चर्चा प्लस
कितना सोचा जाता है बेटियों के बारे में?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’- बहुत सुखद नारा है। यह उस समय और भी सुखद लगता है जब किसी कन्या विद्यालय की छात्राएं अथवा किसी महिला संगठन की महिलाएं हाथों में तख़्तियां लिए इस नारे को जोर-शोर से बुलंद करती हुई जुलूस निकालती हैं। ऐसा लगता है कि बेटियों को अब एक सुविधाजनक दुनिया मिल कर रहेगी। किन्तु सच्चाई इससे अभी भी कोसों दूर है। बेटियों के लिए स्कूल के दरवाजे तो खोले गए हैं लेकिन उन्हें वे सारी सुविधाएं अभी भी नहीं मिल रही हैं, जो मिलना चाहिए। स्कूलों में भी बेटियों के लिए सुरक्षा और सुविधाओं में अभी भी कमी है। क्या कारण है इसका?
हमारे देश की बेटियां सबसे अधिक श्रमशील और सबसे अधिक जीवट हैं। वे हर प्रकार की विषम परिस्थिति में स्वयं को अडिग बनाए रखती हैं। दुर्भाग्यवश बेटियों के इस गुण को समाज ने जानते हुए भी समझने से इनकार कर किया। एक समय वह भी आया जब 1000 बेटों पर 911 बेटियों की औसत दर का आंकड़ा आ गया था। ऐसा इसलिए हुआ कि उस समय तक भ्रूण के लिंग की जांच और भ्रूण हत्या का कारोबार खुल कर चल रहा था। फिर सरकार ने इस विकट स्थिति को अपने संज्ञान में लिया और मेडिकली परमिशन के बिना भ्रूण के लिंग की जांच अथवा भ्रूण की हत्या को अपराध घोषित किया गया। इसके लिए अलग से अधिनियम बनाया गया। गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 (पीसीपीएनडीटी अधिनियम) के तहत, भ्रूण के लिंग का निर्धारण करना या किसी को बताना अवैध करार दिया गया, और ऐसा करने वालों के लिए सजा का प्रावधान रखा गया। गर्भधारण पूर्व और प्रसूति-पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के तहत दण्डनीय अपराध यदि-
1.गर्भवती महिला को उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण के लिंग के बारे में जानने के लिए उकसाया जाए।
2.गर्भवती महिला पर उसके परिजनों या अन्य व्यक्ति द्वारा लिंग जांचने के लिए दबाव बनाया जाए।
3.वे डॉक्टर जो इस तकनीक का दुरूपयोग करते हैं या कोई भी ऐसा व्यक्ति अपने घर या बाहर कहीं पर लिंग की जांच के लिए किसी तकनीक का प्रयोग या मशीन का प्रयोग करता है- लेबोरेटरी, अस्पताल, क्लीनिक तथा कोई भी ऐसी संस्था जो सोनोग्राफी जैसी तकनीक का दुरुपयोग लिंग चयन के लिए करते हैं।
4.गर्भवती महिला एवं पति द्वारा स्वयं इस तरह का कोई कृत्य जिससे लड़के के जन्म को बढ़ावा दिया जा रहा हो जैसे - आयुर्वेदिक दवाईयाँ खाना या कोई वैकल्पिक चिकित्सा या कोई भी व्यक्ति गर्भवती स्त्री और उसके रिश्तेदारों को शाब्दिक रूप से या सांकेतिक मुद्राओं से भ्रूण का लिंग बताए तो अपराधी माना जाएगा।
5. भ्रूण के लिंग के चयन की सुविधा के बारे में किसी प्रकार के इश्तहार या प्रकाशन या पत्र निकालने वाले भी अपराधी माने जाते हैं।
इस कानून के अन्तर्गत प्रत्येक जुर्म संज्ञेय व गैर जमानती है और समझौता योग्य नहीं है। गर्भधारण पूर्व और प्रसूति-पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 अधिनियम के अन्तर्गत दण्डात्मक प्रावधान में लिंग चयन के लिए भ्रूण की जांच कराने पर 03 साल तक की जेल और रु. 10000 तक का जुर्माना हो सकता है। दुबारा ऐसा अपराध करने पर 05 साल की जेल और रु. 50000 तक का जुर्माना हो सकता है। इस तरह की जांच करने वाले डॉक्टर एवं तकनीकी सहायक को 03 साल तक की जेल और रु. 10000 तक का जुर्माना हो सकता है। डॉक्टर या तकनीकी सहायक द्वारा दुबारा अपराध करने पर 05 साल तक की जेल और रू. 50000 तक जुर्माना हो सकता है। लिंग चयन के लिए भ्रूण की जांच करने वाले केन्द्रों का पंजीयन रद्द किया जा सकता है। लिंग चयन के लिए भ्रूण की जांच सम्बंधी विज्ञापन देना अपराध है। ऐसा करने वाले को 03 साल की जेल और रु. 10000 का जुर्माना हो सकता है। यदि गर्भवती महिला की सोनोग्राफी/अल्ट्रासाउण्ड तकनीक से जांच की जाती है तो अल्ट्रासाउण्ड करने वाले को 02 साल तक जांच का पूरा ब्यौरा रखना होगा। ऐसा नहीं करने पर सजा हो सकती है या ऐसी जांच के लिए गर्भवती महिला से लिखित अनुमति लेना जरूरी है। साथ ही गर्भवती महिला को इस अनुमति की कॉपी देना भी जरूरी है। इस संबंध में मदद एवं शिकायत के लिए टोल फ्री नंबर भी हैं- समाधान शिकायत निवारण प्रकोष्ठ-18001805220, वूमेन्स पावर लाइन-1090, पुलिस-100 एवं निःशुल्क विधिक सहायता-18004190234, 15100 नंबर।
सामाजिक जागरूकता के बिना सरकार के सारे प्रयास शत प्रतिशत परिणाम तो नहीं दे सकते हैं किन्तु इस अधिनियम के लागू किए जाने से कन्या भ्रूण को पहचान कर मारे जाने का अमानवीय अपराध न्यूनतम स्तर पर आ गया। इससे बेटियों को जन्म लेने का एक बार फिर अवसर मिलने लगा। लेकिन जन्म लेने के बाद अनचाही बेटियों का जीवन क्या पूरी तरह सुरक्षित और आरामदायक होता है? नही! अनेक अनचाही बेटियां परिवार की उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार होती रहती हैं। घर में उन्हें और उनकी जन्मदात्री मां को कोसा जाता है, उनसे रूखा व्यवहार किया जाता है। पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव इतना अधिक होता है कि वे चाह कर भी अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं कर पाती हैं और अपनी प्रताड़ना को अपनी नियति मान कर चुपचाप सहती रहती हैं। अनचाही बेटियों को न तो भरपेट खाना मिलता है और न सुखद जीवन। उन्हें भी बड़ी होने पर विवाह के बाद यही शब्द सुनने को मिलते हैं कि ‘‘बहू जल्दी से पोतेे का मुंह दिखा दे!’’ यानी किस्सा दोहराए जाने को तैयार।
कन्या भ्रूण के हित में बने अधिनियम से बेटियों को जन्म पाने का अवसर मिलने लगा है। अनेक परिवार उन्हें पढ़ाने में भी रुचि रखते हैं। कोई बेटी के अच्छे भविष्य के लिए, तो कोई पढ़ा-लिखा कर अच्छा वर जुटाने के उद्देश्य से तो कोई मात्र बेटियों को मिलने वाले स्कालरशिप हड़पने के उद्देश्य से। ध्यान रहे कि यहां इस संदर्भ में पढ़े-लिखे समझदार परिवारों की चर्चा नहीं की जा रही है और न ही उन परिवारों की जो अपनी बेटियों को अच्छे प्रायवेट स्कूलों में शिक्षा दिलाते हैं। यहा मैं चर्चा कर रही हूं आम सरकारी स्कूलों की जिनके लिए नियम तो अनेेक बनाए गए हैं किन्तु उनका पालन हो रहा है या नहीं, इसे संज्ञान में लेने वाला कोई दिखाई नहीं देता है। ग्रामीण क्षेत्रों अथवा निचली बस्तियों में चल रहे आम सरकारी स्कूलों में बेटियों के हित में तय की गई योजनाओं का अता-पता नहीं मिलेगा। कहीं यदि कोई प्राचार्य व्यक्तिगत रुचि ले कर कोई कार्य करा रहा है तो उस अपवाद की बात भी यहां नहीं हो रही है। लड़के और लड़कियों के एक साथ पढ़ने में कोई बुराई नहीं है। बल्कि को-एजुकेशन में दोनों के बीच पारस्परिक समझ स्वाभाविक रूप से विकसित होती है और किसी प्रकार का ‘‘टैबू’’ मन में घर नहीं बना पाता है। किन्तु मूल समस्या है स्कूलों में बेटियों को मिलने वाली सुविधाओं की।
सरकार द्वारा तय तो यह किया गया कि प्रत्येक स्कूल में जहां बालिकाएं पढ़ती हैं, सेनेटरी नैपकिन उपलब्ध कराए जाएं। इसके लिए दो विकल्प थे कि एक तो स्कूलों में बालिकाओं को सेनेटरी नैपकिन्स दिए जाएं और दूसरा विकल्प था कि उन्हें सेनेटरी नेपकिन्स खरीदने के लिए पैसे दिए जाएं। अलग-अलग राज्य सरकारों ने अलग-अलग रास्ते चुने हैं।
मध्य प्रदेश में डॉ मोहन यादव की सरकार ने किशोरियों को सैनिटरी नैपकिन खरीदने के लिए नकद राशि प्रदान करने वाली भारत की पहली राज्य सरकार बनने की पहल की। यह नकदी राज्य सरकार की स्वास्थ्य एवं स्वच्छता योजना के तहत प्रदान की जा रही है। इसके अंतर्गत सातवीं से 12वीं कक्षा तक की प्रत्येक स्कूली बालिकाओं को सेनेटरी पैड खरीदने के लिए सालाना पैसे दिए जाते हैं। इस योजना के तहत पहले छात्राओं को 150 रुपये दिए जाते थे, जिसे बढ़ाकर अब अब सालाना 300 रुपये कर दिए गए हैं। भारत में कई राज्य सरकारें किशोर लड़कियों को मुफ्त सैनिटरी नैपकिन प्रदान करती हैं, लेकिन उनमें से कोई भी लाभार्थियों को नकद नहीं देती है। योजना बहुत अच्छी है, इसमें कोई संदेह नहीं। किन्तु इसका वह व्यवहारिक पक्ष भी फालोअप किया जाना जरूरी है जहां बालिकाओं से उनके स्काॅरशिप के पैसे खाते से निकालने के बाद शराबी पिता अथवा घर की अन्य जरूरतों के लिए छुड़ा लिए जाते हैं। अतः जिन बालिकाओं को सेनेटरी पैड के लिए सरकार पैसे दे रही है, क्या वे सभी बालिकाएं अपने लिए सेनेटरी पैड खरीद पा रही हैं या उनसे पैसे ले कर उन्हें घरेलू पुराने कपड़े थमाए जा रहे हैं। फिर विचारणीय यह भी है कि क्या बाज़ार में इतनी कम कीमत के सेनेटरी पैड उपलब्ध हैं जो 300 रुपए सालाना में जरूरत पूरी कर सकें। पैड्स का उपयोग भी हर बालिका के लिए नपातुला एक-सी संख्या में तय नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक की आवश्यकता अलग होती है।
दूसरा पक्ष यह भी ध्यान देने योग्य है कि मासिक धर्म अचानक शुरू होने वाली शारीरिक प्रक्रिया है अतः इसके लिए स्कूलों में सेनेटरी पैड वेंडिंग मशीनों का होना भी जरूरी है। जिससे आवश्यकता पड़ने पर बालिका बेझिझक तुरंत सेनेटरी पैड प्राप्त कर सके। इस पर भी सरकार ने योजना बनाई किन्तु इसका ढंग से क्रियान्वयन नहीं हुआ है। जबकि चाहे कोएजुकेशन स्कूल हों या बालिका स्कूल, दोनों में सेनेटरी पैड वेंडिग मशीन होनी चाहिए। यदि को-एजुकेशन स्कूल में इस प्रकार की मशीनें रहेंगी तो इससे बालकों में भी बालिकाओं की प्राकृतिक समस्या अथवा विशेषता के प्रति समझ बढ़ेगी और वे इसके प्रति एक स्वाभाविक दृष्टिकोण अपनाएंगे।
मध्य प्रदेश सरकार ने तो मासिक धर्म से जुड़े मिथक और वर्जनाओं से निपटने के लिए 1 नवंबर 2016 को महिला एवं बाल विकास परियोजना के तहत शुरू की थी। इस योजना का क्रियान्वयन आंगनबाडी कार्यकर्ताओं एवं सहायिकाओं के माध्यम से किया जा जाता है। इसमें बालिकाओं को भी मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियों से मुक्त करने का प्रावधान है। किन्तु उन स्कूलों पर ध्यान दिया जाना सबसे अधिक जरूरी है जहां बालिकाओं को स्वच्छ शौचालय भी नसीब नहीं होता है। ऐसी बालिकाएं तरह-तरह के इंफेक्शन की शिकार होती रहती हैं या फिर वे उन पांच दिनों में स्कूल जाने से ही कतराती हैं, लिससे उनकी पढ़ाई कर हर्जा होता है और उन्हें स्कूल न पहुंच पाने का कारण बताने में झिझक भी होती है।
इस संदर्भ में सरकार को भी यह संज्ञान में लेना होगा कि मात्र पैसे बांटने से समस्या का पूरा हल नहीं निकलता है। समस्या के प्रत्येक व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान देना भी जरूरी है। जो योजना शहरी अथवा सुशिक्षित इलाके में सौ प्रतिशत परिणाम दे, जरूरी नहीं है कि वह अल्प शिक्षित ग्रामीण इलाके अथवा झुग्गी बस्तियों के इलाके में भी वही परिणाम देगी। जिस उद्देश्य के लिए जो पैसे उपलब्ध कराए जा रहे हैं, उन पैसों से वह कार्य सुचारु रूप से हो भी रहा है कि नहीं, यह देखना भी जरूरी है।
इसी तरह आम सरकारी स्कूलों में काउंसलर्स नियमित रूप से उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं। बालक-बालिकाओं को ‘‘गुड टच और बैड टच’’ सिखा देने के साथ उनमें उस जागरूकता को लाना भी जरूरी है कि वे ‘‘बैड टच’’ करने वाले की खुल कर शिकायत करने का साहस कर सकें। इसमें काउंसलर्स की अहम भूमिका होती है जो बच्चों के मन को टटोल कर उनका भय दूर कर सकते हैं। ऐसे बुनियादी मामलों में अभी भी योजनाएं पिछड़ रही हैं क्योंकि उन्हें लागू करने के बाद उनका पर्याप्त फालोअप नहीं लिया जाता है।
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