना के तहत पहले छात्राओं को 150 रुपये दिए जाते थे, जिसे बढ़ाकर अब अब सालाना 300 रुपये कर दिए गए हैं। भारत में कई राज्य सरकारें किशोर लड़कियों को मुफ्त सैनिटरी नैपकिन प्रदान करती हैं, लेकिन उनमें से कोई भी लाभार्थियों को नकद नहीं देती है। योजना बहुत अच्छी है, इसमें कोई संदेह नहीं। किन्तु इसका वह व्यवहारिक पक्ष भी फालोअप किया जाना जरूरी है जहां बालिकाओं से उनके स्काॅरशिप के पैसे खाते से निकालने के बाद शराबी पिता अथवा घर की अन्य जरूरतों के लिए छुड़ा लिए जाते हैं। अतः जिन बालिकाओं को सेनेटरी पैड के लिए सरकार पैसे दे रही है, क्या वे सभी बालिकाएं अपने लिए सेनेटरी पैड खरीद पा रही हैं या उनसे पैसे ले कर उन्हें घरेलू पुराने कपड़े थमाए जा रहे हैं। फिर विचारणीय यह भी है कि क्या बाज़ार में इतनी कम कीमत के सेनेटरी पैड उपलब्ध हैं जो 300 रुपए सालाना में जरूरत पूरी कर सकें। पैड्स का उपयोग भी हर बालिका के लिए नपातुला एक-सी संख्या में तय नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक की आवश्यकता अलग होती है।
दूसरा पक्ष यह भी ध्यान देने योग्य है कि मासिक धर्म अचानक शुरू होने वाली शारीरिक प्रक्रिया है अतः इसके लिए स्कूलों में सेनेटरी पैड वेंडिंग मशीनों का होना भी जरूरी है। जिससे आवश्यकता पड़ने पर बालिका बेझिझक तुरंत सेनेटरी पैड प्राप्त कर सके। इस पर भी सरकार ने योजना बनाई किन्तु इसका ढंग से क्रियान्वयन नहीं हुआ है। जबकि चाहे कोएजुकेशन स्कूल हों या बालिका स्कूल, दोनों में सेनेटरी पैड वेंडिग मशीन होनी चाहिए। यदि को-एजुकेशन स्कूल में इस प्रकार की मशीनें रहेंगी तो इससे बालकों में भी बालिकाओं की प्राकृतिक समस्या अथवा विशेषता के प्रति समझ बढ़ेगी और वे इसके प्रति एक स्वाभाविक दृष्टिकोण अपनाएंगे।
मध्य प्रदेश सरकार ने तो मासिक धर्म से जुड़े मिथक और वर्जनाओं से निपटने के लिए 1 नवंबर 2016 को महिला एवं बाल विकास परियोजना के तहत शुरू की थी। इस योजना का क्रियान्वयन आंगनबाडी कार्यकर्ताओं एवं सहायिकाओं के माध्यम से किया जा जाता है। इसमें बालिकाओं को भी मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियों से मुक्त करने का प्रावधान है। किन्तु उन स्कूलों पर ध्यान दिया जाना सबसे अधिक जरूरी है जहां बालिकाओं को स्वच्छ शौचालय भी नसीब नहीं होता है। ऐसी बालिकाएं तरह-तरह के इंफेक्शन की शिकार होती रहती हैं या फिर वे उन पांच दिनों में स्कूल जाने से ही कतराती हैं, लिससे उनकी पढ़ाई कर हर्जा होता है और उन्हें स्कूल न पहुंच पाने का कारण बताने में झिझक भी होती है।
इस संदर्भ में सरकार को भी यह संज्ञान में लेना होगा कि मात्र पैसे बांटने से समस्या का पूरा हल नहीं निकलता है। समस्या के प्रत्येक व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान देना भी जरूरी है। जो योजना शहरी अथवा सुशिक्षित इलाके में सौ प्रतिशत परिणाम दे, जरूरी नहीं है कि वह अल्प शिक्षित ग्रामीण इलाके अथवा झुग्गी बस्तियों के इलाके में भी वही परिणाम देगी। जिस उद्देश्य के लिए जो पैसे उपलब्ध कराए जा रहे हैं, उन पैसों से वह कार्य सुचारु रूप से हो भी रहा है कि नहीं, यह देखना भी जरूरी है।
इसी तरह आम सरकारी स्कूलों में काउंसलर्स नियमित रूप से उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं। बालक-बालिकाओं को ‘‘गुड टच और बैड टच’’ सिखा देने के साथ उनमें उस जागरूकता को लाना भी जरूरी है कि वे ‘‘बैड टच’’ करने वाले की खुल कर शिकायत करने का साहस कर सकें। इसमें काउंसलर्स की अहम भूमिका होती है जो बच्चों के मन को टटोल कर उनका भय दूर कर सकते हैं। ऐसे बुनियादी मामलों में अभी भी योजनाएं पिछड़ रही हैं क्योंकि उन्हें लागू करने के बाद उनका पर्याप्त फालोअप नहीं लिया जाता है। 
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Tuesday, June 24, 2025

पुस्तक समीक्षा | जीवन के संवेदनाजन्य सरोकारों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 24.06.2025 को 'आचरण' में 
पुस्तक समीक्षा
   जीवन के संवेदनाजन्य सरोकारों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति 
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - साथ आपका पाकर
कवयित्री - सुनीला सराफ
प्रकाशक- जवाहर पुस्तकालय, सदर बाजार, मथुरा - 281001 (उप्र) 
मूल्य - 350/-
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प्रत्येक रचनाकार इसी समाज में रहता है। इसी समाज के अनुभवों को जीता है और उन्हीं को अपने अंतर्मन में महसूस कर अपने शब्दों में अभिव्यक्त प्रदान करता है। इस अभिव्यक्ति में निजी अनुभव, पर-अनुभव तथा समाज एवं विश्व के अनुभव शामिल होते हैं। इन अनुभवों से उसके निजी सरोकार गहरे तक जुड़े होते हैं जब वह दूसरों के दुख-सुख को भी अपना मान लेता है तो उसकी व्याकुलता कविता बनाकर फूट पड़ती है। कवयित्री सुनीला सराफ ने अपने काव्य संग्रह ‘‘साथ आपका पाकर’’ में अपनी जिन कविताओं को संजोया है, उनमें उनके उन्हीं सरोकारों की रचनाएं हैं जिन्हें उन्होंने प्रत्यक्ष या मानसिक आधार पर अनुभव किया है, इसीलिए इस संग्रह की सभी कविताएं एक आईने की तरह समाज, परिवार और व्यक्ति के चरित्र को उसकी चेटाओं को, प्रकृति के साथ उसके तादात्म्य को बखूबी प्रतिबिंबित करती हैं। यूं भी, कविता का आकाश अनंत है। इसमें क्षितिज की कोई सीमा रेखा नहीं है। क्योंकि काव्य का संबंध सीधे हृदय और मन से होता है और मन की उड़ान के लिए कविता सबसे अच्छा माध्यम है।
 डॉ सुरेश आचार्य ने भूमिका में सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि- ”सुनीला सराफ की कविताएँ मूलतः विसंगतियों से सवाल पूछती प्रश्नाकुल रचनाएँ हैं। यही इन कविताओं की शक्ति है। जब आप इन्हें आद्यन्न पढ़ेंगे तो इन रचनाओं का अर्थ आपको बेचैन कर देगा। मुख्यतः हिन्दी की बेटी, किरण, देश हमारा, हाय पैसा, अजन्मी बेटी की अभिलाषा, बड़ौ मचैना, चुनाव आ गए, निर्भया कांड, पुलवामा में आतंकी हमला, के अतिरिक्त बसंत, शीत वर्षा से संबंधित ऋतु गीत, कोरोना, पर्यावरण और होली से संबंधित कविताएँ आपको प्रभावित करेंगी। कुछ हायकू और कतिपय भक्ति गीत सुनीला जी को सशक्त कवियत्री घोषित करते हैं। साथ आपका पाकर, मेरा बचपन जैसी संवेदन शील रचनाएँ पाठक को आर्काित करती हैं।”
 सुनीला सराफ की इस संग्रह की समस्त कविताओं पर टिप्पणी करते हुए वरिठ साहित्यकार टीकाराम त्रिपाठी ने विस्तृत विचार व्यक्त किए हैं जिनमें उन्होंने इन कविताओं के मनोवैज्ञानिक पक्ष को भी रेखांकित किया है। वे लिखते हैं- “मनोवैज्ञानिक विवेचन के लिए कुछ कविताएँ संग्रह में हैं हौसला, आगे बहुत आगे, जब हम न होंगे, विदाई और मन की सीमा। हौसला में कवयित्री कहती है-माँ तो माँ होती है। वह बेटे का दर्द समझती है। आगे बहुत आगे में कठिन परिश्रम और सकारात्मक सोच से ही प्रगतिकामी व्यक्ति अपना और अपने समाज का विकास कर सकता है। विदाई कविता अंतिम विदाई पर केन्द्रित है जहाँ जीवन और मरण की द्वन्द्वात्मक स्थिति में कण रस का चित्रण है। मन की सीमा में नातिन के प्रति उमड़ा निस्सीम प्रेम मन को सपन-हिंडोला रूपक में परिवर्तित करने /होने के प्रति आश्वस्त है।”
वस्तुतः मनोवैज्ञानिक पकड़ कविता के कथ्य को और प्रभावी बना देती है। जैसे सुनीला सराफ ने अपनी “प्रोत्साहन” कविता में एक ऐसे लड़के का विवरण दिया है जो माता-पिता की कमजोर आर्थिक स्थिति में हौसला नहीं हारता बल्कि अपनी क्षमता अनुसार परिवार को आर्थिक मदद करने के लिए अखबार बांटने वाले होकर का काम करने लगता है साथ ही वह प्रयास करता है कि उसके पिता की छूटी हुई नौकरी उन्हें फिर मिल जाए। उसे लड़के की पारिवारिक पीड़ा को सुनीला सराफ ने बहुत बारीकी से समझा और व्यक्त किया है। इस कविता को लिखते हुए वह अपने ‘कंफर्ट जोन से बाहर निकल कर दूसरे की पीड़ा को महसूस करती हैं और उसे अभिव्यक्ति देती हैं। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
गरीबी के ंझंझावात 
उसे निगलने को आतुर 
सतरंगी सपनों को 
पूरा करने की खातिर 
प्रतियोगी परिक्षाएँ खड़ीं हो गई 
प्रश्न बनकर 
गरीबी के वितान पर 
जीवन की सुनामी पार करने के लिए 
पसीने का समुद्र तैरता 
उसकी समूची देह पर 
       इस संग्रह में एक बहुत ही मार्मिक और संवेदनात्मक कविता है “मेरी मां”। जब कोई स्त्री उस अवस्था में पहुंचती है जहां कभी उसकी मां थी तब उसे एहसास होता है कि उसने अपनी मां के प्रति कैसा अच्छा-बुरा व्यवहार किया और बदले में मां ने उसे कितना अािक प्रेम किया।  ऐसी स्थिति में हर स्त्री को अपनी मां की बहुत याद आती है। यह वह अवस्था होती है जब उसके समक्ष उसकी अपनी बेटी दिखाई देती है तब वह अपनी मां की परिस्थितियों को भली-भांति महसूस करती है और बार-बार मां का स्मरण करती है। कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं- 
उम्रदराज होने पर 
माँ की याद बहुत आती है
उनके कोमल-कोमल हाथों का स्पर्श 
सुधियों में सुकून भरता था 
जब सहलाती मेरे बालों को 
मैं सो जाती उनके आंचल में सिमट कर 
जब खाना खाने में दिखाती नखरे 
तो माँ दाल चावल मिलाकर 
उसके लड्डू बनाकर 
खिलाती बहला-बहलाकर 
गुदगुदे हाथों से मेरा मुंह धुलवाती 
आह वो प्यारा स्पर्श, याद आती माँ 
      “सुहानी सुबह” एक मानी कविता है। इसमें कवयित्री ने मनोभावनाओं को बड़े आत्मीयता और कोमल ढंग से प्रस्तुत किया है-
सुहानी सुबह के आने से पहले 
कहीं खो गया था
मेरा हाथ थामों लगा लो गले से 
सुबह का नजारा सुखद बन पड़ेगा 
यह बहती समीर यूँ जाने ना देंगी 
सुधियाँ सुखद है भूलाने ना देंगी 
कहाँ खो गया था बिना साथ तेरे 
अंधेरों ने घेरा मुझको घनेरे 
उमंगे यहीं थी तरंगे यहीं थी 
फिर क्यों ढूंढता था इन वादियों में खुशियाँ 
तेरा साथ ना हो तो कुछ भी नहीं है 
     एक स्त्री उसे स्थिति में अधिक उड़ान भर सकती है अधिक से अधिक उपलब्धियां प्राप्त कर सकती है और अपनी समस्त क्षमताओं को जी सकती है यदि उसे समाज का परिवार का या किसी अपने विशेष व्यक्ति का साथ मिले। देखा जाए तो इस संग्रह का शीर्षक गीत “साथ आपका पाकर” संग्रह के सभी गीतों का सार प्रस्तुत करता है क्योंकि जीवन में माता-पिता संतान पड़ोसी सहयोगी परिचित अपरिचित हर किसी के साथ की आवश्यकता होती है और इन्हीं में से कोई एक साथ जीवन को पूर्णता प्रदान कर देता है। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
साथ आपका पाकर
मैंने सीखा आगे बढ़ना 
बीच राह में रुकी हुई थी 
भूल गई थी लिखना।
साथ आपका पाकर सीखा 
इन राहों पे चलना 
बड़े-बड़े विद्वानों के संग 
वाचन लेखन पढ़ना 
और मुक्त होकर रचनाओं 
की अभिव्यक्ति करना 
      कवयित्री सुनीला सराफ एक कहानीकार और उपन्यासकार भी हैं। उनकी 71 कविताओं के इस काव्य संग्रह “साथ आपका पाकर” में समाज के प्रति उनके अपने सरोकारों हैं और घनीभूत संवेदनाएं हैं जो किसी भी पाठक को प्रभावित करने में सक्षम हैं। शिल्प की दृष्टि से इन काव्य रचनाओं में कहीं-कहीं कच्चापन महसूस हो सकता है किंतु कथ्य के स्तर पर ये हर कसौटी पर खरी हैं। यह काव्य संग्रह निश्चित रूप से पाठकों को रुचिकर लगेगा।           
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Saturday, June 21, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | सई समै पे व्यवस्था काए नईं सुदारी जात | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में
सई समै पे व्यवस्था काए नईं सुदारी जात
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
  
          “हम तुमें सुदार दैबी!” जे डायलॉग बरहमेस सुनबे खों मिलत आए। बाकी सबको नोंईं, उन ओरन खों जो कोऊं के खेत काट लेत आएं। खेत मने सई के खेत नोंईं, जे तो अपनी बुंदेली कहनात आए। मने कोऊ ने कोनऊं को काम बिगरो होय। अब आप कैहो के इते तो सबई तरफी काम बिगरे दिखात आएं, पर इते तो कोऊ कोनऊं खों सुदारत नईं दिखात। आपकी बात सई आए। मालक हरें फंकाईं सो मुतकी दे देत आएं, मनो उने फुरसत कां के बे जे देखें के उनके कै पे कछू काम हो बी रओ के नईं। कछू मालक हरें सो अपनी सियासी भिड़ंत में लगे परे। औ बाकी आएं सो बा वारी कहनात सांची करबे में जुटे रैत आएं के “बनी ने बिगारी तो बुंदेला काए के।
     बाकी अबे इते सियासी बात नईं करी जा रई। जोन खों जोन से प्राब्लम होत सो होन देओ, अपन तो ठैरे पब्लिक, सो अपन ओरें तो नोंन, तेल, लकरिया में बिंधे रैत आएं। अपने इते सई समै पे काम ऊंसई नईं होत। अब आपई ओरें देखो के जबलों मानसून ने आओ, तब लौं नरदा की सफाई सुरू ने भईं। इते मानसून के पैले बदरा बरसे औ उते नरदा की सफाई चालू भई। अब हुइए का के आधो गिलावो बै के नरदा में चलो जैहे औ जबलौं बा गिलावो उठाओ ने जैहे, ऊंसई गंद मची रैने। मकरोनिया समेत मुतकी जांगा पे जोई हो रओ। कटरा में सो ट्रैफिक सुदारत, सुदारत सिधरई गओ। अब टाईम मैनेजमेंट की कां लौं कई जाए, काए से के लेडीज पब्लिक टायलेट में बरहमेस तारो डरो रैत आए। जेई से कभऊं-कभऊं पूछबे को जी करन लगत आए के मालक हरों! अपने इते सई समै पे व्यवस्था काए नईं सुदारी जात?
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Thank you Patrika 🙏
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Friday, June 20, 2025

शून्यकाल | अपेक्षाओं का पहाड़ ढोती स्त्रियां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
 शून्यकाल
अपेक्षाओं का पहाड़ ढोती स्त्रियां
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                   
      जब से सोनम रघुवंशी कांड हुआ तब से पुरुष प्रधान समाज अचानक चिंतित हो उठा। मीडिया ने उन खबरों को छांट-छांट कर प्रकाशित करना शुरू कर दिया जिनमें कहीं न कहीं अपराधी एक स्त्री थी। कुछ पुराने, कुछ ताज़े आंकड़े दिए जाने लगे कि देखो स्त्रियां कितनी अपराधी हो गई हैं। जबकि पड़ताल करने की जरूरत इस बात की है कि अगर स्त्रियां अपराध की ओर कदम बढ़ा रही है तो इसका कारण क्या है? असुरक्षा, प्रतिशोध अथवा पुरुषों के समान अपनी इच्छानुसार जीवन जीने की अदम्य लालसा? इनमें से कोई एक अथवा यह तीनों कारण भी हो सकते हैं क्योंकि  पुरुषों के समान स्त्री भी एक मनुष्य है । वह सदियों से अपेक्षाओं का पहाड़ ढोती आ रही है लेकिन कभी किसी ने नहीं सोचा कि गाहेबगाहे उसका धैर्य भी टूट सकता है जो कि समाज के समीकरण को प्रभावित करेगा।

    जब स्त्री अपनी बाल्यावस्था में होती है तभी से उसे अनेक अपेक्षाओं में बांध दिया जाता है सिर्फ इसलिए कि वह एक लड़की है एक स्त्री है। जबकि लड़कों के साथ ऐसा नहीं होता उन्हें स्वतंत्र आकाश में उड़ने की अनुमति मिली रहती है। यह भेदभाव बाल्यावस्था से ही लड़की को संकुचित और लड़के को अधिकार भाव से भरकर उदंड अथवा पुरुषोचित घमंड से भर देता है। यह भेदभाव पूर्ण रवैया ही है जो स्त्री और पुरुष को परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध अपराध के लिए उकसाता है। स्त्री और पुरुष दोनों ही मानवीय प्राणी हैं। दोनों में सहनशक्ति की, धैर्य की और निर्णय लेने की एक सीमा होती है, किसी में काम किसी में ज्यादा। संस्कृति के विकास के साथ समाज की जो संरचना विकसित हुई उसमें कार्यभार इस प्रकार बांटे गए कि जिससे जीवन सुचारु रूप से चल सके। यह सुचारिता भी पुरुषवादी थी। स्त्रियों पर पुरुषों की यौनिक कुदृष्टि की भावना को स्वयं पुरुषों ने भी समझा और यह तय किया कि स्त्रियां घर की चौखट के भीतर के सारे काम  सम्हालें, वहीं पुरुष घर के बाहर के सारे काम सम्हालेंगे, जिससे उनके अपने परिवार की स्त्रियां पराए पुरुषों की कुत्सित भावनाओं से सुरक्षित रहें और समाज में यौन अपराधों पर नियंत्रण रहे। देखा जाए तो वहीं सबसे पहली चूक हुई। यदि उस समय स्त्रियों को इस तरह सक्षम बनाने पर ध्यान दिया जाता कि वे किसी भी यौन हिंसा का सामना कर सके तो वह आज भी वास्तविक सशक्त होतीं। वहीं दूसरी ओर उस समय से पुरुषों में इस भावना को स्थाई रूप से स्थापित किया जाता कि उन्हें हर स्त्री का सम्मान करना है तथा मात्र उस स्त्री से यौन संबंध बनाना है जिससे उसका विवाह हो। यदि यह भावना पुरुषों में उस आयु से ही स्थापित की जाती जब उनमें दैहिक परिवर्तन होते हैं तथा उनके विचारों में विचलन आना आरंभ होता है। क्योंकि कामेच्छा की भावना हर स्त्री-पुरुष में होती है किंतु स्त्रियों को बचपन से ही संस्कार के रूप में संयम का महत्व समझा दिया जाता है इसीलिए वे स्वच्छंद यौनाचार की ओर नहीं बढ़ती है (यहां अपवाद की बात नहीं की जा रही है)। जबकि दूसरी ओर पुरुषों को उनके लड़कपन से ही छोटी-छोटी छेड़खानी वाली हरकतों के लिए माफ किया जाता है अथवा अनदेखा किया जाता है यही प्रवृत्ति उन्हें और अधिक स्वच्छंद यौनाचारी बना देती है। हर पुरुष इस तरह का नहीं होता क्योंकि सभी के पारिवारिक संस्कार एक से नहीं होते हैं। जिन परिवारों में लड़कों को भी संयम की शिक्षा दी जाती है तथा ऐसा वातावरण उपलब्ध कराया जाता है कि वह संयम का महत्व समझे और उसे अपनी प्रतिष्ठा माने तो ऐसे लड़के बड़े होकर एक स्वस्थ मानसिकता वाले पुरुष बनते हैं। वे संयम रखना जानते हैं तथा किसी भी यौन अपराध में प्रवृत्त नहीं होते हैं।
        *वर्तमान सामाजिक स्थितियां बड़ी विकट है। यदि देखा जाए तो स्त्री जीवन एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। जहां उस पर लादा गया अपेक्षाओं का पहाड़ आकार में बढ़ता जा रहा है।* स्त्री के लिए भी शिक्षा आवश्यक है इसलिए आवश्यक है ताकि वह जीवन के विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सके और एक अच्छा जीवन जी सके। आज हर पुरुष अपने लिए पढ़ी-लिखी सुशिक्षित जीवन संगिनी पाना चाहता है। कोई भी यह नहीं चाहता कि उसे अनपढ़ पत्नी मिले। लेकिन स्त्री की शिक्षा के साथ ही उस पर नौकरी करने की अपेक्षा का भार भी बढ़ा दिया गया। यह अपेक्षा परिस्थिति जन्य नहीं थी बल्कि इस अपेक्षा को पूरी करने के लिए परिस्थितियों को वैसा आकार दिया गया। जैसे, यदि पति पत्नी दोनों कमाएंगे तो घर में विलासिता के समान अधिक से अधिक लाए जा सकेंगे। यदि पति की अकेली कमाई से कार नहीं खरीदी जा सकती है तो पत्नी भी कमाने लगेगी तो कार खरीदने की गारंटी हो जाएगी। पति-पत्नी दोनों काम करेंगे तो बच्चों को महंगे स्कूल में पढ़ाकर, महंगे कोचिंग सेंटर में भी भेज सकेंगे। आकांक्षाओं की इस उड़ान ने घर में विलासिता की वस्तुएं तो भर दीं किंतु स्त्री को दोहरे दायित्वों से बांध दिया। वह अपने कार्य स्थल में खटे और वहां जाने से पहले तथा वहां से लौटकर अपनी गृहस्थी के दायित्वों और चूल्हे-चौके में भी खटे। साथ ही अपने “सुपर वुमन” होने के गुमान में डूबी रहे।
      एक मनोवैज्ञानिक खेल जो सदियों तक स्त्रियों के साथ खेला गया और उससे यही कहा जाता रहा कि “तुम तो घर में रहती हो तुम्हें क्या पता कि बाहर की दुनिया में कितनी परेशानियां है, कितनी मेहनत करनी पड़ती है तब कर पैसे आते हैं, तुम्हें पैसे का मूल नहीं पता है।”
    यह बात स्त्रियों के मन में घर करती गई और उन्होंने यह ठान लिया कि “अब हम घर से बाहर निकल कर, काम करके दिखाएंगी और स्वयं को साबित करेंगी।” इस भावना से प्रेरित होकर वे कामकाजी महिलाओं में बदलती चली गईं। उन्होंने स्वयं को साबित किया। उन्होंने उन सब क्षेत्रो में अपनी क्षमताओं को दिखाया जो पुरुषों के वर्चस्व के माने जाते थे। स्त्रियों के दुर्भाग्यवश स्थिति यह आई की पुरुषों में बेरोजगारी बढ़ी और पुरुषों में भी तीन भाग हो गए- एक पुरुषों का वह भाग जो स्त्रियों के उत्थान से खुश था, गर्वित था। दूसरा वह भाग जो स्त्रियों को अपने से आगे बढ़ता नहीं देख पा रहा था। और तीसरा वह भाग जो स्त्रियों को सफल और सक्षम होते देख स्वयं में इतनी अधिक कुंठा में भर गया कि वह स्त्री विरोधी हो गया। जबकि वहीं स्त्रियों को अवसर मिला अपने आप को पहचानने का अपनी क्षमताओं को जानने का और खुली हवा में सांस लेने का। कुछ स्त्रियों ने अपनी स्वतंत्रता और पुरुषवादी समाज की परंपराओं में संतुलन बनाए रखा, किंतु हर स्त्री संतुलन बनाए रखें यह संभव नहीं है क्योंकि स्त्री भी मनुष्य है। उसमें भी दुख, सुख, क्रोध, प्रतिशोध आदि हर तरह की भावना का संचार होता है। जब ये भावनाएं बहुत अधिक बढ़ जाती हैं तो स्त्री को वह प्रतिशोधात्मक अपराध की ओर धकेल देती हैं। यही वह बिंदु है जब स्त्रियों से रखी जाने वाली अनंत अपेक्षाओं पर एक दृष्टि डाली जाए।
       शुरुआत हो जाती है, जब एक अबोध बालिका को घर-गृहस्थी वाले खिलौने खेलने को दिए जाते हैं। वह अपने खिलौनों से झूठ मूठ खाना पकाएं, चाय बनाए, मम्मी-पापा का खेल खेलते हुए मम्मी का रोल अदा करें - तो यह सब देखकर परिवार खुश हो जाता है। वहीं, एक बालक के यदि गाड़ी, मोटर, बंदूक, तमंचे आदि खिलौने की मांग करें तो परिवार की खुशी दूनी हो जाती है। यदि कोई बालक खाना पकाने के खिलौने में रुचि दिखाएं तो परिवार चिंतित हो जाता है कि इस बालक में कोई गड़बड़ी तो नहीं है? जबकि अबोध बच्चों के लिए हर प्रकार का खिलौना मात्र खिलौना ही होता है जो उसकी मनोरंजन की वस्तु साबित होता है। यदि घर में एक बालक खाना पकाते देखेगा तो वह भी खाना बनाने की कोशिश करेगा क्योंकि बच्चे बड़ों का अनुकरण करने लगते हैं इसमें यह मान लेना कि उस बालक में स्त्रियोचित गुण हैं किसी भी तरह से उचित नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई बालिका बचपन में मारपीट में संलग्न रहती है, यानी उसे जल्दी गुस्सा आता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसमें पुरुषोचित गुण हैं। गुस्सा आना और उसे प्रकट करना मनुष्य की ही नहीं हर प्राणी की प्रवृत्ति है। संयमी प्राणी सीमित मात्रा में अपना क्रोध व्यक्त करता है वहीं असंयमशील प्राणी तीव्र प्रतिक्रिया के रूप में अपना क्रोध व्यक्त करता है जो कभी-कभी अपराध का रूप भी ले लेता है। भावनाओं के आधार पर स्त्री और पुरुष को पूर्वाग्रहपूर्वक अलग-अलग खाचों में रखना सटीक नहीं है।
       यदि भारतीय समाज की बात की जाए तो एक बालिका का जन्म होते ही उसके माता-पिता और परिजन को उसके दहेज की विशाल रकम दिखाई देने लगती है जो उन्हें चुकानी पड़ेगी। गोया बालिका लड़के वालों से कर्ज लेकर पैदा हुई हो। उस कर्ज को पहले लड़की के परिवार वालों को दहेज के रूप में चुकाना होता है और बाद में जीवन भर वह लड़की चुकाती रहती है चाहे अपनी मेहनत से अथवा कमाई करके। न जाने कितनी स्त्रियां दहेज के कारण मौत के घाट उतार दी गई और वह भी नृशंस तरीके से। अब जब स्त्रियां अपने पैरों पर खड़ी होकर खुद को साबित करने का प्रयास कर रही हैं तथा घर से बाहर निकल रही है तो उन पर जघन्य यौन हिंसा का नया संकट गहराता जा रहा है। आए दिन ऐसी वारदातें हो रही हैं जिनमें नृशंसता की सारी हदें तोड़ी जा रही हैं। तो क्या इन वारदातों से घबरा कर लड़कियों को, स्त्रियों को अपने घर की चार दिवारों में फिर से कैद हो जाना चाहिए? लेकिन इसकी भी क्या गारंटी की वह चार दीवारों के भीतर भी सुरक्षित रहेंगी? कम से कम बाहर निकाल कर वे अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचारों के बारे में बता तो सकती हैं, अपने पक्ष में आवाज तो उठा सकती हैं। यदि वे फिर से कैद हो गईं तो उनका अब तक का संघर्ष धूल में मिल जाएगा। *जबकि पूरे समाज की प्रगति तभी संभव है जब स्त्री और पुरुष समान रूप से कार्य करें और समाज के ढांचे को दोनों मिलकर थामें रहें।*
      सदियों से यही होता आया कि स्त्री को समाज में दूसरे दर्जे का प्राणी माना गया। यदि स्त्री पर यौन हिंसा हुई तो इसके लिए भी स्त्री को ही दोषी ठहराया गया। जिसके कारण न जाने कितनी स्त्रियों ने घबरा कर आत्महत्या के रास्ते को चुना या फिर अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को वे चुपचाप सहती चली गईं। आज भी स्थिति बहुत अधिक भिन्न नहीं है। स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वह भले ही नौकरी करती हो किंतु अपने को परिवार में पुरुष के समकक्ष न समझे, वह अपनी नौकरी के साथ घर-गृहस्थी को भी ठीक उसी तरह संभाले जैसे एक घरेलू औरत संभालती है। वह पुरुषों को न तो सलाह दे और न उनकी सलाह का उल्लंघन करें। वह उसी तरह से उठे, बैठे, चले-फिरे कपड़े पहने जैसा की पुरुष वर्ग चाहता है। पुरुष विवाहेत्तर संबंध रखे तो स्त्रियों को उदारमना होकर उन्हें क्षमा कर देना चाहिए, जबकि स्त्री यदि ऐसा कोई कृत्य कर बैठे तो वह अक्षम्य अपराध है। यदि स्त्री की देह के साथ कोई अपराध होता है तो उसे मालिन, अशुद्ध और कलंकित मान लिया जाता है, यह भी सबसे बड़ी विडंबना है। यही विडंबना स्त्री के हौसलों को कदम-कदम पर आहत करती है तथा यौन अपराधियों को बढ़ावा देती है। 
          *दरअसल सारी स्थितियां सुधर सकती हैं यदि समाज इस बात को हमेशा ध्यान रखें कि स्त्री भी एक इंसान है उसका भी अपना एक व्यक्तित्व, अपनी आकांक्षाएं और अपने स्वप्न हैं।* विवाह में सौदेबाजी न की जाए तो परिवार में हमेशा संतुलन बना रहता है और खुशियां बनी रहती हैं। इसी तरह यदि यौन प्रताड़ित स्त्री के साथ अलग तरह का बरताव न किया जाए तो उसे जीवन में आगे बढ़ाने के लिए साहस मिलेगा और यौन अपराध करने वाले व्यक्तियों का मनोबल टूटेगा। स्त्रियों पर लादा गया अपेक्षाओं के पहाड़ का भार कम करके उसका उचित बंटवारा पुरुष और स्त्रियों के बीच किया जाना भी जरूरी है। जिस दिन यह होगा उस दिन से स्त्री और पुरुषों के बीच अपराधिक आंकड़े कम से कम होते जाएंगे।
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Thursday, June 19, 2025

बतकाव बिन्ना की | कोनऊं एक्स्ट्रा टेलेंट होबे में कछू बुराई नईं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
कोनऊं एक्स्ट्रा टेलेंट होबे में कछू बुराई नईं
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘कां हो आईं भौजी? मैं अभई तनक देर पैले आई रई, सो आप ने मिलीं। तारो डरो मिलो।’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘अरे कछू नईं, इतई लौं गई रई।’’ भौजी बोलीं। 
अपने इते बुंदेलखंड में पैलई दफा में कोऊ पूरी बात बता दे, का ऐसो कभऊं हो सकत आए? राम को नांव लेओ, कभऊं नईं! पैले तो बोलहें के ‘‘कऊं नईं!’’ फेर औ ठेन करो तो उत्तर मिलहे के, ‘‘अरे कछू नईं, इतई लौं!’’ फेर बी ठेन कर रओ तो कऊं असल बात पे अवाई होत आए। सो मोय सोई जाने बिगैर कोन मानने रओ। 
‘‘फेर बी कां हो आईं?’’ मैंने फेर के पूछी। मैं सोई बुंदेला ठैरी। जो असल बात ने निकरवा पाए बा बुंदेला काय को? इते तो तब लौं ठेन करी जात आए, जब लौं पूरो मामलो ने खुल जाए।
‘‘का आ आए के हमने सोची के ऐसे तो जिनगी घूरा भई जा रई, कछू नओ काम करो चाइए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘भौतई सई सोची आपने! सो, अब आप का करबे जा रईं?’’ मैंने पूछी।
‘‘जेई से हमें समझ नईं पर रई हती के हम का करें, सो हमने सोसल मीडिया पे देखी के कछू आइडिया मिल जाए।’’ कै के चुप हो गईं भौजी।
‘‘तो कछू मिलो आइडिया?’’मैंने पूछी।
‘‘हऔ! उते तो इत्ते लौं आडिया मिल गए के अब हमें समझ नईं पर रई के हम उनमें से कोन सो काम करें।’’ भौजी भैरानी-सी बोलीं।
‘‘आप मोय बताओ, जो कछू मोय समझ परहे तो मैं आपके लाने कछू बताबी।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘बिन्ना, हमें चाउने ऐसो काम जीमें हमाओ एक्स्ट्रा टेलेंट दिखाए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ! टेलेंटेड तो आप ऊंसई हो, आपके लाने एक्स्ट्रा टेलेंट वारो काम चाउने। सई कई। सो कछू देखो आपने?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ! एक तो हम सोसल मीडिया के लाने रील बना सकत आएं। औ ने तो कराओके पे गाना गा सकत आएं। बे कछू एप्प चलत आए न, जीमें कराओके वारे गाना गाए जात आएं।’’भौजी बोलीं।
‘‘आप जे दोई काम कर सकत आओ।’’ मैंने कई। बाकी मोय जा उमींद ने हती के भौजी कोनऊं ऐसे टेलेंट की बात करबे जा रई हुइएं। मनो जे उनकी मरजी।
‘‘भैयाजी से आपने ई मामले में कछू सलाय ली?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ! बे सोई कै रए हते के दोई करो जा सकत आए।’’ भौजी बोलीं। 
‘‘बाकी भैयाजी कां गए? दिखा नईं रए? औ आप कां गई रईं, जा आपने बी ने बताई।’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘अरे, हम दोई संगे निकरे रए। काए से के हमने सोची के जो हम रीलें बनाहें तो ऊके लाने कछू मेकअप को समान तो लगहे ई। अब हम बंदरिया घांई तो ने दिखबी अपनी रीलन में।’’ भौजी मोय समझात भई बोलीं। 
‘‘सई बात भौजी। अच्छे हुन्ना औ अच्छो मेकअप तो लगहे।’’ मैंने भौजी की तरफदारी करी।
‘‘सो, हमने जा के मेकअप को सामान लओ। ऊके बाद तुमाए भैयाजी बोले के तुम घरे जाओ, हम जा के रील बनाबे में लगबे वारी बा गोल-गोल लाईटें औ डंडी औ स्टैंड सोई लए आ रए। सो, बे उतई से तिगड्डा तरफी कढ़ गए औ हम घरे आ गए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘कां आए बा मेकअप को सामान? मोए सोई देखने।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ दिखा रए!’’ कैत भईं भौजी ने एक बैग खोलो औ ऊमें निकार-निकार के दिखान लगीं। फाउण्डेशन, पाउडर, लिपस्टिक, आई लाईनर औ न जाने का-का हतो।
‘‘काए भौजी, आप जे सब ले सो आईं मनो आपको जे लगात तो बनत आए के नईं?’’ मैंने पूछी। काए से के मोए लगो के बे जो मों पे लागाबे वारो फाउण्डेशन लाईं आएं ऊको रंग भौजी के मों के रंग पे सूट ने करहे। बा अलगई दिखाहे। मनो मैं जा बात कै के उने दुखी नईं कर सकत्ती।
‘‘बनत्त तो नईयां मनो, कोसिस करबी। ज्यादा हुइए तो सोसल मीडिया पे मुतकी वीडियो ई बारे में डरीं, उनईं खों देख-देख के मेकअप करबी।’’ भौजी तनक सोच में परत भई बोलीं।
‘‘सो, ऐसो करो ने के आप पैले हप्ता-खांड़ को ब्यूटीपार्लर वारो कोर्स कर लेओ।’’ मैंने भौजी खों सलाय दई।
‘‘जे तुम ठीक कै रईं। जेई करो जाए। पूरो कोर्स नईं तो कछू बेसिक चीजें तो हम सीखई सकत आएं।’’ भौजी खुस हो भईं बोलीं। फेर एकदम से उनको चेहरा बुझ गओ। बे बोलीं,‘‘पर उते तो तनक-तनक सी मोड़ियां हुइएं सीखबे वारी। उनके संगे हमें तो सरम आहे।’’
‘‘अरे, काय की सरम? कछू सीखबे में सरम नई करी जाती। काल को आप अपनी रीलें बना के डारहो औ ऊको दुनिया भरे के लोग देखहें तो का ऊ टेम पे बी आप सरमाहो?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘हऔ, बात तो तुमाई सई आएं। पर...’’ भौजी तनक हिचक सी रई हतीं।
‘‘आप काय डरा रईं? औ ज्यादा होय तो आप कै दइयो के जो हम सीख पाए तो अपनो पार्लर खोलबी।’’ मैंने भौजी खों सलाय दई। 
‘‘सो बे हमें काय खों सिखाहें, के हम सीख के अपनों पार्लर खोल लेबी। फेर हम उनके लाने खतरा ने बन जाबी?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘अरे नईं भौजी, बे तो सिखाऊतीं जेई के लाने आएं के मइलाएं औ बिटियां सीख के अपनों धंधा सुरू कर सकें। कछू सिखाबे वारियन खों तो ईके लाने सरकार से सहायता सोई मिलत आए।’’ मैंने भौजी की गलतफैमी दूर करी।
‘‘हऔ, जो जे ठीक रैहे। मनो तुम चलियो हमें उते भरती कराबे। तुम सोई काय नईं सीख लेत?’’ भौजी अब के खुस होत भई बोलीं।
‘‘मोए का करने, बाकी आपखों भरती कराबे जरूर चलबी।’’ मैंने कई।
‘‘काय तुम सोई अपनी रील बना सकत आओ।’’ भौजी मोए उकसात भई बोलीं।
‘‘रैन देओ भौजी! कछू तो ऊंसई हमाओ लिखो देख-देख के दूबरे भए जा रए, औ ऊपे जो हम रील बना-बना के डारन लगहें तो दो-चार जने तो फंदा लगा लैहें।’’ मैंने हंस के ठिठोली करी।
‘‘चलो तुमाई मरजी! बाकी, जे जाने कित्तो टेम लगाहें? जो अभई आ जाते तो अपन ओरें अभई पार्लर खों चले चलते।’’ भौजी अकुलात भई बोलीं।
‘‘कोनऊं बात नई भौजी, भैयाजी खों अपन परखे ले रए। जो बे आध-पौन घंटा में आ जा रए तो अपन आजई चली चलबी, ने तो कल दुफारी में भोजन-पानी कर के निकरबी।’’मैंने भौजी से कई।
‘‘चलो ठीक, तुम बैठो! हम जो लो चाय-माय बना ला रए। कओ तब लौं तुमाए भैयाजी लौट आएं।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सो आप उने फोन कर के काय नईं पूछ लेतीं के कबे लौं आ रए?’’ मैंने कई।
‘‘जे तुमने सई कई। हम अब्भई फोन करत आएं।’’ औ भौजी ने अपनो फोन उठाओ औ भैयाजी से पूछो। फेर फोन बंद करत भई बोलीं के ‘‘बे कै रए के बस, पांच-सात मिनट में आ रए बे। सो चलो, अब हम उनके लाने बी चाय बना ले रए। जो लो चाय बनहे, उत्ते में बे सोई आ जाहें।’’
‘‘ठीक आए!’’ मैंने कई। 
भौजी चली गईं चाय बनाबे के लाने औ मैं सोचन लगी के देखों जमानों कित्तो बदल गओ आए? पैले मइलाएं खाली टेम में सूटर बुनत्तीं, कढ़ाई, सिलाई करत्तीं, अच्छे पकवान बनाउत्तीं। औ ओई में अपनो टेलेंट दिखाउत्तीं। जो मइला खों सूटर में डिजाइन डारत बनत्तो, ऊकी भारी पूछ रैत्ती। सबई ऊको जिज्जी, भौजी कै के पुटियाऊत रैत्ती, ताके बे ऊको डिजाइन डारबो सिखा दें। ऐसई कढ़ाई बारन की पूछ रैत्ती। जोन से अच्छे फूल काढ़त बनत्ते, उनकी बड़ी पूछ रैत्ती। औ दो-सूती में तोता, हिरना, सीनरी काढ़बे वारी सो भौतई टेलेंटेड मानी जाती रईं। रई पकवान के टेलेंट की सो, मोए सोई एक दफा बेसन-मलाई की बरफी बनाबो सीखबे की सूझी। मैंने ऐसईं दो-चार टेलेण्टेड भौजियन से पूछी। मनो उनके इत्ते भाव बढ़े रए के उन्ने मोए सई बिधी ने बताई। तब मोए भौतई गुस्सा आओ। मनो तभई मोए एक जनी सिखाबे खों तैयार हो गईं। औ उन्ने जो मोए बिधि बताई ऊकी तो आप बातई ने पूछो। भौतई सई औ भौतई सरल बिधी हती बा। फेर मैंने बा बिधि से मुतकी बेर बेसन-मलाई की बरफी बनाई औ मुतके जनों को ख्वाई। मनो, अब देखो तो भौजी बुनाई, कढ़ाई, सिलाई में टेलेण्ट दिखाबे के बजाए रील बनाबे औ कराओके पे गानो गाबे में टेलेण्ट दिखाओ चा रईं। संगे भैयाजी सोई साथ दे रए। बाकी अबई भैयाजी आए जा रए तो ब्यूटीपार्लर के कोर्स में भौजी खों भरती कराबे मोए जाने परहे, काए से के जे मोरी खुदई की पाली सल्ल आए। जाने तो परहे ई।  
        बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के कोनऊं एक्स्ट्रा टेलेण्ट होबे में कछू बुराई नईं। ईमें भौजी को टेम खराब ने हुइए। मनों जो आजकल के बच्चा रील बनाबे में जुटे रैत आएं, बा का सई आए?  
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Wednesday, June 18, 2025

चर्चा प्लस | भारत के घरेलू बजट को बिगाड़ सकता है ईरान-इजराइल युद्ध | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस (सागर दिनकर)

भारत के घरेलू बजट को बिगाड़ सकता है ईरान-इजराइल युद्ध        
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                
     ईरान और इजरायल के बीच इस समय जिस तरह हुआ है वह पूरी दुनिया को करने लगा है। इस युद्ध में सबसे बड़ा नुकसान पहुंच रहा है कच्चे तेल के उत्पादन को। कच्चा तेल दुनिया के हर देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। यदि यह युद्ध लंबा चला तो यह भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था कमर तोड़ सकता है। कच्चे तेल के दाम भी अन्य वस्तुओं के दाम को तय करता है। तेल के कुओं को क्षति पहुंचने तथा देश में तेल की आपूर्ति बाधित होने से जरूरी सामानों की कीमतें तेजी से बढ़ेंगी। भारतीय घरेलू अर्थव्यवस्था भी फिर आर्थिक परेशानियों से मुक्त नहीं रहेगी। यद्यपि यह आशा की जा रही है कि जी-7 में प्रधानमंत्री मोदी भारत के लिए कोई हल ढूंढ सकेंगे।


दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी देश में युद्ध हो लंकिन उसका असर दुनिया के हर देश पर किसी न किसी रूप में पड़ता है। फिर जब दुनिया के वे दो देश आपस में युद्धरत हों जिनके पर कच्चे तेल का भंडार है तो पूरी दुनिया पर सीधा असर पड़ना स्वाभाविक है। आज दुनिया भर के आर्थिक विशेषज्ञों को यही सबसे बड़ी चिंता है कि यदि इजरायल-ईरान युद्ध लंबा चला तो कच्चे तेल की पर्याप्त उपलब्धता को ले कर सारी दुनिया संकट में पड़ सकती है। भारत के लिए भी यह चिंता का विषय बन सकता है। विशेष रूप से कच्चे तेल के आयात के संबंध में महत्वपूर्ण चुनौतियां नजर आ रही हैं। एक ओर जहां युद्ध के माहौल के कारण क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल में लगातार वृद्धि हो रही है, तो वहीं निर्यात बाधित होने की संभावना बढ़ती जा रही है। भैगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो दुनिया का सबसे व्यस्त तेल मार्ग होर्मुज जलडमरूमध्य जलमार्ग में किसी भी तरह की बाधा आने पर भारत के तेल आयात में समस्या उत्पन्न हो सकती है। यदि पर्याप्त सप्लाई नहीं हो सकेगी तो देश में पेट्रोल, डीजल के भाव पर असर पड़ेगा।  महंगाई में इजाफा करने वाली साबित हो सकती हैं। विशेषज्ञों की मानें तो दोनों देशों पर परस्पर मिसाइल अटैक का सीधा असर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों पर देखने को मिलने लगा है। ये कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। हाल ही में ब्रेंट क्रूड का दाम  75 डॉलर प्रति बैरल के पार निकल गया, जबकि डब्ल्यू ई टी क्रूड का जुलाई वायदा भाव भी 73.99 डॉलर प्रति बैरल के पार पहुंच गया है और इसमें और भी तेजी की संभावना जताई जा रही है। इसीलिए आशंका जताई जा रही है कि अगर युद्ध बढ़ता है, तो कच्चे तेल की कीमतें 120 डॉलर प्रति बैरल के पार जा सकती हैं। इसका असर भारत पर भी पड़ेगा। इससेे देश में मंहगाई बढ़ेगी और साथ ही देश का चालू खाता घाटा भी बढ़ेगा। तेल का निर्यात प्रभावित होने की वजह से तेल और गैस की कीमतों में भी बढ़ोतरी की आशंका है। पिछली बार भी जब इजरायल और ईरान के बीच तनाव बढ़ा था तो कीमतें बढ़ी थीं
इसराइल और ईरान में तनाव की स्थिति कोई नई नहीं है। इन दोनों देशों के बीच तनाव और टकराव के कारण मध्य-पूर्व में हमेशा अनिश्चितता को माहौल बना रहता है। ईरान ने कई बार अपनी यह इच्छा प्रकट की है कि वह दुनिया के पक्शें से इजरायल को मिटा देना चाहता है। इसके लिए ईरान के पास तर्क है कि इजराय मध्य-पूर्व में अमेरिका की घुसपैंठ का माध्यम बना रहता है। ईरान अमेरिका को ‘‘बिग डेविल’’ और इजरायल को ‘‘लिटिल डेविल’’ कहता है। वह साफ तौर पर अमेरिका को भी मध्य-पूर्व की जमीन पर नहीं देखना चाहता है। वहीं दूसरी ओर इजरायल के अपने तर्क हैं। वह ईरान को यहूदी विरोधी मानसिकता का मानता है तथा उसके आरोप रहते हैं कि ईरान इजरायल के विरुद्ध आतंकी संगठनों को सहायता देता है। दोनों देशों के इस टकराव में सबसे अधिक पिसता आ रहा है गाजा क्षेत्र। जिसे गाजा पट्टी के नाम से भी जानते हैं। गाजा हमेशा युद्ध क्षेत्र बना रहता है।

मुझे याद है कि जब मैं स्कूली कक्षा पूरी करके कालेज के प्रथम वर्ष में पहुंची थी तब मुझे विश्व की राजनीतिक खबरों में रुचि आने लगी थी। उस समय हमारे घर उत्तर प्रदेश के वाराणसी से प्रकाशित दैनिक ‘‘आज’’ डाक से आया करता था। दो दिन पुराना हो जाने पर भी वह अखबार जब हाथ में आता तो मैं सबसे पहले संपादकीय पन्ना खोलती। उसमें गाजा क्षेत्र की खबरे रहतीं। उस समय मुझे ठीक-ठीक पता भी नहीं था कि यह गाजा क्षेत्र है कहां और वहां के लोग कैसे हैं? लेकिन यह पढ़ कर आश्चर्य होता कि वहां वर्षों से लडाई चल रही है। तब से आज तक स्थिति इतनी ही बदली है कि अब लड़ाई पहले से अधिक संहारक और दुनिया पर प्रभाव डालने वाली हो गई है। तब टीवी नहीं था अतः विभीषिका की वही कुछ चंद तस्वीरें सामने आती थी जो अखबारों में छपती थीं। अब तो सीएनएन, बीबीसी, अलजजीरा आदि अनेक ऐसे टीवी चैनल्स हैं जो युद्ध की लाईव घटनाएं दिखाते रहते हैं। सब उफ, उफ करते हैं उन दृश्यों को देख कर लेकिन कोई भी युद्ध रोकने का कारनामा नहीं दिखा पा रहा है। चाहे संयुक्त राष्ट्रसंघ हो या मानवाधिकार संगठन सभी स्वयं को असमर्थ पाते हैं।   

बीच में कभी-कभार स्थितियां नरम भी पड़ीं। जब ईरान और ईराक का युद्ध छिड़ा तो इजरायल से उसका ध्यान हट गया। अयातुल्लाह खोमैनी के समय इसराइल और ईरान के संबंध 1979 तक अपेक्षाकृत शांत रहे। सन् 1948 में अस्तित्व में आए इजराइल को सबसे पहले तुर्की ने और फिर ईरान ने मान्यता दी थी। यद्यपि यह माना जाता है कि इस मान्यता देने के पीछे ईरान फलस्तीन के टुकड़े करना चाहता था। ईरान पर उस समय राजतंत्र था और पहलवी वंश के शासक सत्तासीन थे। ईरान का राजतंत्र अमेरिकी मित्रता में विश्वास करता था। इसीलिए इजरायल ने ईरान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। कुछ समय की शांति क बाद सन 1979 में अयातुल्लाह खोमैनी की क्रांति के द्वाराईरान में राजतंत्र का तख़्ता पलट दिया और एक इस्लामी गणतंत्र स्थापित किया। इसके बाद आशा से परे जा कर अयातुल्लाह खुमैनी की सरकार ने इजराइल के साथ संबंध तोड़ लिए। उसने उसके नागरिकों के पासपोर्ट की वैधता को मान्यता देना बंद कर दिया और तेहरान में इजराइली दूतावास को जब्त कर फलस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) को सौंप दिया। उस समय अलग फलस्तीन राज्य के लिए इसराइल के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व पीएलए कर रहा था। वहीं से कटुता गहरानी शुरू हो गई। ईरान बार-बार फलस्तिीनी मुद्दे को इजरायल के विरुद्ध थोंपने का प्रयास करता रहा। लेकिन सद्दाम हुसैन को नाम आते ही ईरान और इजरायल में नरमी का आ जाती थी। फिर भी यह नरमी लंबे समय तक कभी नहीं चली। आपसी टकराव बाकायदा जारी रहा।

ईरान मुख्य रूप से फारसी और शिया हैं, वहीं अधिकांश अरब देश सुन्नी हैं। लेबनान का हिजबुल्लाह इन संगठन भी हमेशा सक्रिय रहता है। कहा जाता है कि आज ईरान का तथाकथित ‘‘एक्सिस ऑफ रेजिस्टेंस’’ लेबनान, सीरिया, इराक और यमन तक फैला हुआ है। दूसरी ओर इजरायल ने भी अपने समर्थ जुटा रखे हैं। ईरान के अनुसार इजरायल का सबसे बड़ा समर्थ अमरीका है। वहीं अमरीका का तर्क है कि वह  ईरानी परमाणु कार्यक्रम को रोकना चाहता है, इसीलिए इजरायल को समर्थन देता है। यद्यपि ईरान का कहना है कि उसके परमाणु कार्यक्रम उसके अपने देश के विकास के लिए है, वह किसी पर आक्र्मण नहीं करना चाहता है। लेकिन कुल मिला कर ईरान और इजरायल परस्पर युद्ध को झेल रहे हैं।

1947 और 1949 के बीच निर्वासित किए गए 750,000 फिलिस्तीनियों में से, लगभग 200,000, मुख्य रूप से दक्षिणी और मध्य फिलिस्तीन से, गाजा पट्टी में शरण लेने आए। पहले 80,000 लोगों का घर, गाजा पट्टी की आबादी तीन गुना से भी ज्यादा हो गई। आज, ये शरणार्थी और उनके वंशज गाजा पट्टी की आबादी का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा हैं।
संयुक्त राष्ट्र समर्थित एक आकलन में कहा गया है कि गाजा की लगभग 2.1 मिलियन फिलिस्तीनी आबादी अकाल के ‘‘गंभीर खतरे’’ में है और ‘‘खाद्य असुरक्षा के चरम स्तर’’ का सामना कर रही है। इजरायल द्वारा घेरे गए गाजा पर हमले तेज करने से फिलिस्तीनियों को और अधिक कष्ट झेलना पड़ रहा है, 17 मई 2025 को गाजा में इजरायली हमलों में 100 से अधिक लोग मारे गए, जबकि 7 अक्टूबर 2023 से अब तक इस क्षेत्र में मरने वालों की संख्या 53000 के पार हो गई थी।

यदि भारत पर पड़ने वाले आर्थिक असर की बात की जाए तो ईरान दुनिया का चैथा सबसे बड़ा तेल उत्पादक और मिडिल ईस्ट में नंबर एक उत्पादक है। 2023 में 2023 में 2.4 मिलियन बैरल क्रूड ऑयल का हर दिन प्रोडक्शन हुआ था। तेल भंडार का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अपने उत्पादन का लगभग आधा कच्चा तेल ईरान दूसरे देशों को बेचता है और सबसे बड़ा खरीदार चीन है। ईरान में तेल की 10 बड़ी रिफाइनरी हैं, जिनमें से सिर्फ तीन से प्रति दिन 3,70,000 बैरल तेल का उत्पादन होता है. ईरान से कच्चे तेल के अलावा सूखे मेवे, केमिकल और कांच के बर्तन भारत आते हैं। वहीं भारत की ओर से ईरान पहुंचने वाले प्रमुख सामानों की बात करें, तो बासमती चावल का ईरान बड़ा आयातक है। ईरान वित्त वर्ष 2014-15 से भारतीय बासमती चावल का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश रहा है और वित्त वर्ष 2022-23 में 998,879 मीट्रिक टन भारतीय चावल खरीदा था. बासमती चावल के अलावा भारत ईरान को चाय, कॉफी और चीनी का भी निर्यात करता है। ईरान वित्त वर्ष 2014-15 से भारतीय बासमती चावल का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश रहा है और वित्त वर्ष 2022-23 में 998,879 मीट्रिक टन भारतीय चावल खरीदा था। बासमती चावल के अलावा भारत ईरान को चाय, कॉफी और चीनी का भी निर्यात करता है। ईरान वित्त वर्ष 2014-15 से भारतीय बासमती चावल का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश रहा है और वित्त वर्ष 2022-23 में 998,879 मीट्रिक टन भारतीय चावल खरीदा था. बासमती चावल के अलावा भारत ईरान को चाय, कॉफी और चीनी का भी निर्यात करता है। आंकड़े देखें तो भारत हर साल ईरान को 4 करोड़ किलो चाय का निर्यात करता है. इसके अलावा कुल चावल निर्यात का 19 प्रतिशत के आस-पास ईरान को निर्यात होता है, जो करीब 60 करोड़ डॉलर का होता है। भारत का व्यापारिक भागीदार सिर्फ ईरान ही नहीं बल्कि इजरायल भी है। साल 2023 में भारत का इजरायल के साथ 89000 करोड़ रुपये का कारोबार रहा। भारत इजराइल को तराशे हुए हीरे, ज्वेलरी, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स और इंजीनियरिंग सामान सप्लाई करता है. वहीं इजरायल भारत को बड़ी मात्रा में सैन्य हथियार निर्यात करता है। अतः यदि यह युद्ध लंबा चला तो ईरान और भारत के बीच का व्यापार लड़खड़ा जाएगा, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ेगा। डीजल, पेट्रोल की कमी अथवा बढ़ी हुई वैश्विक कीमतें भारत के घरेलू बजट पर चोट करेंगी। इससे आम आदमी के दैनिक उपयोग की वस्तुएं भी मंहगी हो जाएंगी।

अब आशा इस बात पर टिकी हुई है कि जी-7 में पहुंच कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत के लिए कोई रास्ता निकाल लेंगे जिससे देश की अर्थव्यवस्था अधिक न बिगड़ने पाए और आम आदमी के घरेलू बजट पर गहरा असर न पड़े।
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Tuesday, June 17, 2025

पुस्तक समीक्षा | कटाक्ष का तीव्र पैनापन है इन कविताओं में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 17.06.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा
कटाक्ष का तीव्र पैनापन है इन कविताओं में
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - स्वर्ग और नर्क
कवि - बद्री लाल ‘‘दिव्य’’
प्रकाशक-जीएस पब्लिशर डिस्ट्रीब्यूटर्स, एफ-7, गली नं. 1,पंचशील गार्डन एक्स., नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 350/-
--------------------
‘‘स्वर्ग और नर्क’’ काव्य संग्रह में कुल 51 कविताएं हैं। जिसमें हास्य, व्यंग तथा कटाक्ष तीनों भाव मौजूद हैं किन्तु कटाक्ष प्रभावी है। इस संग्रह के कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं के प्रति चिंता का अनुभव करते हैं और इसीलिए वे अव्यवस्थाओं को सुधारना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि समाज और राजनीति में सब कुछ जनहित का हो जाए। यद्यपि उन्हें इस बात का भी अहसास है कि उनकी अभिलाष दुरूह है। जिस समाज की रग-रग में भ्रष्टाचार समा चुका हो उस समाज में एक स्वच्छ वातावरण स्थापित होते देखना, जागती आंखों से देखने वाले सपने के समान है। किंतु वे निराश नहीं हैं। उन्हें आशा है कि लोग अपनी विडंबनाओं के यथार्थ को समझेंगे और उन्हें सुधारने का प्रयास करेंगे। बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ की रचनाओं में तीव्र सामाजिक सरोकार होता है। वे हिन्दी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते हैं। अपनी माटी और अपनी बोली के प्रति लगाव उन्हें सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजग रखता है। अब तक उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमें तीन काव्य संग्रह राजस्थानी में है।
संग्रह का नाम ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ रखे जाने की सार्थकता इसमें संग्रहीत कविताओं को पढ़ने के बाद स्वतः स्पष्ट हो जाती है। वैसे स्वर्ग और नर्क की कल्पना मनुष्य ने स्वयं की अनियमितताओं पर अंकुश लगाने के लिए की है। जैसा कि कहा जाता है कि जो अच्छे काम करता है वह मरणोपरांत स्वर्ग जाता है, वहीं बुरे काम करने वाले को नर्क में जगह मिलती है। इस धारणा का विस्तृत वर्णन वेदव्यास कृत ‘‘महाभारत’’ में मौजूद है। यह संकल्पना मनुष्य को गलत काम करने से रोकने के आधार पर तय की गई। किंतु गलत कार्यों में लिप्त मनुष्य एक ढीठ व्यक्ति की भांति यही सोचता है कि स्वर्ग और नरक किसने देखा है अतः जो इच्छा हो वह करना चाहिए चाहे वह सही हो या गलत। स्वर्ग और नरक की इसी संकल्पना पर आधारित है संग्रह की शीर्षक कविता ‘‘स्वर्ग और नर्क’’-
किसी ने कहा -
नर्क में कौन जाता है
और स्वर्ग में कौन ?
मैंने कहा सिर्फ
वो आदमी ही
नर्क का भागीदार है।
जिसका भ्रष्टाचार, चोरी, घोटाला
अन्याय, दुराचार, हत्या, धोखाधड़ी
बलात्कार आदि /तत्वों पर
पूरा-पूरा अधिकार है।
शेष सभी पर
स्वर्ग/बरकरार है।
संग्रह की प्रथम कविता ‘‘दुल्हन ही दहेज है’’ एक चुटीली किंतु मंचीय शैली की कविता है। जो चुटकी लेती है, आईना दिखाती है और हंसाती भी है किंतु वह गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती जो संग्रह की अन्य कविताओं में है। कुछ पंक्तियां देखिए -
मैंने कहा
दुल्हन ही दहेज है।
एक बोला-
‘‘लेकिन मुझे इससे परहेज है।’’
मैंने कहा ‘‘क्यों?’’
कहने लगा
मेरे एक ही लड़का है जो वकील है।
और तिजोरी की /बंद सील है।
मैंने कहा- भाई साहब !
इसमें फिर क्यों ढील है ?
इसे जानवरों के मेले में
ले जाइये।
और वहां बांध आइये।
वहां मुंह मांगा दाम
मिल जायेगा।
और बिना कमाए
जीवन भर का काम
चल जाएगा।
    ‘‘बेटी का बाप’’ कविता भी एक उम्दा कथ्य लिए हुए कमजोर कविता है। वहीं ‘‘आदमी से आदमियत तक’’ शीर्षक कविता अपने शिल्प और कथ्य दोनों दृष्टि से प्रभावी है-
कभी-कभी आदमी
अहर्निश लिप्त रहता है
अपनी जन्मजात/आदतों में ।
कर्म की प्रधानता से हटकर
आदमी कर देता है
अपनी हदें पार।
उसके हृदय में
लगा रहता है
कुटिलताओं का अम्बार ।
कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार महेन्द्र नेह ने उचित लिखा है कि ‘‘कवि दिव्य की कविताएँ तीक्ष्ण व्यंग्य-बाणों से बेधने के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों के समाधान की दिशा भी निरूपित करती है। ... श्दिव्यश् के काव्य-लोक की पहचान मूलतः लोक भाषा और शैली से उद्भूत रही है। लोक में यदि आनंद की व्याप्ति है तो वहाँ पीड़ा और करुणा के स्वरों का आर्तनाद भी है, इसके साथ-साथ लोक में अभिजात-संसार के प्रति गहरे उपहास और व्यंग्य की सुक्तियों, चुटकुलों, किस्सों, कथाओं और गीतों की एक अविरल धारा भी अविरल बहती रहती है, ‘स्वर्ग और नर्क’ में शामिल कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि कवि ने अपने परम्परा से प्राप्त लोक-अनुभवों और दृष्टि को एक नए आकार में ढालने की, अपने विचारों और चिंतन को एक नई दिशा में मोड़ने की सचेत पहल की है।’’
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ समाज में लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराधों को देख कर वर्तमान दौर के किसी भी जिम्मेदार रचनाकार की भांति चिंतित एवं आक्रोशित हो उठते हैं। उनकी कविता है -‘‘दरिन्दों से हिसाब’’। इसमें उन्होंने व्यवस्था के खोखलेपन को भी खुल कर ललकारा है। कविता का एक अंश देखिए-
आजकल लड़कियों की
व्यथा को
समझना ही भारी है।
जो नहीं समझता
वो तो स्वयं ही
अत्याचारी है।
आज देश में लड़कियाँ
नहीं है सुरक्षित।
लूट लेते है अस्मत
अपने ही घर में भक्षित।
राष्ट्र के रखवाले
ये कैसी रक्षा कर रहे हैं।
शायद दुष्कर्मी भेड़ियों से
डर रहे हैं।
वर्दी तो हमारी स्वयं ही
लाचार है।
सुरक्षा के नाम पर
केवल थोथा प्रचार है।
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ के काव्य संग्रह ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ की कविताओं से हो कर गुज़रना अव्यवस्था को ले कर उनके भीतर के आक्रोश के ताप को महसूस करने के समान हैं। वे कहीं भी सीमाओं का उल्लंघन नहीं करते किन्तु उनके आक्रोश की तीव्रता की धार बहुत पैनी है। वे खुले शब्दों में ललकारते हैं लापरवाह एवं भ्रष्टाचारी लोगों को। कविताओं की शैली व्यंजनात्मक है। भाषा आम बोलचाल की है, सहज, सुगम्य और संवादी। एक-दो कमजोर कविताओं को छोड़ दिया जाए तो पूरा संग्रह समृद्ध एवं प्रभावपूर्ण है। ये कविताएं भावनाओं एवं विचारों को आंदोलित करने में सक्षम हैं।
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कटाक्ष का तीव्र पैनापन है इन कविताओं में
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - स्वर्ग और नर्क
कवि - बद्री लाल ‘‘दिव्य’’
प्रकाशक-जीएस पब्लिशर डिस्ट्रीब्यूटर्स, एफ-7, गली नं. 1,पंचशील गार्डन एक्स., नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 350/-
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‘‘स्वर्ग और नर्क’’ काव्य संग्रह में कुल 51 कविताएं हैं। जिसमें हास्य, व्यंग तथा कटाक्ष तीनों भाव मौजूद हैं किन्तु कटाक्ष प्रभावी है। इस संग्रह के कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं के प्रति चिंता का अनुभव करते हैं और इसीलिए वे अव्यवस्थाओं को सुधारना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि समाज और राजनीति में सब कुछ जनहित का हो जाए। यद्यपि उन्हें इस बात का भी अहसास है कि उनकी अभिलाष दुरूह है। जिस समाज की रग-रग में भ्रष्टाचार समा चुका हो उस समाज में एक स्वच्छ वातावरण स्थापित होते देखना, जागती आंखों से देखने वाले सपने के समान है। किंतु वे निराश नहीं हैं। उन्हें आशा है कि लोग अपनी विडंबनाओं के यथार्थ को समझेंगे और उन्हें सुधारने का प्रयास करेंगे। बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ की रचनाओं में तीव्र सामाजिक सरोकार होता है। वे हिन्दी और राजस्थानी में समान रूप से लिखते हैं। अपनी माटी और अपनी बोली के प्रति लगाव उन्हें सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति सजग रखता है। अब तक उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमें तीन काव्य संग्रह राजस्थानी में है।
संग्रह का नाम ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ रखे जाने की सार्थकता इसमें संग्रहीत कविताओं को पढ़ने के बाद स्वतः स्पष्ट हो जाती है। वैसे स्वर्ग और नर्क की कल्पना मनुष्य ने स्वयं की अनियमितताओं पर अंकुश लगाने के लिए की है। जैसा कि कहा जाता है कि जो अच्छे काम करता है वह मरणोपरांत स्वर्ग जाता है, वहीं बुरे काम करने वाले को नर्क में जगह मिलती है। इस धारणा का विस्तृत वर्णन वेदव्यास कृत ‘‘महाभारत’’ में मौजूद है। यह संकल्पना मनुष्य को गलत काम करने से रोकने के आधार पर तय की गई। किंतु गलत कार्यों में लिप्त मनुष्य एक ढीठ व्यक्ति की भांति यही सोचता है कि स्वर्ग और नरक किसने देखा है अतः जो इच्छा हो वह करना चाहिए चाहे वह सही हो या गलत। स्वर्ग और नरक की इसी संकल्पना पर आधारित है संग्रह की शीर्षक कविता ‘‘स्वर्ग और नर्क’’-
किसी ने कहा -
नर्क में कौन जाता है
और स्वर्ग में कौन ?
मैंने कहा सिर्फ
वो आदमी ही
नर्क का भागीदार है।
जिसका भ्रष्टाचार, चोरी, घोटाला
अन्याय, दुराचार, हत्या, धोखाधड़ी
बलात्कार आदि /तत्वों पर
पूरा-पूरा अधिकार है।
शेष सभी पर
स्वर्ग/बरकरार है।
संग्रह की प्रथम कविता ‘‘दुल्हन ही दहेज है’’ एक चुटीली किंतु मंचीय शैली की कविता है। जो चुटकी लेती है, आईना दिखाती है और हंसाती भी है किंतु वह गहरा प्रभाव नहीं छोड़ती जो संग्रह की अन्य कविताओं में है। कुछ पंक्तियां देखिए -
मैंने कहा
दुल्हन ही दहेज है।
एक बोला-
‘‘लेकिन मुझे इससे परहेज है।’’
मैंने कहा ‘‘क्यों?’’
कहने लगा
मेरे एक ही लड़का है जो वकील है।
और तिजोरी की /बंद सील है।
मैंने कहा- भाई साहब !
इसमें फिर क्यों ढील है ?
इसे जानवरों के मेले में
ले जाइये।
और वहां बांध आइये।
वहां मुंह मांगा दाम
मिल जायेगा।
और बिना कमाए
जीवन भर का काम
चल जाएगा।
    ‘‘बेटी का बाप’’ कविता भी एक उम्दा कथ्य लिए हुए कमजोर कविता है। वहीं ‘‘आदमी से आदमियत तक’’ शीर्षक कविता अपने शिल्प और कथ्य दोनों दृष्टि से प्रभावी है-
कभी-कभी आदमी
अहर्निश लिप्त रहता है
अपनी जन्मजात/आदतों में ।
कर्म की प्रधानता से हटकर
आदमी कर देता है
अपनी हदें पार।
उसके हृदय में
लगा रहता है
कुटिलताओं का अम्बार ।
कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार महेन्द्र नेह ने उचित लिखा है कि ‘‘कवि दिव्य की कविताएँ तीक्ष्ण व्यंग्य-बाणों से बेधने के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों के समाधान की दिशा भी निरूपित करती है। ... श्दिव्यश् के काव्य-लोक की पहचान मूलतः लोक भाषा और शैली से उद्भूत रही है। लोक में यदि आनंद की व्याप्ति है तो वहाँ पीड़ा और करुणा के स्वरों का आर्तनाद भी है, इसके साथ-साथ लोक में अभिजात-संसार के प्रति गहरे उपहास और व्यंग्य की सुक्तियों, चुटकुलों, किस्सों, कथाओं और गीतों की एक अविरल धारा भी अविरल बहती रहती है, ‘स्वर्ग और नर्क’ में शामिल कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि कवि ने अपने परम्परा से प्राप्त लोक-अनुभवों और दृष्टि को एक नए आकार में ढालने की, अपने विचारों और चिंतन को एक नई दिशा में मोड़ने की सचेत पहल की है।’’
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ समाज में लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराधों को देख कर वर्तमान दौर के किसी भी जिम्मेदार रचनाकार की भांति चिंतित एवं आक्रोशित हो उठते हैं। उनकी कविता है -‘‘दरिन्दों से हिसाब’’। इसमें उन्होंने व्यवस्था के खोखलेपन को भी खुल कर ललकारा है। कविता का एक अंश देखिए-
आजकल लड़कियों की
व्यथा को
समझना ही भारी है।
जो नहीं समझता
वो तो स्वयं ही
अत्याचारी है।
आज देश में लड़कियाँ
नहीं है सुरक्षित।
लूट लेते है अस्मत
अपने ही घर में भक्षित।
राष्ट्र के रखवाले
ये कैसी रक्षा कर रहे हैं।
शायद दुष्कर्मी भेड़ियों से
डर रहे हैं।
वर्दी तो हमारी स्वयं ही
लाचार है।
सुरक्षा के नाम पर
केवल थोथा प्रचार है।
कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ के काव्य संग्रह ‘‘स्वर्ग और नर्क’’ की कविताओं से हो कर गुज़रना अव्यवस्था को ले कर उनके भीतर के आक्रोश के ताप को महसूस करने के समान हैं। वे कहीं भी सीमाओं का उल्लंघन नहीं करते किन्तु उनके आक्रोश की तीव्रता की धार बहुत पैनी है। वे खुले शब्दों में ललकारते हैं लापरवाह एवं भ्रष्टाचारी लोगों को। कविताओं की शैली व्यंजनात्मक है। भाषा आम बोलचाल की है, सहज, सुगम्य और संवादी। एक-दो कमजोर कविताओं को छोड़ दिया जाए तो पूरा संग्रह समृद्ध एवं प्रभावपूर्ण है। ये कविताएं भावनाओं एवं विचारों को आंदोलित करने में सक्षम हैं।
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Monday, June 16, 2025

"कविता के सरोकार" विषय पर संबोधन | मुख्य अतिथि डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पुस्तक चर्चा


कल मैंने विवेकानंद अकादमी में पुस्तक परिचर्चा में मुख्य अतिथि के रूप में दीप प्रज्ज्वलित किया तथा "कविता के सरोकार" विषय पर अपना संबोधन दिया। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Yesterday, as a chief guest I have lit the lamp and address on "the Concerns of poetry" in a book discussion at Vivekanand Academy.


#डॉसुश्रीशरदसिंह #drmisssharadsingh
#bookdiscussion #पुस्तकचर्चा 

Saturday, June 14, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | स्मार्ट सिटी में पगला कुत्ता? जे न चलहे!| डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम

  टॉपिक एक्सपर्ट | स्मार्ट सिटी में पगला कुत्ता? जे न चलहे!| डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पत्रिका | बुंदेली कॉलम
स्मार्ट सिटी में पगला कुत्ता? जे न चलहे!
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

           जे हर की साल हो रई के स्मार्ट सिटी में कौनऊं ने कौनऊं कुत्ता पगलया जात आएं औ लोगन खों काटत फिरत आए। जब लौं बा दस-बीस खों काट नईं लेत तब तक प्रसासन ऊकी खबरई नईं लेत आए, मनो जे कछू गंभीर बात ने होए। काट रओ, सो काटन देओ। औ प्रसासन को खबर जबे आत आए, जब पब्लिक चिचियान लगत आए के “काट लओ, काट लओ!”, “कबे पकरहो?” तब कऊं जा के जिम्मेवार हरें जागत आएं औ सहूरी बंधात आएं के “तनक गम्म खाओ, अबई देखत आएं!” औ तब तक दो चार औ कट जात आएं। ई दफा तो गजबई की रई। पत्रकार हरन ने बा पगला कुत्ता औ आवारा कुत्तन के बारे में पूछो तो जवाब मिलो के कुत्तन की नसबंदी के लाने टेंडर डारो गओ आए। मने उते एक पगला कुत्ता बीस जने खों काटत फिरत रओ औ इते नसबंदी को टेंडर डारबे को काम चलत रओ। बाकी जे समझ ने आई के बा पगला कुत्ता की प्राब्लम से कुत्तन की नसबंदी को का मेल? 
      जेई तो सल्ल आए के राजकाज की मुतकी बातें पब्लिक को समझ ई में नईं आत। सो, पगला कुत्ता से कटत भई पब्लिक भैरानी सी फिरत आए। तंगा के विजय टॉकीज चौराहा पे कछू दुकानदारन ने बैनर सोई लगा दओ के “नो सर्विस, नो टैक्स”। उनको कैबो आए के जोन सेवाओं के लाने हम ओरें टैक्स भरत आएं बा तो नगर निगम देत नइयां, सो अब हमें भी टैक्स नहीं देने। मनो उनको कैबो बी सई आए के पगला कुत्ता से कटवाबे के लाने टैक्स थोड़े दओ जात आए। बाकी जे गिचड़ को जो कछू होय पर पगला कुत्ता इत्ते दिनां लौं काटत फिरत रओ, जे तो गलत आए। ई पे तो एक्शन लओ जाओ चाइए। सई कई के नईं?
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Thank you Patrika 🙏
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Friday, June 13, 2025

शून्यकाल | हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
 शून्यकाल
हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                   
      जब से सोनम रघुवंशी कांड सामने आया है तब से सोशल मीडिया पर जिस तरह लड़कियों के बारे में विचार व्यक्त किए जा रहे हैं वह ट्रोल करने वालों की बीमार मानसिकता को बखूबी दिखाते हैं। यह सोचना कि आज की लड़कियों को क्या होता जा रहा है, बिल्कुल व्यर्थ की चिंता है। क्योंकि हर लड़की सोनम रघुवंशी नहीं होती, ठीक उसी तरह जैसे हर पति सुशील शर्मा नहीं होता जिसने अपनी पत्नी को मार कर तंदूर में जला दिया था। समाज में घटित होने वाली किसी एक घटना को लेकर सभी पर प्रश्न चिन्ह लगाना एक बीमार मानसिकता का सबूत है। सोनम रघुवंशी ने जो किया वह तो गलत है ही लेकिन सभी लड़कियों को ट्रोल किया जाना भी गलत है।

    एक लड़की अपराध करें और सभी लड़कियों को मजाक का निशाना बनाया जाए यह कहां का इंसाफ है? राक्षसी समाज में भी जहां सूर्पनखा जैसी स्त्री हुई जिसने रावण को उकसाया कि वह सीता का अपहरण कर के राम को दंडित करे, वही मंदोदरी जैसी स्त्री भी हुई जिसने सीता के सतीत्व के प्रति रावण को सदैव सचेत किया तथा सीता का पक्ष लिया। हर समाज में कुछ लोग अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे होते हैं और कुछ बहुत बुरे होते हैं। लेकिन बहुत थोड़े से कुछ बहुत बुरे लोगों के कारण पूरे समाज पर लांछन नहीं लगाया जा सकता है।
        जो 1995 के आसपास पैदा हुए होंगे वह तो तंदूर कांड के बारे में जानते ही नहीं होंगे लेकिन जो उस समय युवा या प्रौढ़ रहे होंगे वे बखूबी उस घटना के बारे में उस समय पढ़े और सुने होंगे और आज भी याद करके सिहर उठते होंगे। अपराध की कहानियों में एक रोंगटे खड़े कर देने वाली वारदात के रूप में नैना साहनी तन्दूर कांड दर्ज़ है।  नैना साहनी की हत्या उसके पति सुशील शर्मा ने 2 जुलाई 1995 को की थी। दिल्ली युवक कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष और तत्कालीन विधायक सुशील शर्मा और उसकी पत्नी नैना साहनी दोनों मैं पहले अच्छे संबंध थे। फिर सुशील शर्मा को संदेह हुआ कि नैना के सम्बंध उसके सहपाठी करीम मतलूब से हैं। इसी संदेह के चलते यह जघन्य घटना घटी। 02 जुलाई 1995 को सुशील ने नैना को किसी से फोन पर बात करते देखा। बात खत्म होने के बाद सुशील ने फोन री-डायल किया। नैना ने   करीम मतलूब से बात किया था । वह क्या बात कर रही थी यह पूछे बिना उसने गुस्से में आकर नैना पर लाइसेंसी रिवाल्वर से ताबड़तोड़ तीन फायर कर दिए। इसमें नैना की मौत हो गई। पुलिस के अनुसार सुशील नैना के शव को लपेटकर अशोक यात्री निवास स्थित बगिया रेस्टोरेंट ले गया। वहां उसने नैना के कई टुकड़े किए और तंदूर में झोंक दिए। सुशील ने रेस्टोरेंट के मैनेजर केशव की मदद से नैना के शव को तंदूर में जलाने की कोशिश की। इसी कारण इसे तन्दूर हत्याकांड कहा जाता है।
          दूसरी घटना राजनीतिक की जमीन की नहीं बल्कि एक प्रेम कहानी से शुरू हुई जिसका रोंगटे खड़े कर देने वाला अंत हुआ। इस प्रेम कहानी की शुरुआत 2010 में हुई, जब छपरा बिहार की रहने वाली जूही के पास साजिद अली गलती से कॉल कर बैठा। रॉन्ग नंबर डॉयल होने पर दोनों में बातचीत होने लगी और बात परस्पर प्रेम तक जा पहुंची। सन 2011 में साजिद ने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की और इसी बीच जूही ने गर्वमेंट कॉलेज से बीए आनर्स साइकोलॉजी से पढ़ाई की।
जूही और साजिद एक दूसरे से शादी करना चाहते थे किंतु परिवार वाले राजी नहीं थे। इसलिए सन 2014 में घर वालों के खिलाफ जाकर दोनों ने शादी कर ली। फिर 2016 में दोनों बिहार से दिल्ली पहुंचे और कुछ समय बाद दोनों में अनबन होने लगी। यह अनबन इतनी अधिक बढ़ी कि एक दिन साजिद ने जूही को गला दबाकर मार दिया। बात यही नहीं थमीं। इसके बाद साजिद ने अपने दो भाइयों के साथ मिलकर जूही के शव के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें बैग्स में भरकर जंगल में फेंक दिया। 
          क्या साजिद की इस हरकत पर हर लड़के या हर पति पर उंगली उठाई जा सकती है? 
    हमारे देश में दहेज हत्याएं तो दशकों से होती चली आ रही है लेकिन कभी भी इसके लिए सभी लड़कों को ट्रोल नहीं किया गया। किया भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति का नहीं होता है। समाज में अनेक ऐसे उदाहरण है जब पत्नी ने पति की जान बचाने के लिए अपनी किडनी पति को दे दी। भारतीय पत्नियां तो वैसे भी सेवा भाव के लिए सम्मान की दृष्टि से देखी जाती हैं।
       सोनम रघुवंशी कांड पर कुछ भी टिप्पणी करना या लिखना आवश्यक नहीं था किंतु जब सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी टिप्पणियां देखी जो सभी लड़कियों को लक्ष्य करके लिखी गई थीं, तो मन विचलित हुआ। समाज में स्त्री और पुरुष दोनों समान महत्व रखते हैं, ऐसे में एक-दूसरे के प्रति संदेह को जन्म देना या एक दूसरे के प्रति भय उत्पन्न करना या किसी भी एक पक्ष को पूरा का पूरा संदेह के घेरे में खड़ा कर देना मुझे उचित नहीं लगता। मैंने सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी पढ़ी जिसमें यह कहा गया था की "इंदौर की लड़कियों को क्या हो गया है?" 
एक अन्य टिप्पणी थी -"यहां सब की सब ऐसी ही हैं।"
एक और टिप्पणी थी जिसमें यह विचार व्यक्त किया गया था कि "अब लड़के शादी करने से डरेंगे।"
       इसमें कोई संदेह नहीं की जो अपराध सोनम रघुवंशी ने किया वह क्षमा के योग्य नहीं है। यह सुनकर अवाक रह जाना स्वाभाविक है कि कोई नव विवाहिता अपने हनीमून के दौरान अपने पति को सुपारी देकर मरवा सकती है अथवा सुपारी किलर द्वारा ना मारे जाने पर स्वयं मारे जाने को ततपर हो सकती है। यदि न्यायालय की भाषा में इसे कहा जाए तो यह "रेयर ऑफ द रेयरेस्ट" केस है। ऐसी वारदात करने वाले सभी अपराधियों को यानी सोनम रघुवंशी और उसके साथियों को कठोर दंड दिया ही जाना चाहिए किंतु इस जघन्य घटना को लेकर किसी शहर विशेष की लड़कियों अथवा समाज की सभी लड़कियों अथवा सभी विवाहित स्त्रियों को लक्ष्य करके लांछित करने वाली टिप्पणियां करना अनुचित है। सोशल मीडिया पर विराजमान कथित बुद्धिजीवियों को इस तरह लांछन लगाकर चुटकुले बाजी करने के बजाय गंभीरता से यह सोचना चाहिए कि यह स्थिति बनी क्यों और कैसे? परिवार अथवा समाज में कहीं कोई ऐसी बड़ी चूक तो नहीं हो रही है जिससे अभी और सोनम रघुवंशी पैदा हो सकने की संभावना हो। सोनम रघुवंशी ने अपने  नव विवाहित पति राज रघुवंशी को मारने के बजाय विवाह के पहले ही शादी करने से मना क्यों नहीं किया? जब वह इतनी गहरी अपराधिक प्रवृत्ति की है तो वह खुलकर अपने अनचाहे (?) विवाह का विरोध क्यों नहीं कर सकी? क्या पारिवारिक दबाव था अथवा वह किसी आपराधिक रोमांच का अवसर ढूंढ रही थी? इन प्रश्नों के उत्तर धीरे-धीरे सामने आते जाएंगे। आरंभिक परिस्थितियों में तो स्वयं राज रघुवंशी के परिवार वाले सोनम को अपराधी मानने को तैयार नहीं थे। एक हंसी खुशी से किए गए विवाह उत्सव के बाद ऐसी जघन्य हत्या की कल्पना भला कौन कर सकता है? इस तरह का अपराध कोई साइको अपराधी ही अंजाम दे सकता है।
        अपराधियों का मनोविज्ञान अर्थात क्रिमिनल साइकोलॉजी अपने आप में एक अलग अध्ययन शाखा है। इसमें आपराधिक व्यवहार और उसके कारणों का अध्ययन किया जाता है। इसमें अपराधियों के विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का विश्लेषण शामिल है। यह अपराधियों के प्रोफाइल बनाने, उनके पुन: अपराध के जोखिम का मूल्यांकन करने, और पुनर्वास कार्यक्रमों को विकसित करने में मदद करता है। डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय में क्रिमिनोलॉजी एक स्वतंत्र विभाग है जिसमें अपराध से संबंधित सभी पक्षों का अध्ययन एवं अध्यापन किया जाता है। अपनी किताब “न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां” लिखने से पूर्व मेरा क्रिमिनोलॉजी या फॉरेंसिक साइंस यानी न्यायालयिक विज्ञान से कोई नाता नहीं था। मैं इतिहास की विद्यार्थी रही तथा साहित्य में कलम चलाई। किंतु अपराध अन्वेषण ब्यूरो द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापन निकाल कर जब “न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां” ( द न्यू चैलेंज का फॉरेंसिक साइंस) विषय पर पुस्तक लिखने के लिए स्वतंत्र लेखकों को आमंत्रित किया गया तो मुझे यह विषय एक चुनौती जैसा लगा और मैंने इस विषय पर पुस्तक लिखने की ठानी। अपराध अन्वेषण ब्यूरो नई दिल्ली द्वारा मेरी सिनॉप्सिस स्वीकार कर लिए जाने के बाद मुझे किताब लिखने की स्वीकृति प्रदान की गई। इसके बाद मैंने अपराध शास्त्र और फोरेंसिक विशेषज्ञों से चर्चाएं की। विश्वविद्यालय के जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय में बैठकर घंटों अपराध विज्ञान एवं फॉरेंसिक साइंस संबंधित पुस्तक पढ़ीं। इस दौरान मुझे क्रिमिनल साइकोलॉजी पढ़ने की भी जरूरत पड़ी। “न्यायिक विज्ञान की नई चुनौतियां” विषय पर मेरे द्वारा लिखी गई किताब को राष्ट्रीय गोविंद बल्लभ पंत पुरस्कार प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी बात थी क्योंकि इससे पूर्व मैं कला संकाय की एक छात्रा रही। “खजुराहो की मूर्ति कला के सौंदर्यात्मक तत्व” पर  मैं पीएचडी की थी। लेकिन इस किताब को लिखने के बाद अपराध और अपराधियों को देखने का मेरा नजरिया ही बदल गया। अब जब किसी अपराध के बारे में मैं पढ़ती हूं तो मुझे लगता है कि अपराध की तह में जाकर यह जानना भी जरूरी है कि यह घटित हुआ तो क्यों हुआ? भले ही घटना के कारण के आधार पर हर अपराधी को निर्दोष या मासूम नहीं कहा जा सकता है, यह घटना की प्रकृति पर निर्भर करता है कि अपराधी ने कितनी क्रूरता से अपराध को अंजाम दिया। लेकिन जब से सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी मिली है तब से सभी को न्यायाधीश बनने की बड़ी हड़बड़ी रहती है। किसी भी अपराध का घटनाक्रम पूरी तरह सामने आए बिना ही लोग अपराधी या निरपराध की घोषणा करने लगते हैं। संयम की यह कमी भी अपने आप में एक मानसिक अस्थिरता की परिचायक है। 
           सिर्फ सोनम रघुवंशी का मामला ही नहीं, बल्कि और भी जातिगत या धार्मिक अपराधों में भी सीधे-सीधे लोगों पर आक्षेप लगाए जाने लगता है। क्या किसी एक व्यक्ति के अपराध के आधार पर किसी समुदाय, किसी जाति या किसी लिंग के सभी लोग अपराधी प्रवृत्ति के हो सकते हैं? हर व्यक्ति की मानसिकता परस्पर दूसरे से भिन्न होती है हर कोई अपराध में प्रवृत नहीं हो सकता है। लड़ाई, झगड़ा, विवाद आदि तो हर परिवार में होते हैं लेकिन कोई किसी की जघन्य हत्या नहीं करता। इसलिए किसी एक लड़के या लड़की के अपराध को लेकर पूरे लड़कों या लड़कियों को संदेह के घेरे में खड़ा कर देना उचित नहीं है। कई ऐसे सोशल मीडिया वीर भी हैं जो तात्कालिक आवेग में आकर अनाप-शनाप टिप्पणी कर देते हैं अथवा पोस्ट डाल देते हैं और फिर जब उन्हें समझ में आता है कि वे जल्दबाजी कर बैठे हैं तो वह तत्काल अपनी टिप्पणी या पोस्ट डिलीट कर देते हैं। ऐसे लोग भी अस्थिर मानसिकता के होते हैं। ऐसे लोगों के प्रभाव में सोशल मीडिया के कृत्रिम आवेग में आकर कोई भी टिप्पणी करने से पहले यह ध्यान में रखना जरूरी है कि हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता है। 
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Thursday, June 12, 2025

बतकाव बिन्ना की | ज्यादा ने इतराओ, सोनम घांईं मिलहे तो पता परहे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ज्यादा ने इतराओ, सोनम घांईं मिलहे तो पता परहे
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
        ‘‘देख तो बिन्ना! कित्ते नखरे आएं ई मोड़ा के।’’ भौजी बोलीं।
‘‘ईमें नखरे की कोनऊं बात नोईं। आपने पूछी सो हमने बता दई। अब आप खों ने पुसाए सो आप जानों!’’ भौजी को भनेज मों बनात भओ बोलो।
‘‘हो का गओ? काए की गिचड़ चल रई आप दोई में?’’मैंने पूछी।
‘‘देखो ने बुआ, पैले तो इन्ने हमसे हमाई पसंद पूछी औ अब बोल रईं के हम नखरा दिखा रए। जो कोन सो ढंग आए?’’ भनेज भिनभिनात भओ मोसे बोलो।
‘‘जे नखरा नईं तो का आए? ऐसईं नईं ऊंसई, ऊंसई नईं ऐसईं, इत्ते भाव नईं खाए जात।‘‘ भौजी भनभनात भईं बोलीं।
‘‘कोन चीज की पसंद? काय की बात कर रए आप ओरें?’’ मोए कछू समझ नईं परी।
‘‘हम बता रए तुमें बिन्ना!’’ बीच में कूंदत भए भैयाजी बोले, ‘‘का आए के जे अपने भनेज साब के ब्याओ के लाने लड़किया ढूंढी जा रईं। मनो अबे लौं जित्ती ढूंढी ऊमें एकऊ इने ने पुसाई। जेई लाने तुमाई भौजी इने समझा रईं के मोड़ी में इत्ती ज्यादा कमी-बेसी नईं निकारी जात आए।’’
‘‘औ का! अब तुमई बताओ बिन्ना के मनो कोनऊं मोड़ी तनक दबे रंग की होय पर ऊको चाल-चलन सब कछू अच्छो होय तो का ऊको खाली जे लाने रिजेक्ट करो जाओ चाई के ऊको रंग दबो कहानो? का जे ठीक आए?’’ भौजी ने मोसे पूछी।
‘‘बिलकुल नईं! मोड़ी के रंग से कछू फरक नईं परत। बा कैनात आए ने के सूरत भले अच्छी ने होए पर सीरत अच्छी होनी चाइए। मोड़ी को ब्यौहार अच्छो होय तो सब कछू अच्छो कहानो।’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो हम इने समझा रए के, भैया! फेयर एंड लवली वारी मोड़ी के जो काम फेयर ने भए तो रोऊत फिरहो। ज्यादा नखरे ने दिखाओ, जो सोनम घांईं मिलहे तो पता परहे।’’ भौजी ने फेर भनेज को ताना मारो।
भौजी को भनेज साफ्टवेयर इंजीनियर आए बेंगलुरू में। कोनऊं अच्छी मल्टी नेशनल कंपनी में। सो मोय जेई लगो के भौजी जबरिया ऊको ठेन कर रईं। अरे, ऊकी कोनऊं अपनी पसंद हुइए, सो ऊको अपनी पसंद की छांटन देओ।
‘‘बुरौ ने मानियो भौजी, पर एक बात कएं के इनखों अपनी पसंद की छांट लेन देओ। काए से के ऊके संगे जिनगी इने बितानी आए, आप ओरों को नोंईं।’’ मैंने भौजी से कई। मैंने देखी के मोरी बात सुन के भनेज जू को मों कुम्हड़ा के फूल घांई खिल गओ। ऊको कोऊ ऊकी तरफी से बोलने वारो जो मिल गओ, ने तो भैयाजी औ भौजी दोई अपनी मनवाने खों पिले परे हते।
‘‘सो हम ओरें कोन खूंटा गाड़े दे रए? पूछई तो रए के तुमें कैसी मोड़ी चाइए तो महराज जू को कैबो आए के इने दूद घांईं गोरी, अंग्रेजी वारी पढ़ी-लिखी, नौकरी करत भई, बा बी कोनऊं मल्टी नेशनल कंपनी में, ऊको खानो बनाऊत बनत होए, घर सम्हार सके, रिश्तेदारी सम्हार सके, ऐसी टाईप की मोड़ी चाऊने। कऊं मिलहे ऐसी मोड़ी? जोन मल्टी नेशनल कंपनी में नौकरी कर रई हुइए, ऊको का खाना बनानो आऊत हुइए? नौकरी पाबे के पैले तो पढ़त-पढ़त ऊकी जिनगी कढ़ गई हुइए, बा भला खाना बनाबो औ घर सम्हारनो कबे सीख पाई हुइए? औ जोन ज्यादई सुंदरी भई सो ब्यूटी पार्लर में सबरो पइसा फूंकत रैहे। जे बात जे महाराज समझई नईं पा रए।’’ भौजी ने खुल के बता दई जो सल्ल हती।
‘‘अरे नईं आप ने डराओ! ऐसो बी नइयां के बड़ी नोकरी करबे वारी मोड़ी घर ने सम्हार पाहे। मोड़ियां तो सबई कछू सम्हार लेत आएं। आप तो समझतई हो।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘जेई तो हम इन ओरन से कै रए के हमें इते-उते मोड़ी ने दिखाओ। उन मोड़ियन खों मना करबे में हमें सोई बुरौ लगहे। हमें जोन टाईप की मोड़ी चाउने, बा हमें ढूंढन देओ, आप ओरें ने परेसान हो।’’ भनेज तुरतई मोसे बोलो। ऊके जा कैतई सात मोय सबरी किसां समझ में आ गई।
‘‘सो अब बेटा, तुम तनक सई-सई बता देओ के जोन तुमने पसंद कर राखी आए बा कां की आए औ का करत आए? का बो तुमाई कंपनी में आए?’’ मैंने सूदे-सूदे भनेज से पूछो।
‘‘बुआ आप बी!’’ भनेज झेंपत भओ बोलो।
‘‘जे अब तुम सई के नखरा दिखा रए। काए से के इन ओरन खों परेसान ने करो। जब तुमने अपने लाने मोड़ी पसंद कर राखी आए तो इने बता देओ। जे ओरें फालतू में नाएं-माएं ने भटकें। एक तरफी तुमई कै रए के तुमें मोड़ी वारों खो मना करत में जी दुखहे तो पैलई उन ओरन से बात चलवा के उनकी आसा काए जगा रए? जे बी तो गलत आए। काए सई बात आए के नईं?’’ मैंने भनेज साब की क्लास ले लई।
‘‘हऔ बुआ आप सई कै रईं। हमें एक मोड़ी पसंद आए औ बा हमाए संगे काम करत आए।’’ भनेज हिचकत भओ बोलो।
‘‘औ बा तुमें पसंद करत आए के नईं? के एकई तरफी को खेल चल रओ?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘हऔ, बा बी हमें भौत लाईक करत आए।’’ भनेज तुरतईं बोलो।
‘‘कोन सो वारो लाईक? असली वारो के सोसल मीडिया वारो?’’ भैयाजी ने तनक चुटकी लई।
‘‘असली वारो।’’ भनेज तुरतईं बोल परो। फेर तनक झेंप सोई गओ।
‘‘तो बा सब कछू कर लेत आए? मने खाना बना लेत आए? झाडूं-पोंछा कर लेत आए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘हऔ! बा तो छुट्टी के दिनां हमाए फ्लैट में आ के सब कछू ठीक-ठाक कर जात आए। औ हम संगे खाना बना लेत आएं। बड़ी नोनी आए बा।’’ भनेज अपनी पसंद की तारीफ करत भओ बोलो।
‘‘देखो भौयाजी, औ देखो भौजी! जे आए असल बात, जोन के कारण ने बेटा जी मोड़ी में छत्तीस के बदले बहत्तर गुन की डिमांड कर रए हते। काए से के इने घर सम्हारने वारी पैलई मिल गई आए, सो कोनऊं औ इने चाइए नईं।’’ मैं हंसत भई बोली।
‘‘सो जे पैले काए नईं बताई? हम ओरन को मूंड़ पिरा गओ तुमाए जोग मोडी ढूंढत-ढूंढत।’’ भौजी भनेज खों लाड़ से डपटत भई बोलीं।
‘‘कछू नईं! कर लेन देओ ईको पसंद बाकी ब्याओ तो बईं हुइए जां हम तै करबी।’’ भैयाजी ने जे कै के कम सबई खों चैंका दओ।
‘‘जो का कै रए?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘हम सई कै रए। इनके बाप-मताई ने जे जिम्मा अपन ओरन खों सौंपो आए के अपन इनके लाने इतई की अच्छी सी मोड़ी देख लेबें। सो अब तो इतई की औ हमाए पसंद की मोड़ी से इनको ब्याओ हुइए। देख लइयो!’’ भैयाजी मनो अपनो फाईनल डिसीजन बताऊत भए बोले।
‘‘आप से हमें जे उमींद ने हती। अब जो हमने सब बता दओ, फेर बी आप अपनी पसंद की मोड़ी से हमाओ ब्याओ कराहो। इट इज़ नाॅट फेयर।’’ भैयाजी की बात सुन के भनेज इत्तो घबड़ानों के बुंदेली बोलत-बोलत अंग्रेजी बोलन लगो।
‘‘अब तुम कछू करो। हमें जो करने बा हम कर के रैबी। औ तुमें सोई पतो आए के तुमाएं बाप-मताई हमाओ कहो कभऊं ने टालहें।’’ भैयाजी अपनी अड़ी लगा के बैठ गए।
‘‘जे आपको का हो गओ भैयाजी? जोन मोड़ी ईको पसंद आए, ऊके संगे जे खुस रैहे, आप काए कोनऊं औ मोड़ी ईके गले पाड़ रए?’’ मोए बी भैयाजी से पूछने परी।
‘‘अब तुम बीच में ने परो! हमने सोच बी लई आए के ईके लाने कोन सी मोड़ी ठीक रैहे।’’भैयाजी बोले।
‘‘कोन-सीे मोड़ी?’’ भौजी सोई अचरज करत भई पूछ बैठीं।
‘‘बो छुन्ने महराज जू की लोहरी मोड़ी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बा? बा तो पूरी तोपचंद आए। ऊसे तो कोनऊं खों पिटवा लेओ, मनो आप ऊसे पानी को गिलास नईं मंगा सकत।’’ भौजी आंखे फाड़त बोलीं।
‘‘हऔ, सुनी तो हमने बी आए के बा बड़ी दादा टाईप की मोड़ी आए। बा तो बेटा जू खों एक लपाड़ा लगा के चुप करा दैहे।’’ मैंने बी कई।
‘‘जेई से तो! बा मोड़ी सबसे ठीक रैहे ईके लाने। बाकी हमाओ तो जोई कैबो आए के मोड़ी पसंद करबे में ऐसो नखरा दिखाबे वारे औ अपनी पसंद छिपाबे वारे मोड़ा खों सोनम घांई मोड़ी मिलो चाइए। जोन पता परी के ब्याओ करा के ले गई, औ फेर लगा आई ठिकाने।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
बे हंसे तो हम ओरन खों समझ परी के बे अबे लौं भनेज की टांग खिचाई आ कर रए हते।
‘‘सई कई भैयाजी आपने! इनके लाने तो सोनम घांई सई रैहे।’’ मैंने सोई हंस के कई।
जा सब सुन के भनेज की जान में जान आई, ने तो ऊकी जान कढ़ी जा रई ती।                
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के एक सोनम के चलत भए सबई मोड़ियन पे उंगरिया नईं उठानी का ठीक आए? अपने इते सीता औ सावित्री होत आएं, बा एक सोनम तो अपवाद ठैरी। जेई नांव की एक से एक अच्छी मोड़ियां आएं अपने इते। काए, सई कई के नई?  
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Wednesday, June 11, 2025

चर्चा प्लस | कबीर जयंती विशेष : कबीर के ‘राम’ हैं उनकी सहज समाधि के आधार | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस (सागर दिनकर)    

कबीर जयंती विशेष : कबीर के ‘राम’ हैं उनकी सहज समाधि के आधार         
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                             
     कबीर की प्रासंगिकता कोई नकार नहीं सकता है। कबीर की वाणी कालजयी वाणी है। उन्होंने जिस मानव स्वाभिमान और निडरता का साथ देते हुए, धार्मिक आडंबर ओढ़ने वालों को ललकारा, वैसा साहस आज भी दिखाई नहीं देता है। कबीर ने सहजसमाधि के रूप में जीने का आसान तरीका बताया जो आज भी प्रासंगिक है। कबीर की सहज समाधि का अर्थ है मन को स्थिर करना और उसे बाहरी दुनिया के विचारों से मुक्त करके एक गहरी, आनंदमय अवस्था में ले जाना। यह समाधि सहज और स्वाभाविक है, किसी विशेष प्रयास या साधना की आवश्यकता नहीं होती। इसमें किसी भी दिखावे या आडंबर की कोई गुंजाइश नहीं है। इसीलिए यह सहज समाधि है। 

कबीर की सहज समाधि जीवन जीने का सही ढंग सिखाती है जिसमें दिखावे या आडंबर के लिए कतई गुंजाइश नहीं है। यह स्वयं के भीतर झांकने और स्वयं को पहचानने की एक जीवन पद्धति है। इसमें निर्गुण राम के स्मरण का भाव है। इसमें दैनिक जीवन के समस्त कर्म करते हुए समाधिस्थ अवस्था का अनुभव करने की अवस्था है जैसे रस्सी पर खेल दिखाने वाली नटनी जितनी तन्मयता से खेल दिखाती है उतनी ही सजगता से अपना संतुलन बनाए रखती है-
नटनी चढ़ै बांस पर, नटवा ढ़ोल बजावै जी। 
इधर-उधर से निगह बचाकर, सुरति बांस पे लावे जी। ।।  
कबीर का जन्म लहरतारा के पास जुलाहा परिवार में सन 1398 में जेष्ठ पूर्णिमा को माना जाता है। वे संत रामानंद के शिष्य बने और ज्ञान का अलख जगाया। कबीर ने साधुक्कड़ी भाषा में किसी भी संप्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किए बिना खरी बात कही। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्तिपूजा आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर ने हिंदू मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर के विचार और उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावनअक्षरी और उलटबांसी  में मिलते हैं।
कबीर ने समाज के साथ-साथ आत्म-उत्थान पर भी बल दिया। आत्म-उत्थान के लिए उन्होंने समाधि के उस चरण को उत्तम ठहराया जिसमें मनुष्य अपने अंतर्मन में झांक सके और अपने अंतर्मन को भलीभांति समझा सके। कबीर ने सहजयान की बहुत प्रशंसा की और इसे सबसे उत्तम कहा। कबीर के अनुसार सहज समाधि की अवस्था दुख-सुख से परे परम सुखदायक अवस्था है। जो इस समाधि में रम जाता है वह अपने नेत्रों से अलख को देख लेता है। जो गुरु इस सहज समाधि की शिक्षा देता है वह सर्वोत्तम गुरु होता है-
     संतो, सहज समाधि भली 
     सुख-दुख के इक परे परम, 
    सुख तेहि में रहा समाई ।।
कबीर के राम को अवतारी राम की छाया से भी दूर रखना चाहते हैं। उनके राम कोमल भाव के नहीं हैं, फिर भी उनकी चेतना ज्यादा मानवीय है। कबीर अपने राम के साथय सम्बन्ध स्थापित करते हैं-‘हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया’। अपने भगवान के साथ मानवीय सम्बन्ध मानवी की कल्पना करना बहुत बड़ी बात है।
कबीर ने सहज समाधि की विशेषताओं को विस्तार से समझाते हुए कहा है कि इस समाधि को प्राप्त करने के लिए न तो शरीर को तप की आग में तपाने की आवश्यकता होती है और कामवासना में लिप्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होने की। यह समाधि अवस्था उस मधुर अनुभव की भांति है जो इसे प्राप्त करता है, तो वहीं इसकी मधुरता को जान पाता है -
      मीठा सो जो सहेजैं पावा।
     अति कलेस थैं करूं कहावा।।
कबीर इस तथ्य को स्पष्ट किया कि वस्तुतः सहजसमाधि का नाम तो सभी लेते हैं किंतु उसके बारे में जानते कम ही लोग हैं अथवा सहज समाधि को लेकर भ्रमित रहते हैं। यह तो सामाजिक व्यवस्था है जिसमें हरि की सहज प्राप्ति हो जाती है। कबीर सहज समाधि को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह कोई आडंबर युक्त क्रिया नहीं है अपितु सहज भाव से जीवनयापन करते हुए राम अथवा हरि में लीन हो जाना ही सहज समाधि है।
   सहज-सहज सब ही कहैं, 
   सहज न चीन्हैं कोई ।
   जिन सहजै हरिजी मिलैं
   सहज कहीजैं सोई ।।
   सहज समाधि के लिए न तो ग्रंथों की आवश्यकता है और न किसी पूजा पाठ की। इसके लिए बस इतना करना पर्याप्त है कि विषय-वासना का त्याग, संतान, धन, पत्नी और आसक्ति से मन को हटा कर  'राम' के प्रति समर्पित कर दिया जाए। जो भी ऐसा कर लेता है वह सहजसमाधि में प्रविष्ट हो जाता है। कबीर कहते हैं कि यह तो बहुत सरल है-
     आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं
     तनिक कष्ट नहीं धारों । 
    .खुले नैनी पहिचानौं हंसि हंसि 
     सुंदर रूप निहारौं ।।
इस सहज समाधि की अवस्था को पाकर साधक सहज सुख पा लेता है तथा सांसारिक दुखों के सामने अविचल खड़ा रह सकता है। वह न तो स्वयं किसी से डरता है और न किसी को डराता है। यह तो ब्रह्मज्ञान है जो मनुष्य के भीतर विवेक को स्थापित करता है, धैर्य धारण करना सिखाता है और युगों युगों के विश्राम का सुख देता है -
   अब मैं पाईबो रे, पाइबौ ब्रह्मगियान।
   सहज समाधें सुख मैं रहिबौ 
   कोटि कलप विश्राम ।।
कबीर कहते हैं कि जब मन ‘‘राम’’ में लीन हो जाता है, आसक्ति दूर हो जाती है, चित्त एकाग्र हो जाता है - उस समय मन स्वयं ही भोग की ओर से हटकर योग में प्रवृत्त होने लगता है। यह साधक की साधना की चरम स्थिति ही तो है जिसमें उसे दोनों लोकों का सुख प्राप्त होने लगता है -
एक जुगति एक मिलै, किंवा जोग का भोग।
इन दून्यूं फल पाइए, राम नाम सिद्ध जोग ।।
सहज समाधि के बारे में कबीर के विचार सिद्धों के सहजयान संबंधी विचार के बहुत समीप हैं। सिद्धों के समय सहज भावना उत्तम और सरल मानी जाती थी। सिद्ध भी यही मानते थे कि घर बार को त्याग कर साधु होना व्यर्थ है यदि त्याग करना है तो सभी प्रकार के आडंबरों का त्याग करना चाहिए। सिद्ध संत गोरखनाथ ने भी सहज जीवन के बारे में यही कहा है कि  ‘‘हंसना, खेलना और मस्त रहना चाहिए किंतु काम और क्रोध का साथ नहीं करना चाहिए। ऐसा ही हंसना, खेलना और गीत गाना चाहिए किंतु अपने चित्त की दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिए। साथ ही सदा ध्यान लगाना और ब्रह्म ज्ञान की चर्चा करनी चाहिए।’’
    हंसीबा खेलिबा रहिबा रंग, 
    काम क्रोध न करिबा संग। 
    हंसिबा खेलिबा गइबा गीत 
    दिढ करि राखि अपना चीत।।
    हंसीबा खेलिबा धरिबा ध्यान 
    अहनिस कथिबा ब्रह्म गियान।
    हंसै खेलै न करै मन भंग 
    ते निहचल सदा नाथ के संग।।
सिद्धों और नाथों की सहज ज्ञान परंपरा की जो प्रवृत्ति कबीर  तक पहुंची उसे कबीर ने आत्मसात किया और उसे सहज समाधि के रूप में और अधिक सरलीकृत किया। जिससे लोग सुगमता पूर्वक उसे अपना सकें। इस संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन का यह कथन समीचीन है कि ‘‘यद्यपि कबीर के समय तक एक भी सहजयानी नहीं रह गया था फिर भी इन्हीं (पूर्ववर्ती) से कबीर तक सहज शब्द पहुंचा था। जिस प्रकार सिद्ध सहज ध्यान और प्रवज्या से रहित गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए सहज जीवन की प्रशंसा करते हैं वैसे ही कबीर साधु वेश से रहित घर में रहकर जीवन साधना में लीन थे।’’
संसार में रहकर सांसारिकता के अवगुणों में न डूबना ही सहजसमाधि का मूलमंत्र कहा जा सकता है। सिद्धों के इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कबीर ने कहा है -
साधु ! सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी 
दिन-दिन अधिक चली 
जंह-जंह डोलों सो परिकरमा 
जो कछु करौं सो सेवा 
जब सोवौं तब करो दंडवत 
पूजौं और न देवा
कहौं तो नाम सुनौं सो सुमिरन 
खावौं पियौं सो पूजा 
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं 
भाव मिटावौं दूजा
कबीर ने अपने जीवन में संयम, चिंतन, मनन एवं साधना को अपनाया। उन्होंने सदैव भक्ति का सहज मार्ग ही सुझाया। यह वही सहज मार्ग था जो सिद्धों-नाथों के बाद आडम्बरों की भीड़ में लगभग खो गया था किंतु कबीर ने उसे पुनर्स्थापित किया तथा शांति एवं धैर्यवान जीवन की धारणा को जनसामान्य के सामने रखा। आज जब सारी दुनिया उपभोक्ता बनी बाजार के पीछे व्याकुल हो कर आंख मूंद कर दौड़ रही है, कबीर की सहज समाधि जीवन शैली शांति और निर्लिप्ति के साथ जीने का रास्ता दिखाती है जो उनके निगुर्ण राम से उपजी है जो बहुआयामी हैं किन्तु समस्त दोषों से परे हैं।
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