Friday, January 31, 2025

शून्यकाल | पहाड़ कोठी, मदार साहब और हनुमानजी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम  
शून्यकाल

 पहाड़ कोठी, मदार साहब और हनुमानजी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

    .   स्मृतियां जीवन की अमूल्य निधि होती हैं। स्मृतियों में वह अतीत समाया होता है जो व्यक्ति की निजी थाती तो होता ही है साथ ही यदि उसे लेखबद्ध कर के पढ़ा जाए तो तत्कालीन पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक इतिहास बन जाता है। उस समय उसमें संबंधित व्यक्ति गौण हो जाता है और तत्कालीन घटनाएं एवं दशाएं प्रमुखता से मुखर हो उठती हैं। बिलकुल मुझे ऐसा ही लगता है जब मैं अपनी स्मृतियों को लेखबद्ध करती हूं।
         शहद से मीठे और पके आम जैसे रसीले बचपन के दिनों की सुनहरी आभा आज भी स्मृतियों की देहरी पर दमकती रहती है। बड़े ही खूबसूरत दिन थे। तब पहाड़ बहुत ऊंचे लगते थे और तालाब बहुत गहरे। हनुमान जी तब वैसे हनुमान जी नहीं लगते थे, जैसे अब लगते हैं। जी हां, मैं उसी पन्ना की बात कर रही हूं, वही शहर जहां मेरा बचपन व्यतीत हुआ। जहां मेरा घर था, वह हिरणबाग कहलाता था। यह कहा जाता था कि राजशाही के समय उस परिसर में हिरण पाले जाते थे। उस परिसर में आम, नीम वट और पीपल के अलावा नींबू, चांदनी, बगनविलास के पेड़ भी थे। जिनमें से कुछ धीरे-धीरे कटते चले गए और बाद में  आम, नीम, वट जैसे बड़े वृक्ष ही बचे। उस परिसर में दो बड़े कुएं थे, जिनमें हमेशा पानी लबालब भरा रहता था। इतना स्वच्छ पानी कि आस-पास के मोहल्ले की महिलाएं वहां से पीने का पानी भर कर ले जाया करती थीं। जब नाना जी से कोई कहानी सुनाते समय पनिहारिन का उल्लेख करते तो मेरे ज़ेहन में उन कुओं से पानी भरने वाली महिलाएं कौंध जातीं । फिर मेरे लिए कहानी की पनिहारिन की कल्पना करना आसान हो जाता । सीधे पल्ले की साड़ी, माथे तक घूंघट, कमर में चांदी की करधनी, हाथों में कांच की ढेर सारी चूड़ियां, सिर पर दो-दो घड़े और हाथों में लोहे की बाल्टियां। यानी ग़ज़ब का स्टेमिना। उनके घर से कुओं की दूरी कम से कम एक-दो किलोमीटर रहती ही थी। खूबसूरत ऊंची जगत वाले वे दोनों कुएं जिनमें पानी निकालने के लिए परंपरागत लकड़ी की घिर्रियां लगी हुई थीं ।
      हिरणबाग परिसर के मुख्य द्वार पर लोहे का बड़ा-सा फाटक था जिस पर चढ़कर  हम लोग झूला झूलते थे और डांट खाते थे। फाटक के बाहर चौराहा था। आज भी है। जिसका एक रास्ता छत्रसाल पार्क से होते हुए सिटी कोतवाली की तरफ जाता था। दूसरा रास्ता छोटे बाजार की ओर। दो रास्ते कुछ दूर समानांतर जाते थे जिनमें से एक रास्ता धर्म सागर तालाब की ओर जाता था और दूसरा पहाड़ कोठी की ओर ऊंचाई पर चढ़ता चला जाता था। पहाड़ कोठी नाम इसलिए पड़ा था क्योंकि वहां छोटा सा पहाड़ था जिस पर सरकारी कोठियां बनी हुई थीं। आज भी यथावत हैं। किंतु आज वह पहाड़ इतना बड़ा नहीं लगता है जितना बचपन में लगता था। आज वह पहाड़ इतना बड़ा रहा भी नहीं। बचपन के उस पहाड़ में अनेक वृक्ष थे। वह हरियाली से ढंका रहता था लेकिन आज उस पहाड़ की ढलान पर भी अनेक घर बन चुके हैं। पहाड़ कोठी की अपनी विशेषताएं थी। वहां एक्सक्यूटिव इंजीनियर, एक्साइज ऑफीसर तथा डीएफओ का बंगला था।  सबसे बड़ा कलेक्टर का बंगला था। इसके अलावा कुछ और छोटे-छोटे बंगले थे जो एसडीओ आदि को एलॉट किए जाते थे। वहां सबसे बड़ा भवन सर्किट हाउस था। यह सारे भवन आज भी मौजूद हैं।  
      एक्सक्यूटिव इंजीनियर के आलीशान बंगले में एक कुंड (चौपड़ा) बना हुआ था। जो बहुत ही डरावना लगता था। जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ती थी तो तत्कालीन एक्सक्यूटिव इंजीनियर की बेटी मेरे साथ पढ़ती थी। अब मुझे उसका नाम तो स्मरण नहीं है किंतु वह बंगला ज़रूर याद है। हम दो-तीन बच्चे अपनी उस सहेली के पास खेलने जाया करते थे। मां से अनुमति लेते समय यह हर बार सुनने को मिलता था कि  "ठीक है जाओ ! लेकिन कुंड की तरफ मत जाना। उस में झांकना भी मत। उससे दूर रहना।"
     .. इतनी सारी हिदायतें देकर मां जाने की इजाजत देती थीं। वह वाकई बहुत गहरा कुंड था। उसमें कई सीढ़ियां थीं। उसकी गहराई का अंदाज़ा कम से कम उस समय तो नहीं लगाया जा सकता था। जाहिर है, मुझे उस कुंड से डर  लगता था और मैं उसके पास जाने से हिचकती थी।
         पीडब्ल्यूडी के एक्सक्यूटिव इंजीनियर के उस बंगले के सामने राजाओं के जमाने की पुरानी बड़ी-सी तोप की बैरल रखी हुई थी। हम लोग अक्सर उस पर  बैठा करते थे। उस बैरल का मुंह शहर की ओर था। मानो वह शहर की सीमाओं की रक्षा करने के लिए सदा कटिबद्ध हो । एक्सक्यूटिव इंजीनियर के बंगले से आगे आखरी बंगला डीएफओ का था। बहुत ही बड़ा-सा बंगला। जिसमें बहुत सारे पेड़ लगे हुए थे। इन सभी बंगलों के सामने गार्ड्स पहरा देते थे। लेकिन हम बच्चों के लिए कहीं कोई रोक-टोक नहीं थी। उस समय बहुत ही सीधा सरल माहौल था। वे गार्ड्स भी हमसे हंसते मुस्कुराते मिलते थे और कभी कभी कुछ खाने को भी दे दिया करते थे। कभी चॉकलेट तो कभी कोई फल।  तनिक भी डर या अविश्वास का माहौल नहीं था। हम लोग कभी-कभी सर्किट हाउस भी चले जाया करते थे। जब कोई अधिकारी वहां ठहरा नहीं रहता था और कमरे खाली पड़े रहते थे तो वहां के केयरटेकर हम बच्चों को कमरे में जाने की इजाजत दे दिया करते थे। लेकिन इस शर्त के साथ कि हम किसी भी चीज को हाथ नहीं लगाएंगे, कोई तोड़फोड़ नहीं करेंगे, किसी तरह की गंदगी नहीं फैलाएंगे। हमें उनकी सारी शर्तें मंजूर रहतीं। हम वहां दीवार पर लगे बड़े-बड़े दर्पणों में अपने आप को देखते और खुश होते। फिर बाहर आकर सर्किट हाउस के परिसर में कुछ देर खेलते और फिर लौट जाते। वहां से धर्म सागर तालाब भी दिखाई देता था। जोकि बहुत सुंदर दृश्य होता था।
      डीएफओ के बंगले के आगे भी रास्ता था जो पहाड़ की चोटी तक जाता था। लेकिन बंगले के आगे का रास्ता कच्चा था। उस रास्ते में आगे चलकर एक मजार स्थापित थी जो "मदार साहब" कहलाती थी। निश्चित रूप से यह "मजार साहब" का ही अपभ्रंश थी। उस मजार पर हमेशा सुनहरे किनारों वाली हरे रंग की चादर चढ़ी रहती थी और वह पूरा क्षेत्र लोबान की सुगंध से महकता रहता था। हर शुक्रवार कोई न कोई मुस्लिम परिवार चादर चढ़ाने मदार साहब जाया करता था। पूरे बाजे गाजे के साथ। विशेष रूप से जिसकी मन्नत पूरी होती थी वह हाथठेले पर चादर और चढ़ावा रखवा कर और लाउडस्पीकर पर गाना बजाते हुए जुलूस के रूप में जाता था। उसमें परिवार की महिलाएं, पुरुष और बच्चे सभी शामिल रहते थे। लाउडस्पीकर पर हमेशा एक ही गाना बजाया जाता था जो वास्तव में ख्वाजा की इबादत में गाए जाने वाली कव्वाली थी। वह कव्वाली मुझे बहुत अच्छी लगती थी। इसीलिए आज भी उसके बोल याद हैं -
"भर दो झोली मेरी या मोहम्मद
लौटकर मै न जाऊंगा खाली..."
        अब तो इस कव्वाली हो अनेक कव्वालों द्वारा गाया जा चुका है। पर उस समय जो कव्वाली बजती थी वह शायद साबरी ब्रदर्स के द्वारा गाई गई थी।
     मदार साहब की बहुत मान्यता थी। सिर्फ मुस्लिम नहीं बल्कि सभी धर्म के लोग वहां मन्नतें मांगने और चादर चढ़ाने जाया करते थे। मदार साहब से और ऊपर जाने पर पहाड़ की चोटी पर पहुंचते थे जो लगभग समतल स्थान था। वहां अनेक ध्वंसावशेष मौजूद थे जिनमें से एकाध तो इस प्रकार गोलाकार थे कि जिससे यह लगता था कि संभवत वहां कभी बौद्ध स्तूप रहा होगा। यद्यपि इसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं हैं। किंतु यह असंभव भी नहीं है।
           पहाड़ कोठी से नीचे उतरते समय घुमावदार रास्ता था। एक गहरा अंधा मोड़ और दूसरा खुला मोड़। दूसरे मोड़ पर हनुमान जी का मंदिर था। जोकि नीचे से ऊपर जाते समय पहले पड़ता था। पत्थर की फर्शी से ढंका हुआ बड़ा-सा आंगन। जो सड़क से 4-5 सीढ़ियां नीचे था । आंगन में एक ओर हनुमान जी की मढ़िया थी। उस मढ़िया की फटकी (छोटा दरवाजा) हमेशा खुली रहती थी। तीन ओर लोहे के सींखचे थे। उन दिनों न हनुमान जी को इंसानों का डर था और न इंसानों की नीयत में खोट थी कि वे वहां से कुछ चुराने का प्रयास करते। वैसे देखा जाए तो हनुमान जी की उस मढ़िया में चुराने लायक कुछ था ही नहीं। एक आदद पत्थर की मूर्ति थी जिसे पुजारी जी सुबह मुंह अंधेरे नहला-धुला कर, उस पर सिंदूर का लेप कर दिया करते थे। सिंदूर के लेप के ऊपर हनुमान जी के चेहरे पर बड़ी-बड़ी सुंदर दो आंखें चिपका दी जाती थीं। सुबह मंदिर में घंटे बजाकर पूजा की जाती और प्रसाद बांटा जाता। आमतौर पर नारियल और चिरौंजी दाने का। शाम को भी आरती और पूजा होती। विशेष रूप से मंगलवार और शनिवार को वहां मेले जैसी भीड़ जुड़ती थी। अनेक श्रद्धालु शुद्ध मावे के पेड़े, बेसन के लड्डू या भोग के लड्डू (जो सिर्फ पूजा में चढ़ावे के लिए ही बनाए जाते थे इसीलिए उन्हें भोग के लड्डू कहा जाता था) चढ़ाते थे। साथ में नारियल भी। हनुमान जी  को चढ़ाने के बाद शेष प्रसाद वहां उपस्थित बच्चों और बड़ों सभी में समान रूप से बांट दिया जाता था। अनेक बच्चे प्रसाद पाने के लालच में ही मंगलवार और शनिवार को मंदिर पहुंच जाया करते थे।
        हनुमान जी का मंदिर मेरे घर से अधिक दूर नहीं था। कई बार मैं, वर्षा दीदी और कॉलोनी के अन्य बच्चे मंदिर प्रांगण में खेलने चले जाया करते थे। मंदिर प्रांगण में एक चिल्ली का वृक्ष था। उस वृक्ष में गर्मी के मौसम में फल सूखकर उड़ने के लिए तैयार हो जाते थे। चिल्ली के बीज का स्वाद चार की चिरौंजी जैसा होता था। मैं और वर्षा दीदी मंदिर प्रांगण में जाकर ढेर सारी चिल्लियां बटोर किया करते थे। फिर घर आकर उनमें से बीज निकालकर खाया करते थे। मां समझाती थीं कि "ज्यादा बीज मत खा लेना नहीं तो पेट दुखेगा।" लेकिन बचपन में ऐसी हिदायतओं की भला किसे परवाह रहती है? वैसे भी बचपन में पाचन शक्ति भी तगड़ी होती है। खेलना, कूदना और सब कुछ पचा लेना, यही तो विशेषता होती है बचपन की। मैं तो यूं भी बचपन से ही खिलंदड़ी किस्म की थी। अवसर पाते ही घर से बाहर कॉलोनी के बच्चों के साथ खेलने जा पहुंचती और तब तक खेलती रहती जब तक मां डांट कर, वापस घर चलने को नहीं कहतीं। यद्यपि मां की आज्ञा की अवहेलना मैंने कभी नहीं की इसलिए पहली डांट पर ही सीधे घर का रास्ता पकड़ लेती।
        आज उन बचपन के दिनों से समयनं बहुत दूर आ चुका है। लेकिन हनुमान जी और मदार साहब के बीच के सौहार्द्र की छाप आज भी मेरे मानस में मौजूद है। शांति, अपनत्व और हरियाली का संदेश देती चिल्लियां आज भी मेरे मन के आंगन में उड़ती रहती हैं।       
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Thursday, January 30, 2025

बतकाव बिन्ना की | काए बिन्ना, कुंभ नहाबे जा रई के नईं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

❗️टोंक-टोंक कर उकसाने वालों को हादसे की घटना से सबक लेना चाहिए❗️🙏❗️
🚩 बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
काए बिन्ना, कुंभ नहाबे जा रई के नईं ?
    - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          ‘‘काए कुंभ जा रई के नईं बिन्ना?’’ भैयाजी ने मोए देखत साथ मोसे पूछी।
‘‘बस, आप ई रए गए हते जे पूछबे वारे, ने तो कोनऊं ऐसो ने बचो जोन ने मोसे जे सवाल ने करो होय।’’ मोय भौतई झुंझलाहट भई।
‘‘काय ई पूछे में का हो गओ? हमसे सोई सब जेई पूछ रए।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘जे का बात भई? जो सब कोऊ आप खों लपाड़ा लगाहें सो का आप मोए लपाड़ा जड़ दैहो?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। रामधई मोय भौतई गुस्सा आ रओ हतो।
‘‘तुमें काय को लपाड़ा लगा देबी? औ हम तो ऊंसई पूछ रए हते। तुम फजूल में गुस्सा भई जा रईं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कछू फजूल नईं! एक तो मैं ऊंसई जा नईं पा रई, ऊपे से सबई जने पूछ-पूछ के कटे पे उंगरिया टुच्च रए।’’ मैने कई।
‘‘सो, बिगड़ काए रईं? हम सोई कोन जा रए! एक तो मुतकी भीड़ औ ऊपे से ठंडी, कऊं तबीयत बिगर गई सो लेबे के देबे पर जैहें। औ, फेर बा ऊपर वारो सब जानत आए। ऊको पार लगाने हुइए तो बा ऊंसई पार लगा दैहे। तुम ने टेंसन लेओ।’’ भैयाजी ने मोय समझाई।
‘‘सई कै रए आप भैयाजी! अब सब कछू सब के बस में तो नईं रहत।’’ मैंने तनक तसल्ली से कई। काए से के मोए उनकी बात सुन के तनक अच्छो सो लगो।
‘‘देख तो बिन्ना, अपने पुराणन में कित्ती अच्छी-अच्छी किसां कई गई आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन किसां की कै रए आप?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे जेई कुंभ की किसां खों ले लेओ। कित्ती मजे की किसां आए। के समुन्दर में मंदार पर्बत खों मथानी बनाओ गओ और बासुकी नाग खों रस्सी घांई ऊमें लपेट के समुन्दर को मथबे की कोसिस करी गई। पर बा मंदार पर्बत तनऊं ने हलो। फेर बिष्णु भगवान ने कछुवा को रूप धरो औ बा मंदार पर्बत खों अपने पीठ पे धर लओ। कछुआ की ऊंची पीठ पे धरो पर्वत हलन लगो औ मथानी चलन लगी।’’ भैयाजी किसां सुनान लगे। मोय किसां पता रई, पर मैंने सोची के भैयाजी खों टोंकबे में उने अच्छो ने लगहे। सो उने किसां सुनान दई।
‘‘फेर का भओ के कां तो अमृत पाने के लाने समुन्दर मथो जा रओ हतो, पर उते तो हलाहल बिस निकर आओ। चाए देवता, चाए राच्छस सबरे घबड़ा गए। तब भगवान शिव आगे आए औ उन्ने कई के घबड़ाओ नईं, हम जे बिस पी लेबी। मनो जोन जो बा बिस भगवान शिव के पेट में चलो जातो तो बे लौं मर सकत्ते, सो उन्ने बा बिस अपने गले में रोक लओ। जोन से उनको गले को रंग नीलो पड़ गओ। औ बे तभई से नीलकण्ठ सोई कहान लगे। फेर देवता औ राच्छस हरांे ने मथबो सुरू कर दओ। कछू-कछू औ चीजें बी निकरीं, बाकी फेर अमरित को कलस निकर आओ। अब तो मच गई भगदड़। देवता औ राच्छस दोई में छीन-झपट्टा होन लगो। जा देख के देवता हरों ने इन्द्र के बेटा खों इसारो करो के बा अमरित को कलस ले के उते से दौड़ लगा दे। जयंत ने जेई करो। जा सीन राच्छसन के गुरू शुकराचार्य ने देख लओ औ उन्ने राच्छसन को बताओ के तुम ओरें इते गिचड़ रए औ उते इन्द्र को मोड़ा जयंत अमरित कलस ले के भगो जा रओ। जा सुन के सबरे राच्छस जयंत के पांछू दौड़े। देवता हरें जयंत खों बचाबे दौरे। फेर 12 दिन और 12 रातें देवताओं औ राच्छसों में खींब लड़ाई भई। जेई भागा‘-दौड़ी में कलस से अमरित की कछू बूंदें धरती पे गिरीं। पैली बूंद प्रयाग में गिरी, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी उज्जैन में औ चौथी नासिक में। जेई से उते हर बारा बरस में कुंभ को स्नान करो जात आए।’’ भैयाजी ने पूरी किसां सुना दई।
‘‘सई में कित्ती नोनी किसां आए जे। कैसो भओ हुइए जबें समुन्दर मथों गओ हुइए?’’ मैंने कई।
‘‘गजबई रओ हुइए। जा धरती तो मनो पूरी हल गई रई हुइए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ! मनो आगे की किसां बी कम नोईं। का भओ के बिष्णु ने सोची के ऐसे तो कोऊ खों अमरित ने मिल पाहे सो कोनऊं रास्ता निकारो जाए। जा सोच के बिष्णु भगवान ने मोहिनी को रूप धरो औ अमृत भए उते प्रकट हो गए। राच्छसन ने मोहिनी खों देखों तो बे देखतई रए गए। तब मोहिनी ने कई के तुम सब देवता औ राच्छस अलग-अलग लेन में बैठ जाओ। हम तुम दोई में अमरित बांटें दे रए। दोई पार्टी पंगत घांई दो लेन में बैठ गई। मोहिनी ने राच्छसन खों मोह लओ औ उते देवताओं खों अमरित बांटन लगी। उते स्वरभानु नांव खों एक राच्छस रओ जोन चोरी से देवताओं वारी लेन में जा के बैठ गओ औ अमरित पा गओ। सूरज औ चंदा ने ऊको पैचान लओ औ हल्ला मचा दओ। बिष्णु ने तुरतईं अपनो सुदर्सन चक्र चलाओ औ बा स्वरभानु के दो टुकड़ा कर दए। बाकी ऊनंे तो पी लओ तो अमरित, सो बा मर तो सकत नई तो। सो बा रहू औ केतु बन के जियत रओ। मनो ऊको जा बुरौ लगो हतो के सूरज और चंदा ने ऊको भेद खोल दओ रओ, सो बा तभई से ग्रहन बन के दोई खों परेसान करत रैत आए।’’ मैंने सोई आगे की किसां सुना दईं।
‘‘सई में कित्ती अच्छी-अच्छी किसां आए अपने पुराणन में। मनो आजकाल के बच्चा जे सब पढ़ोबोई नईं चात आएं। उने तो जे सब फिजूल की किसां लगत आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ! मनो भैयाजी, जे सब फिजूल की किसां नोंई। इने सुने से कल्पना करबे की सक्ति बढ़त आए। अपन ने एक दूसरे खों किसां सुनाई, जब आप सुना रए हते तो मोय दिखा रओ तो के समुन्दर खों कैसे मथो गऔ हुइए। औ जब मैं सुना रई हती तो आपको मोहिनी दिखात रई हुइए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सई में बा मोहिनी कित्ती सुंदर रई हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘को आ जे मोहिनी? कोन की बात कर रए आप ओरें?’’ तभई भौजी आ गईं औ उन्ने भैयाजी के मों से मोहिनी की तारीफें सुन लईं। 
‘‘अरे कछू नईं, बा तो हम ओरें...’’ भैयाजी ने बताबो चाहो के हम ओरे पुरान की किसां कै-सुन रए हते। पर भौजी बमक परीं।
‘‘हऔ, हमें सब पतो आए आप के लच्छन। बिन्ना से मोहिनी को पतो पूछ रए हते न?’’ भौजी बमकत भई बोलीं।
‘‘अरे नईं भौजी, हम ओरें तो भगवान बिष्णु के मोहिनी रूप की किसां कै रए हते।’’ मैंने तुरतईं कई।
‘‘सई में?’’ भौजी खों पूरो यकीन तो ने भओ मगर मोरे कहे पे तनक भरोसो सो भओ।
‘‘रामधई भौजी! पैले भैयाजी ने मोए समुद्र मंथन की किसां सुनाई औ फेर मैंने उने मोहिनी बनके बिष्णु भगवान के अमरित बांटबे की किसां सुनाई। सो भैया बोई मोहिनी रूप की बात कर रए हते।’’ मैंने भैयाजी खों बचाओ, ने तो बे खाली-पीली में बिंधे जा रए हते।
‘‘चलो तुम कै रईं, सो मान लई।’’ भौजी मुस्क्याती भई बोलीं। फेर उन्ने बोई बात पूछ लई जोन उने नई पूछने चाइए ती। उन्ने मोसे पूछी,’’काए बिन्ना तुम नईं जा रई कुंभ में नहाबे के लाने।’’
उनको जो पूछबो सुन के मोरी औ भैयाजी की हंसी फूट परी। जां से चले ते उतई आन पौंचे।
‘‘भौजी खों हमाई हंसी की समझ ने परी औ बे दूसरी बात करन लगीं।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में, के कुंभ जाने होय सो जरूर जाइयो, मनो ने जा पा रए हो तो दुखी ने होइयो। काए से के मन चंगा, सो कठौती में गंगा! काय सई आए के नईं? 
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Wednesday, January 29, 2025

चर्चा प्लस | पौराणिक महत्ता और गहरी आस्था समाई है कुंभ में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
चर्चा प्लस

पौराणिक महत्ता और गहरी आस्था समाई है कुंभ में   
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
      कुंभ का आकर्षण जनमानस के मन-मस्तिष्क पर सदा रहा है। यह एक प्राचीन उत्सव है जिसका धार्मिक महत्व भी बहुत अधिक है। मान्यता है कि प्रयागराज कुंभ में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कुंभ स्नान की प्राचीनता निर्विवाद है इसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। यहां तक कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में कुंभ मेले का उल्लेख किया है। कुंभ स्नान मुख्य रूप से मात्र चार स्थानों में होता है- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। हर 12 वर्ष बाद पूर्ण कुंभ होता है। इस वर्ष 2025 में प्रयाग में पूर्ण कुंभ स्नान चल रहा है जहां प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु स्नान कर रहे हैं।   
      कुंभ स्नान की प्राचीनता निर्विवाद है इसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। कुंभ स्नान मुख्य रूप से मात्र चार स्थानों में होता है- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। हर 12 वर्ष बाद पूर्ण कुंभ होता है। इस वर्ष 2025 में प्रयाग में पूर्ण कुंभ स्नान चल रहा है जहां प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु स्नान कर रहे हैं। यह आस्था एवं प्राचीनतम सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपरा का अनूठा उत्सव होता है। यद्यपि यह हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा आयोजन है किन्तु इसमें सभी जाति, धर्म, समुदाय के लोग शामिल होते हैं। यहां तक कि विदेशों से विभिन्न धर्म और मान्यताओं के लोग भी कुंभ में स्नान करने तथा अलौकिक अनुभूति करने कुंभ स्थल पर पहुंचते हैं। पौराणिक महत्ता और गहरी आस्था समाई है कुंभ में।

कुंभ स्नान के आरम्भ की कथा

कुंभ के आरंभ होने के संबंध में एक बड़ी रोचक कथा पाई जाती है। इस कथा के अनुसार जब सूर्य और असुर वासुकी नाग को रस्सी की तरह प्रयोग में लाते हुए समुद्र मंथन कर रहे थे उस दौरान समुद्र से अमरता को प्रदान वाला अमृत कलश निकला। जैसे ही समुद्र मंथन से अमृत निकला देवताओं के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर उड़ गया। इस पर गुरु शंकराचार्य के कहने पर दैत्यों ने जयंत का पीछा किया और काफी परिश्रम करने के बाद दैत्यों ने जयंत को पकड़ लिया और अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव और राक्षसों में 12 दिन तक भयानक युद्ध चला रहा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों पर अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे गिरी थीं। जिनमें से पहली बूंद प्रयाग में, दूसरी हरिद्वार में, तीसरी बूंद उज्जैन और चौथी नासिक में गिरी थी। इसीलिए इन्हीं चार जगहों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार देवताओं के 12 दिन, पृथ्वी पर 12 साल के बराबर होते हैं। इसलिए हर 12 साल में महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है।
हर्षवर्द्धन कालीन ग्रंथों के अनुसार पहले कुंभ का विधिवत आयोजन राजा हर्षवर्द्धन के राज्यकाल (664 ईसा पूर्व) में आरंभ हुआ था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रावृतांत में बहुत बड़े मेले का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः ह्वेनसांग हर्षवर्द्धन का उल्लेख करते हुए राजा हर्षवर्द्धन हर पांच साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे, जिसमें वे अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों में दान कर दिया करते थे। विद्वानों द्वारा की गई गणना के अनुसार वह निश्चित रूप से कुंभ का ही आयोजन होता था क्यों कि गणना के अनुसार उन तिथियों को कुंभ का समय पड़ा था। राशि की गणना के अनुसार प्रथम विचार है कि बृहस्पति के कुंभ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा के किनारे पर कुंभ का आयोजन होता है। दूसरे विचार के अनुसार जब बृहस्पति के मेष राशि में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चंद्र के मकर राशि में होने पर अमावस्या के दिन प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुंभ का आयोजन होता है। तीसरे विचार के अनुसार कुंभ बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में आने पर नासिक में गोदावरी के किनारे पर कुंभ का आयोजन होता है और बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट पर कुंभ का आयोजन होता है।
इसमें संदेह नहीं किया जा सकता है कि हर्षवर्द्धन के समय जिस बड़े मेले, स्नान एवं दान का उल्लेख ळ्वेनसांग ने किया है वह कुंभ ही रहा होगा। यह संभव है कि हर्षवर्द्धन के काल के पूर्व भी कुंभ का आयोजन होता रहा होगा।

कुंभ की प्राचीनता

कुंभ का इतिहास हिंदू धर्म के ग्रंथों में बेहद प्राचीन है। सन 2017 में यूनेस्कों ने कुंभ मेले को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक. सूची में स्थान दिया है। 
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि राम अपने वनवास काल में जब ऋषि भारद्वज से मिलने गए तो वार्तालाप में ऋषिवर ने कहा कि हे राम, गंगा-यमुना के संगम का जो स्थान है वह बहुत ही पवित्र है आप वहां भी रह सकते हैं। ‘‘रामचरितमानस’’ में प्रयागराज के महत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
माघ मकरगल रवि जब होई। 
तीरर्थ पतिहिं आव सब कोई।। 
देव दनुज किन्त्र नर श्रेनी। 
सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी।। 
पूजहिं माधव पद जल जाता। 
परसि अठैवट हरषहिं गाता।। 
भरद्वाज आश्रम अति पावन। 
परम रम्य मुनिवर मन भावन।।
तहां होड़ मुनि रिसय समाजा। 
जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा ।।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार प्रयाग को प्रयागराज कहे जाने की भी एक रोचक कथा है जो शेषनाग ने ऋषि को बताई थी। एक बार शेषनाग से ऋषि ने प्रश्न किया था कि प्रयागराज को तीर्थराज क्यों कहा जाता है? इस पर शेषनाग ने उत्तर दिया कि एक बार सभी तीर्थों की श्रेष्ठता की तुलना की जाने लगी, उस समय भारत में समस्त तीर्थों की तुला के एक पलड़े पर रखा गया और प्रयाग को दूसरे पलड़े पर, फिर भी प्रयाग का पलड़ा भारी पड़ गया। दूसरी बार सप्तपुरियों को एक पलड़े में रखा गया और प्रयाग को दूसरे पलड़े पर, दूसरी बार भी प्रयागराज वाला पलड़ा भारी रहा। इसके बाद प्रयाग की को तीर्थों का राजा अर्थात प्रयागराज कहा जाने लगा। त्रिवेणी संगम इसके महत्व को द्विगुणित कर देता है।
मत्स्य पुराण के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार ऋषि मार्कण्डेय से पूछा कि ऋषिवर यह बताएं कि प्रयागराज क्यों जाना चाहिए और वहां संगम स्नान का क्या फल है? इस पर ऋषि मार्कण्डेय ने कहा कि प्रयागराज प्रजापति का क्षेत्र है जो तीनों लोकों में विख्यात है।यहां पर स्नान करने वाले विभिन्न दिव्यलोक को प्राप्त करते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। पद्म पुराण के अनुसार प्रयाग वह यज्ञ भूमि है, देवताओं को विशेष प्रिय है। 

कुंभ की तिथियों की गणना

सूर्य की स्थिति के अनुसार कुंभ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं। आरम्भ प्रयागराज से होता है। मेष के सूर्य में हरिद्वार, तुला के सूर्य में उज्जैन और कर्क के सूर्य में नासिक का कुंभ पर्व पड़ता है। अथर्ववेद के अनुसार मनुष्य को सर्व सुख देने वाला पर्व है कुंभ। संक्रांति के पूर्व और बाद की 16 घड़ियों में पुण्यकाल माना गया है। मुहूर्त तिथि आधी रात से पहले हो तो पहले दिन तीसरे पहर में पुण्यकाल बताया गया है और यदि मुहूर्त तिथि आधी रात के बाद हो तो पुण्यकाल प्रातःकाल माना जाता है। इसके अलावा मकर संक्रांति का पुण्यकाल 40 घड़ी, कर्क संक्रांति का पुण्यकाल 30 घड़ी और तुला एवं मेष का संक्रांति का पुण्यकाल 20-20 घड़ी पहले और बाद में बताया गया है। प्रयाग में माघ के महीने में विशेष रूप से कुंभ के अवसर पर गंगा, यमुना एवं गुप्त सरस्वती के संगम में स्नान का बहुत ही महत्व होता है। 
कुंभ में स्नान पर्व का भी अपना महत्व होता है। यही कारण है कि इस वर्ष 2025 के कुंभ में भी देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु प्रतिदिन प्रयागराज पहुंच कर स्नान कर रहे हैं। वस्तुतः कुंभ स्नान का समय भीड़ प्रबंधन के लिए विकट चुनौती भरा होता है। देखा जाए तो यह प्रशासनिक तबके के लिए परीक्षा की घड़ी होती है। किन्तु जैसाकि कहा जाता है कि यदि उद्देश्य सही हो तो ईश्वर भी सहायता करता है अतः प्रत्येक कुंभ में भीड़ प्रबंधन सुचारु रूप से संचालित हो जाता है और इस बार भी प्रयागराज ही नहीं वरन वहां तक पहुंचने में मार्ग में पड़ने वाले स्थानों में भी भरपूर व्यवस्था की गई है।             
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Tuesday, January 28, 2025

पुस्तक समीक्षा | छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए उपयोगी है यह ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 28.01.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित 
पुस्तक समीक्षा  
छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए उपयोगी है यह ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’’
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक       - हिन्दी साहित्य का इतिहास
संपादन      - डाॅ. घनश्याम भारती
प्रकाशक     - जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053        
मूल्य        - 995/- 
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       16 जुलाई 1978 को जन्मे डॉ घनश्याम भारती एक युवा प्राध्यापक है जो महाविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए सतत शोध कार्य एवं लेखन व संपादन से जुड़े हुए हैं। उनके 60 से अधिक शोध-पत्र राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। अब तक उनकी कई पुस्तक के प्रकाशित हो चुकी है जिनमें - रांगेय राघव के कथा-साहित्य में लोकजीवन, शोध और समीक्षा के विविध आयाम, समय-समाज-साहित्यरू एक परिशीलन, सत्य से साक्षात्कार के कवि निर्मल चन्द निर्मल, व्यक्तित्व-भाषा-मीडियाः एक अनुशीलन, हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियाँ, रामकथा का वैश्विक परिदृश्य, वैश्विक जीवन मूल्य और रामकथा, लोकजीवन में रामकथा, मानक साहित्यिक निबंध, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, अतुल्य भारत: संस्कृति और राष्ट्र, महात्मा गांधी का समग्र जीवन-दर्शन, चक्रव्यूह, महामारी कोरोना एक रहस्य, साहित्य में पर्यावरण विमर्श, महात्मा गांधी: विविध संदर्भ, नारी विमर्श विविध संदर्भ, साहित्य में स्त्री-विमर्श, मानव जीवन और कोरोनारू बौद्धिक संदर्भ में, साहित्य में राष्ट्रीय चेतना, आपदा प्रबंधन और संचार माध्यम, साहित्य में राष्ट्रबोध, साहित्य विविध विमर्श, दलित चेतना के स्वर, दलित साहित्य वैचारिक चेतना अयोध्या की महिमा, भाषा और साहित्य शिक्षण, विश्व साहित्य में श्रीराम, मध्यकालीन हिंदी साहित्य, ऊर्जा संरक्षण चुनौतियाँ और समाधान, आपदा प्रबंधन में राष्ट्रीय सेवा योजना की भूमिका, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नई शिक्षा नीति-2020: विविध आयाम आदि प्रमुख हैं।
        डॉ घनश्याम भारती की उनके द्वारा संपादित नवीनतम पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास के विविध आयामों से जोड़ने में सक्षम है क्योंकि इसमें विभिन्न महाविद्यालयों में कार्यरत हिंदी शिक्षकों एवं विद्वानों के आलेखों का संग्रह है। हिंदी साहित्य के इतिहास का लेखन हमेशा नवीन  दृष्टि की मांग करता रहा है।    
          कई बार इस बात पर भी प्रश्न किया जाता है की क्या हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा जाना आवश्यक है? तो इसका उत्तर यही है कि यह बहुत आवश्यक है क्योंकि इससे साहित्य की प्रवृत्तियों और समाज के विकास को समझने में सहायता मिलती है। किसी भी भाषा के साहित्य का इतिहास मात्र उस भाषा के साहित्य तक ही सीमित नहीं रहता है अपितु उसे लिखे जाने के देशकाल एवं परिस्थितियों का भी इतिहास उसमें दर्ज होता है अतः साहित्य के इतिहास के लेखन की अर्थवत्ता को नकारा नहीं जा सकता है। 
         हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। 19 वीं सदी में गार्सां द तासी का ‘‘इस्तवार द ला लित्रेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’’, शिवसिंह सेंगर का ‘‘शिवसिंह सरोज’’ आदि ने हिंदी साहित्य के इतिहास के आरंभिक चरण को स्पर्श किया। फिर जॉर्ज ग्रियर्सन  ने “मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान” लिखकर हिंदी साहित्य के इतिहास को एक निश्चित खाका प्रदान किया। वहीं मिश्रबंधु “मिश्रबंधु विनोद” को हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को आरंभिक इतिहास लेखन की श्रेणी में रखा जा सकता है। यद्यपि विद्वानों के अनुसार इन दोनों ग्रंथों में इतिहास बोध के गहन तत्व नहीं थे। इसी क्रम में रामचंद्र शुक्ल का ‘‘हिंदी साहित्य का इतिहास’’ आया जिसने हिंदी साहित्य के इतिहास के क्षेत्र में विश्वसनीय ढंग से अपने उपस्थिति जताई। रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास लेखन में देश, काल और वातावरण को सर्वाधिक महत्व दिया। देश, काल और वातावरण के प्रभाव को साहित्य में स्वीकार करते हुए रामचंद्र शुक्ल लिखा कि, ‘‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।’’ 
         हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’’, ‘‘हिंदी साहित्य की भूमिका’’ तथा ‘‘हिंदी साहित्य रू उद्भव और विकास’’ के द्वारा हिंदी साहित्य लेखन की परंपरा को रामचंद्र शुक्ल से आगे बढ़ाया।  हजारी प्रसाद द्विवेदी  ने वैज्ञानिक विश्लेषण और वर्गीकरण पर संश्लेषण और समग्रता के आधार पर साहित्य के मूल्यांकन में मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाया। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में जो काल विभाजन किया गया है वह है - आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल एवं आधुनिक काल। किंतु काल विभाजन की इस स्थिति पर हमेशा विद्वानों में मतभेद होता रहा है।
        डाॅ घनश्याम भारती द्वारा संपादित ‘‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’’ हिन्दी साहित्य पर विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे गए शोधपत्रों का संकलन है जिन्हें उन्होंने अपने सुचारु संपादन के द्वारा एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया है। चूंकि इस पुस्तक में हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखण्डों तथा उनसे संबंधित पूर्व विचारको एवं उनकी पुस्तकों पर केन्द्रित लेख हैं अतः यह छात्रों एवे शोधार्थियों के लिए विशेष महत्व की पुस्तक है। यह पुस्तक हिन्दी इतिहास पर आधारित विभिन्न दृष्टिकोणों का एक उत्तम संकलन है। पुस्तक की प्रथम भूमिका आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविज्ञानी, समीक्षक एवं मीडियाध्ययन-विशेषज्ञ), प्रयागराज ने लिखी है तथा द्वितीय भूमिका डॉ, आनन्दप्रकाश त्रिपाठी, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर (मध्यप्रदेश) द्वारा लिखी गई है। पुस्तक की अवधारणा पर इस पुस्तक के संपादक डॉ. घनश्याम भारती ने प्रकाश डाला है।
          पुस्तक में चार विषय खण्डों में कुल 33 लेख हैं। प्रथम खण्ड - पूर्व-पीठिका एवं आदिकाल में चार अध्याय हैं- अध्याय 1 - हिन्दी साहित्य में इतिहास लेखन की परम्परा -डॉ. ओकेन्द्र, अध्याय 2 आदिकाल - विविध संदर्भ -राजकुमार अहिरवार, अध्याय 3- आदिकाल की प्रवृत्तियाँ- शिवलाल अहिरवार तथा अध्याय 4- आदिकालीन रासो काव्य-परम्परा - डॉ. संजीव विश्वकर्मा द्वारा लिखित शोध आलेख के रूप में।
        द्वितीय खण्ड पूर्व-मध्यकाल अथवा भक्तिकाल में अध्याय 05 से 12 तक हैं। अध्याय 5 भक्तिकाल की शाखाएँ- प्रसादराव जामि, अध्याय 6 भक्ति-आंदोलन की अवधारणा- डॉ. सविता मरावी, अध्याय 7 भक्तिकाल रू हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग डॉ. के.सी. जैन, अध्याय 8 संत (ज्ञान मार्गी) काव्यधारा का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ - रेखा मौर्या, अध्याय 9 - सूफी (प्रेमाश्रयी) काव्यधारा का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ - रेखा मौर्या, अध्याय 10 - भक्तिकाल और बुन्देलखण्ड के कवि- राजीव नामदेव, अध्याय 11 - अष्टछाप के कवि और उनका साहित्यिक योगदान - डॉ. सीताराम आठिया, अध्याय 12 भक्तिकाल: एक मूल्यांकन- डॉ. बारेलाल जैन द्वारा लिखित।
तृतीय खण्ड उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल में अध्याय 13 के रूप में मात्र एक लेख है जो डॉ. नेहा राठी द्वारा लिखा गया है। इसका शीर्षक है-‘‘रीतिकाल: नामकरण, प्रवृत्तियाँ, काव्यधाराएँ एवं प्रमुख कवि’’। 
चतुर्थ खण्ड आधुनिक काल में अध्याय 14 से 33 तक है। यह सबसे समृद्ध खण्ड कहा जा सकता है। अध्याय 14 में भारतेन्दु युग का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ - पूजा शर्मा, अध्याय 15 में द्विवेदी युग का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ- पूजा शर्मा, अध्याय 16 में छायावाद: कवि, कृतियाँ एवं प्रवृत्तियाँ - श्रीमती सीमा तोमर, अध्याय 17 में हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की अवधारणा रू सिद्धांत और व्यवहार- आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय, अध्याय 18 में प्रगतिवाद का स्वरूप एवं प्रवृत्तियाँ, डॉ. शिवकुमार व्यास, अध्याय 19 में हिन्दी-साहित्य में राष्ट्रीय चेतना- डॉ. चारु सिंघई, अध्याय 20 में नयी कवित्ता का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ प्रियांशी गुप्ता, पंचम खण्ड गद्य-साहित्य, अध्याय 21 में हिन्दी-नाटक का उद्भव एवं विकास डॉ. रश्मि जैन, अध्याय 22 में हिन्दी एकांकी का उद्भव एवं विकास डॉ. सुनीता कुमारी, अध्याय 23 में हिन्दी उपन्यास की विकास-यात्रा डॉ. सुनील कुमार, अध्याय 24 में हिन्दी कहानी का उद्भव एवं विकास डॉ. सुरेश आचार्य, अध्याय 25 में हिन्दी कहानी के भेद एवं शैलियाँ डॉ. घनश्याम भारती, अध्याय 26 में कहानी के तत्त्व डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, अध्याय 27 में हिन्दी निबंध का स्वरूप और विकास डॉ. घनश्याम भारती, अध्याय 28 में ललित निबंध का स्वरूप डॉ. आरती जैन, अध्याय 29 में हिन्दी आलोचना का उद्भव एवं विकास आशा राठौर, अध्याय 30 में हिन्दी- आत्मकथा का उद्भव एवं विकास डॉ. नीलम जैन, अध्याय 31 में हिन्दी-संस्मरण का उद्भव एवं विकास डॉ. प्रतिमा उपाध्याय, अध्याय 32 में पत्रकारिता का उद्भव एवं विकास- डॉ. ममता जैन, अध्याय 33 में व्यंग्य का उद्भव और विकास - डॉ. विजय पाटिल लेख हैं। 
        कुल चार लेख प्रथम खंड में, कुल आठ लेख द्वितीय खंड में तथा तृतीय खंड में कुल एक लेख है जबकि बीस लेख चतुर्थ खंड में होना कालखंड के विषयांतर्गत तनिक असंतुलन युक्त है। प्रथम खण्ड - पूर्व-पीठिका एवं आदिकाल, द्वितीय खण्ड पूर्व-मध्यकाल अथवा भक्तिकाल तथा तृतीय खण्ड उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास में कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। तृतीय खण्ड उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल में मात्र एक लेख है - ‘‘रीतिकाल: नामकरण, प्रवृत्तियाँ, काव्यधाराएँ एवं प्रमुख कवि’’ जिसे डॉ. नेहा राठी ने लिखा है तथा उन्होंने सम्पूर्ण रीतिकालीन साहित्य पर एक संक्षिप्त दृष्टि डाली है तथा रीतिकाल को समग्रता से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है किन्तु इस खण्ड में कुछ लेख और होने चाहिए थे। इससे रीतिकाल पर दृष्टिकोण की विवधता का समावेश हो पाता। 
        वैसे एक तथ्य यहां उल्लेखनीय है कि बहुधा संपादकों को आलेख संग्रहण में विकट बाधाओं का सामना करना पड़ता है। जब वे लेख मंगाते हैं तो कुछ लेखक तत्परता से लेख भेज देते हैं, कुछ विलम्ब से और कुछ मना भी नहीं करते हैं और प्रेषित भी नहीं करते हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ कारण उत्पन्न हुआ होगा दो विशेष कालखंडों में लेख की कमी होने का। किन्तु सम्पूर्णता से देखा जाए तो यह पुस्तक अध्ययनरत छात्रों, शोधकर्ताओं एवं हिन्दी साहित्य के इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए बहुत उपयोगी है। डाॅ. घनश्याम भारती ने इस पुस्तक का संपादन कर के हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रति अद्यतन वैचारिक दृष्टिकोण को संकलित कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। विशेष रूप से उस समय जब इस तरह के लेखन एवं संपादन में हिन्दी के विद्वानों की रुचि कम होती जा रही है।                   
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Monday, January 27, 2025

डॉ. (सुश्री) शरद सिंह मासिक धर्म स्वच्छता पर चित्रकला प्रतियोगिता, प्रदर्शनी में विशिष्ठ अतिथि

"प्रत्येक माता को चाहिए कि वह मासिक धर्म आरंभ होने की आयु के पूर्व ही बालिकाओं को उसके संबंध में कुछ जानकारी दें, ताकि जब मासिक धर्म अचानक आरंभ हो तो वह घबराएं नहीं और सदमे की स्थिति में न पहुंचें। इसी तरह युवकों को भी मासिक धर्म से संबंधित जानकारी दिए जाने की आवश्यकता है जिससे वह आगे चलकर एक अच्छे समझदार जीवनसाथी साबित हो सकें। रीयूजेबल सेनेटरी पेड्स को बढ़ावा दिया जाना अच्छा है इससे कचरा प्रबंधन के लिए सुविधा होगी लेकिन इसके साथ ही रीयूजेबल सैनिटरी पैड्स को पॉकेट फ्रेंडली यानी सस्ता भी होना चाहिए। चाहे इसके लिए सरकार द्वारा सब्सिडी की व्यवस्था की जाए, ताकि निम्न मध्यम वर्ग के लोग भी इसे अफोर्ड कर सकें। मैं बधाई देती हूं आज संगिनी संस्था को कि जिन्होंने समाज में टैबू माने जाने वाले विषय पर पेंटिंग प्रतियोगिता एवं प्रदर्शनी आयोजित की तथा वे सभी कलाकार जिनमें एक युवक भी शामिल है, बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने उन्मुक्त होकर अपने विचारों को संदेश के रूप में चित्रों में उतारा।" मैंने ये विचार अपने उद्बोधन के दौरान बतौर विशिष्ट अतिथि व्यक्त किए। साथ ही मैंने मासिक धर्म से जुड़ी समस्या के कुछ यथार्थ अनुभव भी साझा किए।
       गणतंत्र दिवस के अवसर पर आस संगिनी संस्था एवं कला भवन के संयुक्त तत्वाधान में "मासिक धर्म, स्वच्छता, समझ और जागरुकता" पर चित्रकला प्रतियोगिता एवं प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस आयोजन में बतौर विशिष्ट अतिथि श्रीमती संगीता सुशील तिवारी महापौर सागर नगर, श्रीमती अनु शैलेन्द्र जैन समाजसेवी तथा डॉ (सुश्री) शरद सिंह यानी मैंने अपना उद्बोधन दिया।
       प्रकाशा क्लीनिक, सिविल लाइंस के परिसर में 50 से अधिक पोस्टर पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया गया। इस अवसर पर विजेता कलाकारों को सर्टिफिकेट एवं उपहार देकर सम्मानित भी किया गया।
     उल्लेखनीय है कि  आस संगिनी संस्था के अध्यक्ष डॉ. अमित जैन, उपाध्यक्ष श्रीमति स्वाती हलवे, सचिव डॉ. स्मिता दुबे, कोषाध्यक्ष श्री इन्द्रेश पाण्डे तथा सदस्य रामकुमार ठाकुर, कु. धरनी हलवे, कु. अभीप्री दुबे हैं। 
       कला-निर्णायक थीं शहर की जानी-मानी गाइनेकोलॉजिस्ट डॉ निधि मिश्रा। विशेष सहयोग रहा श्री प्रफुल्ल हलवे जी का।
    यहां साझा कर रही हूं आयोजन के कुछ दृश्य एवं कुछ पेंटिंग्स 👇
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Dr (Ms) Sharad Singh as special guest at Painting exhibition on

Sunday, January 26, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह का गणतंत्र दिवस कवि गोष्ठी में काव्यपाठ

आजादी  का  भान  कराता  है गणतंत्र हमारा।
दुनिया भर  में  मान  बढ़ाता  है गणतंत्र हमारा।
खुल कर बोलें, खुल कर लिक्खें, खुल कर जीवन जी लें,
सबको ये अधिकार  दिलाता  है गणतंत्र हमारा।
      👆❗️🇮🇳 यह पंक्तियां मेरी उस रचना की है जो मैंने आज गणतंत्र दिवस कवि गोष्ठी में पढ़ी।🙏🇮🇳
      हिन्दी साहित्य भारती, इकाई- सागर (म.प्र.) द्वारा गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में देश प्रेम से ओतप्रोत कवि गोष्ठी का सफल आयोजन किया गया। आयोजन की अध्यक्षता की गीत ऋषि डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी ने तथा मुख्य अतिथि थे डॉ अजय तिवारी कुलाधिपति स्वामी विवेकानंद विश्वविद्यालय सागर।
             स्वामी विवेकानंद अकादमी, गोपालगंज सागर के सभागार में आयोजित इस गोष्ठी का संचालन वरिष्ठ साहित्यकार श्री आर के तिवारी जी ने किया तथा स्वागत भाषण दिया हिन्दी साहित्य भारती सागर के अध्यक्ष श्री अंबिका यादव जी ने। श्यामलम अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्र जी की उल्लेखनीय उपस्थिति रही। श्री कपिल बैसाखिया, डॉ चंचला दवे, कुमार सागर, कपिल चौबे, पी आर मलैया, पूरन सिंह राजपूत, रचना 'रची', सुश्री द्विवेदी आदि नगर के प्रमुख कवि, कवित्रियों ने अपनी रचनाएं पढ़ीं।
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