Wednesday, July 2, 2025

चर्चा प्लस | बाबा नागार्जुन का स्त्री विमर्श समझातीं उनकी सात नायिकाएं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
बाबा नागार्जुन का स्त्री विमर्श समझातीं उनकी सात नायिकाएं
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह             
       कवि स्वाभिमान के प्रतीक बाबा नागार्जुन को कविताओं के लिए जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी ही सराहना मिली उनके कथा साहित्य को। नागार्जुन की कथा नायिकाओं में गहरा स्त्रीविमर्श है। उन्होंने समाज में स्त्री की दशा को परख-परख कर लिखा। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जांचा और परखा था। गंाव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहां परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहां स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। सामाजिक अथवा पारिवारिक मुद्दों पर पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी दूषित मानसिकता की भत्र्सना की। बाबा नागार्जुन के स्त्री विमर्श को समझने के लिए की उनकी इन सात नायिकाओं को जानना जरूरी है।  
 


     नागार्जुन मानवीय संवेदना के चितेरे उपन्यासकार थे। उनके कथा साहित्य में जहां एक ओर बिहार के मिथिलांचल के ग्राम्य जीवन, सामाजिक समस्याओं, राजनीतिक आन्दोलनों एवं सांस्कृतिक जीवन की अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है वहीं उनके उपन्यासों में मानवीय दशाओं एवं चरित्रों का अद्भुत खरापन उभर कर सामने आता है। जिस वातावरण से उनके कथा-पात्र आते हैं उसी वातावरण का निर्वहन समूची कथावस्तु-विस्तार में होता चलता है। नागार्जुन के कथा समाज में स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां, वर्ण और जातिगत भेद, सम्पन्न-विपन्न तथा पोषण एवं शोषण के ऐसे पारदर्शी चित्र चित्रित मिलते हैं कि जिनके आर-पार देखते हुए समाज की बुनियादी दशाओं को बखूबी टटोला तथा परखा जा सकता है। कवि स्वाभिमान के प्रतीक बाबा नागार्जुन को कविताओं के लिए जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी ही सराहना मिली उनके कथा साहित्य को। नागार्जुन की कथा नायिकाओं में गहरा स्त्रीविमर्श है। उन्होंने समाज में स्त्री की दशा को परख-परख कर लिखा। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जंाचा और परखा था। गंाव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहंा परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहंा स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। सामाजिक अथवा पारिवारिक मुद्दों पर पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी दूषित मानसिकता की भत्र्सना की। बाबा नागार्जुन के स्त्री विमर्श को समझने के लिए की उनकी इन सात नायिकाओं को जानना जरूरी है। ये नायिकाएं हैं- गौरी, मधुरी, बिसेसरी, चम्पा, भुवन, इमरतिया और पारो।

गौरी: ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास की नायिका है गौरी। गौरी के व्यक्तित्व में विपरीतध्रुवीय दो पक्ष दिखायी देते हैं। एक पक्ष में गौरी एक परम्परागत् गृहस्थ स्त्री के रूप में सामने आती है। जो अधेड़ रोगी पति की मृत्यु के कारण विधवा हो जाती है। अपने दुष्कर्मी देवर जयनाथ की कामवासना की शिकार होती है। उसके जीवन में दुखों का अंत यहीं नहीं होता, गर्भवती गौरी को सामाजिक अपमान सहन करना पड़ता है। अन्य औरतें उसे व्यभिचारिणी और कुलटा कहती हैं। इतना ही नहीं उसका अपना बेटा उमानाथ अपने पिता की बरसी पर जब घर आता है तो वह मां को चरित्रहीन मान कर उसके बाल पकड़ कर खींचता है तथा पैरों से ठोकर मारता है। गौरी एक परम्परागत गृहणी की भांति हर तरह का अपमान एवं मार-पीट सहती रहती है। गौरी का दूसरा पक्ष ठीक विपरीत है। अपने दूसरे पक्ष में वह एक जागरूक स़्त्री के रूप में दिखायी पड़ती है। गांव में मलेरिया फैलने पर मलेरिया की मुफ्त दवा बंाटती है, जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष करने वाली क्रांतिकारी किसान सभा संगठन में अपना दो साल पुराना फटा कम्बल दे कर सहायता करती है तथा अखिल भारतीय सूत प्रतियोगिता में अव्वल आती है। यह जागरूक गौरी अपने सगे पुत्र से मिलने वाला अपमान पी कर अपने भतीजे रतिनाथ पर ममता उंढ़ेलती है। इस प्रकार नागार्जुन ने गौरी के रूप में बताया है कि एक भारतीय स्त्री अपने व्यक्तित्व को अलग-अलग कई खानों में बंाट कर भी संघर्षरत रहती है। वस्तुतः यह संघर्ष ही उसके व्यक्तित्व के तमाम हिस्सों को एक सूत्र में बांधे रहता है।

मधुरी: दूसरी नायिका है मधुरी जो ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह खुरखुन की बड़ी बेटी है। वह देखने में सामान्य युवती है। उसका कद मझोला है। उसका मंगल नाम के युवक से प्रेम संबंध था, किन्तु विवाह के बाद वह इस संबंध को स्थगित कर देना ही उचित समझती है। यही मधुरी मछुआरों के साथ जमींदारी का विरोध करती है, तो उसमें एक ऐसी स्त्री की छवि दिखाई पड़ती है जो समाज के आदर्श रूप की पक्षधर है, जो अन्याय का विरोध करने का साहस रखती है और जिसे निम्न वर्ग की भलाई की चिन्ता है। मधुरी का व्यक्तित्व और चरित्र स्पष्ट दो भागों में बंटा दिखायी देता है। पहला भाग मधुरी के विवाह के पहले का है जिसमें वह एक प्रेयसी एवं अल्हड़ युवती है। जिसके क्रियाकलाप यह सवाल खड़ा करते हैं कि क्या वह कभी किसी संकट का सामना कर सकेगी अथवा किसी संघर्ष को आकार दे सकेगी? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में मधुरी के जीवन का दूसरा पक्ष सामने आता हैं। जिसमें वह जन चेतना की अलख जगाती दिखायी पड़ती है। वह स्वयं पुलिसियान के पिछले छोर पर खड़ी हो कर, दाहिना हाथ घुमा-घुमा कर नारे लगाती है और मछुआरा संघ के लोगों का उत्साहवर्द्धन करती है। इस प्रकार नागार्जुन इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि एक स़्त्री समय और परिस्थिति की आवश्यकता के अनुरूप स्वयं को किस प्रकार ढाल लेती है। यह नागार्जुन के सूक्ष्म आकलन-दृष्टि का कमाल है।

बिसेसरी: बिसेसरी ‘नई पौध’ उपन्यास की प्रमुख नारी पात्र है। यूं तो इस उपन्यास में कोई भी नारी पात्र नायिका के रूप में नहीं है, किन्तु बिसेसरी रूपी पात्र कथानक में नायिका के समान उभरता है। बिसेसरी पिताविहीन गरीब घर की कन्या है। उसका नाना नौ सौ रुपए के बदले उसका बेमेल विवाह कराना चाहता है, जिससे वह व्याकुल हो उठती है। इसी के साथ बिसेसरी में वह स़्त्री प्रकट होती है जो सामंती परम्पराओं, रूढ़ियों और थोथी नैतिकता की बलिवेदी पर स्त्रियों को चढ़ाए जाने की कट्टर विरोधी है। यह चेतनासम्पन्न बिसेसरी गांव के प्रगतिशील युवकों की सहायता से बेमेल विवाह का विरोध करती है।

चम्पा: चम्पा ‘कुम्भीपाक’ उपन्यास की वह प्रमुख नायिका है, जिसका स्थान इसी उपन्यास की दूसरी नायिका भुवन के बराबर है। ‘कुम्भीपाक’ में नागार्जुन ने वेश्यावृत्ति के दलदल में झोंक दी जाने वाली स्त्रियों की लाचारी को बड़ी ही बारीकी से प्रस्तुत किया है। चम्पा एक सुन्दर स्त्री है। वह अपने जीजा की कामवासना का शिकार होती है। चम्पा अपने जीवन की त्रासदी के बारे में बताती हुई कहती है कि ‘जीजा ने मुझे कुलसुम, सरदार जी ने सतवंत कौर और शर्मा जी ने चम्पा  बनाया’। इस प्रकार वह अपने जीवन के कुम्भीपाक होने के तथ्य को एक वाक्य में उजागर कर देती है। चम्पा के जीवन में आने वाले परिवर्तन के द्वारा नागार्जुन ने यह सिद्ध किया है कि यदि घोर अनैतिक कार्यों में लिप्त स्त्री को उचित अवसर मिले तो वह स्वयं को सच्चरित्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित कर सकती है। क्या ऐसा सचमुच सम्भव है ? इसी प्रश्न का उत्तर नागार्जुन चम्पा के रूप में देते हैं।

भुवन: भुवन चम्पा के समकक्ष ‘कुम्भीपाक’ की नायिका है। उसका असली नाम इंदिरा था। वह जिला मुंगेर में पैदा हुई थी। सम्पन्न परिवार की थी। उसका पति पायलेट था, जो विवाह के कुछ माह बाद ही हवाई दुर्घटना में मारा गया। भुवन पति की मृत्यु के समय  चार माह की गर्भवती थी। एक रिश्तेदार चिकित्सा कराने बहाने उसे आसनसोल ले गया और वहीं एक धर्मशाला में अकेली छेाड़ कर भाग गया। इसके बाद भुवन का जीवन उसी कुम्भीपाक में जा समाया, जहां चम्पा रहती थी। जल्दी ही भुवन को इस बात का अनुभव होता है कि जिस दलदल में वह रह रही है उसमें भविष्य नाम की कोई चीज नहीं है। वह कुम्भीपाक से मुक्त होने के लिए संघर्ष करती है। भुवन को नीरू नाम की युवती से सहायता मिलती है और वह कुम्भीपाक से मुक्ति पा कर काशी चली जाती है, जहां से उसके सामाजिक सम्मान का मार्ग प्रश्स्त होने लगता है। जब भी वेश्यावृत्ति में संलग्न स्त्रियों की समाज की मुख्यधारा में जुड़ने की बात आती है तो प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच सम्भव है ? नागार्जुन भुवन को समाज में पुनः स्थान दिला कर घोषणा करते दिखायी देते हैं कि यह सम्भव है।

इमरतिया: इमरतिया इसी नाम के उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह सन्यासनी है और जमनिया के मठ में रहती है। सन्यासनी होने के बावजूद उसके भीतर की स्त्री एक सामान्य स्त्री के समान है। उसकी कामभावना मरी नहीं है। वह नाटक देखने में रुचि रखती है, किन्तु मठ में बाबा के द्वारा किए जाने वाले घिनौने कृत्यों का विरोध करती है। मठ के जिस बाबा के प्रति उसके मन में श्रद्धा भावना थी वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। लोग इमरतिया को देवदासी और योगिनी की उपाधि देते हैं। किन्तु वह मठ में होने वाले अनाचार के विरुद्ध चेतना लाने का प्रयास करती है। इमरतिया के रूप में नागार्जुन यह प्रश्न सामने रखते हैं कि क्या मठों के  अनाचार में फंसी हुई स्त्रियां कभी मुक्त हो सकती हैं ? इमरतिया का चरित्र एक नायिका के रूप में इस प्रश्न का उत्तर देता है और आश्वस्त कराता है कि यदि नारी चाहे तो वह अनाचार से मुक्त हो सकती है।

पारो: यह ‘पारो’ नामक उपन्यास की नायिका है। उपन्यास का नाम नायिका के नाम पर ही है। पारो एक ऐसी स्त्री की छवि है जो गरीब परिवार में जन्म लेती है। विभिन्न प्रकार के संघर्षों का सामना करती है फिर भी साहस नहीं छोड़ती है। ‘वह लम्बी छरहरी थी। चेहरा भी लम्बा था। हाथ सींक जैसे। देह लक-लक पतली। टांगें संटी जैसी। कैसी गजब की उसकी आंखें थीं।’ बुद्धि चातुर्य में वह बढ़-चढ़ कर थी। छोटी उम्र में ही संस्कृत, व्याकरण, अमरकोश, हितोपदेश कण्ठस्थ कर चुकी थी। रामायण और गीता भी पढ़ चुकी थी। ऐसी बुद्धिमती युवती को बेमेल विवाह के कष्ट झेलने पड़ते हैं। फिर भी वह जूझती रहती है। क्या स्त्री के सहनशक्ति की कोई सीमा होती है ? नागार्जुन पारो का दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए उत्तर देते हैं- ‘नहीं!’

नागार्जुन ने हर तबके की स्त्रीजीवन को सूक्ष्मता से देखा, उनकी विडम्बनाओं का आकलन किया और मुक्ति की संभावनाओं का रास्ता दिखाया। ये सात नायिकाएं स्त्रीजीवन के प्रति बाबा नागार्जुन के दृष्टिकोण को समझने के लिए पर्याप्त हैं।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 02.07.2025 को प्रकाशित) 
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पुस्तक समीक्षा | सामाजिक परिवेश की पड़ताल करती रोचक कहानियां | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 02.07.2025 को 'आचरण' में पुस्तक समीक्षा


समीक्षा
सामाजिक परिवेश की पड़ताल करती रोचक कहानियां
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - अभीष्ट
लेखिका - आभा श्रीवास्तव
प्रकाशक - जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य - 350/-
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बुंदेलखंड के रचनाकारों में आभा श्रीवास्तव तेजी से अपना स्थान बनाती जा रही हैं। नाटक, कविताएं और कहानियां तीनों पर समान रूप से वे अपनी कलम चला रही हैं। ‘‘अभीष्ट’’ उनका नवीनतम कहानी संग्रह है। इस संग्रह में कुल सोलह कहानियां हैं। ये सभी कहानियां पाठक के अंतर्मन से सीधा संवाद करती हैं। दरअसल, आभा श्रीवास्तव के पास समाज और सामाजिक संबंधों को देखने, परखने और उनकी मीमांसा करने की एक बारीक दृष्टि है। वे एक ओर स्वस्थ परंपराओं की बात करती हैं तो दूसरी ओर कथित आधुनिक मूल्यों का आकलन करती हैं। एक बेहतरीन संतुलन है उनके वैचारिक आग्रह में। मैं पहले भी आभा श्रीवास्तव जी की कहानियां पढ़ चुकी हूं और उनके लेखन ने मेरे मन को छुआ भी है। क्योंकि वे स्त्री मन और जीवन की उन पर्तों को भी खंगालती हैं जहां प्रथम दृष्टि में दिखने वाला सामान्य, बहुत असमान्य बरामद होता है। इस समाज में एक स्त्री को अपने एक जीवन में विविध रूपों को जीना पड़ता है जो कि आसान नहीं है, फिर भी वह जीती है। स्त्रियों की यही खूबी परिस्थितिजन्य विडंबनाओं के साथ इस संग्रह की कहानियों में मौजूद है।  
           कहानी को कला माना जाता है और इसीलिए विद्वानों के अनुसार कहानी कहना और सुनना मनुष्य की आदिम वृत्ति है। यह कहा जा सकता है कि ‘‘कथा-जगत मनुष्य का रचा हुआ जगत है। एक ऐसा जगत, जिसमें सुख-दुःख, हास-परिहास, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय के निदर्शन के साथ मनुष्यों द्वारा अपने ‘समाजों’ का शिक्षण और मनोरंजन किया जाता रहा है। इस मनोरंजन और शिक्षण की प्रक्रिया में ही वह ‘आलोच्य’ भाव-बोध भी अन्तर्निहित है, जिसे प्रत्येक समाज ने अपने प्रगति और विकास के लिए आवश्यक विचार की तरह आगे बढ़ाया है। इसलिए, इस रचनात्मक शिक्षण और मनोरंजन के अन्तर्गत ही वह न्याय-बुद्धि भी है, जो सजग ढंग से साहित्य को, संस्कृति को, कलाओं को देखती- परखती है। इस देखने-परखने में ही जो दृष्टिकोण विकसित होते हैं, वे समीक्षा, आलोचना और मूल्यांकन के आधार-तर्क बनते हैं।‘‘         
वरिष्ठ कथाकार एवं उपन्यासकार शिवपूजन सहाय कहानी की कलात्मकता उसके लालित्य में अनुभव करते हुए कहते हैं कि “साहित्य का एक प्रमुख और ललित अंग है कहानी। देश के कहानीकारों का वृहत्तर भाग इसी अंग की परिपुष्टि में लगा रहता है। संसार की सभी समृद्ध भाषाओं के साहित्य में कहानी की भरमार है। यद्यपि कहानी-कला कोई सरल कला नहीं, तथापि साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश कर बलबूते की आजमाइश करते हैं, पीछे अभिलषित क्षेत्र में पदार्पण करते हैं। साहित्य के ऐसे महत्वपूर्ण अंग को अपनी परिभाषाओं की कमी नहीं है, किन्तु परिभाषाओं के सम्बन्ध में आलोचकों में मतभेद है। एक अंग्रेज विद्वान् का मत है कि श्कहानी परम्परा-संबद्ध महत्त्वपूर्ण घटनाओं का क्रम है जो किसी परिणाम पर पहुंचता है।”
      ‘‘अभीष्ट’’ कहानी स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता को परिभाषित करती है। अभीष्ट का अर्थ होता है अभिलाषा की गई वस्तु अथवा मनोरथ। स्त्री और पुरुष परस्पर एक-दूसरे से क्या चाहते हैं? मात्र शारीरिक सुख अथवा इससे आगे एक स्वस्थ मानवीय मित्रता? क्या स्त्री-पुरुष की मित्रता के बीच दैहिक अनिवार्यता ही अंतिम सत्य है? या फिर विश्वास पर आधारित स्वस्थ मित्रता के धरातल पर स्त्री-पुरुष परस्पर निकट सहयोगी हो सकते हैं? दोनों ही जटिल प्रश्न हैं। संकीर्ण विचार यही कहेंगे कि स्त्री और पुरुष में विदेह मित्रता भला कहां संभव है? किंतु इस कहानी को पढ़ने के बाद संभावनाओं द्वार स्वतः खुलते चले जाएंगे। कहानी में आया यह वैचारिक द्वंद्व देखिए -”उस दिन ग्रुप में भी आये दिन घटित घटनाओं को लेकर बहुतायत में पुरुषों पर चर्चा हुई। स्त्री पुरुष की मित्रता असंभव है। वह केवल यौनाकर्षण पर टिका है। पुरुष पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यद्यपि वह भी इन कथ्यो की समर्थक है। किंतु यह भी मानना होगा कि सभी एक से नहीं होते। हां, आँख बंद कर विश्वास नहीं किया जा सकता। मर्यादायें, सकारात्मकता, रचनात्मकता का बोध आचार विचार का हिस्सा होना अनिवार्य है।”
      “अभीष्ट” यदि किसी रिश्ते को संयम से जिया जाए तो उसमें देह आड़े नहीं आती है। स्त्री विमर्श रचती एक सुंदर कहानी है यह, जो सुधि और अमर के पारस्परिक मित्रता के हर कोण टटोलती हुई आगे बढ़ती है। अकेली स्त्री से पुरुषों की अपेक्षाएं, पुरुषों की पत्नियों का भय और मानसिक संघर्ष की अनवरत स्थितियां- इन सभी बिन्दुओं को ले कर चलती है यह कहानी।
       संग्रह की दूसरी कहानी ‘‘शुद्विपात्र’’ संबंधों की विचित्रताओं की कहानी है। एक स्त्री का प्रेमी जो किसी और का पति बन चुका है, उस स्त्री से जन्मे अपने पुत्र पर प्रेम उंडेलते हुए उसे अपना कहना चाहता है। यह देख कर उस स्त्री के मन पर क्या बीतेगी, इसकी परवाह नहीं है उसे। अतः एक बार फिर निर्णय उस स्त्री को ही लेना पड़ता है कि पिता-पुत्र के उस बेनाम रिश्ते को स्वीकृति दे अथवा न दे। यह एक विकट मनोउद्वेलन की कहानी है। कहानी में एक प्रवाह है जो संवादों के रूप में पाठक को बंाधे रखेगा।
‘‘उस दिन’’ कहानी बालिका शिक्षा की अनिवार्यता को सामने रखती है। इस कहानी में उन प्रश्नों  और परिस्थितियों को स्वाभाविक रूप से सामने रखा गया है जिनके चलते बालिका शिक्षा पिछड़ती गई है। एक पिता अथवा अभिभावक इस बात को ले कर सशंकित रहता है कि जिस स्कूल में वह अपनी बेटी का दाखिला कराने जा रहा है, वह उसकी बेटी के लिए सुरक्षित एवं सुविधाजनक है कि नहीं। ‘‘झूठ की दीवार’’ कहानी कच्ची आयु के रूमानियत भरे सपनों के सच को बयान करती है। युवा होती लड़की के सपनों में राजकुमार का प्रवेश एक बायोलाजिकल और केमिकल प्रक्रिया है। किन्तु राजकुमार जब सपनों से निकल कर लड़की के जीवन में प्रवेश करता है तो यह समझना कठिन हो जाता है कि वह राजकुमार से दानव अथवा छलिया में कब परिवर्तित हो गया। जब तक राजकुमार का असली चेहरा सामने आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
        ‘‘मोबाईल का मेला’’ एक छोटी मगर बेहद सार्थक कहानी है। यह समय इलेक्ट््रानिक्स का है। इंटरनेट और मोबाईल का मकड़जाल कब हर पल को ‘हैक’ कर लेता है, यह मोबाईल धारक समझ ही नहीं पाता है। मोबाईल का मेला अपनी चकाचैंध से व्यक्ति के मानस को अपना गुलाम बना लेता है। क्या इस मेले के मोह से बाहर निकला जा सकता है? यही प्रश्न उठाते हुए, उसका हल सुझाती है यह कहानी। यह एक समयामयिक समस्या की कहानी है।
       इसी संग्रह में एक कहानी है ‘‘झटका भूकंप सा’’। इसमें गहरा परिवार विमर्श है। कहा गया है कि पति और पत्नी परिवार रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं। अब अगर दोनों में से एक पहिया बेमेल निकले तो परिवार की गाड़ी झटके खाने लगती है और कभी-कभी उन झटकों की तीव्रता भूकंप के झटकों के समान होती है। यदि पति क्रूर हो सकता है तो पत्नी भी स्वार्थी हो सकती है। ऐसी दशा में अकारण प्रताड़ित होते हैं परिवार के अन्य सदस्य।
       ‘‘जर, जोरू, जमीन’’ कहानी में उन स्त्रियों पर कटाक्ष किया गया है जो पारिवारिक कलह एवं बंटवारे का कारण बनती हैं। एक सीधे-साधे परिवार में तू-तड़ाक वाली लालची बहू के आते ही परिवार की शांति एवं सौहाद्र्य भंग हो जाता है। सारी संपत्ति पर अधिकार पाने की लालसा में यदि बहू अभद्रता पर उतर आए तो परिवार का विखंडन सुनिश्चित होता है। यह कहानी उस समस्या की ओर संकेत करती है, जो आज किसी न किसी रूप में हर दूसरे या तीसरे घर कर मसला बनती जा रही है। एकल परिवार के चलन और दिखावे की प्रवृति ने कई स्त्रियों को भी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के बजाए पैसे के प्रति समर्पिता बना दिया है। यह कहानी भी एक विशेष परिवार विमर्श खड़ा करती है।
       लेखिका आभा श्रीवास्तव की भाषा और शिल्प सादगी पूर्ण है उनमें कहीं भी अलंकारिकता का आडंबर नहीं है वे अपनी बात सीधे-सीधे लिखते हैं। जैसे उनकी कहानी “झूठ की दीवार” का यह अंश देखिए -
“उम्र कोई अधिक नहीं, षोडसी भी नही। पन्द्रह वर्ष कुछ माह। पांचवी पास, पुस्तक पढ लेती थी, होशियार थी। लेकिन पिता ने पढ़ाई छुड़वा दी।
‘‘जा! माँ के साथ तू भी घर-घर काम कर। अपने घर की दाल रोटी चलेगी।’’
माँ को भी उसकी पढ़ाई में कोई रूचि नहीं थी। घर का छप्पर ठीक करती हुई बोली
‘‘हम लोग ऐसे ही पैदा होते हैं, ऐसे ही जी लेते हैं।’’
वह भी मान गई। माँ के साथ चली जाती। सुंदर सलोना राजकुमार दिख गया। सूरत से सुगढ़ सलोना था। तो अनपढ़ पर अपने लिये थोड़ा बहुत कमा लेता था। बस पड गई प्यार में। और घर में सबकी रजामंदी से ब्याह भी हो गया, तीन वर्ष भर में। ऐसी कोई अड़चन भी नही आई।’’                                                                                                                        
          समीक्षा में ही सभी कहानियों पर पृथक-पृथक चर्चा संग्रह की कहानियों के प्रति सस्पेंस को चोट पहुंचा सकती है। अतः सभी कहानियों को पाठकों द्वारा आद्योपांत पढ़ा जाना चाहिए। उपरोक्त कुछ बानगी मात्र इसलिए कि कहानियों के तेवर और स्वभाव की झलक देखी जा सके। आभा श्रीवास्तव जी की कहानियां विचारों को आंदोलित करती हैं, सोचने को विवश करती हैं और सामाजिक आत्मावलोकन का भी आग्रह करती हैं। इन कहानियों में स्त्री जीवन के साथ किशोर मन की उलझनों को भी रखा गया है। सबसे विशेष बात यह है कि लेखिका ने किसी भी कहानी में अपने निर्णय नहीं सुनाए हैं। उन्होंने पात्रों और उनकी परिस्थितियों का वर्णन करते हुए उन निर्णयों को घोषित किया है जो स्वाभाविक हैं, उचित हैं और स्वतः उभर कर सामने आते हैं। इसीलिए इन कहानियों में बनावटीपन नहीं है। इनका मौलिक स्वर स्वतः मुखर है। इन कहानियों में मनोभावों एवं सरोकारों का इन्द्रधनुषी रंग है। राग, विराग, कटाक्ष, प्रहसन, दायित्वबोध आदि सभी कुछ बड़े ही सहज रूप से शब्दों में समाया हुआ है। शब्द और शैली भी ऐसी कि मानो कोई अपनी स्मृतियों बातचीत में साझा कर रहा हो।
          आभा श्रीवास्तव जी की भाषाई पकड़ अच्छी है। उन्होंने सरल, आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है। पात्रानुसार भाषा कहानी को जीवंत बनाती है। यह कहानी संग्रह उस परिवेश से परिचित कराता है जिसमें हर व्यक्ति रहता है। मुझे विश्वास है कि संग्रह की सभी कहानियां पाठकों को पसंद आएंगी।     
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