चर्चा प्लस
बाबा नागार्जुन का स्त्री विमर्श समझातीं उनकी सात नायिकाएं
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
कवि स्वाभिमान के प्रतीक बाबा नागार्जुन को कविताओं के लिए जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी ही सराहना मिली उनके कथा साहित्य को। नागार्जुन की कथा नायिकाओं में गहरा स्त्रीविमर्श है। उन्होंने समाज में स्त्री की दशा को परख-परख कर लिखा। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जांचा और परखा था। गंाव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहां परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहां स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। सामाजिक अथवा पारिवारिक मुद्दों पर पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी दूषित मानसिकता की भत्र्सना की। बाबा नागार्जुन के स्त्री विमर्श को समझने के लिए की उनकी इन सात नायिकाओं को जानना जरूरी है।
नागार्जुन मानवीय संवेदना के चितेरे उपन्यासकार थे। उनके कथा साहित्य में जहां एक ओर बिहार के मिथिलांचल के ग्राम्य जीवन, सामाजिक समस्याओं, राजनीतिक आन्दोलनों एवं सांस्कृतिक जीवन की अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है वहीं उनके उपन्यासों में मानवीय दशाओं एवं चरित्रों का अद्भुत खरापन उभर कर सामने आता है। जिस वातावरण से उनके कथा-पात्र आते हैं उसी वातावरण का निर्वहन समूची कथावस्तु-विस्तार में होता चलता है। नागार्जुन के कथा समाज में स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां, वर्ण और जातिगत भेद, सम्पन्न-विपन्न तथा पोषण एवं शोषण के ऐसे पारदर्शी चित्र चित्रित मिलते हैं कि जिनके आर-पार देखते हुए समाज की बुनियादी दशाओं को बखूबी टटोला तथा परखा जा सकता है। कवि स्वाभिमान के प्रतीक बाबा नागार्जुन को कविताओं के लिए जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी ही सराहना मिली उनके कथा साहित्य को। नागार्जुन की कथा नायिकाओं में गहरा स्त्रीविमर्श है। उन्होंने समाज में स्त्री की दशा को परख-परख कर लिखा। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जंाचा और परखा था। गंाव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहंा परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहंा स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। सामाजिक अथवा पारिवारिक मुद्दों पर पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी दूषित मानसिकता की भत्र्सना की। बाबा नागार्जुन के स्त्री विमर्श को समझने के लिए की उनकी इन सात नायिकाओं को जानना जरूरी है। ये नायिकाएं हैं- गौरी, मधुरी, बिसेसरी, चम्पा, भुवन, इमरतिया और पारो।
गौरी: ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास की नायिका है गौरी। गौरी के व्यक्तित्व में विपरीतध्रुवीय दो पक्ष दिखायी देते हैं। एक पक्ष में गौरी एक परम्परागत् गृहस्थ स्त्री के रूप में सामने आती है। जो अधेड़ रोगी पति की मृत्यु के कारण विधवा हो जाती है। अपने दुष्कर्मी देवर जयनाथ की कामवासना की शिकार होती है। उसके जीवन में दुखों का अंत यहीं नहीं होता, गर्भवती गौरी को सामाजिक अपमान सहन करना पड़ता है। अन्य औरतें उसे व्यभिचारिणी और कुलटा कहती हैं। इतना ही नहीं उसका अपना बेटा उमानाथ अपने पिता की बरसी पर जब घर आता है तो वह मां को चरित्रहीन मान कर उसके बाल पकड़ कर खींचता है तथा पैरों से ठोकर मारता है। गौरी एक परम्परागत गृहणी की भांति हर तरह का अपमान एवं मार-पीट सहती रहती है। गौरी का दूसरा पक्ष ठीक विपरीत है। अपने दूसरे पक्ष में वह एक जागरूक स़्त्री के रूप में दिखायी पड़ती है। गांव में मलेरिया फैलने पर मलेरिया की मुफ्त दवा बंाटती है, जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष करने वाली क्रांतिकारी किसान सभा संगठन में अपना दो साल पुराना फटा कम्बल दे कर सहायता करती है तथा अखिल भारतीय सूत प्रतियोगिता में अव्वल आती है। यह जागरूक गौरी अपने सगे पुत्र से मिलने वाला अपमान पी कर अपने भतीजे रतिनाथ पर ममता उंढ़ेलती है। इस प्रकार नागार्जुन ने गौरी के रूप में बताया है कि एक भारतीय स्त्री अपने व्यक्तित्व को अलग-अलग कई खानों में बंाट कर भी संघर्षरत रहती है। वस्तुतः यह संघर्ष ही उसके व्यक्तित्व के तमाम हिस्सों को एक सूत्र में बांधे रहता है।
मधुरी: दूसरी नायिका है मधुरी जो ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह खुरखुन की बड़ी बेटी है। वह देखने में सामान्य युवती है। उसका कद मझोला है। उसका मंगल नाम के युवक से प्रेम संबंध था, किन्तु विवाह के बाद वह इस संबंध को स्थगित कर देना ही उचित समझती है। यही मधुरी मछुआरों के साथ जमींदारी का विरोध करती है, तो उसमें एक ऐसी स्त्री की छवि दिखाई पड़ती है जो समाज के आदर्श रूप की पक्षधर है, जो अन्याय का विरोध करने का साहस रखती है और जिसे निम्न वर्ग की भलाई की चिन्ता है। मधुरी का व्यक्तित्व और चरित्र स्पष्ट दो भागों में बंटा दिखायी देता है। पहला भाग मधुरी के विवाह के पहले का है जिसमें वह एक प्रेयसी एवं अल्हड़ युवती है। जिसके क्रियाकलाप यह सवाल खड़ा करते हैं कि क्या वह कभी किसी संकट का सामना कर सकेगी अथवा किसी संघर्ष को आकार दे सकेगी? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में मधुरी के जीवन का दूसरा पक्ष सामने आता हैं। जिसमें वह जन चेतना की अलख जगाती दिखायी पड़ती है। वह स्वयं पुलिसियान के पिछले छोर पर खड़ी हो कर, दाहिना हाथ घुमा-घुमा कर नारे लगाती है और मछुआरा संघ के लोगों का उत्साहवर्द्धन करती है। इस प्रकार नागार्जुन इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि एक स़्त्री समय और परिस्थिति की आवश्यकता के अनुरूप स्वयं को किस प्रकार ढाल लेती है। यह नागार्जुन के सूक्ष्म आकलन-दृष्टि का कमाल है।
बिसेसरी: बिसेसरी ‘नई पौध’ उपन्यास की प्रमुख नारी पात्र है। यूं तो इस उपन्यास में कोई भी नारी पात्र नायिका के रूप में नहीं है, किन्तु बिसेसरी रूपी पात्र कथानक में नायिका के समान उभरता है। बिसेसरी पिताविहीन गरीब घर की कन्या है। उसका नाना नौ सौ रुपए के बदले उसका बेमेल विवाह कराना चाहता है, जिससे वह व्याकुल हो उठती है। इसी के साथ बिसेसरी में वह स़्त्री प्रकट होती है जो सामंती परम्पराओं, रूढ़ियों और थोथी नैतिकता की बलिवेदी पर स्त्रियों को चढ़ाए जाने की कट्टर विरोधी है। यह चेतनासम्पन्न बिसेसरी गांव के प्रगतिशील युवकों की सहायता से बेमेल विवाह का विरोध करती है।
चम्पा: चम्पा ‘कुम्भीपाक’ उपन्यास की वह प्रमुख नायिका है, जिसका स्थान इसी उपन्यास की दूसरी नायिका भुवन के बराबर है। ‘कुम्भीपाक’ में नागार्जुन ने वेश्यावृत्ति के दलदल में झोंक दी जाने वाली स्त्रियों की लाचारी को बड़ी ही बारीकी से प्रस्तुत किया है। चम्पा एक सुन्दर स्त्री है। वह अपने जीजा की कामवासना का शिकार होती है। चम्पा अपने जीवन की त्रासदी के बारे में बताती हुई कहती है कि ‘जीजा ने मुझे कुलसुम, सरदार जी ने सतवंत कौर और शर्मा जी ने चम्पा बनाया’। इस प्रकार वह अपने जीवन के कुम्भीपाक होने के तथ्य को एक वाक्य में उजागर कर देती है। चम्पा के जीवन में आने वाले परिवर्तन के द्वारा नागार्जुन ने यह सिद्ध किया है कि यदि घोर अनैतिक कार्यों में लिप्त स्त्री को उचित अवसर मिले तो वह स्वयं को सच्चरित्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित कर सकती है। क्या ऐसा सचमुच सम्भव है ? इसी प्रश्न का उत्तर नागार्जुन चम्पा के रूप में देते हैं।
भुवन: भुवन चम्पा के समकक्ष ‘कुम्भीपाक’ की नायिका है। उसका असली नाम इंदिरा था। वह जिला मुंगेर में पैदा हुई थी। सम्पन्न परिवार की थी। उसका पति पायलेट था, जो विवाह के कुछ माह बाद ही हवाई दुर्घटना में मारा गया। भुवन पति की मृत्यु के समय चार माह की गर्भवती थी। एक रिश्तेदार चिकित्सा कराने बहाने उसे आसनसोल ले गया और वहीं एक धर्मशाला में अकेली छेाड़ कर भाग गया। इसके बाद भुवन का जीवन उसी कुम्भीपाक में जा समाया, जहां चम्पा रहती थी। जल्दी ही भुवन को इस बात का अनुभव होता है कि जिस दलदल में वह रह रही है उसमें भविष्य नाम की कोई चीज नहीं है। वह कुम्भीपाक से मुक्त होने के लिए संघर्ष करती है। भुवन को नीरू नाम की युवती से सहायता मिलती है और वह कुम्भीपाक से मुक्ति पा कर काशी चली जाती है, जहां से उसके सामाजिक सम्मान का मार्ग प्रश्स्त होने लगता है। जब भी वेश्यावृत्ति में संलग्न स्त्रियों की समाज की मुख्यधारा में जुड़ने की बात आती है तो प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच सम्भव है ? नागार्जुन भुवन को समाज में पुनः स्थान दिला कर घोषणा करते दिखायी देते हैं कि यह सम्भव है।
इमरतिया: इमरतिया इसी नाम के उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह सन्यासनी है और जमनिया के मठ में रहती है। सन्यासनी होने के बावजूद उसके भीतर की स्त्री एक सामान्य स्त्री के समान है। उसकी कामभावना मरी नहीं है। वह नाटक देखने में रुचि रखती है, किन्तु मठ में बाबा के द्वारा किए जाने वाले घिनौने कृत्यों का विरोध करती है। मठ के जिस बाबा के प्रति उसके मन में श्रद्धा भावना थी वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। लोग इमरतिया को देवदासी और योगिनी की उपाधि देते हैं। किन्तु वह मठ में होने वाले अनाचार के विरुद्ध चेतना लाने का प्रयास करती है। इमरतिया के रूप में नागार्जुन यह प्रश्न सामने रखते हैं कि क्या मठों के अनाचार में फंसी हुई स्त्रियां कभी मुक्त हो सकती हैं ? इमरतिया का चरित्र एक नायिका के रूप में इस प्रश्न का उत्तर देता है और आश्वस्त कराता है कि यदि नारी चाहे तो वह अनाचार से मुक्त हो सकती है।
पारो: यह ‘पारो’ नामक उपन्यास की नायिका है। उपन्यास का नाम नायिका के नाम पर ही है। पारो एक ऐसी स्त्री की छवि है जो गरीब परिवार में जन्म लेती है। विभिन्न प्रकार के संघर्षों का सामना करती है फिर भी साहस नहीं छोड़ती है। ‘वह लम्बी छरहरी थी। चेहरा भी लम्बा था। हाथ सींक जैसे। देह लक-लक पतली। टांगें संटी जैसी। कैसी गजब की उसकी आंखें थीं।’ बुद्धि चातुर्य में वह बढ़-चढ़ कर थी। छोटी उम्र में ही संस्कृत, व्याकरण, अमरकोश, हितोपदेश कण्ठस्थ कर चुकी थी। रामायण और गीता भी पढ़ चुकी थी। ऐसी बुद्धिमती युवती को बेमेल विवाह के कष्ट झेलने पड़ते हैं। फिर भी वह जूझती रहती है। क्या स्त्री के सहनशक्ति की कोई सीमा होती है ? नागार्जुन पारो का दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए उत्तर देते हैं- ‘नहीं!’
नागार्जुन ने हर तबके की स्त्रीजीवन को सूक्ष्मता से देखा, उनकी विडम्बनाओं का आकलन किया और मुक्ति की संभावनाओं का रास्ता दिखाया। ये सात नायिकाएं स्त्रीजीवन के प्रति बाबा नागार्जुन के दृष्टिकोण को समझने के लिए पर्याप्त हैं।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 02.07.2025 को प्रकाशित)
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