Thursday, May 15, 2025

बतकाव बिन्ना की | उन ओरन लाने तो अब नई पुंगरिया चाउने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
उन ओरन लाने तो अब नई पुंगरिया चाउने
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          ‘‘कछू जने कभऊं नईं सुदरत।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ! सई कई। आप सोई उनमें से एक हो।’’ भौजी हंसत भईं बोली।
‘‘काय, अब इत्ती झूठी बी ने बोलो। ब्याओ के बाद हम नईं सुदर गए का?’’ भैयाजी भौजी से बोले।
‘‘मने, पैले आप बिगड़े भए हते।’’भौजी ने हंस के कई।
‘‘ब्याओ के बाद तुमने हमें सुदार दओ।’’ भैयाजी मुस्क्यात भए बोले।
‘‘जे आपने मान लओ।’’ भौजी ने फेर के चुटकी लई।
‘‘हऔ, मान लओ। औ जे बी सच्ची आए के ब्याओ के बाद अच्छे-अच्छे सुदर जात आएं, हम कां लगत आएं।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘सो आप जे कोन के लाने कै रए हते के कछू जने कभऊं नईं सुदरत?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘उनई के लाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन के लाने?’’ मोए समझ ने परी।
‘‘अरे, देख नईं रईं? उन्ने कतल कराओ, उन्ने मिसाइलें दागीं औ अब बे भोले बाबा बन के फिर रए। बा तो अपन ओरन की बड़ाई ठैरी के उने छोड़ दओ। मने बे ठैरे कुत्ता की दुम। बारा बरस बी पुंगरिया में रखी जाए फेर बी सीधी ने हुइए। टेढ़ी की टेढ़ी रैहे। उन ओरन खों भलाई की बातें कोन समझ में आउंती आएं। बे तो कभऊं बी फेर के कछू करहें। देख नई रईं के बे अबे बी सबरे सांपन खों पाले बैठे औ दूद पिबा रए। एकऊ खों मारबे या सौंपबे की बात नई कर रए। औ अब तो उने संग देबे वारे सोई मिलत जा रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो सई कै रए आप। पर भैयाजी, का आए के अपन ओरें ठैरे पब्लिक, अपने ओरें भावना से चलत आएं औ जोन खों करने परत आए, बे सब कछू सोच के चलत आएं। अपन ओरें नईं समझ सकत के ऐसो काय करो औ वैसो काय नईं करो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘तुम ठीक कै रईं बिन्ना! पर तनक सोचो के बा कुत्ता की दुम के लाने एक नई पुंगरिया तो चाउने ई परहे। सबरी पुरानी पुंगरिया तो ऊके लाने कछू नईं कर पा रई। बा औ उके पाले भए सबरे गुर्रान लगत आएं।’’ भैयाजी तनक दुखी होत भए बोले।
‘‘आप फिकर ने करो औ ने दुखी होओ! हो सकत के उनके लाने नई पुंगरिया बन रई होए। अपन खों का पता?’’ मैंने कई।
‘‘सई तो कै रई बिन्ना, जे बड़े राज-काज अपन ओरे नईं समझ सकत।’’ भौजी सोई बोलीं।
‘‘मनो जे सोसल मीडिया पे तो कित्तो उल्टो-सूदो चलन लगो।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘सोसल मीडिया की छोड़ो आप, बा तो सोसल कम, अनसोसल ज्यादा आए। औ बाकी उते बोलबे वारे गिरगिट घांईं रंग बदलत आएं। सुभै एक के धरे उरदा दर रए होंए सो संझा दूसरे के घरे मूंग दरत दिखाहें। औ तनक डर लगो तो अपनी पोस्ट-मोस्ट डिलीट कर के बढ़ा गए। कोऊं-कोऊं तो अपनो अकाउंट लौं बंद कर के बैठ जात आएं। फेर जब आयरे कछू ठंडो माहौल दिखानो तो चुप्पे से अपनो अकाउंट खोल के फेर आ ठाड़े भए। सोसल मीडिया की दुनिया खों इत्तो सीरियस लेबे की जरूरत नोईं। उते तो गांधीजी के तीन बंदरा घांई रओ चाइए- बुरौ मत देखो, बुरौ मत बोलों औ बुरौ मत सुनो। उते जो कछू अच्छो आए ऊको देखो सो सब अच्छो लगहे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना! जे सोसल मीडिया सोई कभऊं-कभऊं टीवी चैनल घांईं काटन सो लगत आए। खैर, जे सब छोड़ो, औ बताओ के का चल रओ?’’ भैयाजी बात बदलत भए बोले।
‘‘सब कछू ठीक चल रओ। देखो भैयाजी, जो गलतियां निकारबे बैठो सो भगवान की बनाई चीजन में बी गलतियां दिखान लगत आएं फेर इंसान को का ठैरो?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो भगवान तो भगवान आए, ऊको कोऊ का कै सकत?’’ भैयाजी कुनमुनाए से बोले। 
‘‘भगवान की गलतियन पे मोए एक नाटक याद आ रओ। बा शेक्सपियर ने एक नाटक लिखो रओ ‘‘काॅमेडी आफ एरर्स’’। आपने सोई कभऊं पढ़ो हुइए।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई।
‘‘नईं हमने कभऊं नईं पढ़ो। हमाई पढ़ाई भई हिन्दी मीडियम से, सो हम कां से जा पढ़ते? बाकी ईको नांव जरूर सुनो आए। ईपे एक हिन्दी फिलम सोई बनी रई। शायत ‘अंगूर’ नांव रओ ऊको। संजीव कुमार औ देवेन वर्मा रओ। बड़े मजे की फिलम रई।’’ भैयाजी सोंचत भए बोले।
‘‘अरे वाह! आप खों फिलम की बड़ी याद आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘याद जे लाने आए बा फिलम, के हम तुमाई भौजी के संगे चोरी से गए रए औ लौटत में कऊं देर ने हो जाए, ई डर से जे चाट-फुल्की खाबे खों बी ने रुकी हतीं।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘तुम औ! अब का सब कछू बताबो जरूरी आए?’’ भौजी ने भैयाजी खों तनक झिरकत भई बोलीं।
‘‘भैयाजी, आपखों अब याद ने हुइए के बा ‘अंगूर’ फिलम को डायरेक्टर गुजार साब रए। लेकन हिरोईन तो आपको याद हुइए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बा हमें याद नईं।’’ भैयाजी साफ मेट गए।
‘‘लेओ, आपको मौसमी चटर्जी याद नईं? बोई तो हिरोईन रई फिलम की औ दूसरी वारी दीप्ती नवल हती।’’ मैंने भैयाजी से कई।
बे दोई हमें कां से याद रैतीं, हमाए संगे तो हमाई हिरोइन रई।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘बाकी बा नाटक को का कै रई? बा हमने सोई नई पढो।’’ भौजी ने बात बदलत भई मोसे पूछी।
‘‘बा किसां? ऊ किसां में का भओ के, एजियन नांव को एक ब्यौपारी रओ। ऊके दो जुड़वां बेटा भए। ऊने दोई को नांव एंटिफोलस रख दओ। ऊने फेर ओई टेम पे दो ओई टेम के जाए दो जुड़वा खरीद लए। अपने दोई बेटों की करबे के लाने। उन दोई खरीदे भए जुड़वों को नांव ड्रोमियो रख दओ। एक दिना बा अपने बेटों औ बेटों के नोकरन बच्चन के संगे पानी के जहाज पे कऊं जा रओ हतो के जहाज डूब गओ। ईसे भओ का के एजियन की लुगाई, ऊको एक बेटा औ एक नौकर बालक ड्रोमियो हिरा गए। एजियन को एक बालक औ एक नौकर बालक ऊके साथ रैत आए। ई टाईप से दोई जुड़वा अलग-अलग हो के  बढ़त चलत आएं औ फेर मुतकी मजेदार घटनाएं सी घटत आएं। किसां की अखीर में दोई जुड़वां आपस में मिल जात आएं। सो जे हती किसां ‘‘काॅमेडी आफ एरर्स’’की। औ शेक्सपीयर ने जे बताबे की ईमें कोसिस करी रई के भगवान जू से बी गलती हो सकत आए। एक मां के जाए, एक घरे पैदा भए, जुड़वा रए, मनो अलग-अलग होतई सात उनकी हरकतें सोई अलग-अलग हो गईं। सो, भगवान ने जब उने बनाओ तो उने का पतो रओ के बे जुड़वा अलग हो के लड़त रैहें।’’ मैंने कई।
‘‘जा तो तुमने तनकई में सूंट दई। पूरी किसां ने सुनाई।’’ भौजी कुनमुनात भई बोलीं।
‘‘हऔ! औ ई किसां से जे अभई की लड़ाई को का ताल्लुक कहाओ?’’ भैयाजी सोई मों बनात भए बोले।
‘‘जे किसां लम्बी आए सो फेर कभऊं पूरी सुनाबी। रई बात किसां के अधूरी रैने की सो आपई ओरें सोचो के जो कोई किसां अधूरी-सी रै जात आए तो कैसो लगत आए। मनों बात बोई आए के किसां हती कुत्ता की दुम खों पुंगरिया में डार के सीदी करबे की, पर भओ का किसां अधूरी रै गई और कुत्ता की दुम टेढ़ी के टेढ़ी रै गई। औ बे तो झुंड बना के फिर रए। काय, सई कई के नईं?’’ मैं भैयाजी औ भौजी से पूछी।
बे दोई हंसन लगे। काए से दोई समझ गए के मैं का कै रई।
‘‘जेई से तो हम कै रए के उनके लाने तो अब नई पुंगरियां चाउने। अखीर उने पतो तो परन चाइए के कोऊ ऊकी पूंछ को सीदी कर सकत आए। बे तो अपनी पूंछ टेढ़ी करे-करे इतरा रए।’’ कैत भए भैयाजी सोई हंस परे।
‘‘कब लौं हंसहे, कोनऊं दिनां तो ऊनको पुंगरिया पैन्हाई जाहे।’’ मैंने कई।
‘‘को जाने कबे? अभई अच्छो मौका रओ।’’ भैयाजी दुखी होत भए बोले।
‘‘जे अपन ओरे सोचत आएं पर जोन खों सोचने, बे का सोचत आएं जे अपन नई समझ सकत। सो गम्म खाओ औ नई पुंगरिया बनबे को इंतजार करो।’’ मैंने कई।    
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के उन ओरन के लाने नई पुंगरिया चाउने के नईं? 
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Wednesday, May 14, 2025

चर्चा प्लस | हर युद्ध पर्यावरण पर एकतरफा हमला होता है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | हर युद्ध पर्यावरण पर एकतरफा हमला होता है  | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
हर युद्ध पर्यावरण पर एकतरफा हमला होता है 
      - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
युद्ध कौन चाहता है? आम जनता, घास, पेड़, फूल, पत्ते, घोड़ा, बिल्ली, कुत्ता? ये सभी जैव विविधता का निर्माण करते हैं, लेकिन वे भी कभी युद्ध नहीं चाहते। तो युद्ध कौन चाहता है? मिसाइलों और बमों से पर्यावरण को प्रदूषित न करें। युद्ध में सिर्फ इंसान ही नहीं मारे जाते, रॉकेट और मिसाइलों से कई पेड़, जानवर, पक्षी भी मारे जाते हैं। क्या किसी के पास इस बात के आंकड़े है कि युद्ध के कारण हर दिन कितने पौधे, कितने पक्षी, कितने जानवर, कितने कीड़े मारे जाते हैं? और कितना ध्वनि प्रदूषण होता है? इराक, यूक्रेन और दुनिया के वे सारे देश जो छोटे-बड़े युद्धों की आग में झुलस रहे हैं,वहां का पर्यावरण लगभग नष्ट हो चला है। इस संबंध में मैंने एक लेख अपनी पुस्तक ‘‘क्लाईमेट चेंज: वी केन स्लो द स्पीड’’ में भी रखा है जिसका शीर्षक है-‘‘एवरी वार इज़ वन साईडेड अटैक आॅन द इनवायरमेंट’’।  


हमने प्रथम विश्व युद्ध नहीं देखा, 1945 के बाद पैदा हुए लोगों ने द्वितीय विश्व युद्ध भी नहीं देखा, लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों के प्रभाव के रूप में इसकी भयावहता देखी है, जिसे न केवल उस समय की बल्कि बाद की पीढ़ी ने भी झेला। आज भी नागासाकी और हीरोशिमा में रेडिएशन के भयानक परिणाम देखे जा सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी ने ईरान-इराक युद्ध देखा है, अफगानिस्तान मिसाइलों से घायल हुआ है और इसका ताजा उदाहरण यूक्रेन में हमारे सामने है। दुख की बात है कि हमारे पड़ोसी देश के कारण हमें भी युद्ध के द्वार तक पहुंचना पड़ा। कश्मीर तथा पाकिसतान से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में मिसाइलों से हुए हमलों को भारतीय सेना ने बहादुरी से भले ही नाकाम किया किन्तु इसके बावजूद जो हमले गंावों और शहरों पर हुए उनमें हताहतों के मानवीय आंकड़ें हमें देर-सबेर मिल जाएंगे लेकिन उन जीव-जन्तुओं की संख्या हमें कभी पता नहीं चलेगी जो इस दौरान बेमौत मारे गए। निःसंदेह सैनिकों और नागरिकों के हताहत होने के आंकड़े हमारी आंखों के सामने से गुज़रते हैं, पर जैव श्रृंखला की टूटी हुई कड़ियों के आंकड़े हम जान नहीं पाते हैं। युद्ध कौन चाहता है? आम जनता, घास, पेड़, फूल, पत्ते, घोड़ा, बिल्ली, कुत्ता? ये सभी एक जैव श्रृंखला का निर्माण करते हैं लेकिन वे भी कभी युद्ध नहीं चाहते। तो युद्ध कौन चाहता है? कौन चाहता है मिसाइलों और बम से होने वाले घातक प्रदूषण को? युद्ध में सिर्फ इंसान ही नहीं मारे जाते, रॉकेट और मिसाइलों से कई पेड़, जानवर, पक्षी भी मारे जाते हैं। 
अनुमान है कि अकेले ब्रिटेन में ही द्वितीय विश्व युद्ध के पहले सप्ताह में 750,000 से अधिक पालतू बिल्लियाँ और कुत्ते मारे गए थे। हिल्डा कीन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘द ब्रिटिश कैट एंड डॉग मैसेकर: द रियल स्टोरी ऑफ वल्र्ड वॉर टूज अननोन ट्रेजडी’’ हमें यह भयानक सच्चाई बताती है। यह ब्रिटिश पालतू जानवरों के नरसंहार की कहानी बताती है, द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के समय सितंबर 1939 की अवधि, जब हवाई हमलों और संसाधनों की कमी की आशंका में सैकड़ों हजार ब्रिटिश परिवार के पालतू जानवरों को पहले ही मार दिया गया था। चिंता उचित थी कि मालिकों के मारे जाने पर उन पालतू पशुओं को खाना-पानी कौन देगा? वे बुरी मौत मारे जाएंगे। इसलिए उन्हें पहले ही मौत के घाट उतार दिया गया। पालतू पशुओं पर यह भीषण क्रूरता थी। लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि पशुओं पर यह क्रूरता उनके अपने मालिकों की इच्छा थी नहीं थी, विवशता थी। उन पालतू जानवरों ने तो ऐसी मौत के बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इंसान परस्पर युद्ध लड़ रहे थे, लेकिन मासूम पालतू जानवरों बेमौत मारे जा रहे थे।
वे पालतू जानवर थे जिन्हें सीधे मार दिया जाता था। लेकिन कई जानवर ऐसे थे जिनका इस्तेमाल युद्ध में किया जाता था। अमेरिकी सेना ने युद्ध के प्रयास के लिए 10,000 से अधिक कुत्तों को प्रशिक्षित किया और लगभग 2,000 को युद्ध में सेवा देने के लिए विदेश भेजा। चूहों को नियंत्रित करने में मदद करने के लिए बिल्लियों का इस्तेमाल जहाजों, बैरकों और सैन्य क्षेत्र के कार्यालयों में किया जाता था। इंसानों के साथ कई बिल्लियों को भी मार दिया गया। उन्होंने विभिन्न प्रकार के युद्ध-संबंधी कार्यों के लिए खच्चरों, घोड़ों और यहाँ तक कि कबूतरों का भी व्यापक उपयोग किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, घुड़सवार सेना की भूमिका निभाने के लिए घोड़ों की जरूरत थी, लेकिन आपूर्ति, उपकरण, बंदूकें और गोला-बारूद ले जाने के लिए भी वे महत्वपूर्ण थे। परिवहन के लिए इन जानवरों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध में आठ मिलियन घोड़े, गधे और खच्चर मारे गए, उनमें से तीन-चैथाई उन चरम स्थितियों में मारे गए जिनमें वे काम करते थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कुत्तों ने कई तरह के कार्यों में सेवा करते हुए अधिकांश यूरोपीय सेनाओं के लिए एक महत्वपूर्ण सैन्य भूमिका निभाई। कुत्ते मशीन गन और आपूर्ति गाड़ियाँ खींचते थे। वे संदेशवाहक के रूप में भी काम करते थे, अक्सर गोलाबारी के बीच अपने संदेश पहुँचाते थे। हिल्डा कीन ने अपनी पुस्तक ‘‘द ब्रिटिश कैट एंड डॉग मैसेकर: द रियल स्टोरी ऑफ वल्र्ड वॉर टूज अननोन ट्रेजडी’’ में लिखा है कि 1914 और 1918 के बीच केवल 484,143 ब्रिटिश घोड़े, खच्चर, ऊँट और बैल मारे गए। कबूतरों ने प्रथम विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि वे संदेश भेजने का एक अत्यंत विश्वसनीय तरीका साबित हुए। कबूतरों का महत्व इतना था कि युद्ध में 100,000 से अधिक कबूतरों का इस्तेमाल किया गया और 95ः की आश्चर्यजनक सफलता दर के साथ अपने संदेश को अपने गंतव्य तक पहुँचाया। दुर्भाग्य से, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ड्यूटी के दौरान बड़ी संख्या में कबूतर मारे गए।
द्वितीय विश्व युद्ध में नौसेना द्वारा दक्षिण प्रशांत में जहाजों की रखवाली और बारूदी सुरंगों की खोज के लिए डॉल्फिन का इस्तेमाल किया गया था। बेशक आज, डॉल्फिन को अमेरिका की नौसेना से नए रूप में जोड़ा गया है, उन्हें जहाजों की रखवाली और बारूदी सुरंगों की खोज में महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में रखा जाता है। लेकिन इस तरह से मनुष्यों की सेवा करना डॉल्फिन का स्वाभाविक कार्य नहीं है। यानी जल, थल और वायु के जीवों का मनुष्यों ने युद्ध में इस्तेमाल किया। यह उन जानवरों का इस्तेमाल था, जिनका युद्ध से कोई सरोकार नहीं था। उन्हें भू-सीमाओं या राजनीतिक लालच के बारे में नहीं पता था। विश्व युद्धों का हवा और पानी पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। द्वितीय विश्व युद्ध के जहाजों के कारण अटलांटिक महासागर में तेल संदूषण 15 मिलियन टन से अधिक होने का अनुमान है। तेल रिसाव को साफ करना मुश्किल होता है निस्संदेह, यह प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, वियतनाम युद्ध, रवांडा गृह युद्ध, कोसोवो युद्ध और खाड़ी युद्ध जैसे युद्धों का दुखद पर्यावरणीय प्रभाव है कि विध्वंसक हथियारों से जल और वायु प्रदूषित हो गए।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शहरों पर बमबारी और जंगलों, खेतों, परिवहन प्रणालियों और सिंचाई नेटवर्क के विनाश ने विनाशकारी पर्यावरणीय परिणाम उत्पन्न किए। 1991 में खाड़ी युद्ध के पर्यावरणीय परिणामों ने हवा, समुद्री पर्यावरण और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित किया। युद्ध के 43 दिनों के दौरान लगभग 4,000 वर्ग मील के क्षेत्र में कुल 84,000 टन से अधिक बम गिराए गए। इसलिए प्रभावित तट के किनारे आर्द्रभूमि में अधिकांश मैंग्रोव और दलदल तेल से नष्ट हो गए। इन क्षेत्रों के पचास से 90 प्रतिशत जीव, मुख्य रूप से केकड़े, उभयचर और मोलस्क भी तेल रिसाव से मारे गए।
युद्ध से भूमि की सीमाएँ बदली जा सकती हैं। युद्ध में कोई जीत सकता है तो कोई हार सकता है। लेकिन युद्ध से जो पर्यावरण नष्ट होता है, उसे फिर से बनाना बहुत मुश्किल होता है। बमबारी और मिसाइलों के कारण कई साल पुराने पेड़ झुलस जाते हैं, जल जाते हैं, गिर जाते हैं। जबकि नए पेड़ों को बढ़ने और परिपक्व होने में सालों लग जाते हैं। हवा प्रदूषित हो जाती है। नदियाँ, तालाब और समुद्र का पानी प्रदूषित हो जाता है। दरअसल, युद्ध इंसानों के बीच नहीं बल्कि पर्यावरण पर एकतरफा हमला है। बेहतर है कि हम अपने राजनीतिक लालच पर काबू रखें और युद्ध न होने दें। लेकिन दुर्भाग्य से यूक्रेन में युद्ध की भयावहता से हमें पर्यावरण का नुकसान उठाना पड़ा है। आजकल के युद्धों की चर्चा के दौरान परमाणु हथियारों के प्रयोग किए जाने की शंका निरंतर बनी रहती है। ऐसे घातक परिणामों को प्रयोग में लाने के बारे में सोचने वालों को रूस के चेर्नोबल पर एक बार दृष्टिपात कर लेना चाहिए जो आज एक रेडिएशन प्रभावित निषिद्ध क्षेत्र है। बेशक वहां भी वनस्पितियों ने अपने जीवन को एक बार फिर आगे बढ़ाया है किन्तु वे वनस्पतियां कितनी रेडिएशन प्रभावित हैं, यह अभी पूरी तरह से पता नहीं है। मनुष्य तो वहां रह ही नहीं सकता है। 
युद्ध कृषि भूमि को लील जाते हैं। उन्हीं कृषि भूमि को जो हमें पेट भरने और जीवित रहने के लिए अनाज देते हैं। कृषि भूमि की मिट्टी मिसाइलों से प्रदूषित हो जाती है और उसे पुरानी अवस्था में लौटने में वर्षों लग जाते हैं। एक पक्षी जो बीजों का प्रसार करता है तथा वनस्पतियों का विस्तार करता है, उसके मारे जाने से अनेक बीजों के प्रसारण का क्रम थम जाता है। छोटे पक्षी और तितलियां परागण करती हैं, उनके मरने से सुंदर पौधों का जीवन अपनी अगली पीढ़ी तक नहीं पहुच पाता है। जो पालतू पशु हम पर निर्भर हैं, उन्हें मौत के मुंह में धकेलना हमारा जघन्य अपराध है। यदि वास्तविकता टटोली जाए तो इन स्थितियों के लिए सीधे-सीधे वे दोषी हैं जो युद्ध की स्थिति उत्पन्न करते हैं। यदि एक देश दूसरे देश को युद्ध के लिए विवश करे तो उसे विश्व न्यायालय के कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए क्योंकि वह सिर्फ युद्ध का नहीं पर्यावरण को घातक क्षति पहुंचाने का भी दोषी है। 
अब और युद्ध विश्व की पर्यावरण व्यवस्था को जो नुकसान पहुंचाएगा, उससे उबरना शायद हमारे लिए संभव नहीं हो सकेगा। इस लिए युद्ध छेड़ने वालों या युद्ध की स्थिति उत्पन्न करने वालों को यह सोचना चाहिए कि वे जिस पृथ्वी पर रह रहे हैं, उसी के पर्यावरण को नुकसान पहुंचा कर वे अपनी आने वाली पीढ़ी को भयावह अंधकार की ओर धकेल रहे हैं और वे उन सभी वनस्पितियों एवं प्रणियों के की अकाल मुत्य के भी जिम्मेदार हैं जो युद्ध के दौरान मारे जाते हैं।
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Tuesday, May 13, 2025

पुस्तक समीक्षा | मांडवी का परिताप : अछूते विषय पर अनूठा उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 13.05.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा
     मांडवी का परिताप : अछूते विषय पर अनूठा उपन्यास
     समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास  - मांडवी का परिताप
लेखिका   - डाॅ. संध्या टिकेकर
प्रकाशक  - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य     - 795/-
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प्रायः यह होता आया है कि बहु प्रचलित कथाओं एवं प्रसंगों के प्रमुख पात्र साहित्य की विभिन्न विधाओं में स्थान पा लेते हैं तथा उन पर बार-बार लिखा जाता है किन्तु कुछ पात्र अछूते रह जाते हैं। उनके प्रति किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। श्रीराम कथा की ऐसी ही एक पात्र है मांडवी। मांडवी के जीवन पर बहुत कम लिखा गया। स्वतंत्र रूप से तो लगभग बिलकुल भी नहीं। किन्तु मराठी और हिन्दी की समर्थ लेखिका डाॅ संध्या टिकेकर ने मांडवी को साहित्य के केन्द्र में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। डाॅ संध्या टिकेकर ने मांडवी पर उपन्यास लिख कर उसकी पीड़ा को गहराई से मुखर किया है। ‘‘मांडवी का परिताप’’ मांडवी के जीवन पर आधारित संवादात्मक शैली का उपन्यास है। यह उपन्यास मांडवी के तेजस्वी और धैर्यपूर्ण जीवन को मार्मिक, कारुणिक, और हृदयस्पर्शी ढंग से सामने रखता है।
डाॅ. संध्या टिकेकर जो मूलतः कवयित्री एवं अनुवादक हैं तथा मराठी भाषी हैं, उनके द्वारा अपने प्रथम उपन्यास के लिए ‘‘मांडवी’’ को चुनना और वह भी हिन्दी भाषा में लेखन के लिए, महत्वपूर्ण है। यूं भी जब एक लेखिका किसी स्त्री पात्र के बारे में लिखती है तो वह स्त्री मर्म की अतल गहराइयों तक सुगमता से जा पहुंचती है। उसके लिए अपने पात्र में कायान्तरित होना अधिक आसान होता है क्यों कि कहीं न कहीं वह अपने स्त्री पात्र की भावनाओं से सघनता से जुड़ जाती है। मैं व्यक्तिगत रूप से डाॅ. संध्या टिकेकर जी की साहित्यिक अभिरुचि से हमेशा प्रभावित रही हूं। फिर जब उन्होंने मेरे उपन्यास ‘‘शिखण्डी: स्त्री देह से परे’’ का मराठी में अनुवाद किया तो मैं उनकी शब्द संपदा की समृद्धि से और अधिक परिचित हुई। फिर जब उन्होंने मुझसे यह चर्चा की कि वे मांडवी पर एक उपन्यास लिख रही हैं तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मुझे पूरा विश्वास था कि जब वे मांडवी पर उपन्यास लिखेंगी तो पूरे लगन के साथ लिखेंगी और एक अच्छी कृति हिन्दी साहित्य को देंगी। डाॅ. संध्या टिकेकर ने मांडवी के अंतद्र्वन्द्व एवं मनोविश्लेषण को जिस तरह अपने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है वह मांडवी के व्यक्तित्व को बाखूबी व्याख्यायित करता है। लेखिका ने फ्लैशबैक पद्धति प्रयोग में लाते हुए मांडवी की बाल्यावस्था से युवावस्था तक के जीवन को सुंदर ढंग से पिरोया है। जबकि मांडवी रामकथा की एक ऐसी पात्र रही है जिसके बारे में बहुत विस्तार से विवरण नहीं मिलता है। अतः लेखिका के द्वारा मांडवी को सम्पूर्णता के साथ अपने उपन्यास में प्रस्तुत करना प्रशंसनीय कार्य है।
रामकथा एक ऐसी कथा है जिसे विश्व भर में रुचिपूर्वक पढ़ा गया तथा विभिन्न भाषाओं में, विविध संस्कृतियों में उसे अपने-अपने ढंग से लिखा गया। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में ‘‘रामायण’’ की रचना के बाद विश्वभर में 300 से अधिक रामायण लिखी गईं। इनमें से कुछ संस्कृत में लिखी गईं तो कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में, तो कुछ विश्व की चुनिंदा भाषाओं में।
बौद्ध तथा जैन में भी रामकथा को अपने रूप में अपनाया गया। अनेक लेखकों द्वारा लिखी जाने के कारण ही मुख्यतः मूल कथा में परिवर्तन तथा परिवर्द्धन होता रहा, जिससे कथानक का स्वरूप कुछ-कुछ बदलता भी रहा। इसके अतिरिक्त कुछ स्थानीय भावनाएं एवं प्रथाएं भी इन काव्यों में जुड़ती गईं जिसके कारण मूल-मूल कथा में परिवर्तन होते गए। रामकथा जिन प्रमुख भारतीय भाषाओं में  लिखी गई, उनमें हिन्दी में लगभग 11, मराठी में 8, बांग्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। इसके अतिरिक्त ‘‘रामायण’’ पर आधारित हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘‘रामचरित मानस’’ को उत्तर भारत में विशेष स्थान प्राप्त है। संस्कृत, गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में भी रामकथा लिखी गई। महाकवि कालिदास, भास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त, नारद, लोमेश, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, समर्थ रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा ‘‘रामायण’’ के दूसरे पात्रों पर पद्य रचना की है। स्वामी करपात्री ने ‘‘रामायण मीमांसा’’ की रचना करके उसमें रामगाथा का एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विवेचन दिया। वर्तमान में प्रचलित बहुत से राम-कथानकों में आर्ष रामायण, अद्भुत रामायण, कृत्तिवास रामायण, बिलंका रामायण, मैथिल रामायण, सर्वार्थ रामायण, तत्वार्थ रामायण, प्रेम रामायण, संजीवनी रामायण, उत्तर रामचरितम्, रघुवंशं, प्रतिमानाटकम्, कम्ब रामायण, भुशुण्डि रामायण, अध्यात्म रामायण, राधेश्याम रामायण, श्रीराघवेंद्रचरितं, मन्त्र रामायण, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकं, आनंद रामायण, अभिषेकनाटकं, जानकीहरणं आदि मुख्य हैं। विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतो की रामयागन, थाईलैंड की रामकियेन आदि रामकथा पर आधारित हैं। वस्तुतः असत्य पर सत्य की और अन्याय पर न्याय की विजय की धारणा को सुदृढ़ करने वाली यह रामकथा सभी को प्रभावित करती है तथा हृदय में आशा का संचार करती है।
यूं तो रामकथा के पात्रों पर स्वतंत्र रूप से साहित्य भी रचे गए हैं किन्तु कई पात्र उपेक्षा के शिकार रहे। अधिकतर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण पर गद्य और पद्य पुस्तकें लिखी गईं, शेष पात्र लगभग अनछुए रह गए। मैथिली शरण गुप्त द्वारा ‘‘साकेत’’ लिखे जाने तक उर्मिला भी एक उपेक्षित पात्र रही। जहां तक उपन्यास लिखे जाने का प्रश्न है तो मृदुला सिन्हा के ‘‘सीता पुनि बोल’’,‘‘परितप्त लंकेश्वरी’’ और ‘‘अहल्या उवाच’’, रामकिशोर मेहता का ‘‘पराजिता का आत्मकथ्य’’, आनंदनीलकंठन का ‘‘वानर’’ और डॉ. ममतामयी चौधरी  का ‘‘वैश्रवणी’’ उपन्यास महत्वपूर्ण रहा। फिर भी रामकथा की एक विशिष्ट पात्र मांडवी बार-बार हाशिए पर रही। मांडवी अयोध्या के राजा दशरथ की पुत्रवधु और श्रीराम के भाई भरत की पत्नी थी। वह सीता की चचेरी बहन थी। रामकाव्य में उसका चरित्र यद्यपि संक्षेप में ही है, पर वह पति-पारायणा एवं साध्वी नारी के रूप में चित्रित की गई है। उसके चरित्र में अनुराग-विराग एवं आशा-निराशा का विचित्र द्वन्द्व है। वह संयोगिनी होकर भी वियोगिनी-सा जीवन व्यतीत करती है। वह भरत के त्याग को समर्थन देती है। इस संबंध में मैथिली शरण गुप्त ने ‘‘साकेत’’ में लिखा है-
और मैं तुम्हें हृदय में थाप, बनूंगी अर्ध्य आरती आप ।
विश्व की सारी कांति समेट, करूंगी एक तुम्हारी भेंट।।
लक्ष्मण की भांति भरत श्रीराम के साथ वनवास नहीं जा सके किन्तु उन्होंने उस दौरान न तो सिंहासन की ओर देखा और न तो अपने सुख को महत्व दिया। मांडवी ने भी भरत को पूरा सहयोग दिया। किन्तु परिस्थितियों और परिस्थितियों से उपजी विडम्बनाओं के प्रति मांडवी के मन में परिताप रहा कि काश! वह समूचे घटित प्रसंग को रोक पाती, वह अयोध्या के राजमहल से ले कर जन-जन तक का दुख मिटा पाती।   
‘‘मांडवी का परिताप’’ एक ऐसी विलक्षण युवती की कथा है जो महाचरित्रों के बीच अपनी उपस्थित दर्ज़ कराती है। वह अपनी बाल्यावस्था से ही विशेष चिंतनयुक्त है। उसमें मानवीय चरित्र के विश्लेषण तथा पूर्वानुमान की अद्भुत क्षमता है। वह अपनी सबसे बड़ी बहन सीता के सुख और दुख दोनों से स्वयं को संबद्ध पाती है। वह अपनी बहनों उर्मिला और श्रुतिकीर्ति की भावनाओं को तत्काल पढ़ लेती है। श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के वनगमन के बाद उर्मिला एवं श्रुतिकीर्ति के साथ ही अपनी तीनों सासू मांओं कौशल्या, सुमित्रा, और कैकेयी का भी ध्यान रखती है। वह दशरथ की अथाह पीड़ा को भी महसूस करती है और हर पल यही सोचती है कि जो घटित हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। लेखिका ने मांडवी के बहाने तत्कालीन स्त्री समाज के चित्र को सुंदरता से वर्णित किया है। यह उपन्यास श्रीराम के युग में समाज और स्त्री के समीकरण को भी सुलझे हुए तरीके से सामने रखता है। शक्ति-संपन्ना एवं स्वाभिमानी मांडवी के चिंतन के विभिन्न पहलू पाठक बारीकी से जान सकेगा। उपन्यास का समूचा कलेवर पांच शीर्षकों में विभक्त है- प्रतीक्षा, स्मृतियां, व्याकुलता, प्रसन्नता एवं परिताप। इन्हीं पांचों अध्यायों में विस्तारित है मांडवी की जीवन-कथा। विविध घटनाक्रम के साथ स्त्री के वैचारिक अस्तित्व का सुंदर शब्दांकन है इस उपन्यास में। विवाह के पूर्व मांडवी के चरित्र में एक स्वाभाविक अल्हड़ता है। नटखटपन है। फिर भी वह विचारशील है। अपनी बहनों के प्रति चिन्तायुक्त। सभी के लिए शुभेच्छाएं है उसके हृदय में इसलिए वह सभी का भला चाहती है। विवाह के बाद अपने दायित्वों से युक्त गंभीरता उसमें आ जाती है और एक दायित्वबोध से परिपूर्ण पत्नी बन कर वह भरत के हर निर्णय में सहगामिनी बनती है।
इस उपन्यास में रोचकता है। प्रवाह है। इसकी शैली पाठक को बांधे रखने में सक्षम है। पात्रों की सटीक स्थापना है इस उपन्यास में। मुझे विश्वास है कि उनका यह प्रथम उपन्यास पाठकों को पसंद आएगा।              
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Saturday, May 10, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | ने घबड़ाइयो औ ने अफवा फैलाइयो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

 पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में
ने घबड़ाइयो औ ने अफवा फैलाइयो
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    
   ऑपरेशन सिंदूर जारी आए।पाकिस्तान खों जो बतानों जरूरी हो गओ रओ के आतंकियन के कंधा पे बैठ के बा काऊं नईं पौंच सकत, खाली धूरा में मिल सकत आए। बाकी अपनी सेना उते की पब्लिक को नईं मार रई, बा तो आतंकियन खों ढूंढ-ढूंढ के ठोंक रई। जे कहाऊत आए इंसानियत। जेई से तो सगरी दुनिया अपने संगे आत जा रई। ऊंसई गलत करबे वारे खों कोऊ नईं पूछत। पाकिस्तान खों ईंसे सबक लऔ चाइए। बाकी अपन खों सोई एक बात को ध्यान राखने के ने तो घबड़ाने आए औ ने अफवाएं फैलाने। का होत आए के हम जा सोच के घबड़ान लगत आएं के अब सो लड़ाई छिड़ गई, अब का हुइए? सो, भरोसो राखो के कछू बुरौ ने हुइए। अपनी सेनावारे उने उतई उनई के घर में घुस के मार रए। बे इते लौं ढूंक बी नईं सकत।
   औ हां! सबसे बड़ी बात के सोसल मीडिया की खबरन पे ज्यादा भरोसो ने करियो औ ने अफवाएं वारी पोस्टें फार्वर्ड करियो। ई टेम पे सरकारी एजेंसी की खबरें औ अखबार की खबरें सबसे भरोसे की आएं। होत का आए के जे लड़ाई औ हमले की पोस्टें डारबे वारे नाएं-माएं से कछू बी बटोर के पोस्ट करन लगत आएं, अब बे खुद तो फ्रंट पे बैठे नईयां के अपनी सगी आंखन से देख रए होंए। सो, उनपे भरोसो ने करियो औ ने भड़काए वारी पोस्टें डारियो। जे टेम मिलजुल के रैबे को आए। बे तो चाउतई आएं के हम आपस में लड़त रएं, सो, अपन खों उनको सोचो भओ नई करने। सहूरी राखो, अपनी सेना पे भरोसो राखो औ शांति से रओ। अपन जीतबी औ उने छठीं को दूद याद कराबी। जै हिंद! जै भारत!
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Friday, May 9, 2025

शून्यकाल | वे चार वैदिक कालीन स्त्रियां जो विलक्षण व्यक्तित्व की धनी थीं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
    शून्यकाल
वे चार वैदिक कालीन स्त्रियां जो विलक्षण व्यक्तित्व की धनी थीं
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       ...नारीवाद, स्त्रीविमर्श, स्त्री स्वातंत्र्य जैसे कई शब्द हैं जो स्त्री के अधिकारों के प्रति विश्वास जगाते प्रतीत होते हैं। किन्तु कोई भी शब्द या वाद इतना चमत्कारी नहीं होता है कि रातों-रात किसी स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन ला दे। सदियों पहले स्त्री को जो अधिकार प्राप्त थे वे उसने अपनी क्षमता से प्राप्त किए थे किसी कथित क्रांति के द्वारा नहीं। एक बार फिर स्त्रियां अपनी क्षमताओं को पहचानने के उस दौर में पहुंच चुकी हैं जहां वे अपने अधिकार पुनः पाती जा रही हैं। ऐसे समय में उन चार वैदिक स्त्रियों के बारे में याद रखना जरूरी है जो अपने ज्ञान के बल पर कालजयी बनीं।

वैदिककाल में स्त्रियों को पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं थे किन्तु उन्हें आगे बढ़ने से नहीं रोका जाता था यदि उनमें ज्ञान की श्रेष्ठता दिखाई देती थी। ऐसी ही चार स्त्रियां जिन्हों ने अपने ज्ञान के बल पर अपने अस्तित्व को वैदिक काल से आज के आधुनिक काल तक स्मरणीय बना दिया। वे चार स्त्रियां थीं- मदालसा, अनसूया, मैत्रेयी और गार्गी। आइए इन चार महान स्त्रियों का संक्षेप में पुनः स्मरण करते हैं- 

मदालसा - मदालसा गंधर्व राजा विश्वसु की बेटी थी। वह अपने बेटों के लिए भी एक बड़ी प्रेरणा थीं। शक्तिशाली राजा शत्रुजीत का पुत्र ऋतध्वज उसका पति था। जब शत्रुजीत की मृत्यु हो गई, तो ऋतध्वज ने राजा का पद संभाला और शाही कर्तव्यों में लग गए। मदालसा ने यह सिद्ध कर दिया कि मां के ज्ञान, शिक्षा और संस्कारों से ही बच्चों का भविष्य तय होता है। समय आने पर मदालसा ने एक पुत्र विक्रांत को जन्म दिया। जब विक्रांत रोता थे तो मदालसा उन्हें चुप कराने के लिए जीवन दर्शन पूर्ण गाती थी जिसका आशय था कि ‘‘वह एक शुद्ध आत्मा है, उसका कोई वास्तविक नाम नहीं है और उसका शरीर केवल पांच तत्वों से बना एक वाहन है। वह वास्तव में शरीर का नहीं है, फिर रोता क्यों है?’’
 विक्रांत बड़ा होने पर मां के दिए हुए ज्ञान से प्रेरित हो कर सांसारिक मोह-माया या राजसी गतिविधियों से मुक्त होकर एक तपस्वी बन गया। दूसरे पुत्र सुबाहु और तीसरे पुत्र शत्रुमर्दन के साथ भी यही हुआ। तब ऋतुध्वज ने मदालसा से निवेदन किया कि वह चौथे पुत्र अलर्क को संसार से विरत होने का ज्ञान न दे अपितु ऐसा ज्ञान दे कि वह बड़ा हो कर राजपाट सम्हाले और एक प्रतापी राजा बने। इस पर मदालसा ने अपने चौथे पुत्र अलर्क को वह गीत सुनाया जिसमें उसके एक महान शासक बनने का वर्णन था। उस गीत का भावार्थ था -‘‘ एक महान राजा होने का गीत गाया जो दुनिया पर शासन करेगा, और इसे कई वर्षों तक समृद्ध और दुष्टों से मुक्त बनाएगा। ऐसा करने से वह जीवन का भरपूर आनंद उठाएगा और अंततः अनश्वरों में में गिना जाएगा।’’ अलर्क ने अपनी शैशवावस्था से जो गीत अपनी मां मदासला से सुना था उसके प्रभाव के अनुरूप उसका जीवन बना और वह एक प्रतापी राजा के रूप में अनेक वर्ष तक शासन करता रहा।

अनसूया - अनसूया एक ऐसी महिला थीं जो अपनी तपस्या से एक मृत ऋषि के जीवन को वापस ला सकती थीं। वह अनसूया ऋषि अत्रि की पत्नी थी। अनसूया की मां ऋषि स्वायंभुव की बेटी थी और उसके पिता कर्दम मुनि थे। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, मंडस्या नाम के एक ऋषि थे जिन्होंने कौशिक नाम के एक ब्राह्मण को श्राप दिया कि वह प्रातः सूर्योदय के समय मर जाएगा। जब कौशिक की पत्नी कौशिकी श्राप के बारे में पता चला तो उसने तय कि कि वह अपने सतीत्व के बल पर सूर्य को उदय ही नहीं होने देगी। जब प्रातः सूर्योदय ही नहीं होगा तो उसके पति की मृत्यु भी नहीं होगी। परिणामस्वरूप कई दिनों तक सूर्य नहीं निकला। पृथ्वी के जीवन के लिए यह उचित नहीं था अतः ब्रह्मा ने अन्य देवताओं को अनसूया के पास जाने के लिए कहा। क्योंकि ब्रह्मा जानते थे कि एक अनसूर्या ही है जो अपनी नैतिक शक्ति के बल पर सूर्य को कौशिकी के तप के बंधन से मुक्त करा सकती है और सूर्योदय करा सकती है। अनसूया ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करते हुए सूर्य को कौशिकी के तप से मुक्त करा दिया जिससे सूर्योदय हो गया। किन्तु इसके साथ ही कौशिकी के प्रति ऋषि कौशिक की मृत्यु हो गई। तब अनसूया ने कौशिकी को दिए गए अपने आश्वासन को पूरा करते हुए अपने तपोबल से कौशिकी के पति को पुनर्जीवित कर दिया। इससे प्रसन्न होकर, देवताओं ने अनुसूया को तीन पुत्रों की इच्छा पूरी करने का आशीर्वाद दिया जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अवतार होंगे। इस प्रकार, ब्रह्मा सोम के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और शिव दुर्वासा के रूप में जन्में। अनसूया ने कभी अपने ज्ञान या शक्ति का अनावश्यक प्रदर्शन नहीं किया किन्तु आवश्यकता पड़ने पर सिद्ध कर दिया की वह कितनी क्षमतावान और विलक्षण थी।

मैत्रेयी- मैत्रेयी ऋषि याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं। उनकी दूसरी पत्नी कात्यायनी थीं। दोनों उच्च चरित्र वाली और ज्ञान की धनी थीं। यद्यपि मैत्रेयी कात्यायनी की अपेक्षा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान रखती थी। बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार ऋषि याज्ञवल्क्य गृहस्थ जीवन को त्याग कर संन्यास जीवन को स्वीकार करना चाहते थे, और अपनी संपत्ति को अपनी दोनों पत्नियों के बीच बांटना चाहते थे। तब मैत्रेयी ने स्वयं से प्रश्न किया कि यदि उनके पति गृहस्थ जीवन में अपनी वर्तमान स्थिति को त्यागने को तैयार हैं तो उन्हें इससे बड़ी कौन सी चीज मिली होगी। निश्चित रूप से कोई भी अपना पद तब तक नहीं छोड़ेगा जब तक उसे कुछ उससे बड़ा न मिल जाए। इसलिए उसने अपने पति से पूछा कि यदि उसके पास दुनिया की सारी संपत्ति हो, तो क्या वह फिर भी अमरत्व प्राप्त कर सकती है? ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा कि बिल्कुल नहीं! यह संभव नहीं है। संपत्ति और सुख-सुविधाएं मोक्ष नहीं दिला सकती हैं। तो मैत्रेयी ने फिर पूछा कि उन्हें धन क्यों अर्जित करना चाहिए यदि यह उन्हें भविष्य में जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं दिलाएगा? 
तब याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को आत्मा के दिव्य ज्ञान के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने उसे बताया कि इस दुनिया में किसी भी प्राणी के भीतर आत्मा की उपस्थिति के बिना दूसरे का प्रिय होने की क्षमता नहीं है। यहां तक कि इस दुनिया की सुंदरता का आनंद लेने का भी हमारे शरीर के भीतर आत्मा के बिना कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा ही हम सब कुछ है। आध्यात्मिक ज्ञान की गहराई को समझना मोक्ष, जन्म और मृत्यु के निरंतर दौर से मुक्ति पाने का तरीका है। इस प्रकार याज्ञवल्क्य से मैत्रेयी ने आध्यात्म का विशद ज्ञान प्राप्त किया और फिर याज्ञवल्क्य को संन्यासमार्ग में जाने दिया। मैत्रेयी जानती थी कि मानवीय संबंधों की अंतिम परिणिति मोक्ष हो तो उत्तम है किन्तु इससे पहले ज्ञान को सहेज लिया जाना और भी अधिक उत्तम है।

गार्गी- गार्गी ऋषि गर्ग के वंश से ऋषि वचक्नु की पुत्री थीं। प्राचीन भारतीय दार्शनिक थी। वेदिक साहित्य में, उन्हें एक महान प्राकृतिक दार्शनिक, वेदों के प्रसिद्ध व्याख्याता, और ब्रह्मा विद्या के ज्ञान के साथ ब्रह्मवादी के नाम से जाना जातीं है। गार्गी का पूरा नाम गार्गी वाचक्नवी था। गार्गी परम विदुषी थीं, वे आजन्म ब्रह्मचारिणी रहीं। वृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी का याज्ञवल्क्यजी के साथ शास्त्रार्थ का विवरण मिलता है। एक बार महाराज जनक ने श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की परीक्षा के निमित्त एक सभा की और एक सहस्त्र सुवर्ण की गौएँ बनाकर खडी कर दीं। सबसे कह दिया-जो ब्रह्मज्ञानी हों वे इन्हें सजीव बनाकर ले जाए। तब याज्ञवल्क्यजी ने अपने एक शिष्य से कहा- ‘‘शिष्य! इन गौओं को अपने यहाँ हाँक ले चलो।’’ इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्यजी से शास्त्रार्थ करने लगे। याज्ञवल्क्य ने सबके प्रश्नों का उत्तर दिया। उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी भी उपस्थित थी। सबके पश्चात् याज्ञवल्क्य से गार्गी ने शास्त्रार्थ किया। एक दीर्घ शास्त्रार्थ के बाद याज्ञवल्क्य ने कहा- ‘‘गार्गी! अब इससे आगे मत पूछो।’’ इसके बाद महर्षि याज्ञवक्ल्य ने वेदान्ततत्त्व के ज्ञान की चर्चा की जिसे सुनकर गार्गी परम सन्तुष्ट हुई और सब ऋषियों से बोली- ‘‘याज्ञवल्क्य सच्चे ब्रह्मज्ञानी हैं। गौएँ ले जाने के वे अधिकारी हैं।’’ तब याज्ञवल्क्य गौएं ले जा सके। 
इन चारो महान स्त्रियां समाज में रहते हुए, अपने विलक्षण ज्ञान के कारण तत्कालीन समाज में सम्मानित रहीं अपितु सदियों बाद आज भी स्मरणीय हैं। अतः स्त्री का ज्ञान एवं प्रतिभा ही उसे उच्चता प्रदान करती है, कोई नारा या वाद नहीं।    
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Thursday, May 8, 2025

बतकाव बिन्ना की | ऑपरेशन सिंदूर मने अब जा के जी जुड़ाओ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ऑपरेशन सिंदूर मने अब जा के जी जुड़ाओ !
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘बिन्ना तुमने सुनी? अपनी सेना वारन ने उते के आतंकियान के ठिकानों खों ठोंक डारो।’’ संकारे से भौजी भगत भईं मोरे लिंगे आई।
‘‘हऔ! रात खों ई एयर स्ट्राईक कर दई गई आए।’’ मैंने कई।
‘‘रामधई! अब जा के जी जुड़ाओ! हम तो कब से बाट आ जोह रए हते के उनखों छठीं को दूद याद करा दओ जाए। जब देखों ससुरे बरहमेस इते आ के दोंदरा देत रैत आएं। अब समझ आहे उनके लाने।’’भौजी बड़ी जोस में भर के बोलीं।
‘‘सई कई भौजी! उने मजा तो चखाओ जाने चाइए। इत्ते निरदोस लोगन खों मारो उन्ने, ईकी सजा तो उने मिलो चाइए।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘तुम संकारे से इते कां चली आईं? हमने पूरो घर छान मारो, तुम ने दिखानी तो हम समझ गए के तुम शरद बिन्ना के इते पौंची हुइयो।’’ भैयाजी सोई दरवाजा से भीतरे आत सात भौजी से बोले।
‘‘हऔ! हमसे रऔ नई जा रओ तो। बा तो हमने सोची के बिनना सो रई हुइएं ने तो हम रात ई को भगत आते।’’ भौजी मुस्क्यात भई बोलीं। उनकी खुसी उनके चेहरा पे दिख रई हती।
‘‘बा सब तो ठीक, मनो हमाए लाने चाय तो बना दओ होतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘उते इत्तो बड़ो काम हो रओ औ आपको इते चाए की परी!’’ भौजी उलायना देत भई बोलीं।
‘‘आप ओरन खों आपस में जित्तो गिचड़ने होय इते बैठ के गिचड़ो, तब लौं मैं अपन सबई के लाने चाय नास्ता बना ला रई।’’ मैंने हंस के भैयाजी औ भौजी दोई से कई। बे दोई बी मुस्क्यात भए सोफा पे बैठ गए।
‘‘नास्ता ने बनइयो, खाली चाय बना लेओ।’’ भौजी ने मोसे कई।
‘‘सुबै से खाली चाय नई पियो चाइए, ने तो पेट में जलन होन लगत आए।’’ मैंने कई औ मैं किचन में आ गई। जल्दी से पोहा धो के एक तरफी रखो। फेर प्याज औ धना की पत्ती काटी। मैंने अपने घरे एक गमला में मीठी नीम सोई लगा रखी आए। मीठी नीम मने करी को पत्ता। सो भुनसारे गमला में पानी डारबे के समै दो-चार पत्ता तोड़ के रख लेत हौं। चाय के डग्गा में दूद औ पानी नप्प के डारो औ चूला के एक बर्नर पे चढ़ा दओं संगे शक्कर औ पत्ती सोई डार दई। इत्ती देर में पोहा फूल गओ। सो, बस कढ़ाई में तनक सो तेल डारो, तेल गरम होतई सात ऊमें राई औ करी को पत्ता औ एक छोटी-सी मिर्ची डारी। राई के चटपट करते संगे ऊमें हल्दी डार के तुरतईं पोहा डार के चला दओ। ऊपरे से कटो भओ हरा धना को पत्ता डारो और बस, बन गओ गरमा-गरम पोहा। इत्ते में दूसरे बर्नर पे चढ़ी भई चाय उबल के चुर गई हती। सो, चाय छान लई। सई कओ जाए तो पोहा सबसे अच्छो फास्ट फूड आए। तुरतईं बनत आए औ तनक ज्यादा सो खा लेओ तो कओ फेर भोजन के लाने भूखई ने लगे। औ आप ओरन खों अपनो एक सीक्रेट बता रई के मोरो पोहा सुद्ध नारियल के तेल में बनत आए। बोई सुद्ध नारियल तेल जोन खों वर्जिन कोकोनट आॅयल कओ जात आए। ऊमें बनो पोहा ऐसो लगत आए के मनो ऊमें कच्चो नारियल कतर के डारो गओ होय। आप ओरें सोई ट्राई कर के देखियो। भौतई अच्छो लगहे।
मैं जब चाय औ पोहा ले के बैठक में पौंची तो भैयाजी कै रए हते के ‘‘पाकिस्तान को अब अड़ो नई चाइए। ऊको खुदई कओ चाइए के आतंकियों के खिलाफ हम खुदई मदद करबी।’’
‘‘लूघरा बा मदद करहे? जो ऐसो होतो तो बा पैलई नईं मदद मांगतो? कोन सा देस चात आए के उनके इते कोनऊं आतंकी रहे।’’ भौजी बमकत भई बोलीं।
‘‘चलो अब आप दोई जने अपनी बहस खों टर ब्रेक देओ औ शांती से चाय-नास्ता कर लेओ।’’ मैंने भौजी खों पहो की प्लेट पकराई। 
‘‘तुमाए इते को पोहा मोए भौतई पुसात आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो आप ओरे आ जाओ करे न! मोय तो बनाबो खिलाबो भौतई अच्छो लगत आए। पैले तो खूब बनात्ती, अब अकेली पर जाने से मन नई करत...।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, सो का भओ? हम ओरे तो आएं। पड़ोसी औ काय के लाने होत आएं? फेर हम तो तुमाए भैया-भौजी आएं।’’भैयाजी ने मोए टोकों।
‘‘जेई तो बात आए के बे ओरें पड़ोस वारी बात नईं समझत। कओ जात आए ने के जो कभऊं बिपत परे तो रिस्तेदार बाद में आ पाऊंत आए, पड़ोसी पैले संगे ठाड़े मिलत आएं। सैंतालीस से अब तक लौं इत्तो बुड्ढो भओ जा रओ बा पाकिस्तान, पर ऊको अब बी समझ नईं पर रई। जोन के दम पे बा गर्राया रओ, ऊके दुख की बेरा में बे कोनऊं ऊको सात ने दैहें। जे भारत ई आए जो ऊके अंसुवां पोंछहे। का जाने कब ऊको जा बात समझ में आहे।’’ भौजी पाकिस्तान खों खरी-खोटी सुनात भईं बोलीं।
‘‘एक न एक दिन तो ऊको समझ में आई जैहे। औ जो ने समझहे तो अपनोई नुकसान करहे।’’ मैंने कई।
‘‘औ का! ऊको समझो चाइए के हथियारन की खेती करे से पब्लिक को पेट ने भर पाहे। एक दफा तुमने एक बा राजा की किसां सुनाई हती, बा ई टेम पे हमें याद आ रई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन सी किसां?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे बा राजा, जोन ने भगवान से वर मांगो रओ के बा जोन चीज खों छू देवे बा सोने की हो जाए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे बा, बा तो राजा मिडास की किसां आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, बई वारी। बा राजा वर पा के कित्तो खुस भओ, मगर जब ऊने खाबे के लाने भोजन को छुओ तो बा सोना को हो गओं पानी को छुओ तो बा सोने को हो गओ औ अपनी बिटिया को छुओ तो बा सोई सोना की पुतरिया बन गई। भूको, प्यासो और बिटिया को पुतरिया बनत देख के राज खों समझ में आओ के ऊने का गलती करी आए। फेर ओई को रो-रो के भगवान से बिनती करनी परी के बे अपनो वरदान वापस ले लेवें। ऐंसई सब कछू हथियार में फूंक के बा अपनी पब्लिक खों कां से खिलाहे, पिलाहे? फेर कोनऊं से मदद ने मिलहे तो खुदई रोहे। हथियारन की खेती से पेट नईं भरो जा सकत।’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप सई कै रए भैयाजी! मनो अब बा बात आगे ने बढ़ाए तो सई रैहे ने तो सबई खों नुकसान हुइए। लड़ाई-झगड़ा अच्छो नई होत आए।’’ मैंने कई।
‘‘सो तो आए, पर जो कोनऊं की कए से ने मान रओ होए तो ऊको थपड़ियाने सोई जरूरी हो जात आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘चाय, नास्ता, बतकाव सब हो गई, अब चलो चलिए औ बिन्ना खों अपनो रोजीना के काम करन दओ जाए। ईको अबे लिखा-पढ़ी बी तो करने हुइए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘अरे सब हो जैहे, आप ओरें तो बैठो। अच्छो लग रओ।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, ऐसो करियो ने के आज संझा खों ब्यालू के लाने हमाए इते आ जाइयो। काय से के कओ आज संझा खों कोनऊं टेम पे मौक ड्रिल होय औ कओ ब्लैक आउट सोई होए, सो घरे अकेली ने रहियो। हमाए इते आ जइयो औ उतई संगे खाबी-पीबी औ बतकाव करबी। अंदियारे में तुमें अकेले अच्छो बी ने लगहे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, तुमाए भैयाजी ठीक कै रए! तो संझा को पक्को रओ। तुमे हमाए इते आने औ मौक ड्रिल के टेम पे उतई रैने। अपन तीनों मिल के उन आतंकियन खों भेजबे वारे खों खूब गरियाहें।’’ भौजी हंसत भई बोलीं।
‘‘हऔ आ जाबी!’’ मैंने उन दोई की बात मान लई।  
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के आपरेशन सिंदूर के बाद ऊको अकल आहे के नईं? के अपने सेना वारन खों औ कछू करने परहे उने सबक सिखाबे के लाने? 
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Wednesday, May 7, 2025

चर्चा प्लस | दुख-सुख के आभासीय रिश्तों का कड़वा सच | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
दुख-सुख के आभासीय रिश्तों का कड़वा सच 
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       सोशल मीडिया ने जाने-अनजाने अनेक लोगों को परस्पर जोड़ रखा है। ऊपर से देखने में यह एक सुंदर संसार लगता है। बेहद क़रीबी। कोई अपनी बीमारी की एक पोस्ट डालता है तो उसके सारे आभासीय मित्र उसके स्वस्थ होने की टिप्पणी करते हैं। ये टिप्पणियां उस बीमार का सचमुच मानसिक उत्साहवर्द्धन करती हैं। ये आभास देती हैं कि कोई उनका अपना सगा है। कोई उनकी चिन्ता करता है। यह अहसास आंतरिक शक्ति बढ़ाता है, उत्साह बढ़ाता है। लेकिन क्या सचमुच आभासीय रिश्ते प्रत्यक्ष रिश्तों की बाराबरी कर सकते हैं? क्या आभासीय रिश्ते बुखार से तड़पते उस व्यक्ति के माथे पर पट्टी रख सकते हैं? 
पिछले दिनों मेरे एक परिचित ने मुझे हंसते हुए एक घटना सुनाई। उनके लिए वह हंसी का विषय था, एक चुटकुले की तरह लेकिन मैं उस घटना को सुन कर सोच में पड़ गई। चलिए आप भी सुनिए! मेरे उस परिचित ने बताया कि उनके पास व्हाट्सएप्प पर एक शादी का ई-कार्ड आया। साथ में यह संदेश था कि ‘‘समयाभाव के कारण मैं स्वयं निमंत्रणपत्र ले कर उपस्थित नहीं हो पा रहा हूं अतः इस ई-कार्ड को ही मेरा निवेदन समझें और अवश्य पधारें।’’ यह सुन कर मैंने उनसे कहा कि यह तो आजकल आम बात हो गई है। अब तो अधिकतर निमंत्रणपत्र व्हाट्सएप्प पर ही आते हैं, इसमें विशेष क्या है? तब उन्होंने मुझसे कहा कि ‘‘इसमें विशेष कुछ नहीं है, विशेष तो आगे सुनिए जो मैंने इस कार्ड के जवाब में किया।’’ फिर उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने एक मित्र से एक कार्टून टाईप का ई-कार्ड बनवाया जिसमें गिफ्ट ले कर शादीघर में पहुंचने और गिफ्ट देने का दुश्य था। उसे उस शादी का निमंत्रण वाले ई-कार्ड के जवाब में भेजते हुए संदेश लिखा कि ‘‘मैं भी व्यस्तता के कारण विवाह समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूं अतः इस ई-कार्ड को ही मेरी उपस्थिति मानें। मेरी भेंट स्वीकार करें। वर-वधू को आशीर्वाद।’’
मैं दंग रह गई उनकी इस हरकत को सुन कर। यह कोई काल्पनिक चुटकुला नहीं था, बल्कि सचमुच घटित घटना थी। मेरे परिचित ने मुझे वे दोनों ई-कार्ड्स और संदेश दिखाए। साथ में उन्होंने एक बात और कही जो वाकई सोचने पर मजबूर करती है। मैंने उन्हें जब टोका कि आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था तो उन्होंने गंभीरतापूर्वक यह कहा कि,‘‘शादी-विवाह तो होते ही वे समारोह हैं जिनमें सभी नाते-रिश्तेदारों एवं परिचितों-मित्रों को पीले चावल के साथ निमंत्रण दिया जाता है ताकि सभी लोग इकट्ठे हो सकें और जो सालों-महीनों से परस्पर नहीं मिल पाए हों वे भी इस बहाने आपस में मिल लें।’’
‘‘आप बिलकुल सही कह कहे हैं। यही तो मूल उद्देश्य होता है ऐसे समारोहों का। इनसे सामाजिकता बढ़ती है।’’ मैंने उनकी बात का समर्थन किया।
‘‘लेकिन आप ही देखिए कि आजकल क्या हो रहा है? लोगों के पास निमंत्रणपत्र देने आने या किसी व्यक्ति से भिजवाने का भी समय नहीं है या फिर अब इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की जाती है।’’ मेरे परिचित ने कहा।
‘‘आप सही कह रहे हैं लेकिन ज़िन्दगी भी तो इतनी व्यस्त हो चली है।’’ मैंने तर्क दिया। 
‘‘तो क्या मेरे मां-बाप की पीढ़ी के लोग फुर्सतिया थे कि जिनके पास कार्ड बंाटने और बंटवाने के अलावा और कोई काम नहीं था। आज से तीस साल पहले जब मेरी शादी हुई थी तो मेरे पापा अपने हर परिचित के घर खुद निमंत्रण पत्र ले कर गए थे। जहां वे नहीं जा पा रहे थे वहां दूसरे रिश्तेदारों और नाऊन को भेजा गया था। जबकि उस जमाने में शादी वाले घर में अनगिनत काम रहते थे। आजकल तो इवेन्ट एजेंसीज़ को सब कुछ सौंप दो और फुर्सत हो जाओ।’’ मेरे परिचित ने यह जो कुछ कहा उसमें वज़न था। उनकी बात को काटा नहीं जा सकता था। आज तो सामाजिक दायरा भी पहले की अपेक्षा सीमित हो गया है। मेहमान भी शादी समारोह के खर्चे के हिसाब से कम ही बुलाए जाते हैं। तो फिर उन सीमित लोगों के घर क्या निमंत्रणपत्र नहीं भिजवाए जा सकते हैं? या फिर ई-कार्ड भेज कर यह दायित्व पूरा मान लिया जाता है कि हमने तो आपको न्योता भेज दिया, यदि यह न्योता बुरा न लगे तो आ जाना, नहीं तो आपकी मरजी। यह बात कठोर लग रही है न? लेकिन है तो सोचने वाली। क्योंकि निमंत्रण एक सामाजिक व्यवहार होता है। यदि आप नहीं पहुंच पा रहे हैं तो कुछ घंटे का समय निकाल कर परिचितों की लिस्ट उठाएं और एक काॅल कर के निमंत्रण दे दें कि ‘‘कार्ड व्हाट्सएप्प किया है जिसमें पूरा विवरण है लेकिन मैं स्वयं आपसे प्रार्थना कर रहा हूं/ कर रही हूं कि आपको शादी में आना अवश्य है।’’ क्या जीवन में इतना भी समय नहीं निकाला जा सकता है? यदि नहीं तो वैवाहिक समारोह के सामाजिक व्यवहार का क्या अर्थ शेष रहा?

मेरा घर शहर के तनिक बाहरी हिस्से में है। कई बार मेरे साथ भी ऐसा हुआ कि मुझे फोन या व्हाट्सएप्प मैसेज पर सूचना मिली कि शहर में फलां के घर आपका निमंत्रण पत्र रखवा दिया गया है, या तो वे आपके पास भिजवा देंगे या फिर आप उधर जाइएगा तो उनसे ले लीजिएगा। यह स्थिति मुझे भी बड़ी विचित्र और असामाजिक लगती है। एकाध बार तो मेरे भी जी में आया कि मैं उन्हें उत्तर भेजूं कि ‘‘आपने जिनके घर मेरा निमंत्रण पत्र रखवाया था, उन्हीं के घर मैंने व्यवहार का लिफाफा/उपहार रखवा दिया है, कृपया किसी को भेज कर मंगवा लीजिएगा।’’ यद्यपि मैंने अपने उस परिचित की भांति ऐसा कभी किया नहीं लेकिन ऐसे समारोह में जाने का फिर मन भी नहीं हुआ।

क्या सोशल मीडिया पर संवाद ही सब कुछ है? एक दिन मेरी एक परिचित ने मुझे बताया कि उनके फेसबुक मित्रों की संख्या पांच हजार हो गई है इसलिए वे अपना एक दूसरा अकाउंट खोलने जा रही हैं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि आपके कितने मित्र हैं? मैंने कहा कि मेरे भी पांच हजार से अधिक आभासीय मित्र हैं। यह सुन कर उन्होंने मुझे टोका कि ‘‘आभासीय मित्र’’ से मतलब?
‘‘वचुएल फ्रेंड।’’ मैंने कहा। तो वे बोलीं कि यह तो आपने उसी का अंग्रेजी शब्द बता दिया। मित्र तो मित्र होते हैं, चाहे वर्चुएल हों या रियल हों।’’ मैंने कहा कि ‘‘यही तो अंतर है। आभासीय मित्र अपने होने का आभास भर दे सकते हैं जबकि प्रत्यक्ष मित्र आपका हाथ पकड़ कर आपको हिम्मत बंधा सकते हैं।’’ उनके जाने के बाद मैंने विचार किया कि स्थितियां कितनी तेजी से बदलती जा रही हैं। हम खुद को अकेला करते जा रहे हैं। यह सच है कि सोशल मीडिया पर हमारे अनेक मित्र होते हैं। लेकिन यह भी सच है कि उनमें बहुत लोगों के बारे में हमें ठीक से पता भी नहीं होता है। कई तो फेक आईडी बना कर हमसे जुड़े होते हैं। हम उनकी वास्तविकता से बेखबर रहते हैं। बस, यही है कि जब हम अपना दुख या खुशी जाहिर करते हैं तो वे हमारे साथ खड़े महसूस होते हैं। ‘‘महसूस होने’’ और ‘‘होने में’’ यही फ़र्क होता है। 

अभी हाल ही का मामला है। मेरी एक परिचित की तबीयत जरा खराब थी। उन्हें लू लग गई थी। वे कार्यक्रमों में नहीं जा सकीं। इसके बाद उनके पास फोन और मैसेज तो कई आए लेकिन उनके घर पहुंच कर पूछने वालों में दो-चार लोग ही थे। जब मैं उनसे मिली तो उन्होंने हंस कर कहा कि ‘‘अब देखना जब मैं किसी कार्यक्रम में पहुंचूंगी तो कई लोग मुझे उलाहना देंगे कि मैंने उनका फोन रिसीव नहीं किया या उनके मैसेज का उत्तर नहीं दिया। यानी बीमारी की अवस्था में भी यह मेरी ही ड्यूटी है कि मैं उनका फोन रिसीव कर के अपनी हालत का ब्यौरा उन्हें दूं। क्या उनका फर्ज नहीं बनता कि एक ही शहर में रहते हुए वे मेरे घर आ कर पता करें कि यदि मैं फोन नहीं उठा रही हूं तो कहीं कोई गंभीर स्थिति तो नहीं है? लोग कितने असामाजिक और स्वार्थी हो चले हैं।’’ उनका यह कहना उचित था क्योंकि वे अधिकांश लोगों के सुख-दुख में शामिल होती हैं लेकिन उनके कष्ट में इस तरह औपचारिकता बरता जाना उनके लिए पीड़ादायक ही होगा। 

ऐसा नहीं है कि समाज अभी पूरी तरह से आभासीय हो गया है, समाज में अभी भी ऐसे कई लोग हैं जो सामाजिकता को बचाए हुए हैं। मेरे शहर में ही कई ऐसे लोग हैं जो सोशल मीडिया पर कम समय रहते हैं लेकिन समाज के बीच अपना पूरा समय देते हैं। पिछले दिनों एक छोटा-सा उदाहरण मेरे दिल को छू गया। मेरे शहर सागर में श्रीराम सेवा समिति नामक संस्था है जो सभी का सहयोग और सेवा करने के लिए तत्पर रहती है। यह संस्था प्रति वर्ष गर्मियों में रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को निःशुल्क ठंडा पेयजल उपलब्ध कराती है। उसके वर्तमान अध्यक्ष डाॅ विनोद तिवारी यूं तो अनके सामाजिक कार्य करते रहते हैं लेकिन यहां मैं उनके एक फेसबुक पोस्ट भर का उल्लेख करूंगी जो कि सामाजिकता के प्रति दायित्व भाव को बताता है। यह पोस्ट 2 मई 2025 की है जिसको उनकी बिना अनुमति अक्षरशः यहा साझा कर रही हूं। उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा कि ‘‘आदरणीय मित्रो जैसा कि आप सभी को विदित है कि गर्मी के दिनों में सागर रेलवे स्टेशन पर 24 घंटे निःशुल्क जल सेवा की जवाबदारी मेरे ऊपर रहती है इस कारण से मैं आपके किसी भी फेसबुक व्हाट्सएप मैसेज का उत्तर नहीं दे पाता हूं तो आप कृपया मुझे क्षमा करेंगे। क्योंकि आप सभी को मालूम है कि यह सेवा बहुत बड़ी है इसमें आप सभी का सहयोग है और आप सभी का सहयोग हमेशा हमे रहता है ऐसा मैं मानता हूं इसलिए मैं आपके जो भी व्हाट्सएप मैसेज आते हैं मैं उनका उत्तर नहीं दे पाता हूं इसलिए आप मुझे क्षमा करें मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है आप मुझे क्षमा करेंगे जय श्री राम!’’
सोशल सर्विस के लिए सोशल मीडिया से कुछ अरसे के लिए किनारा करना क्या यह सबके लिए संभव है? शायद उनके लिए नहीं जो हर समय आभासीय दुनिया में खोए रहते हैं। दिलचस्प बात ये है कि श्रीराम सेवा समिति की टीम में अनेक ऐसे सेवादार हैं जो एकदम युवा हैं और जो रील बनाने का मोह छोड़ कर रियल लाईफ सेवा में जुटे रहते हैं। शायद ऐसे लोगों से ही सामाजिकता अभी बची हुई है। यहां विचारणीय यह भी है कि सोशल मीडिया ने जाने-अनजाने अनेक लोगों को परस्पर जोड़ रखा है। ऊपर से देखने में यह एक सुंदर संसार लगता है। बेहद क़रीबी। कोई अपनी बीमारी की एक पोस्ट डालता है तो उसके सारे आभासीय मित्र उसके स्वस्थ होने की टिप्पणी करते हैं। ये टिप्पणियां उस बीमार का सचमुच मानसिक उत्साहवर्द्धन करती हैं। यह आभास देती हैं कि कोई उनका अपना सगा है। कोई उनकी चिन्ता करता है। यह अहसास आंतरिक शक्ति बढ़ाता है, उत्साह बढ़ाता है। लेकिन क्या सचमुच आभासीय रिश्ते प्रत्यक्ष रिश्तों की बाराबरी कर सकते हैं? क्या आभासीय रिश्ते बुखार से तड़पते उस व्यक्ति के माथे पर पट्टी रख सकते हैं? बुखार में तपड़पते व्यक्ति के माथे पर पट्टी रखने का काम रियल व्यक्ति ही कर सकते हैं। इसलिए सामाजिकता के महत्व को समझना जरूरी है। जरूरी है उन सभी सामाजिक मूल्यों को फिर से सहेजने की जो हमारे हाथ से रेत की भांति फिसलते जा रहे हैं। आभासीय के साथ वास्तविक को जीना भी जरूरी है। 
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चर्चा प्लस | दुख-सुख के आभासीय रिश्तों का कड़वा सच | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

Tuesday, May 6, 2025

पुस्तक समीक्षा | भारतीय लोक-चेतना के ब्रह्मांड से परिचित कराती पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 06.05.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा

भारतीय लोक-चेतना के ब्रह्मांड से परिचित कराती पुस्तक
समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - इतिहास-बोध और भारतीय लोक दृष्टि
लेखक      - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक   - नेशनल पब्लिकेशन्स, श्याम फ्लैट्स, फतेहपुरियों का दरवाजा चौड़ा रास्ता, जयपुर-302 003
मूल्य       - 495/-
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लोक के संदर्भ में लोक संस्कृतिविद डॉ श्याम सुंदर दुबे की एक अपनी मौलिक अंतर दृष्टि है। वह प्रत्येक वस्तुओं तथ्यों परिस्थितियों तथा सांसारिक गतिविधियों को अपनी दृष्टि से देखते परखते और उसकी व्याख्या करते हैं। लोक संसार पर केंद्रित उनके ललित निबंध लोक के ललित से सहज ही जोड़ देते हैं। डॉ दुबे के ललित निबंधों को पढ़ना गद्य के लालित्य में विचरण करने के समान होता है। उन्होंने बुंदेलखंड के ग्रामीण परिवेश को दिया है और उसके लोक तत्व की समय-समय पर सुंदर व्याख्याएं प्रस्तुत की है।
    “लोक” एक बहु प्रचलित शब्द है किंतु उसका पर्याय अथवा अर्थ ठीक-ठाक बता पाना सबके लिए आसान नहीं है। लोक किसे कहेंगे? यह प्रश्न उलझन में डाल देता है। हम जिस वातावरण में रहते हैं क्या वही लोक है? या फिर लोक वह है जिसमें जातीय स्मृतियां एवं साझा सांस्कृतिक मूल्य होते हैं? इन सभी प्रश्नों के उत्तर निहित है डॉ श्यामसुंदर दुबे की पुस्तक “इतिहास-बोध और भारतीय लोक दृष्टि” में।
     पुस्तक की भूमिका में ही लेखक डॉ दुबे ने लोक के प्रति अपने दृष्टिकोण की स्थापना के संबंध में जो लिखा है वह परिचयचयात्मक रूप से लोक की संपूर्णता को परिभाषित करने में सक्षम है। भूमिका का एक अंश देखें की कितनी सुंदरता से और कितने ललित पूर्ण ढंग से वह लोक के स्पंदन को प्रतिध्वनित करते हैं। वे लिखते हैं कि- “मैंने जिन लोक आशयों को आत्मसात किया है अमूमन वे मेरे आस-पास के अंचलगत प्रसार में व्याप्त लोकानुभव ही रहे हैं। इन लोक आशयों में मैं अपने परिगत के सन्दर्भों और जीवन-मूल्यों को प्राप्त करता रहा हूँ। यह एक तरह से लोक की वह जीवन-व्याप्ति थी जिससे जीवन को खोजने का सिलसिला प्रारम्भ होता है और जीवन को रचने की दृष्टि भी प्राप्त होती है। एक छोटे से गाँव की संकरी-सी गली में स्थित छोटे मकान के सीमित जनों वाले परिवार में मेरा पालन-पोषण हुआ। एक संसार था मेरी आँखों में जिसे मैं अपने बचपन में बहुत बड़ा संसार मानता था। एक अदद नाला, दो-तीन अमराइयाँ, चालीस-पचास घर की बस्ती! सौ-पचास खेतों में फैला कृषि का रकबा ! दो-चार सौ ढोर-डांगर और आठ-दस जातियों में बँटे परिवार! एक-दो मढ़िया-मन्दिर! तीन-चार किताबें ! दस-बीस चित्र ! एकाध लालटेन ! दो-एक बिसाती-इस परिवेश में सम्पन्न होने वाले शादी-ब्याह! तीज-त्यौहार, उत्सव समारोह! इनमें गाये जाने वाले लोकगीत, इनमें सुनाई जाने वाली कथा-वार्तायें! इन अवसरों पर की जाने वाली साज-सज्जा और इन सब में पलने वाले लोक-विश्वास और लोक आस्थाएँ। तब मेरे बाल-मन को कुछ इस तरह से सम्बोधित करने वाले प्रसंग थे कि मैं अनुभव करता था कि जैसे मैं संसार के केन्द्र में ही उपस्थित हूँ, मुझे यह अनुभव ही नहीं होता था कि मैं एक छोटी-सी जगह का निवासी हूँ। यह अनुभव सीमित लोक को अपार ब्रह्माण्ड में बदलने वाला था। ऐसा इसलिए कि लोक के पास खुला आकाश था-फैली फैली हरी-भरी धरती थी और, युगों के पार झाँकने वाली स्मृति थी-पेड़-पौधों के साथ बातचीत करती जिन्दगी की भाव-यात्रा थी।”
           डॉ श्याम सुंदर दुबे लोक में प्रकृति के तत्वों को देखते हैं, वे मनुष्यों के उल्लास और उत्सव धर्मिता को देखते हैं, वह परंपराओं के प्रवाह और आत्मिक गतिविधियों को देखते हैं। उनके लिए लोक जीवन का समग्र है। “इतिहास- बोध और भारतीय लोक दृष्टि” पुस्तक में संग्रहित लोक से संबंधित उनके निबंध शोधात्मक है जिनके संबंध में डॉ दुबे ने स्वीकार किया है कि उन्होंने “परंपरागत शोध की शुष्क प्रणाली” को नहीं अपनाया है। वस्तुत इसीलिए इस पुस्तक में संग्रहित उनके निबंध लालित्य पूर्ण हैं तथा पाठक के अंतर्मन से सीधा संवाद करने में सक्षम हैं।
        पुस्तक की संपूर्ण सामग्री को दो खंड में विभक्त किया गया है। प्रथम खंड है “लोक : अभिप्राय” तथा दूसरा खंड है “लोक का अंतर्लोक”।
        प्रथम खंड “लोक : अभिप्राय” कुल 11 निबंध हैं। इस खंड के प्रथम निबंध में लेखक ने “लोक की सौंदर्य शास्त्री भूमिका” में  उस समय का स्मरण किया है जब सागर विश्वविद्यालय में प्रो. श्यामाचरण दुबे कार्यरत थे। लेखक उनके कथन का स्मरण करते हुए उद्धृत करते हैं कि “उन्होंने उस समय कहा था कि लोक का स्वभाव प्रकृति के बाद सर्वोपरि सुन्दर है। हमने उनसे इस बात को विस्तार में जानना चाहा तो उन्होंने कहा था कि विस्तार तो अनन्त है। आप लोग कल्पना कीजिए कि लाखों वर्षों पूर्व जो मनुष्य जंगलों में विचरण करता होगा तो उस समय, समय की धारणा उसके लिए कुछ नहीं थी। उसके लिए वह कालातीत समय रहा होगा। रात-दिन का होना तो एक प्राकृतिक घटना है, ऋतुओं का आना-जाना भी प्राकृतिक परिवर्तन है। उसने इनका तो अनुभव किया होगा, किन्तु वह समयबद्ध नहीं था, क्योंकि उसके पास समय के मापन की धारणा ही नहीं थी। समय था किन्तु समय का बोध नहीं था। इस तरह उसके जीवन में स्थलगत स्थिरता नहीं थी। वह हवा जैसा बहता रहता था।” - लोक का यह परिचय शास्त्रीय मानकों पर भले ही खरा न उतरे किंतु सौंदर्यशास्त्रीय मानक पर एकदम खरा उतरता है। इसी निबंध में लेखक ने लोक की सामुहिता और उसके विभिन्न शेड्स की चर्चा की है तथा उन सब के अनुभवों को एक सिंफनी की तरह बताया है। एक बिल्कुल मौलिक अवधारणा है जो लोक के सांस्कृतिक मूल्यों को उद्घाटित करती है।
        प्रथम खंड के दूसरे निबंध से लोक के जिस प्राकृतिक बोध का आरंभ होता है वह मंगल धारणा से सिक्त होता हुआ किस्सागोई की अभिव्यक्ति में जाकर ठहरता है। दूसरे से ग्यारहवें निबंध तक के शीर्षक देखिए जिनको पढ़कर ही लोक के आचरण का अनुभव जाग उठेगा - वृक्ष-अभिप्राय : मोरे अँगनवा में चंदन के बिरछा, ईश्वर-प्रणय: दुर्बल भक्त द्वार पर खड़ा था, पशु-अभिप्राय : हिरनिया त मन अति अनमन हो, मंगल अभिप्राय : मोती बेराणा चंदन चौक में, सूरज-चंदा अभिप्राय : चंदा-सूरज दोऊ भैया अंगन बिच ऊँगियों, नदी अभिप्राय : बाबुल के रोये गंगा बहत है, मृत्यु के इरादे और लोक- दृष्टिकोण से यौन इरादे, पक्षी इरादा: मेरे तोते गौरैया के साथ जोड़ी, कथा अभिप्राय : किस्सागो का संसार।
       प्रत्येक निबंध की अपनी एक लोकगाथा है और एक लोक संवाद है। “मोरे अँगनवा में चंदन के बिरछा” के माध्यम से लेखक ने प्रकृति में मौजूद वृक्ष रूपी चेतन तत्वों से मानवीय सरोकारों की व्याख्या की है। इसी तरह निबंध “सूरज-चंदा अभिप्राय : चंदा-सूरज दोऊ भैया अंगन बिच ऊँगियों” में लोक द्वारा ब्रह्मांड के दो प्रमुख तत्वों चंदा और सूरज को अपने जीवन के अनुभवों में समेट लेने के कौशल से परिचित कराया है। लोक जड़ और चेतन को किस कुशलता से अपने जीवन का संबल बना लेता है इस ओर लेखक ने ध्यान आकृष्ट किया है।
           पुस्तक के “खण्ड-2 : लोक का अंतर्लोक” में कुल 14 निबंध हैं। इन निबंधों में लोक मान्यताओं, लोक साहित्य, लोक-संस्कृति की समन्वयवादिता तथा लोक की भक्ति परंपरा पर भी समुचित दृष्टि डाली गई है। ये निबंध हैं-  लोक राम-कथा : विभिन्न अन्तरीप, हिंदी क्षेत्र की बोलियाँ : अन्तर्संवादी स्वर, संस्कार गीतों की अन्तः क्रियाएँ, इतिहास-बोध और भारतीय लोक-दृष्टि, लोक साहित्य : जीवन-मूल्य और भारतीयता, पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) के संरक्षण में लोकगीतों की भूमिका, समकालीन सन्दर्भों में लोक-संस्कृति की समन्वयवादिता और उसकी भविष्य-दृष्टि, लोक-संस्कृति के सन्दर्भ में मूर्त और अमूर्त की दृष्टि, लोक नृत्य की गुरुत्वाकर्षण भेदन शक्ति, प्रदर्शनकारी लोक-कलाएँ और जन-संचार माध्यम,  लोककला की रचनात्मकता के अवरुद्ध होने के खतरे, बुन्देलखण्ड के लोक-जीवन में निर्गुण भक्ति-परम्परा और कबीर का प्रभाव, लोक में दीवाली प्रसंग, विन्ध्य और सतपुड़ा का लोक।
      इन निबंधों में  “लोक नृत्य की गुरुत्वाकर्षण भेदन शक्ति” को बानगी के रूप में देखें तो एक अद्भुत दृष्टि संसार से साक्षात्कार होता है। लेखक ने कोरियोग्राफर प्रभात गांगुली के हवाले से बताया है कि “भारतीय लोक नृत्य पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेदने की साहसिक ललक से उत्फुल्लित है। …. भारतीय कलाएँ जीवन की उत्क्रामिणी शक्ति से परिपूर्ण हैं। दिक् से ऊपर उठकर काल को भेदने के लिए तत्पर लोक नृत्य में महाकाल की ताण्डव मुद्रा भी लोकाभिनय से प्रवर्तित है। दक्षिण पैर पृथ्वी पर टिका है। वाम पैर आकाश की ओर उठा है। यह नृत्य अभिनय पृथ्वी से ऊपर उठने की मुद्रा को प्रदर्शित करता है। गुरुत्वाकर्षण को भेदकर दिक् काल के आवरण से मुक्त होने की आकांक्षा शिव की इस नृत्य मुद्रा में है।”
        जो व्यक्ति इतिहास, वर्तमान, चिंतन और प्रकृति के आधार पर लोक को जानने की अभिलाषा रखता हो उसके लिए डॉ श्याम सुंदर दुबे की यह पुस्तक “इतिहास- बोध और भारतीय लोक दृष्टि” एक अनुपम कृति है। डॉ दुबे की संस्कृति और भाषा दोनों में बहुत अच्छी पकड़ है। वे निबंध की गद्यात्मकता में भी काव्य के तत्व पिरोने में माहिर हैं। उनके ललित निबंध किसी रोचक महाकाव्य की तरह अथवा किसी खांटी लोक गाथा की भांति चेतना एवं बौद्धिकता को स्पर्श करते हैं। यही कारण है की डॉ दुबे की यह पुस्तक पठनीय है जातीय स्मृति एवं परंपराओं की लोक-चेतना के ब्रह्मांड से परिचित कराने में सक्षम है।
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Sunday, May 4, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | तनक हात-पांव सोई हला लए करे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | बुंदेली में
     तनक हात-पांव सोई हला लए करे!
            - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
             कल संझा को जेई बतकाव चल रई हती के आजकाल तन्नक सी उमर में हार्ट को अटैक आन लगो। जोन जा जे हार्ट अटैक पैले बुढ़ापा में आत्ते, बे लोहरी उमर में आन लगे। अबई एक 24 साल को ज्वान के बारे में पढ़ो के बो गश खा के गिरो औ ऊको अस्पतालें ले जाबे पे पतो परो के बा तो साईलेंट अटैक से जा चुको आए। ईसे पैले बा शादी में खुसी से नाचत भई मोड़ी साईलेंट अटैक से चली गई। कैबे को मतलब जे के आजकाल दिल की बीमारी के लच्छन पतो नईं परत आए। सो खुदई चौकन्ने रैबे की जरूरत आए।
      हमने दो-चार डॉक्टरन से पूछी सो उन्ने बड़े पते की बात बताई। का है के आजकाल जे मोबाईल ने सबई खों ठलुआ बना दओ आए। मोबाईल पे उंगरिया तो चलत आए, मनो इंसान एकई स्टाईल में एकई जांगा बैठो, ने तो डरो रैत आए। कछू जने कसरत-मसरत कर लेत आएं बाकी पिज्जा, बर्गर मसकत कैलेस्ट्रोल बढ़ात रैत आएं। आप ओरन खों यकीन ने हुइए के पूरे एमपी में हार्ट में दरद के सबसे ज्यादा मरीज अपने सागर में आएं। सो, अबे बी कछू नईं बिगरो, बस करने इत्तोई आए के भुनसारे तनक तेजी-तेजी से घूम लए करे। तनक हात-पांव हला लए करे। औ जे शादी-ब्याओ को टेम आए, सो तलो-फुलो मुतके ने मसकियो। गर्मी सोई खींबईं पर रई। सो, हल्को खाइयो औ खीबई पानी पीइयो। कभऊं-कभार अपने दिल की जांच करा लए करे। जे अकेले हम नईं सबरे डॉक्टर कैत आएं। सो, हमाई मानो तो तनक हात-पांव सोई हला लए करे, तभई जा हार्ट बचो रैहे साइलेंट अटैक से।
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Thank you Patrika 🙏
Thank you Dear Reshu Jain 🙏
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Friday, May 2, 2025

मैं हर पल तुम्हें याद करती हूं वर्षा दीदी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, डॉ वर्षा सिंह की चतुर्थ पुण्यतिथि

4 साल पहले 02 और 03 मई  2021 की दर्मियानी रात को कोरोना महामारी से मैंने अपनी दीदी डॉ वर्षा सिंह को खो दिया। दीदी का जीवन बचाने के लिए उन्हें बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज में भर्ती करना पड़ा था... मैंने उन्हें भर्ती कराया था  लेकिन उन्हें कभी वापस घर नहीं ला पाई... मां के निधन के ठीक 13वें दिन दीदी को भी खो दिया.... एक पल के लिए भी मैं उन्हें भूल नहीं पाती हूं । वे मेरी जिंदगी थीं ... अब ऐसा लगता है जैसे जिंदगी में कुछ नहीं रहा... 
उन्होंने ख़ूबसूरत ग़ज़लें कहीं... उनके 6 ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए... ख्यातिलब्ध गायक बंधु अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन ने उनकी ग़ज़लें गाईं... वे खुद भी बहुत अच्छा गाती थीं... 
     मां बताती थीं कि मेरे पैदा होने पर वे बहुत खुश हुई थीं ... बचपन से हम हमेशा साथ रहे मगर अब उनको न देख पाना... उनको न सुन पाना मेरे लिए सबसे दुखदाई है... उनके जाने से उपजा अकेलापन जो अब इस जन्म में तो कभी दूर नहीं होगा.....
Miss You Didi 💔
😥.....................😥
4 years ago, on the intervening night of 02 and 03 May 2021, I lost my sister Dr. Varsha Singh by the corona epidemic. To save Didi's life, she had to be admitted to Bundelkhand Medical College ... I got her admitted but could never bring her back home... I lost my sister exactly 13 days after my mother's death... I am not able to forget her even for a moment. She was my life... now it seems as if there is nothing left in life...

She wrote beautiful ghazals... 6 of her ghazal collections were published... Renowned singers Bandhu Ahmed Hussain, Mohammad Hussain sang her ghazals... She herself also sang very well...

Mother used to tell that she was very happy when I was born... We were always together since childhood but now not being able to see her... not being able to hear her is the most painful for me... The loneliness that arose from her gone will never go away in this life...
Miss You Didi 💔
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शून्यकाल | जातीय जनगणना यानी जाति ही पूछो साधु की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल जातीय जनगणना यानी जाति ही पूछो साधु की …
          - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                       
         74 साल बाद होगी देश में जातीय जनगणना, मोदी कैबिनेट के इस फैसले के फायदे-नुकसान क्या हैं? मोदी कैबिनेट ने एक बड़ा फैसला लिया है। सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का निर्णय लिया है। जातीय जनगणना को लेकर लंबे वक्त से विपक्षी दल मांग कर रहे थे। सरकार उसके पक्ष में नहीं थी किंतु अब सरकार ने जाति जनगणना को स्वीकार कर लिया है। मीडिया कह रही है कि सरकार ने विपक्ष का मुद्दा छीन लिया। वहीं विपक्ष का रहा है कि सरकार ने उनका मुद्दा मान लिया। मगर उनके क्या विचार हैं जिनकी जातिगत गणना होगी? समाज पर क्या होगा जातीय जनगणना का असर?
संत कबीर ने कहा कि -
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का,पड़ा रहन दो म्यान।।
       
परंतु अब सरकारी कर्मचारी जिनकी जातीय जनगणना में ड्यूटी लगाई जाएगी वह घर-घर जाकर प्रत्येक व्यक्ति से उसकी जाति पूछेंगे। सरकार ने घोषणा की है कि जातिगत जनगणना कराई जाएगी। इस गणना का अच्छा पक्ष भी है और चिंताजनक पक्ष भी।  इस बात को लेकर मीडिया द्वारा हैडलाइंस बनाई गई कि सरकार ने जनगणना कराए जाने की घोषणा करके विपक्ष से उसका एक बड़ा मुद्दा छीन लिया। वह मुद्दा जिस पर पहले स्वयं सरकार ही अनिश्चितता की स्थिति में थी। राजनीति को छोड़कर समाज और परिवार की बात की जाए। मेरे परिचय में एक ऐसा उच्चशिक्षित परिवार है जिसमें परिवार के दो बेटों ने दूसरी जाति की लड़कियों से शादी करके घर बसाया है। उनमें से एक बेटा ऑस्ट्रेलिया में रह रहा है और दूसरा सिंगापुर में बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहा है। उस परिवार की बेटी ने एक अन्य जाति के लड़के से विवाह रचाकर अपना सुखमय संसार बसाया है और वह भारत में ही नोएडा में रह रही है जहां पति-पत्नी दोनों एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं। जातिगत गणना के बाद उस परिवार की भावनात्मक स्थिति क्या होगी?

जातिगत जनगणना एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें देश की आबादी को उनकी जाति के आधार पर बांटा जाता है। भारत में हर दस साल में होने वाली जनगणना में आमतौर पर आयु, लिंग, शिक्षा, रोजगार और अन्य सामाजिक-आर्थिक मापदंडों पर डेटा इकट्ठा किया जाता है। हालांकि, 1951 के बाद से जातिगत डेटा को इकट्ठा करना बंद कर दिया गया था, ताकि सामाजिक एकता को बढ़ावा मिले और जातिगत विभाजन को कम किया जा सके। फिलहाल केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति  की जनसंख्या का डेटा इकट्ठा किया जाता है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग की जातियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
        74 साल बाद होगी देश में जातीय जनगणना, मोदी कैबिनेट के इस फैसले के फायदे-नुकसान समझ लीजिए सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का महत्वपूर्ण फैसला लिया है। इस कदम का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देना है, साथ ही नीति निर्माण में पारदर्शिता लाना है। जातिगत जनगणना से सामाजिक और आर्थिक समानता बढ़ाने की कोशिश 1951 के बाद पहली बार जातिगत डेटा इकट्ठा करने का फैसला जातिगत आंकड़े राजनीतिक ध्रुवीकरण और सामाजिक तनाव का कारण बन सकते हैं।
   सरकार ने आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का निर्णय लिया गया। जातीय जनगणना को लेकर लंबे वक्त से विपक्षी दल मांग कर रहे थे। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देगा, साथ ही नीति निर्माण में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगा। 
        भारत में जातिगत जनगणना का इतिहास औपनिवेशिक काल से जुड़ा है। पहली जनगणना 1872 में हुई थी, और 1881 से नियमित रूप से हर दस साल में यह प्रक्रिया शुरू हुई। उस समय जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामान्य था। हालांकि, आजादी के बाद 1951 में यह फैसला लिया गया कि जातिगत डेटा इकट्ठा करना सामाजिक एकता के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके बाद केवल एससी और एसटी का ही डेटा इकट्ठा किया गया।
        पिछले कुछ वर्षों में जातीय जनगणना की मांग तेजी से उठी। ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं की मांग काफी बढ़ गई है। ऐसे में जातिगत जनगणना की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी। 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना  की थी, लेकिन इसके आंकड़े विसंगतियों के कारण सार्वजनिक नहीं किए गए। बिहार, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों ने स्वतंत्र रूप से जातिगत सर्वे किए, जिनके नतीजों ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर पर एक मांग के रूप में खड़ा कर दिया। कांग्रेस, आरजेडी और सपा आदि विपक्षी दल लंबे समय से इसकी मांग कर रहे थे। बीजेपी का सहयोगी दल जेडीयू भी जातीय जनगणना के पक्ष में था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे सामाजिक न्याय का आधार बताते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में इसे प्रमुख मुद्दा बनाया था। क्षेत्रीय दलों का मानना है कि जातिगत आंकड़े नीति निर्माण में मदद करेंगे, जबकि केंद्र सरकार ने पहले इसे प्रशासनिक रूप से जटिल और सामाजिक एकता के लिए खतरा माना था।
          जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। उनका कहना है कि जातिगत आंकड़े सरकार को विभिन्न समुदायों की सामाजिक,आर्थिक स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेंगे। उनके अनुसार जातिगत स्थिति के आधार पर शिक्षा स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाएं निर्धारित की जा सकेंगी। लेकिन यह कहां तक उचित होगा यह अभी से कह पाना कठिन है।      
         इससे इनकार नहीं किया जा सकता है की जातिगत जनगणना के बाद सभी जातियों की वास्तविक स्थिति एवं संख्या का पता चल सकेगा किंतु इस प्रकार की गणना को अनुचित मानने वालों का कहना है कि  यह सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कई चुनौतियां पैदा कर सकता है। उदाहरण के लिए जातिगत जनगणना समाज में पहले से मौजूद जातिगत विभाजन को और गहरा कर सकती है। राजनीतिक आकलनकर्ता मानते हैं कि जातिगत आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है। क्षेत्रीय दल और जातिगत आधार पर संगठित पार्टियां इसका लाभ उठाकर सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकती हैं। इससे सामाजिक तनाव और हिंसा की संभावना बढ़ सकती है। जातिगत जनगणना से कुछ समुदायों की जनसंख्या अपेक्षा से अधिक हो सकती है, जिससे आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग उठ सकती है, जिससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है।
       जनवरी 2020 में केरल में श्रद्धालु सम्मेलन के शुभारंभ के अवसर पर उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने जातिगत भेदभाव खत्म करने की बात कही थी। उपराष्ट्रपति ने कहा था कि आर्थिक और तकनीकी मोर्चे पर देश ने महत्वपूर्ण कामयाबी अर्जित की है, लेकिन जाति, समुदाय और लिंग के आधार पर भेदभाव के बढ़ते मामले बड़ी चिंता का कारण हैं। देश से जाति व्यवस्था खत्म होनी चाहिए और भविष्य का भारत जातिविहीन और वर्गविहीन होना चाहिए। उन्होंने गिरजाघरों, मस्जिदों और मंदिरों के प्रमुखों से जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म करने के लिए काम करने को कहा था। 
        उस समय जाति व्यवस्था को लेकर विशेषज्ञों ने अपनी-अपनी चिंताएं व्यक्त की थीं तथा जाति व्यवस्था को समाप्त किए जाने के पक्ष में विमर्श किया था। उनके अनुसार निःसंदेह जाति प्रथा एक सामाजिक कुरीति है। ये विडंबना ही है कि देश को आजाद हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश के नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है। लेकिन विरोधाभास है कि सरकारी पदों के लिए आवेदन या चयन की प्रक्रिया के समय जाति को प्रमुखता दी जाती है।
जाति प्रथा न केवल हमारे मध्य वैमनस्यता को बढ़ाती है बल्कि ये हमारी एकता में भी दरार पैदा करने का काम करती है। अमुक जाति का सदस्य होने के नाते किसी को लाभ होता है तो किसी को हानि उठानी पड़ती है। जाति श्रम की प्रतिष्ठा की संकल्पना के विरुद्ध कार्य करती है। उस समय समाजशास्त्रियों द्वारा यह भी कहा गया था कि जाति प्रथा से आक्रांत समाज की कमजोरी विस्तृत क्षेत्र में राजनीतिक एकता को स्थापित नहीं करा पाती तथा यह देश पर किसी बाहरी आक्रमण के समय एक बड़े वर्ग को हतोत्साहित करती है। स्वार्थी राजनीतिज्ञों के कारण जातिवाद ने पहले से भी अधिक भयंकर रूप धारण कर लिया है, जिससे सामाजिक कटुता बढ़ी है।      
      'जाति प्रथा उन्मूलन' नामक ग्रंथ में अंबेडकर लिखा है कि 'प्रत्येक समाज का बुद्धिजीवी वर्ग यह शासक वर्ग न भी हो फिर भी वो प्रभावी वर्ग होता है।' केवल बुद्धि होना यह कोई सद्गुण नहीं है। बुद्धि का इस्तेमाल हम किस बातों के लिए करते हैं इस पर बुद्धि का सद्गुण, दुर्गुण निर्भर है और बुद्धि का इस्तेमाल कैसा करते हैं यह बात हमारे जीवन का जो मकसद है उस पर निर्भर है। यहां के परंपरागत बुद्धिजीवी वर्ग ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल समाज के फायदे के लिए करने की बजाए समाज का शोषण करने के लिए किया है। अर्थात अंबेडकर यह कहना चाहते थे की शासन बुद्धि के आधार पर बन सकते हैं न कि जाति के आधार पर।
      यह भी सच है कि जातिवाद राष्ट्र के विकास में मुख्य बाधा है। जो सामाजिक असमानता और अन्याय के प्रमुख स्रोत के रूप में काम करता है। जातीय जनगणना के बाद इस तरह के विचारों को कौन से परिणाम मिलेंगे यह भविष्य ही बताएगा।
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Thursday, May 1, 2025

बतकाव बिन्ना की | ऊधमी छोटे भैया खों लपाड़े काय नईं लगा रए | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ऊधमी छोटे भैया खों लपाड़े काय नईं लगा रए?
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
      ‘‘बिन्ना, चलो आज तुमें हम एक किसां सुनाएं।’’ भैयाजी ने मोसे कई।
‘‘कोन सी किसां?’’ मैंने पूछी।
‘‘तुम सुनो तो, फेर खुदई समझ जैहो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, सुनाओ आप!’’ मैंने कई।
‘‘का भओ के एक गांव में दो पड़ोसी हते। बे पड़ोसी पैले सगे भैया रए। फेर दोई में जमीन जायदाद खों ले के झगड़ा होन लगो। बाप-मताई तो चात्ते के दोई भैया मिल के रएं मगर छोटे भैया खों उनकी सलायें पुसा नई रई हती। ऊको तो अलग होबे की सनक सवार हती। ऊनें तरां-तरां की उठा-पटक करी। अखीर में ऊके मन की हो गई। दोई भइयों में बंटवारा हो गओ। घर के दोरे अलग-अलग कर दए गए। आंगन के बीच दीवार खड़ी कर दई गई।’’ भैयाजी किसां सुना रए हते।
‘‘फेर का भओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘ऊ घर में एक बगिया बी रई। छोटे भइया ने पटवारी खों पटा के ऊके बी दो हींसां करा लए। बाकी बा तो पूरी बगिया हड़पो चात्तो, मनो ऊको दिखानो के पूरी बगिया तो ऊको ने मिल पाहे, सो ऊने बगिया के दो हींसा करा लए। बगिया को एक हीसां पा के बी ऊको चैन कां? ऊकी तो नज़र गड़ी हती पूरी बगिया पे। मने ऊ हीसां पे बी जो ऊके बड़े भैया खों मिली हती।’’ भैयाजी बोले।
‘‘तो का ऊने कोर्ट-कचेरी करी?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ, करबे की कोसिस तो करी, मनो हर की बेर ऊकी अपील खरिज कर दई गई। बा गांव भरे में हल्ला देत फिरो पर कोनऊं ने ऊकी बात पे कान ने दओ। सो बो तिलमिलात रओ। फेर ऊने ऊधम मचानो सुरू कर दओ। बा बड़े भैया के इते कभऊं गिलावो मेंक देतो, तो कभऊं पटाखा जला के मेक देतो। बड़े भैया की गलती जे के ऊने ऊको लोहरो मान के अनदेखा करो औ दो लपाड़ा नईं दए।’’ भैयाजी तनक ठैर के सांस लई।
‘‘फेर? फेर का भओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘फेर जो भओ के बा अपने उचकबे से बाज ने आ रओ तो औ बड़ो भैया संत बनो फिर रओ तो। यां तक के छोटे भैया के लड़का-बच्चा बड़े भैया के इते खेलबे खों आ जाते तो बड़े भैया उनको कैंया में ले के टाॅफी, चाॅकलेट देत रैते। औ बईं, जो बड़े भैया के मोड़ा-मोड़ी छोटे भैया के इते चले जाते तो छोटो वारो उनें जुतिया-जुतिया के भगा देतो।’’ भैयाजी सुनात जा रए हते। 
‘‘जे तो बड़ी गलत बात हती। कोऊ ऐसो करत आए का?’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो! बा बरसों लौंे जेई करत रओ। नाती-नतना हो गए तो बी ऊको रवैया बोई को बोई रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ फेर भी बड़े भैया ने कछू नईं करो? ऊको सबक ने सिखाओ?’’ मैंने पूछी। काए से के मोय सुन के ई गुस्सा सी आन लगी हती।
‘‘कछू नईं करो। सबक काय खों बड़ो तो अपनी तरफी ओको बुला के ऊके संगे किरकेट खेलत रओ। जबके पता हती के मौका मिलत साथ बा पीठ में छुरा घोंप दैहे। पर नईं, बड़े भैया खों संतगिरी को चस्का जो लगो रओ। ऊने छोटे के बच्चा हरों को अपने घरे अच्छे-अच्छे कमरा दे के राखो। उन ओरन की खींबई सेवा करी। छोटो वारो जा देख-देख के हंसत रओ। जेई-जेई में ऊकी हिम्मत औ बढ़न लगी। एक दइयां ऊने बड़े भैया के नाती-नतना के मूंड़ फोड़ दए। ऊ दिना बड़े भैया ने गरियाओ तो जम के मने करो कछू नईं।’’ भैयाजी बोले। 
‘‘जे कोन टाईप की किसां आए? जे कछू ज्यादा नई लग रई के छोटो गर्रया रओ औ बड़ो भैया चीं नई बोल रओ?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘बिलकुल ज्यादा लग रई। जोन बी जे किसां सुनत आए ऊको जे ज्यादई लगत आए। सबई जे बोलत आएं के बड़ो भैया चिमाएं काए बैठो? खींच के दैबे दो लपाड़ा, सो छोटो सुधर जाए। मगर जेई तो ई किसां की ट्रेजडी आए के बड़े भैया कैत तो रैत आए पर लपाड़ा लगात नइयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सांची कएं भैयाजी? बुरौ ने मानयो। जे किसां मोए नई पुसाई। जे का के बड़ो कुटत जा रओ औ छोटो कूटत जा रओ। जे ऐसी किसां कोनऊं बच्चा खों ने सुनाइयो, ने तो ऊको मारल डाउन हो जैहे औ बा डिप्रेशन में आ जैहे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘होन देओ जो होने होय, काय से के जे किसां सांची आए। अब जे तो बड़े भैया खों समझो चाइए के बा छोटे भैया की ऊटपटांग हरकतों खों कैसे रोके औ कैसे ऊको ऊकी औकात दिखाए। अब श्रीराम जू की किसां में देख लेओ। रामजी ने दशरथ जू के कहे पे अपनो अधिकार छोड़ दओ औ जंगल में मारे-मारे फिरे। पर जबे बालि औ सुग्रीव को मामलो आओ तो उन्ने दोई भैया में सई वारे को साथ दओ औ गलत वारे खों निपटा दओ। ने तो बे चायते तो सुग्रीव को सलाय देते के जैसे हम जंगल में फिर रए ऊंसई तुम सोई फिरो। फेर चाय कोनऊं रावन तुमाई लुाई खों धोखा से काए ने ले जाए। मनो उन्ने ऐसो नईं करो। रामजी खों लगो के बालि खों सजा मिलो चाइए तो उन्ने बालि खों सजा दे दई। मने सजा दई जानी सोई जरूरी आए।’’ भैयाजी ने मोसे कई।
‘‘मगर जे किसां में तो बड़ो कछू करतई नईं दिखा रओ!’’ मैंने कई।
‘‘जेई तो बात आए बिन्ना के ई किसां में बड़ो भैया छोटे पे चिचिया तो रओ आए, पर तरीके से  कोनऊं ऐसी सजा नई दे रओ के छोटे खों सहूरी बंध जाए औ बा मारा-कूटी करबे की बजाए गम्म खा के बैठे औ बड़े की तरफी आंख उठा के बी ने देखे।’’ भैयाजी ने कई। 
‘‘जा तो तभई हो सकत आए जबे बड़ो भैया अपनी पे आ जाए औ बता दे के बड़ो को आ, औ छोटो को आ!’’ मैंने कई।
‘‘औ का बताओ चाइए। ने तो पूरे गांव भरे में भद्द पिट रई। कोनऊं समझ ने पा रओ के बड़ो छोटे से दबत काय रैत आए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘भैयाजी, जे तो ओई टाईप को प्रश्न भओ जोन टाईप को बेताल बिक्रमादित्य से पूछो करत्तो। उत्तर देओ तो सल्ल, ने देओ तो सल्ल। बेताल महराज खों तो बिक्रमादित्य के कंधा से उतर कर पेड़ पे लटकनेई आए। बाकी आपने मोय जे किसां सुना के मोरो मगज दुखा दओ। मोरो तो मन कर रओ के मैं ई उते जा के बड़े भैया की तरफी से छोटे की गतें बना आऊं।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘अकेलो तुमाओ जी नईं कर रओ, ऐसो जी सबई को कर रओ। काल हमें हमाए एक पुराने दोस्त मिले रए। बे सोई हमसे कै रए हते के अब तुम जे किसां सुनानी बंद करो ने तो हम तुम्हई को कोनऊं दिना कूट देबी। अब ईमें हमाओ का दोस? जो जैसी किसां आए, ऊसई तो कई जैहे। बे हमई खों कूटबे की कै रए हते।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘सो जे तो हुइए, जो आप ऐसी किसां सुनाहो। जे कोनऊं राजेश खन्ना की ‘‘अवतार’’ घांई फिलम नोईं के राजेश खन्ना को ऊ फिलम में खूबई सताओ जात आए मनो बा चीं लौं नई बोलत। लेकन बा फिलम हती। ऊको बनाने वारो जानत्तो के जो अखीर में राजेश खन्ना से सबई माफी ने मांगहें तो फिलम पिट जैहे। सो ऊने बी रिस्क ने लओ। पूरी फिलम में राजेश खन्ना वारे रोल को बिचारा बनाए रखो गओ, मनो अखीर में ऊकी बड़वारी दिखा दई गई। आपकी किसां में तो बड़े भैया की बड़वारी को अेम आई नई पा रओ। जो आप की ई किसां पे फिलम बनहे तो देखबे वारे गुस्सा के टाकीज को पर्दा ई फाड़ दैहें।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘मगर ईमें हम का कर सकत? हमने तो पैलई कई के जे असली किसां आएं। अब जो आए, सो आए।’’ भैयाजी अपनो पल्ला झारत भए बोले।
‘‘सो फेर मोय किसां काय सुनाई?’’ मैंने भैया जी खों आड़े हाथ लओ।
‘‘ईसे सुनाओ के तुम न्यूज-म्यूज तो देखत नइयां, सो तुमें दसा-दिसा बताबे खों जे किसां सुनाई।’’ भैयाजी बोले। 
‘‘ऐसो नइयां! भले मैं टीवी पे बा बहसें नई देखत पर मोय सबरी नालेज रैत आए। औ मैं समझ गई के जे किसां कोन की सुना राए। अब आप हमाओ मों ने खुलवाओ।’’ मैंने भैयाजी खों उलायना दओ।
‘‘हमें पतो रओ के तुम समझ जैहो के जे कोन की किसां आए।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
भैयाजी को हंसबो देख के मोए औ गुस्सा सी आन लगी।             
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के बड़े भैया खों अब एक्शन में आ के छोटे खों लपाड़े लगाने चाइए के नईं? 
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